– सिद्धेश्वर
बुढ़ापे की लाठी
अस्पताल के बेड नंबर 37 के बूढ़े मरीज की स्थिति को देख नर्स सोनी परेशान हो गई थी l आज शाम को उसकी आंखों का ऑपरेशन है और स्थिति यह है कि उसके साथ कोई भी परिजन नहीं । वह खीजते हुए 70 वर्षीय बूढ़े मरीज शंकर की आंख में इंजेक्शन लगाने के बाद बोली –
” बाबा ! आज ही आपकी आंखों का ऑपरेशन है l कम से कम एक परिजन तो आपके साथ होना चाहिए ? आँख के ऑपरेशन के बाद कौन आप की दवा- दारू, देख -रेख बढ़िया से कर सकेगा ?”
” सिस्टर, इस बुढ़ापे में सगे भी बेगाने हो जाते हैं l एक बेटी थी हमारी, मगर उसकी शादी ऐसे घर में हुई, जिसका पति हमारे घर उसे जल्दी आने ही नहीं देता l ”
“आपकी पत्नी तो होगी ?”
“हां, मेरी पत्नी ममता ही तो है, जो हमारे साथ हमारे गांव में रहती है l उसके भाई की शादी थी, वहां जाते ही वह बीमार पड़ गई l”
“बेटा रहता तो, वह जरूर आपके पास दौड़ा चला आता l इसलिए कहते हैं, दर्जनों बेटियां हो जाएँ, मगर उससे क्या ? एक बेटा भी साथ हो, तो वह बुढ़ापे की लाठी बन जाता है !”
“बेटे की बात मत कहो सिस्टर! ऐसा बेटा होने से ज्यादा बेहतर है निर्वंश होना। आज के जमाने में बेटा, जो शादी-ब्याह होते ही जमाने के रंग में रंग जाता है और अपनी प्राइवेसी बनाए रखने के लिए, अपने बूढ़े -मां बाप को अपने गांव पर ठिकाने लगा आता है l सुबह – शाम अपने बेटे – बहू की कड़वी बातें सुनने से अच्छा है उससे दूर, अकेले जीवन यापन करना।”
अपनी आंखों में छलकते आंसुओं को पोंछते हुए उसने आगे कहा-
“बेटे ने तो मोबाइल फोन पर ही अपने नहीं आने का बहाना बना दिया कि ऑफिस से छुट्टी नहीं मिल रही है ! मैं पैसे भेज रहा हूं पापा जी, मम्मी के साथ हॉस्पिटल जाकर अपनी आँखों का ऑपरेशन करवा लीजिएगा। प्लीज पापा जी, सॉरी.. !”
मोबाइल फोन पर बेटे की आवाज अब भी मेरे कानों में गूंज रही है सिस्टर…!”
नर्स और मरीज के बीच अभी वार्ता चल ही रही थी कि उस बूढ़े की पत्नी दौड़ती हुई आई और सामने खड़ी हो गयी-
“किस बात की चिंता करते हो जी ? तबीयत बिल्कुल ठीक हो गई है मेरी ! आपकी आंखों के ऑपरेशन की खबर पाते ही मैं अपने मायके से दौड़ी चली आ रही हूं l बेटा नहीं है तो क्या, हम दोनों एक – दूसरे के लिए बुढ़ापे की लाठी है न !”
पता : –
- सिद्धेश्वर,”सिद्धेश् सदन” अवसर प्रकाशन, (किड्स कार्मल स्कूल के बाएं) / द्वारिकापुरी रोड नंबर:०2, पोस्ट: बीएचसी, हनुमाननगर ,कंकड़बाग ,पटना 800026 (बिहार )मोबाइल :92347 60365 ईमेल:[email protected]
– नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’
बुढ़ापे की लाठी
“पापा, हम दोनों भाइयों की छुट्टी नहीं मिल रही है, इसलिए हम आपकी देखभाल के लिए नहीं आ पाएंगे ।” बड़े ने कहा ।
“बेटा, एक दिन के लिए भी तो आ जाओ ।” बिनोद बिस्तर पर लेटे – लेटे ही फोन पर गिड़गिड़ाए ।
छोटे बेटे की आवाज आई, “पापा, चार सौ किलोमीटर दूर एक दिन मेँ आकर लौटना मुश्किल है । वैसे एक दिन मेँ हम आपकी कौन सी देखभाल कर लेंगे ? पास मेँ मम्मी हैं ही वह आपको अच्छे से संभाल लेंगी । मम्मी को फोन दीजिए ।”
बिनोद ने फोन बिस्तर पर पटक दिया । दवा लेकर खड़ी जयंती ने फोन कानों से लगाया, “बोलो…”
“बोलना क्या है मम्मी, पापा को दोनों बेटों के मोह से बाहर निकलना होगा । हम दोनों भाइयों को बचपन से मालूम है कि जो अधिकार – सम्मान आपको पापा से मिलना चाहिए वह नहीं मिला आप पर ‘सौतेली माँ’ का ठप्पा लगा रहा । हम भाई जानबूझकर पापा को देखने नहीं आ रहे हैं ताकि वह आपका महत्त्व समझे । बुढ़ापे या हारी बीमारी में बेटा बुढ़ापे की लाठी नहीं बन रहा है, बल्कि पत्नी बन रही है । पति – पत्नी एक दूसरे की लाठी बन रहे हैं यही सत्य है । पापा जितनी जल्दी यह बात समझ जाएं उतना ही अच्छा । हम बेटे बहू को भलिभांति मालूम है कि मेरे पापा की मजबूत लाठी आप ही हैं । बस, उन्हें एहसास करवाना है फोन रखता हूँ । प्रणाम माँ ।”
मुंह फेर कर सोये पति के बेटे की बात सुनकर जयंती की आँखें छलक पड़ीं ।
- 7256885441 / [email protected]
( नोट : प्रयोग के तौर पर एक ही विषय पर दो लघुकथाएं दो लेखकों (सिद्धेश्वर जी और नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’ ) के द्वारा लिखी गई है अपनी मौलिकता और अलग परिवेश के साथ । पाठकों से आग्रह है कृपया दोनों लघुकथाओं पर अपनी प्रतिक्रिया दें ।