Spread the love

 

 

-समीर उपाध्याय ‘ललित’

जब से तू मेरी ज़िंदगी में आई

आंगन की फूल-बगिया अब महकने लगी

पतझड़-सी ज़िंदगी जो अब वसंत-सी लगने लगी

रूह मेरी भौरा बन फूलों से रस चूसने लगी।

 

जब से तू मेरी ज़िंदगी में आई

नित नएं-नएं रंगों से ज़िंदगी अब संवरने लगी

बेरंग-सी ज़िंदगी जो अब रंगीन-सी लगने लगी

होली के विभिन्न रंगों का रस अब घोलने लगी।

 

जब से तू मेरी ज़िंदगी में आई

ज़िंदगी जीने की चाहत अब बढ़ने लगी

रस हीन-सी ज़िंदगी जो अब रस से तरबतर लगने लगी

ज़िंदगी को जी जान से जीने तमन्ना अब बढ़ने लगी।

 

जब से तू मेरी ज़िंदगी में आई है

दिवाकर के प्रकाश की रोशनी अब फैलने लगी

पिंजरे-सी ज़िंदगी जो अब मुक्त गगन-सी लगने लगी

ज़िंदगी को रोशन करने की ख़्वाहिश बढ़ने लगी।

 

जब से तू मेरी ज़िंदगी में आई

जीवन सफ़र में अब मंजिलें दिखाई देने लगी

रुका-रुका-सा सफ़र जो अब आगे बढ़ने लगा

हर कदम पर ये सफ़र सुहाना लगने लगा।

 

जब से तू मेरी ज़िंदगी में आई

ज़िंदगी की तस्वीर ही कुछ बदल गई

तुम्हारे किरदार को किन अल्फाजों में बयां करूं?

किन अल्फ़ाज़ों में तुम्हें नवाजूं?

मेरा शब्दकोश ही हो गया खाली-खाली।

 

Leave a Reply

Your email address will not be published.