– रघुराज सिंह कर्मयोगी
गीत
क्रोध बुरा है भाभी जग में, इसको हावी मत होने दो।
क्रोध महल से चली चलो अब, भैया को मत रोने दो।
क्रोध पतन का रक्तबीज है, पल-पल रंग बदलता है।
सागर तक ठंडे हो जाते, जब चक्र सुदर्शन चलता है।
क्रोधित हुई केकई रानी, तिलक राम का रोका था।
पिता की गोद में बैठा था ध्रुव, छोटी मां ने टोका था।
क्रोध में भर कर बोली सीता, सोने का मृग लाने को।
लंकेश्वर धर रूप संत का, आया था सीय चुराने को।
दशरथ मांझी ने पर्वत को, खंडित कर काटा था।
सड़क बनाई अस्पताल तक, भाटा ही भाटा था।
बीमारी से मर गई भार्या, मारग में दम तोड़ दिया।
चरणों में पाषाण झुक गया, चूरा चूरा दर्प किया।
रत्नावली तमतमाई थी, तुलसी ने संज्ञान लिया।
मानस ग्रंथ लिखा संत ने, जग में एक प्रमाण दिया।
क्रोधित होकर, महादेव ने, बेटे का सिर काट दिया।
परशुराम ने माता का सिर, फरशे से अलग किया।
क्रोध में हिंसा छिपी हुई है, प्रेम वाण संधान करो।
धन समृद्धि आए घर में, आपस में मत लड़ो मरो।
देवताओं का वास रहेगा, मम्मी पापा सुख पाएंगे।
अपनों से सम्मान मिलेगा, बूढ़े बच्चे हंस जाएंगे।
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