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– आशीष आनन्द आर्य ‘इच्छित’

 

पिछले दो-चार दिनों में जिस तरह घर की हवाओं ने रूख बदला था, त्रिभुवन को ये अंदेसा बहुत पहले ही हो गया था। फिर भी बेटों के बीच बैर भला किसको सुहाता है? वो चाह रहा था कि कुछ भी हो और बिना उसके बीच में टाँग डाले, मामला अपने-आप ही निपट जाये। पर मामला जो इतना ही आसान होता, फिर ऐसे भला कैसे अंग्रेजों को इतने बरसों तक यूँ ईत्मीनान से पूरे विश्व के इतने सारे देशों पर अपना आधिपत्य जमाये रखने और उन पर शासन की बागडोर थामे रखने का मौका मिलता रहता?

बात की खाल खींचकर अपना काम निकालना हमेशा से ही अंग्रेजों की नीयत और आदत रही थी। एक बार फिर से उन्होंने अपना यही दम साबित किया था और त्रिभुवन के दोनों लड़के आमने-सामने आ खड़े हुए थे। पर खानदान के रिवाज़ और घर के बड़ों के दिये गये संस्कार भी एक सच्चाई थे, जिसकी वजह से ही कोई फैसला लेने से पहले त्रिभुवन की दोनों सन्तानें एक साथ उसके सामने आ खड़ी हुई थीं।

सरसराती हवा वहाँ जैसे सभी के कानों में एक सच चीख रही थी। सुनील और सलिल दोनों भाई घर के आहाते में कुर्सियों पर चुपचाप बैठे एक-दूसरे को निहार रहे थे। आँखों ही आँखों में आखिरकार फैसला हो ही गया। दोनों एक साथ उठे और सीधे एक कोने में बैठे पिताजी के सामने जा पहुँचे।

बात की शुरूआत मुश्किल थी, पर फैसले के लिए जिम्मेदारी किसी को तो लेनी ही थी। बड़े सुनील ने शुरुआत की-

‘‘पिताजी, हम दोनों को आपसे कुछ बात करनी थी।”

त्रिभुवन के चेहरे पर सदैव सी स्वाभाविक मुस्कुराहट थी-

‘‘दोनों को बात करनी थी!‘‘ वाक्य को पूरा करने के लहजे में व्यंग्य था। पर बात पूरी नहीं हुई थी-

‘‘जानकर अच्छा लगा कि आज भी तुम दोनों अपनी बात पर साथ हो। कहो, क्या कहना है?”

सुनील के माथे पर शिकन थी। परन्तु वक्तव्य सदैव की तरह गंभीर और स्पष्ट था-

‘‘पिता जी, लगान न दे पाने और उनकी नज़रें हमारी जमीन पर टिकी होने वाली सब बातें तो आपको पता ही हैं! आगे क्या छिपाना, सलिल ने अपने हिस्से की ज़मीन पर चर्च बनाकर जान छुड़ाने का फैसला…” बोलते हुए सुनील ने पिताजी के माथे पर गहरी लकीरें खिंचती लकीरें भाँप ली थीं, पर सकपकाते हुए ही सही, उसने अपनी तरफ़ से पूरी कह ही डाली-

“फैसला… ले लिया है।”

त्रिभुवन की ज़ुबान अभी भी शांत थी, तो सुनील ने आगे भी जोड़ ही दिया-

“हालात ऐसे ही रहे, तो ज्यादा चल नहीं पायेगा। आप समझने की कोशिश नहीं कर रहे हैं। हालात दिन पर दिन और बिगड़ते ही जा रहे हैं। अगर ऐसे ही चलता रहा, तंग आकर हममें से जरूर कोई न कोई, कुछ न कुछ तो कर ही बैठेगा।‘‘

त्रिभुवन ने लम्बी साँस भरते हुए बस एक सवाल ही किया-

‘‘कौन क्या कर बैठेगा? और आखिर क्यों कुछ कर बैठेगा?”

जवाब और बातें सब सुनील के पास ही थे-

“पिताजी, दिन पर दिन जीना मुश्किल होता जा रहा है। रोज एक डर कि कहीं आज आ गये तो घर के सामने मन्दिर देखकर हमारा क्या हाल करेंगे? बस अब यही उपाय है कि या तो मंदिर तोड़…” बोलते-बोलते सुनील ने पिता की आँखों की नसों में उतर कर लहरा उठा जो खून देखा,  पल भर को तो उसकी बोलती बंद ही हो गयी। पर आगे कुछ न बोलना भी मौत को दावत देने जैसा ही था, इसलिए थरथराती ज़ुबान से ही सही, पर वो बोला-

“और या तो मंदिर को हम वहीं रहने देते हैं और दूसरी तरफ़ के पेड़ों को काटकर उनकी लकड़ियों से मंदिर को ढककर उधर दूसरी तरफ़ एक चर्च बनवा देते हैं।”

सुनील की बात खत्म होते-होते उसका ही चचेरा भाई रत्नेश दौड़ते-दौड़ते एक आँधी की तरह उस आहाते में दाखिल हुआ था और ऊपर-नीचे होती साँसों पर काबू करने की बजाय, उसने पहले अपना आँखों-देखी को बयान करना ज्यादा जरूरी समझा-

“ताऊ जी, कुल्हाड़ी लेकर लड़के आये हैं और हमारे बरगद की जड़ों को उचाटने में लगे हुए हैं। जल्दी चलिये, वरना कुछ अनर्थ न हो जाये, कहीं हमारे बरगद की बलि ही न चढ़ा दें वो लोग।” बोलते-बोलते रत्नेश उखड़ती साँसों पर यूँ बदहवास हो चुका था, मानो बस बेहोश होकर जमीन पर गिरने ही वाला था।

अभी तक खामोश खड़े सलिल ने फौरन आगे बढ़कर रत्नेश को थामा और उसके लड़खड़ाते कदमों पर संभलने में मदद करते हुए बोला-

“चंद पेड़ों के लिए काहे को अपनी जान देने पर तुले हुए हो? जो आठ-दस पेड़ों की कुर्बानी से हमारे कुलदेवता की आन बनी रहे, मैं तो ऐसे हज़ारों जंगलों को ही अपने देवता पर न्यौछावर कर दूँ।”

रत्नेश ने कही जा रही बात का हर एक शब्द पूरे गौर से सुना, पर केवल सुनने के लिये नहीं, बल्कि जवाब देने के लिए –

“पता है, आपके जैसे देवताओं पर जंगलों को न्यौछावर करने वालों की वजह से ही हमारी आने वाली पीढ़ियों को ये पेड़ों वाली ऑक्सीजन, ये पानी, ये ताज़गी शायद कभी नसीब ही न हो पाये। वैसे, एक बात बताइये, अगर आपके कुल-देवता यहाँ स्थापित न रहे, तो क्या आप ज़िन्दा न रह पायेंगे? या फिर अगर ये पेड़, जंगल, पानी न रहे, तो क्या आप ज़िन्दा रह लेंगे?”

रत्नेश की सुनते-सुनते सलिल की आँखों में खून उतर आया था और वो चिल्ला उठा-

“तुम्हें मज़ाक सूझ रहा है और यहाँ हमारा धर्म खतरे में है। अंग्रेजों के ज़ुल्म से पिस रही हमारे देश की जनता खतरे में है और इन सबको बचा सकने वाला हमारा भगवान तुम्हारे जैसे नास्तिकों की वजह से खुद खतरे में है।” बोलते हुए लगभग गुर्रा उठे सलिल का तो अब हाथ भी रत्नेश पर प्रहार करने को हवा में उठ चुका था, पर सलिल कोई भी हरकत पाता, उससे पहले ही अभी तक मूक-दर्शक बने तीनों के ही श्रद्धेय त्रिभुवन अपनी कुर्सी पर से उठते हुए गरज पड़े-

“हमें बनाने वाले भगवान को भला कौन खतरे में डाल सकता है। सब बस धर्म के नाम पर अपना उल्लू सीधे करने वालों की बातें हैं। पर ये बिल्कुल सच है, कोई और नहीं, बल्कि हमारी आने वाली नस्लें खतरे में हैं। बचा सकते हो तो बचा लो, अंग्रेजों के लाये कारखानों की फैलायी आग की लपट में धधकते हमारे जंगल और उनके साथ हमारी आने वाली पीढ़ियाँ खतरे में हैं।” बोलते हुए त्रिभुवन का कमजोर बदन जैसे ही लड़खड़ा कर गिरने को हुआ, तीनों नौजवान एक साथ आगे को लपककर देश के भविष्य को बचाने के लिए तत्पर नज़र आने लगे।

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