– जयप्रकाश श्रीवास्तव
हवा कुछ ऐसी चली है
खिलखिलाने लगीं हैं अमराइयाँ।
माघ की ख़ुशबू
सोंधापन लिए है।
चटकती – सी धूप
सर्दी भंग पिए है।
रात छोटी लग रही है
नापने दिन लगे हैं गहराइयाँ।
नदी की सिकुड़न
ठंडे पाँव लेकर।
लग गई हैं घाट
सारी नाव चलकर।
रेत पर मेले लगे हैं
बड़ी होने लगीं हैं परछाइयाँ।
खेत पीले मन
सरसों हँस रही है।
और अलसी बीच
गेंहूँ फँस रही है।
खेत बासंती हुए हैं
बज रहीं हैं गाँव में शहनाइयाँ।