– मंजू कुशवाहा
कविता
न जाने कितनी लड़कियां…
दर्द से उठी चित्कार को खुद में घुट कर समेट लेती हैं
तो कुछ…
साँसों के बंधन से ही खुद को मुक्त कर लेती हैं।
मीडिया के धुंधले कैमरे से…
कहीं अर्धनग्न पड़ी औंधे मुँह, कहीं लटकी फंदे से,
कहीं झुलसी तेजाब से, तो कहीं बहती नाले में…
दिख जाती उसकी देह।
मुद्दा न्याय का नहीं होता, मुद्दा होता है-
जाति का, धर्म का, मौलवी का, पुजारी का,
नेता और महात्मा का।
इसके बाद…
पहले ही हवसी हाथों से गूँद चुकी देह और आत्मा की
सेकीं जाती हैं तमाशे कि रोटियाँ
सियासत के तवे पर
मुद्दे की आंच में…।
यथार्थ से परिपूर्ण रचना। बहुत बहुत बधाई