– डॉ. सिद्धनाथ सागर
पंख लिए ख्वाबों के
सखियों संग चहचहाती
मीठी धूप- सी खिलखिलाती
बल खाती
अपने धुन में गुनगुनाती
पढ़ने जाती
वह मासूम लड़की
नहीं लौटी अपने घर
दूर तक फैली
सशंकित हवाओं ने
खंगाले
चीन्हे-अनचीन्हे
सब ठौर
घने कुहरे में लिपटी
हाथ लगी
सुनसान अंधेरी सड़क किनारे
उस परी की
बजबजाती लाश
रंगीन परदे के
हर चैनल पर
पल- पल
बेपर्द होती
उसकी चिथड़ी लाश
पुष्टि की
पोस्टमार्टम की
पारदर्शी रपट ने
मौत दौड़ती सड़कों पर
जलते पेट्रोल की गंध ने
नहीं रौंदा था उसे
महानगर के भद्र जनों ने
साथ उसके
किया था शिष्टाचार
शिष्टाचार से
तुम बौखलाए क्यों हो
जब कि मेरे मुहल्ले के लोग
पगुरा रहे हैं
अपनी- अपनी माँद में
लगे हैं वे
पता करने
वह क्या थी
शूद्र? वैश्य? राजपूत? ब्राह्मण?
हिंदू? मुसलमान? सिक्ख-ईसाई?
गरीब परिवार का मामला है भाई
शिष्टाचार से
तुम बौखलाए क्यों हो
जब कि एक सफेदपोश
अभी कहते गुजर गया
कि लोग क्यों खिलखिला रहे हैं
शिष्टाचार से
तुम बौखलाए क्यों हो
जब कि आधी आबादी की
खास हिफाजत में
लगातार लगाती गश्त
चुस्त- दुरुस्त खाकी वर्दी
सौंप देती खुद को
क्या मिला संघर्ष से
जान तो बच जाती
‘खास मुलाकात ‘ में
तैरती मुस्कान
बटोर रही थी सुर्खियाँ
सवाल थी
वह लड़की सवाल थी
एक बड़ा वजनी सवाल
हमारे पवित्र संबंधों से जुड़ी
वह लड़की
और खून से लथपथ
उसकी बदबूदार लाश
अभी भी
बड़ा सवाल है
मुझे बताओ
इस गुस्से में
तुम ही
मेरे साथ क्यों हो भाई
लड़की को छोड़ो
चलो देखें
वे शिष्ट जीव कहाँ हैं
किन पेड़ों से लिपटी हैं
वे अमरलत्तियाँ
नहीं तो
और भी हैं लड़कियाँ
वे सब
चींटियों की कतार- सी
लाशों का सिलसिला बन जायेंगी
इस घुमावदार सिलसिले को
तोड़ना ही होगा दोस्त
तभी
सपनों से सराबोर
वह लड़की
स्कूल से घर लौट पाएगी
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