पुस्तक : अब न अंगूठा छाप
विधा : लघुकथा संग्रह
लेखक : सुमन कुमार
पेज : 48
मूल्य : 100 रुपये
प्रकाशक : कौस्तुभ प्रकाशन
समीक्षक : नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’
विज्ञान के छात्र सुमन कुमार का पहला लघुकथा संग्रह ‘अब न अंगूठा छाप’ हस्तगत हुआ । इसमें छत्तीस लघुकथाएं हैं, जो हमारे आस – पास के वातावरण, देश काल की परिधि और समाज की कुरूप सचाई से पर्दा उठाती है ।
इस संग्रह पर मंत्रिमंडल सचिवालय राजभाषा विभाग बिहार सरकार से अनुदान राशि प्राप्त है । यह सुखद बात है कि राजभाषा के अधिकारियों ने इस पुस्तक की पांडुलिपि का चयन कर नवोदित प्रतिभा को मंच प्रदान किया है ।
लघुकथा का अर्थ ही है लघु यानि छोटा । अपनी बात कम से कम शब्दों में कह दी जाए । जब तक बात समझी जाए तब तक तीर की भांति वह बात हृदय को भेदती चली जाए, इस बात को सुमन कुमार भली भांति जानते हैं ।
‘अब न अंगूठा छाप’ मेँ भगवती प्रसाद द्विवेदी जी का आशीर्वचन और डॉ. वीरेंद्र भारद्वाज जी के द्वारा भूमिका लिखी गई है ।
इधर कुछ वर्षों से लघुकथा विधा को अपनी बपौती समझ कुछ तथाकथित महिला और पुरुष लेखक इसके मुखिया बन पूरे सोशल मीडिया और यत्र – तत्र अपना प्रचार – प्रसार जोर शोर से कर रहे हैं, इस पर भगवती जी ने सही सवाल उठाया है । लघुकथा की मुखियागिरी करने वालों को हम सभी लघुकथाकार को मिलकर उनका बहिष्कार करना चाहिए । डॉ. वीरेंद्र भारद्वाज जी ने अपनी भूमिका मेँ लघुकथा की उत्पति पर विशेष प्रकाश डाला है जिसे सहेजने की जरूरत है ।
अब न अंगूठा छाप पहली ही शीर्षक लघुकथा है । पहले के सेठ, साहूकार या सरकारी कर्मचारी अनपढ़ लोगों से गलत कीमतों पर अंगूठा लगाकर उनका आर्थिक शोषण किया करते थे, मगर इस कथा की वृद्ध पात्र अब अंगूठा नहीं लगाती बल्कि अपना हस्ताक्षर करती है । आर्थिक शोषण करने वालों के लिए एक नया संदेश वृद्ध माता देती है ।
( सुमन कुमार )
विश्वास लघुकथा मेँ पिता के द्वारा बेटी की शिक्षा पर ध्यान दिया जा रहा है, भले ही बिटिया का सिलेक्शन नहीं होता मगर पिता का उस पर विश्वास है और यही विश्वास बिटिया के लिए वरदान है ।
लघुकथा ‘बूढ़े होते हाथ’ मेँ बाल श्रम की झलक है । अब बहू भी अपने ससुराल वालों के प्रति नरम व्यवहार रखती है इसका उद्धारण ‘बेटे होकर’ लघुकथा में मिल रही है ।
बिल्डिंग मेँ रहने वाले इंसान बरसात के दिनों मेँ गरमा गरम चाय – पकौड़ों का आनंद लेते हुए कहते हैं – और बरसों भगवान !
झोपड़ी मेँ रहने वाले इंसान छप्पर से चू रहे पानी मेँ भूखे प्यासे प्रार्थना करते हैं – अब छूटो भगवान ! तीन शब्दों मेँ भरी क्या खूब मन की संवेदना गहराई तक छूती है हृदय को ! ‘फर्क की संवेदना’ लघुकथा में यह बात दृष्टिगोचर हो रही है।
‘गिरगिट’ लघुकथा मेँ नेता का रंग बदलना साफ दिखाई दे रहा है । नेता खुद अपने घर में बाल श्रमिक रखेंगे, मगर बाल दिवस पर बाल श्रम न करवाने का नारा जोर – शोर से लगाते हैं ।
सोशल मीडिया पर जिस तरह किसी युवती का वीडियो शेयर कर वायरल किया जाता है, यह उतना ही बड़ा पाप है जितना दुष्कर्म करना । ‘उधम’ लघुकथा में ऐसे वीडियो क्लिप को नायक के द्वारा न देखना ही समाज को एक उत्तम संदेश दे रहा है, जिसे हम सभी समाजिक लोगों को भी इस पर अमल करना चाहिए
। लघुकथा ‘कलाकार की कीमत’ मेँ एक कलाकार की वाजिब कीमत नहीं मिलती फिर भी उसकी कला बरकरार रहती है ।
बाप बड़ा न भैया बड़ा सबसे बड़ा रुपैया इस बात को पूर्ण सत्य करती हुई लघुकथा है ‘कागज बोल उठा’ जहां बहन भाई की ही चोरी पकड़ती है ।
कहीं भी नंगी लाश देख हम इंसान सिर्फ उसका फ़ोटो ही खींचने में रहते हैं, मगर नंगी लाश को सभी की नजरों से बचाने के लिए कभी – कभी मैली धोती ही काम आती है । लघुकथा ‘धोती’ में यह बात बखूबी बयान है ।
कुल मिलकर अब न अंगूठा छाप की सभी लघुकथाएं हमारे समाज के कुरूप चेहरे से पर्दा उठा उसकी सच्ची तस्वीर हमारी आँखों के समक्ष ब्याँ कर रही है ।
हर लेखक का यह कर्तव्य भी है समाज की सच्चाई को उजागर करना इसमें सुमन कुमार सफल हुए हैं ।
( नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’ )
लेखक का गृह नगर बेगूसराय हैं अतः वहाँ की मैथिली भाषा की सुगंध उनकी लघुकथाओं में खूब हुआ है । कम शब्दों मेँ ही सुमन की कलम से फूल भी निकले हैं और कांटे भी ।
इंसान दुख या खुशी के भावुक क्षणों मेँ जब रहता है तो भावतिरेक मेँ उसका गला रुध जाता है, कंठ से पूरी बात नहीं निकलती । सुमन की लघुकथा मेँ समान्य जगह भी बात अधूरी रह गई है, वाक्य पूरे नहीं है । इस तरफ उन्हें ध्यान देना होगा ।
आशा है सुमन कुमार के लघुकथा संग्रह अब न अंगूठा छाप पर वरिष्ठ लघुकथाकार अपनी दृष्टि डालेंगे और साहित्य के बढ़ते इस नव कदम का स्वागत करेंगे ।
मेरी अनंत शुभकामनाएं नव लेखक सुमन कुमार जी को !