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पुस्तक : रेत समाधि ( उपन्यास )

लेखिका : गीतांजलि श्री

पृष्ठ : 376

मूल्य : 450 रुपए

प्रकाशक : राजकमल पेपर बैक्स

समीक्षक : नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’

 

 

क्या आप धैर्यवान हैं ? अगर हाँ, तब रेत समाधि आपके लिए है नहीं तो 376 पेज को उल्ट-पल्ट कर रख दिया जाएगा और बिना पढे ही अरे हमें तो कुछ समझ में ही नहीं आ रहा है ।

रेत समाधि गिलास में भरा हुआ ठंडा पानी नहीं है जिसे एक सांस में सड़ाक से पी लिया जाए। रेत समाधि गर्म चाय है, कॉफी है और दूध है जिसे घूंट घूंट कर पीना पड़ेगा, जीना पड़ेगा और स्वाद ले लेकर चखना पड़ेगा ।

इस पुस्तक को हाथ में लेकर खुद से एक वादा करना पड़ेगा – मैं इस किताब को एक हफ्ते, दो हफ्ते या पूरे एक महीने में खत्म करूंगा / करूंगी । तब यह मानस पटल पर छाएगा ।

( मैंने यह किताब 17 दिन में पूरी की ) दूसरी किताबों की तरह यह एक सीटींग में या एक दो घंटे में खत्म नहीं किया जा सकता है ।

रेत समाधि सीधी सपाट सड़क नहीं है जिसे झट से लक्ष्य पा लिया जाए नाक के सीध में चलकर गंतव्य पर पहुँच जाया जाए ।

रेत समाधि के लिए ऊबड़ खाबड़ पथरीली राहों पर चलना पड़ेगा जहाँ विचारों का बवंडर है । एक अध्याय दूसरे अध्याय से एकदम जुदा । जहाँ शूल भी मिलेगा फूल भी और कभी कभी तो मन इतना उकता जाएगा कि रखो रेत समाधि को कोई दूसरी किताब पढ़ ली जाए आधी आधी  ।

माँ वैष्णो देवी का एक भक्ति गाना है – ना राजा था ना रानी, ना आग हवा ना पानी, माँ की ममता की है ये कहानी! बस यहाँ माँ की ममता की जगह लिख दिया जाए रेत समाधि  80 वर्षीय बूढ़ी माँ के प्रेम की है ये कहानी ! सुनो सुनो…

( गीतांजलि श्री )

गीतांजलि श्री ने रेत समाधि को काव्यात्मक शैली में लिखा है । जो किसी क्षण पल से अछूता नहीं ।

80 वर्षीय दादी माँ कहे या बूढ़ी माँ के पति गुजर जाते हैं । वह दुख, चिंता, वियोग और सोग में डूब कर पलंग पर पड़ जाती है कभी न उठने के लिए । अपने पराए से मुंह मोड़  कर पीछे पीठ दिखाती और आगे दीवार में घुसने की चाहत बरकरार रखती । दीवार में कोई कैसे घुस सकता है भला ? मगर वह घुसना चाहती है सबसे बिलग होकर अलग होकर ।

परिवार जन उठाते हैं नहीं उठती तरह तरह के उतजोग करते हैं फिर भी वह नहीं उठती और एक दिन कहती है – नहीं नहीं मैं नहीं उठूँगी । अब तो मैं नहीं उठूँगी । अब्ब तो मैं नइ उठूँगी । अब्ब तो मैं नइई उठूँगी । अब मैं नयी उठूँगी । अब तो मैं नयी ही उठूँगी ।

इस बात को जो समझ गए वह आगे बढ़ गए नहीं तो गच्चा खा गए ।

नहीं उठूँगी नहीं उठूँगी अब तो मैं नइ उठूँगी । नइ से होते हुए दादी नयी पर आ जाती है और 80 वर्षीय बूढ़ी माँ कल्पतरु बनकर अपनी छड़ी लेकर 16 साल की नव यौवना बनकर उठती है शरीर से नहीं मन से, हृदय से और आत्मा से।

माँ अपनी छड़ी से चिड़ियाँ और कौवे को बुलाती, सहलाती, उड़ाती इसी प्रतिकात्मकता के साथ एक कथा खत्म भी हो जाती ।

चंचल, शोख लबोलुआब के साथ कि अपनी जवान बेटी को अपने साथ लेकर अपनी इच्छा पूरी करने सरहद पार पाकिस्तान जाती है ।

इस कहानी की खूबी है कि इसमें भारत – पाकिस्तान के बंटवारे की त्रासदी नहीं है, कत्ले आम नहीं है ।

बेटी तो माँ की इच्छा पूरी करने में लगी थी । घर के सभी लोग लगे थे । मगर वह पाकिस्तान क्यों जाना चाहती थी ?

अरे भाई, अपने प्रेमी-शौहर अनवर से मिलने! पासपोर्ट है वीजा नहीं । संग चलती बेटी हरदम डरी हुई कि कहीं पाकिस्तान की पुलिस उन्हें गुप्तचरी या खबरी होने के कारण यहाँ की जेल में बंद कर दे तो ।

मगर बूढ़ी माँ को परावह नहीं है। अपने अनवर को खोजने के लिए वह अफसरों से भी भीड़ जाती है। उल्टे उनसे ही सवाल पर सवाल करती है ।

जब उसके प्रेमी-शौहर बिस्तर पर पड़े मिलते हैं तो वारी न्यारी हो जाती है बूढ़ी माँ !

भारत में माँ के रहने पर उनसे एक रोजी नाम का हिजड़ा मिलने आता था जो उन्हें बाजी कहता ।

मगर वह रोजी कोई और नहीं बल्कि माँ की संतान है । भेद खुलता है और बंद हो जाता है तन में, मन में, प्राण में !

माँ को पाकिस्तान की रेत याद है, हर गली याद है, हर नाली और सड़क याद है । यादों का पिटारा खुलता है मुठ्ठी में बंद रेत की तरह जो समाधिस्थ हो जाता है माँ के मन में, प्राण में, आत्मा में !

गीतांजलि श्री ने विचारों का जखीरा खड़ा कर दिया है जिसमें आप गोल घूमकर ही निकलेंगे । बात में बात, बात हो सारी रात !

बहुत जगहों पर आंचलिक भाषा का भी उपयोग हुआ है । हर अध्याय शुरू होता है एक बड़े शब्द से । पुराणों की भी बात और नए जमाने की भी बात। तुलना भी लाजवाब ।

 

एक बानगी देखिए :-

  • फिर वहीं सोलह की चढ़ती बच्ची न कि अस्सी में उतरती बूढ़ी । बच्ची नहाती है तो बदन निहारती है, सीने पर कलियाँ नाभि पर गोलाई जांघों पर बालियाँ चेहरे पर रिझाई । घबराती, मदमाती रहस्य भी हुड़दंग भी।

 

  • धम्म से आँसू गिरते हैं जैसे पत्थर । बरसात की बूंद ।

 

  • बस मुछों पर ताव दो और बैठो रहो हमारी रखवाली को । ऐ बच्चों, मूंछे तो है नहीं, क्या ताव दोगे ? दाढ़ी है । असली है ? लगती तो नहीं । इस बाली उम्र पे इतनी बड़ी दाढ़ी, क्यों छका रहे हो इस टूटी भज्जी बुढ़िया को ?

 

  • बिजली रुकती है तो  पेड़ भूसा होता है । आंधी थमती है तो छप्पर टूटा होता है । गाना खोता है तो गले में खांसी बस जाती है ।  

( नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’ )

रेत समाधि को बुकर मिला या इसके अंग्रेजी अनुवाद टेम्बू ऑफ सैंड को इस पर हम सभी भिंड गए । कोई पक्ष में रहा कोई विपक्ष में लेकिन असली चर्चा तो हुई नहीं इस कहानी के कथानक पर, शिल्प पर, काव्यात्मक गल्प पर, कहन के एक अलग अंदाज पर!

क्या यह किताब गंभीर लेखकों – पाठकों के लिए है या आम जनमानस के लिए ? रहस्य को जानना किताब को खोलना !

डेजी राकवेल बधाई की पात्र हैं जिन्होंने इस कठिन उपन्यास को अंग्रेजी में अनुवाद किया जबकि हम भारतीय को भी इसमें लिखे हर शब्द और हर वाक्य को समझने में समय लग रहा है । पुस्तक का आवरण चित्र डेजी राकवेल के द्वारा ही बनाया गया  है ।

रेत समाधि अनोखा है, निराला है, जादू से भरा पिटारा है, इसलिए अलहदा है । अब कोई इसे बकवास कहे यह उसका बचकाना है !

नोट : मैंने यह समीक्षा अपने नजरिए से लिखी है । इससे कोई सहमत हो यह जरूरी नहीं है ।  

One thought on “रेत समाधि – समीक्षा”
  1. अच्छी समीक्षा। लेखन शैली से पाठकों को उपन्यास से जोड़ने का बेहतर प्रयास में सफलता।

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