– वेद मित्र शुक्ल
सूरज से मिलना है तो मेरे गाँव चलो।
दिल्ली तो है इक महानगर, मिलना मुश्किल।
कंक्रीट उगाते लोग यहाँ हैं पत्थर-दिल।
इन बॉलकनी-दड़बों से खुद को नहीं छलो।
है धूप किराए पर, मिलने को दोस्त! यहाँ।
नकली क्लोरोफिल वाले पौधे सजे हुए।
छूने से लगते हैं जैसे हो ये खाल मुए।
इन्सां भी कैसे होंगे, ऐसा हाल जहाँ।
जो गाँव बसें, भगवान करे, वो नहीं बनें।
हाँ, नहीं बनें, विकसित भारत के महानगर।
हों खेत-पात औ हवा बहे बस सरर – सरर।
हो धूप खूब औ बाग-बगीचे रहे तनें।