– नरेंद्र कौर छाबड़ा
पिछले तीन वर्षों से घुटनों के दर्द से बेहाल कामिनी जी आखिर ऑपरेशन के लिए तैयार हो गईं। बेटा बहू सुदूर प्रदेश में कार्यरत हैं। उनके शहर से वहां पहुंचने में दो दिन का समय लगता था । अब तो हवाई जहाज के कारण सुविधा हो गई थी। फिर भी बदल कर आने में दस घंटे लग जाते थे।
बेटे को जब यह सूचना दी तो वह बोला –”मां, आप ऑपरेशन करा लो । आजकल तो अस्पताल में इतनी बढ़िया संभाल की जाती है कि घर के सदस्य की जरूरत ही नहीं पड़ती। मुझे छुट्टी के लिए आवेदन करना पड़ेगा । जैसे ही छुट्टी मिलेगी आ जाऊंगा और आपका मेडिक्लेम तो किया ही है तो पैसों की भी कोई परेशानी नहीं है। जरूरत पड़ी तो मैं देख लूंगा आप अपना ध्यान रखना”।“
अमेरिका में बसी बेटी को जब कामिनी ने खबर दी तो वह बोली—” मां, मैं पहुंच जाऊंगी। आज ही टिकट करवा लेती हूं। आप चिंता मत करो…”
“पर बेटा, तेरे बच्चे अभी छोटे हैं दामाद जी उन्हें कैसे संभालेंगे ?”
“”मां, पंद्रह बीस दिनों की बात है। बच्चे इतने छोटे भी नहीं। आठ दस साल के हो चुके हैं । राकेश ठीक से संभाल लेंगे । सारी उम्र तुम हम बच्चों के लिए खटती रही हो। अब हमारी बारी है तुम्हारी थोड़ी सी सेवा करने की…”
कामिनी की आंखें नम हो गई। ऑपरेशन के बाद जब कामिनी को कमरे में लाया गया तो सामने बेटी खड़ी थी ।
“ठीक हो गई ना मां…” बड़े प्यार से मां के सिरहाने खड़े होकर बेटी बोली। दर्द में भी कामिनी मुस्कुरादी।
तभी बेटे का फोन आया—”मां, कैसी हो ? अब तो दीदी आ गई है । कोई फिक्र नहीं अच्छे से संभाल लेंगी। मेरी चिंता भी खत्म हो गई । जैसे ही छुट्टी मिलेगी पहुंचने की कोशिश करूंगा…”
कामिनी की आंखें फिर से नम हो गई थीं जिसमें ऑपरेशन के दर्द के साथ – साथ बेटे की आधुनिक व्यवहार कुशलता का दंश भी शामिल था।