– मीनाक्षी सिंह
आज एक बार फिर चल पड़ी थी उसी रास्ते पर, जिसे दस साल पहले पीछे छोड़ते हुए… सहूलियत से हर सुख-सुविधा पा लेने की इच्छा की कैदी बनकर संदीप संग फेरे लेने को तैयार हो गई थी।
रोहन आवाज देता ही रह गया, “श्वेता, मुझे कुछ वक्त और दो… मैं आर्थिक रूप से आत्मनिर्भर होते ही तुम्हारे संग अपनी नयी जिंदगी की शुरुआत करूंगा।”
‘’… लेकिन, मैं अब और प्रतीक्षा नहीं कर सकती, रोहन… संदीप एक स्थापित डॉक्टर है और मेरे पेरेंट्स की पसंद है… पापा-मम्मी से अब मैं इस शादी को कैंसिल करने को नहीं कह पाऊंगी। संदीप और उसके पेरेंट्स मुझसे मिल चुके हैं और दोनों पक्ष की रजामंदी के बाद ही यह शादी तय हुई है, अब इसे रोका नहीं जा सकता।’’
‘’रुक जाओ श्वेता, प्लीज… मेरी खातिर’’, पहली बार उसने रोहन की आंखों में आंसू देखे थे, उसके भीतर अब उन आंसुओं का सामना करने की ताकत नहीं थी और वह वहाँ से अपने अगले सफर की ओर बढ़ गई।
एक महीने बाद डॉक्टर संदीप संग फेरे लेकर मिसेज श्वेता संदीप बनकर, एक बैंक क्लर्क की बेटी कई नौकर-चाकर वाले बंगले में आ गई।
आर्थिक संपन्नता का खुला आकाश मन को एक साथ ढे़रों पंख लगा देता है और इंसान उन पंखों को फैलाकर उड़ते वक्त यह भूल जाता है कि जिंदगी जीने के लिए ठोस धरातल का भी अपना महत्त्व है। जब तक इस अनिवार्यता का उसे भान होता है, तब तक वह वक्त काफी पीछे खिसक चुका होता है और अगर कभी जिंदगी मेहरबान होकर कोई चांस दे भी दे… तो हवा भरे अतीत पर टिका वर्तमान वाला रिश्ता, इस मानवीय जिंदगी को जी पाने के लिए एक बहाने के प्रयोग सा बनकर रह जाता है।
श्वेता ने भी शुरुआती दिनों में पंख फैलाकर खूब उड़ान भरी, बीस दिनों का हनीमून और उसके बाद का कुछ महीनों का सफर ख्वाबों के पूरा होते यथार्थ के मखमली गद्दे पर बीता। किसी राजमहल की रानी सी श्वेता कई नौकर-चाकर, सास-ससुर और हैंडसम-स्मार्ट डॉक्टर पति के साथ जीवन के मजे ले रही थी।
समय के साथ खुशियों के खुमार को भी यथार्थ के धरातल का सामना करना ही पड़ता है। संदीप अपने क्लीनिक में व्यस्त रहने लगे, समय-समय पर असिस्टेंट के भरोसे क्लीनिक छोड़कर कई-कई दिनों के लिए उन्हें शहर से बाहर भी जाना पड़ता था, ऐसे वक्त में श्वेता बेहद अकेलापन महसूस करने लगी थी।
शहर में रहते हुए भी संदीप व्यस्त ही रहा करते थे। श्वेता का दिन कैसे बीता, इससे उन्हें कोई मतलब नहीं रहता, पर रातें… उनके बिस्तर पर पहुंचते ही, श्वेता को अपनी दिनचर्या निपटाकर कमरे में मौजूद रहना होता था, वरना अगला कुछ दिन भारी मानसिक तनाव में बीतना तय था।
सोने के बंद पिंजरे में कैद पक्षी को भी खुले आकाश में उड़ने की इच्छा खत्म नहीं हो पाती, यह तो एक इंसान का मन था… एक औरत का मन, जिसने अपनी जिंदगी के काफी पल अपने उस प्रेमी के भावों संग जी चुकी थी, जो उसकी एक चाहत पर मैचिंग दुपट्टा तक के लिए अपना सारा काम छोड़कर खुशी-खुशी कई-कई दुकानों के चक्कर लगाया करता था।
दूसरी तरफ उसे हर ऐशो-आराम देने वाला पति था, जिसकी मर्जी के बिना श्वेता की जिंदगी का एक पत्ता तक नहीं हिलता था। इसी यथार्थ वाली पटरी पर श्वेता की जिंदगी की गाड़ी खिसकती जा रही थी, आगे भी इसी तरह की सरकती हुई बढ़ती रहती, अगर उस शाम सासु जी ने घर आए मेहमान दंपति से मिलवाने के लिए उसे बुलाने हेतु नौकर को उसको उसके कमरे में नहीं भेजा होता।
सीढ़ी से नीचे उतरते वक्त जैसे ही श्वेता की नजर मेहमान पर पड़ी।
उसी पल चौंकने की स्थिति में वह सीढ़ी के आखिरी स्टेप पर पैर रखना चूक गई और गिरती हुई श्वेता को बेहद फुर्ती से उठकर उस मेहमान ने संभाल लिया, ‘’भाभी जी, जरा संभलकर आपको मोच आ गई तो मेरे भैया और मौसी-मौसा जी को भी तकलीफ होगी… अपना ख्याल रखिए’’, मुस्कुराते हुए वह अपनी जगह जाकर बैठ गया।
‘’बहू, यह रोहन है… मेरी बहन का बेटा, संदीप की शादी में नहीं आ पाया था। कुछ महीने पहले ही इसने अपने साथ जॉब कर रही इस प्यारी सी जूही से शादी की है, अब इसका यहीं फरीदाबाद में तबादला हुआ है। इसी बहाने अब रोहन कुछ वक्त हमारे लिए भी निकाला करेगा ! क्यों जूही बहू, आने तो दोगी न… हमारे रोहन को हमसे मिलने’’, जूही की तरफ मुस्कुराकर देखते हुए दमयंती जी ने कहा।
‘’क्यों नहीं, मौसी जी… बड़ों का सानिध्य तो छोटों के लिए आशीर्वाद होता है, आप कहें तो मैं रोज रोहन को लेकर आप लोगों से मिलने आ जाया करूंगी’’, कहते हुए जूही दमयंती के गले लग गई।
जूही के इतनी जल्दी मिक्सअप होने के हुनर पर श्वेता को आश्चर्य हुआ क्योंकि वह आज तक अपनी सास से इस कदर बेतकल्लुफ नहीं हो पाई थी, जबकि दमयंती जी बेशक एक अच्छी सास कही जा सकती थीं।
रात का खाना खाकर रोहन और जूही अपने घर को चले गए, परंतु जाते-जाते श्वेता की ऊपर से शांत दिख रही जिंदगी में एक बड़ा सा पत्थर जरूर मार गए थे।
उस रात संदीप संग नितांत निजी पलों में श्वेता की सोच पर रोहन छा चुका था। सीढ़ी से फिसलते वक्त रोहन का उसे थाम लेना, उन पुराने भावों को पुनर्जीवित करने के लिए काफी था। एक रात का ये सिलसिला कई रातों के साथ अपना याराना बढ़ाते हुए, श्वेता की जिंदगी पर अपना वर्चस्व कायम करता जा रहा था।
यह समाज की सोच भी बड़ी अजीब है, जिसमें शुचिता का मानक बस शरीर हुआ करता है और आज तक उन नितांत निजी पलों में मानसिक समर्पण का कोई मापदंड नहीं बन सका है। श्वेता भी बिना मानक वाले उसी सफर पर आगे बढ़ती जा रही थी और जीवन अपना रास्ता तय करता जा रहा था।
कुछ समय बाद पता चला कि जूही अपने भाई की शादी में दस दिन के लिए लुधियाना जा रही है और इतने दिनों की छुट्टी नहीं मिलने की वजह से रोहन शादी के दिन ही वहाँ पहुंचेगा।
‘’रोहन, इस बीच तुम खाना यहीं आकर खा लिया करना’’, यह दमयंती जी का फरमान था।
‘’नहीं मौसी, मेरा लंच ऑफिस कैंटीन में होगा और डिनर के लिए जूही मेड को बोलकर जा रही है। वह शाम को डिनर तैयार करके चली जाएगी, वैसे भी दिन भर का थका-हारा आने पर यहाँ आने की हिम्मत नहीं होगी। एक संडे मिलेगा, उस दिन मेड को भी छुट्टी देकर खुद अपनी पसंद का खाना बनाऊंगा’’, रोहन ने मुस्कुराकर कहा।
समय का अनवरत चलना उसकी नियति है, वह संडे भी आया, जब डोर बेल की आवाज पर रोहन ने दरवाजा खोला, ‘’ग्यारह बज रहे हैं और तुम अभी तक सोए हो… चलो, जल्दी से फ्रेश होकर आ जाओ ! तुम्हारे लिए आज का खाना मैं बनाऊंगी, तुम्हारी पसंद का हर चीज…’’, श्वेता ने रोहन के हाथों को लेकर चुमते हुए बड़े प्यार से कहा।
‘’ये क्या कर रही हैं आप… भाभी जी, आप मेरे बड़े भाई की ब्याहता हैं, एक संभ्रांत खानदान की प्रतिष्ठा का महत्वपूर्ण खंभा हैं आप… उसे मटियामेट करने की कोशिश मत कीजिए !’’
‘’रोहन…” श्वेता की आवाज में एक टीसता सा दर्द था, “भले ही आज मैं तुम्हारी भाभी हूँ, पर इससे हमारी वह फीलिंग खत्म तो नहीं हो जाती जो हमने साथ में जीए थे।’’
‘’उस वक्त आपकी इस फीलिंग का क्या हुआ था, जब आप मेरी गुहार को लात मारते हुए आगे बढ़ गई थी ?’’
‘’अब भूल जाओ ना, उन बातों को तुम… सदा जूही के ही बनकर रहना, परंतु इस तरह अपमानित तो मत करो मुझे!’’
‘’मैं आपको अपमानित नहीं कर रहा, आपकी वास्तविकता से अवगत करा रहा हूँ कि आप एक ब्याहता हैं और एक शादीशुदा मर्द के साथ अकेले उसके घर में मौजूद हैं, यह जानते हुए कि उसकी पत्नी अभी उस घर में अनुपस्थित है। वैसे क्या मैं जान सकता हूँ कि आप घर से झूठ बोलकर आई हैं…? क्या बहाने बनाकर निकली है आप अपने घर से?’’
‘’रोहन, एक अच्छे दोस्त बन कर तो रह ही सकते हैं न हम ?’’
“नहीं, अब मुझे आप पर भरोसा नहीं रहा, जो महिला एक कमाऊ पति के लालच में अपने प्रेमी को छोड़ सकती है, जो अपने ससुराल में बिना बताए अपने प्रेमी से मिलने जा सकती है, उसकी पत्नी की गैर हाजिरी में… मैं ऐसी औरत पर विश्वास नहीं कर सकता !’’
‘’रोहन, प्लीज चुप हो जाओ… इस तरह से शब्दों के नश्तर मत चुभाओ और यह आप कहना बंद करो!’’
‘’सच इतना ही कड़वा लग रहा है तो आप इसी वक्त यहाँ से चले जाइए ।
शायद आपको समझ नहीं आए, इसके बावजूद आपको बता दूं कि मेरे लिए शादी बस एक परंपरा नहीं है, उस परंपरा से ऊपर और भी बहुत कुछ है, जो दो इंसान के साथ-साथ दो परिवार को भी एक ऐसे प्रेमिल धागे में बांधता है, जिसके भाव से लबरेज होकर हम इंसान अगले सात जन्मों के लिए उसी जीवन साथी को पाने की बातें करने लगते हैं।
विश्वास पर टिके इस रिश्ते को भावना और कर्तव्य नामक मोतियों से गूंथा जाता है। यह एक ऐसा रिश्ता है, जिसमें दिल से ज्यादा दिमाग की सुननी चाहिए, कानूनी मान्यता मिले, इस रिश्ते में दुख और सुख दोनों का सामना मिलकर करने से जिंदगी कैसे गुजर जाती है, उसमें गोते लगाते इंसान को पता भी नहीं चलता और इस सफर में अब जूही मेरी हमकदम है आप नहीं..!’’
श्वेता रोहन की बातें सुनते हुए अपमानित सी होकर पत्थर की बुत सी बन चुकी थी।
रोहन ने आगे कहना शुरू किया, ‘’मैंने शादी के पहले ही जूही को अपने और तुम्हारे रिश्ते के बारे में बता दिया था और सब कुछ जानने के बाद उसने शादी के लिए हामी भरी थी। मुझे नहीं लगता कि तुमने संदीप भैया को अपने पूर्व संबंध की बात बताई होगी। अपने मन के चोर को पुरुष मानसिकता द्वारा नहीं स्वीकार किए जाने वाली खोखले तर्क से ढ़कने की कोशिश मत करना क्योंकि मुझे लगता है कि सच की बुनियाद पर खड़े रिश्ते तुलनात्मक रूप से बेहद मजबूत होते हैं, अगर कोई पुरुष अपनी होने वाली पत्नी के पूर्व संबंध को सहज स्वीकार नहीं कर पाए तो वह रिश्ता जोड़ने से पहले ही टूटना बेहतर, पर तुम्हें तो डॉक्टर संदीप से शादी करनी थी और तुम अपने पूर्व प्रेमी की बात बताकर इस रिश्ते को खोने का खतरा मोल लेने वालों में से नहीं हो, इतना तो मैं तुम्हें समझता ही हूँ।
…और हाँ, अब एक आखिरी बात… मैंने और जूही दोनों ने एक दूसरे के पूर्व प्यार को जानते हुए इस रिश्ते को स्वीकार किया है और इसमें अब किसी तीसरे का प्रवेश वर्जित है। क्या अब भी तुम कुछ कहना चाहती हो ?’’
‘’नहीं रोहन, अब मुझे कुछ नहीं कहना… तुम दोनों एक-दूसरे का साथ भरपूर जीयो, बस यही कहना है।’’
डबडबाई हुई आँखों से श्वेता अपने उस प्रेम को अंतिम विदाई देते हुए, अपमान के इस ताप को जज्ब किए… एक संबंध को खत्म करने की कोशिश में दरवाजे से बाहर तो निकल गई।
…परंतु क्या सच में किसी संबंध को खत्म कर पाना इतना आसान हो पाता है ?
श्वेता के दरवाजे से निकलते ही रोहन ने अपनी डबडबा चुकी आँखें पोंछी और सोफे पर निढ़ाल सा पसरकर बुदबदाया, ‘श्वेता, काश ! तुमने उस वक्त अपनी राहें नहीं बदली होती… मैंने इस रिश्ते को तो मार दिया परंतु अपने उन एहसासों को कैसे मारूं, जो बस तुमसे जुड़े हुए हैं ? एहसासों के झूले पर सवार इस रिश्तों की अर्थी को ताउम्र कैसे ढ़ो पाऊंगा मैं !’ कहते हुए रोहन दोनों हाथों से अपना चेहरा ढ़ककर फूट-फूटकर रो पड़ा।
- वापी ( गुजरात )
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