– केशव शरण
वहीं बिछाओ गमछा
जहाँ पेड़ खड़े हैं
महुआ के
छाँह बिछाये
वहीं बिछाओ गमछा
सूखने दो पसीना
निकलने दो थकान
लगने दो सब
अच्छा-अच्छा !
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लौटेगी
यही बर्फ़ीली हवा है
जो आयी थी
सन्नाटा और शीत लेकर
यही अब जायेगी
सन्नाटा और शीत लेकर
यही फिर लौटेगी
एक नये रूप में
वसंत और गीत लेकर
हल्की गरम धूप में
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जब सन्नाटा मुझे पीट रहा था
कहाँ थे
ये शब्द
प्रसन्न, पुलकित कर देने वाले
अपने प्यार से
मुझे बचा लेने वाले
जब सन्नाटा
मुझे पीट रहा था
दम-दम
और तमाशाई था आलम
अचानक
आकाश और नदी पार से
ये आये
रस और माधुर्य पगे
और मैं चहक उठा
लहक उठा
इनके आ जाने-भर से
ये निकले हैं
जिसके अधर से
मन व्यग्र हो रहा है
मिलने को
उस प्रिय प्रवर से
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सुखद, सफल
पहाड़ को देखकर
मन स्थिर हुआ
स्थिर मन उल्लसित हुआ
जंगल की तरह वसंत रंजित
वसंत रंजित मन
निर्झर की तरह
उमड़-उछल बहा
अद्भुत रूप से
सुखद, सफल रहा
हमारा भ्रमण
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मेरी नज़र मेरा ध्यान
मेरी नज़र
नदी के सौंदर्य-बहाव पर है
मुझे कोई मतलब नहीं
मेरे आस-पास क्या हो रहा है
प्यार
ग़ुस्सा
सौदा
श्राद्ध
मेरा ध्यान
एक ऐसे ही सौंदर्य-रचाव पर है
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- वाराणसी
9415295137