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– रशीद ग़ौरी

     “काका तुम्हें तो आज भी बुखार है। शरीर तप रहा है।”  ठेकेदार ने काका की पैशानी को छूते हुए कहा।
      “काका, तुम्हें आज आराम करना चाहिए था। कल मैंने तुम्हें काम पर आने से मना भी किया था। फिर भी तुम इस हालत में आ गए। काका जान है तो जहान है। तुम न जाने किस मिट्टी के बने हो। बुखार में भी काम पर चले आए।” ठेकेदार ने बीमार काका के प्रति अपनी चिंता भरी सहानुभूति जताई।
       पैंतालीस-पचास की उम्र में ही पैंसठ-सत्तर के लग रहे काका ने अपने बुढ़ाए चेहरे पर एक फीकी सी मुस्कान बिखेरी।
      ” ठेकेदार साहब…हालात मजबूर करते हैं…किसी गरीब के पेट की आग बुझाने की जद्दोजहद क्या होती है आप क्या जाने… ?” यह कहकर काका ने एक लंबी सांस छोड़ी। मानों उन्होंने अपने जीवन के सत्य को इन शब्दों में निचोड़ कर रख दिया हो।
      कोलाहल के बीच ठेकेदार निशब्द था।
  – सोजत सिटी ( राजस्थान )

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