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गतांक से आगे …

17

किसलय देवल से आरा आ चुका है। वह इस वक्त कैसा और किस हाल में है, यह तो हम जानेंगे ही, पर उससे पहले जरा पूजा की सुध ले लें। पूजा को अब तक चैटिंग की आदत लग चुकी थी। एक साथ दो रूसवाइयाँ- एक तो काव्या का लखनऊ से जाना और दूसरा किसलय का साथ  छूटना। इन दोनों घटनाओं ने पूजा की मस्त जिंदगी को एकाएक झकझोर दिया।

बात जरूर मजाक से शुरू हुई थी, पर समय के साथ मजाक ने नाटकीय मोड़ लिया था। उसे मालूम भी न हुआ और वह किसलय के बेहद करीब जा चुकी थी। संगत से जो परिवर्तन हमारे व्यक्तित्व में होते हैं, वह इसी प्रकार के होते हैं। परिवर्तन बेहद आिवक स्तर पर होते हैं, जिन्हें हम प्रारम्भ में समझ नहीं पाते, पर एक दिन

बहुत बड़ा प्रतिफल देखने को मिलता है।

अपने आपको उसने हजार बार समझाया कि किसलय को भूल जाना ही उसके लिए श्रेयस्कर होगा। पर हर वो रात जब  fb  पर बात करने का वक्त होता, वह उसी

प्रकार लैपटॉप के सामने बैठ fb  पर कुछ   इधर-उधर करती, फिर वापस fb बंद कर कुछ   सोच में पड़ जाती। एक-एक पुराने यादगार पल, जो उसने fb के सहारे संजोए

थे, रह-रहकर दिल को कुरेदते।

कितनी रातें उसने बगैर सोये बिताया। रात-रात भर वह बस सोचती रहती। वह जितना ज्यादा किसलय को भूलाना चाहती, वह उतना ज्यादा हावी होता। बस दु:ख इस बात का था कि उसने इस संबंध की नींव झूठ पर खड़ा करना चाहा था, पर प्यार और युद्ध में तो सब कुछ जायज माना जाता है।

पूजा ने अपने आप को कई महीनों तक किसी तरह संभाला, पर वह अब जिंदगी की गहराई में डूबने लगी थी। इस उम्र में ऐसी निराशा जिंदगी के प्रति संकीर्ण सोच पैदा करने लगती है। वह हमेशा खोयी-खोयी-सी रहने लगी। उसका चेहरा दिन-प्रतिदिन कांतिहिन और मलिन हुआ जा रहा था। हँसी और खुशी, विरह की अग्नि में स्वाहा हो गया था। लेकिन कहीं न कहीं इस उदासी और निराशा का बीजारोपण भी तो उसी ने किया था। ऐसे में एक दिन उसके तीव्र दिमाग में एक युक्ती सूझी और उसने तुरंत उसका क्रियान्वयन शुरू किया।

किसलय से बात किये हुए पूजा को एक लम्बा अरसा हो गया था। पूजा के दिमाग में उस रोज एक नयी बात ने घर कर लिया। उस दिन उसने काव्या का fb  अकाउंट खोलने का प्रयास किया। संयोग की बात ये थी कि काव्या ने पासवर्ड भी अब तक वही रखा था। आज से पहले ये विचार पूजा के दिमाग में कभी न आया था। उसका हृदय बार-बार इस कार्य को गलत ठहरा रहा था, पर दिल बेचैन था। सामने काव्या का अकाउंट खुल चुका था। उसने प्रत्येक मैसेज को अच्छे से पढ़ा। पहले तो वह काव्या और किसलय के बीच हुए वार्तालाप को देर तक पढ़ती रही। उसने कई बार पढ़ा। किसी भावशास्त्री की तरह वह एक-एक शब्द का मतलब समझने की कोशिश करती रही। उसका जी हल्का होने लगा था। वह उनके वार्तालाप को पढ़ने में इतनी दिलचस्पी ले रही थी, मानो वो तमाम बातें किसलय, काव्या की जगह उसी से कर चुका हो।

फिर वह अपनी पुरानी बातचीत को भी शुरू से पढ़ने लगी। उसे उम्मीद न थी, खुद की लिखी हुई बातें भी कभी इतनी प्रसन्नता दे सकती हैं। वह देर रात तब तक पढ़ती

रही, जब तक पूरा पढ़ न लिया। आज उसने अपनी परेशानियों से निपटने का एक नया तरीका इजाद किया था। अब जब भी उसका दिल नहीं लगता, वह बैठकर इन्हें बार-

बार पढ़ती। काव्या के सारे वार्तालाप वह जान चुकी थी और हमेशा इस कोशिश में रहती  थी  कि  जो  आगे  हो  उसे  भी  जान  सके।  काव्या  के  अकाउंट  को  खोल  सारे वार्तालाप को पढ़ना उसकी नियमित आदत बन चुकी थी।

पूजा ने एक दिन बहुत सोच-विचार कर बड़ी साहस कर अपने fb  अकाउंट से किसलय को फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दिया। वह इस बात को लेकर बहुत उत्सुक थी कि देखें, किसलय क्या प्रतिक्रिया करता है?

किसलय आरा आ चुका था। उन सात दिनों की यादों ने सात मिनट के लिए भी किसलय को तन्हा न छोड़ा था। रह-रहकर उन्हीं एक-एक लम्हों को यादकर,

दिल को धीरज बँधाता। पहले तो कई दिनों तक वह आरा की गलियों में निरुद्देश्य इधर-उधर घूमता रहा। पढ़ना और पढ़ाना इनसे वह दूर होने लगा था। न किसी से

मिलता-जुलता, ना ही किसी से बात करता। जिंदगी बेतरतीब हो चली थी। भोजन की सुध न रही। किसी तरह एक टाइम भोजन बना लेता और दोनों टाइम गुजारा करता। देर सुबह जगता और फिर तैयार हो निकल जाता, शहर से बाहर खेतों की तरफ। शहर से बाहर निकलते ही एक चौड़ी नहर थी। इन दिनों इस नये जगह की खोज की थी किसलय ने। वह दिनभर इसी नहर के बाँध वाले रास्ते पर टहलता रहता। कभी किसी बागीचे को देखकर बैठ जाता और अपने आप से बात करता। जब भी कोई मित्र कमरेपर मिलने आाता, तो वह गायब मिलता। कमरे में भी वह अकेला हो चला था। उसके कई मित्र काफी पहले ही बैंकिंग की तैयारी के लिए पटना चले गये थे। पहले वह जितना ही उत्साह के साथ रहता था, अब उसी हद तक निरुत्साह और ख्यालों में खोया रहने लगा। उसके बुझे चेहरे को देख कोई भी अंदाजा लगा सकता था, वह मन ही मन कितना दु:खी है।

लड़कियाँ भी क्या कमाल की चीज होती हैं! जो इन्सान अपनी माँ और बाप के गुजरने का इतना गम नहीं मनाया था, वही आज एक लड़की को याद कर-कर के कितना रोने लगा था। वह बार-बार अपने आप से कहता-

काश कि आपसे उस रोज मिला न होता,

तो किस्मत से आज कोई गिला न होता।

उसके दिल में हर पल एक दर्द रहने लगा था। कभी-कभार वह ऊब कर अपनी ही लिखी हुई कोई गज़ल गाने लगता। उसकी आवाज बड़ी मीठी थी। जब सब कुछ

भुलाकर दिल से कुछ गाता, तो उसकी आवाज में इतना दर्द होता कि रास्ते चलते पथिक भी ठहर कर चुपचाप उसके गाने को सुनने लगते। उसके गज़ल के भाव और लय से ही पता चल जाता कि वह जख्म खाया इन्सान है। इस दरम्यान उसने कई एक गज़ल लिखा, अपने आप को बहलाने और काव्या को भुलाने के वास्ते। ऐसा नहीं था कि वह काव्या को भुलाना नहीं चाहता था, पर वह उसके सर से उतर ही नहीं रही थी। एक रोज कई मित्रों ने एक साथ किसलय को देर रात कमरे पर ढूँढ़ लिया। उसका ये हाल सबको मालूम हो चला था। सभी मित्रों ने बहुत सहारा दिया और सबने अपने- अपने स्तर से कोशिश की। कई घंटे तक चले काउंसलिंग के बाद किसलय के सर से इश्क का भूत थोड़ा-सा उतरा, उसने वचन दिया कि वह कल से खूब सख्त रूटिन फॉलो करेगा। वह सबकुछ   भूल जाएगा। उसने कोशिश भी की। एक सप्ताह तक वह

थोड़ा सामान्य रहा, पर वह बहुत चाहकर भी अपने आप को एकाग्र नहीं कर पा रहा था। एक रोज पूजा के सपनों को पंख मिला। वह fb में नये नोटिफिकेशन देख रही

थी। उसने देखा किसलय उसके रिक्वेस्ट को स्वीकार कर चुका है।

वह बहुत खुश हुई, ऐसा लगा जैसे किसलय ने उसे माफ कर दिया हो। अभी शाम के चार बज रहे थे और किसलय ऑफलाइन था। अब इंतजार की घड़ी पूजा के सामने

थी। वह बेसब्री से रात होने का इंतजार करने लगी। वक्त ने क्या करवट बदला था, जो मन: स्थिति कभी किसलय की थी, आज वही हालात पूजा के हो चले थे। उसे उम्मीद थी, कभी न कभी तो वह ऑनलाइन होगा ही। वह उसकी आदत से परिचित थी। वह सोने के पहले अक्सर fb चलाता था। अब वह रात होने का इंतजार करने लगी, लेकिन रात होने में अभी काफी वक्त था। बहुत कठिनाई से उसने एक घंटा

बिताया। एक-एक मिनट एक-एक दिन के समान गुजर रहे थे।

खैर, वह कुछ सोच-विचार कर बाहर घूमने चली गयी। आज वह सिर्फ और सिर्फ कल्पना की दुनिया में गोते लगाना चाहती थी। पुराने दिनों की यादें उसके जी को हल्का कर रही थीं। हर क्षा उसे एक बात बहुत परेशान किये जा रही थी कि कहीं ऐसा न हो कि आज रात किसलय ऑनलाइन ही न हो, मन में तरह-तरह की बातें उठ रही थी। कभी-कभी अनजाना भय भी महसूस हो रहा था, काव्या के बारे में सोच-सोचकर। उसे अपने ऊपर खीझ भी आ रही थी। काश कि ये आइडिया पहले ही आ गया होता, तो माजरा कुछ और होता। उसे इस पचड़े में पड़ने की क्या जरूरत थी? ऐसी कई तरह

की बातें दिमाग में चल रही थी। प्यार के चक्कर में दोस्ती टूटने की कहानी बड़ी पुरानी है, बहरहाल पूजा सब कुछ    झेलने को कमर कस चुकी थी। शनै:-शनै: वक्त गुजरा और रात्रि के नौ बज गये। वह तड़के खाना खा बिछावन पर बैठ, लैपटाप ले, उस पल का इंतजार करने लगी। आँखें एक बार फेसबुक पर होतीं, दूसरे पल इधर-उधर कुछ – कुछ  ढूँढ़ती, पढ़ती, दूसरों के पोस्ट को लाइक करतीं। कुछ ऐसी ही व्यस्तता में घंटे भर बीत गये, पर किसलय ऑनलाइन न दिखा। वह थककर- तकिये पर सर रख, लैपटाप को पास में नजरों के सामने रख थोड़ा सुस्ताने लगी। आँखें ढुलमुल हो चलीं, कब नींद ने हमला बोला, पता न चला। पर मस्तिस्क के अलार्म ने सोने भी न दिया घंटे भर में वह जग गयी। सामने किसलय ऑनलाइन दिख रहा था। वह बिस्तर से उछल पड़ी खुशी के मारे। पलभर में नींद उड़न- छू हो गयी। पूजा का मन प्रसन्नता से भर चुका था। वह बिजली के रफ्तार से मैसेज टाइप करने लगी थी। मन में विचारों की झड़ी लगी थी, पर मैसेज सेन्ड का बटन  छूने से डर लग रहा था। वह हर बार लिखती और फिर मिटाती, वह न जाने एक साथ कितनी बातें लिख चुकी थी, पर बहुत कशमकश में थी कि आखिर क्या करें?

 

18

किसलय इस बीच मन बदलने गाँव चला गया। उसे उम्मीद थी स्थान-परिवर्तन से थोड़ा-बहुत बदलाव होगा। दो-एक दिन के लिए कुछ  परिवर्तन जान पड़ा। कुछ  पुराने दोस्त-यार और सगे संबंधियों से मुलाकात सुखकर लगी, पर बहुत जल्द वापस उसकी जिंदगी उसी पटरी पर आ गयी। शरीर और दिमाग दोनों के बीच कोई साम्य न रहा। दिमाग हमेशा दूसरी जगह उड़ा रहता। वह दिन-दिन भर बागीचे और खेतों में पागलों की तरह घूमने लगा। लोगों को दूर से देखते ही रास्ता बदल देता। यदि कोई कुछ

बोलता और पूछ ता भी तो हाँ-हूँ और ना में संक्षिप्त-सा जवाब दे निकल जाता। घर पर ऐसा कोई था नहीं, जो उसके खाना और तबियत को लेकर बहुत चिंतित हो। जो

कुछ मिल जाता, खा लेता या फिर बगैर खाये भी रह जाता। भोजन और अनियमित हो चुके रूटीन के चलते जल्द ही शरीर मुरझाने लगा। उसके स्वास्थ्य पर बहुत बुरा असर पड़ा था। कभी-कभी कमजोरी का भी एहसास होता, पर उसने इस तरफ कोई ध्यान न दिया। कुछ सप्ताह बाद एक रोज वह वापस आरा आ गया।

उसने कई दिनों से मोबाइल स्विच ऑफ रखा था। ऐसा लगता था, मानो अब इसकी कोई जरूरत ही न हो। खैर, आरा आने पर उसने पुन: नेट रिचार्ज करवाया और

बहुत दिनों बाद fb खोला। इस वक्त उसका सिर बहुत दर्द कर रहा था और जी मचल रहा था, फिर भी वह उन संवादों को पढ़ना चाहता था, जो पिछले दिनों उसके और काव्या के बीच में हुई थी।

किसलय के पास कुछ एक नये फ्रेंड रिक्वेस्ट भी आये थे। उसमें कोई खास तो नहीं था, पर पूजा का नाम पढ़ते ही चौंक गया। तबीयत हो रही थी कि उसके रिक्वेस्ट को  डिलीट  मार  दे।  दिल  ने  कहा,  नहीं  कम  से  कम  प्रोफाइल  और  टाइमलाइन  तो चेककर ले कि यह वही तो है। उसने पूरा प्रोफाइल चेक किया। सारे पोस्ट पढ़े। पूजा

ने कई पोस्ट में किसलय की कविताओं और गज़लों को कोट किया था, बजाय उसके नाम के साथ। उसके सारे पोस्ट पढ़ने के बाद किसलय का गुस्सा पल भर में गुबार हो गया। उसने आज पहली बार महसूस किया कि हो न हो ये लड़की जिस तरीके से कविता के प्रति अपनी दिवानगी दिखा रही, इसके साहित्य प्रेमी होने का मामला है।

पूरे प्रोफाइल में उसने अपना एक भी पिक नहीं डाला था, ये बहुत आश्चर्यजनक बात थी। उसने एक बार उसे याद करने को कोशिश की। नकाब से झाँकती, दो बोलती आँखें उसे आज खूब याद आ रही थीं। उसने फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लिया। एक रोज रात में सोने से पहले किसलय अनमने भाव से fb चला रहा था, तब तक पूजा ने ग्रीट किया। वह सोच न पाया, इसके साथ क्या सलूक किया जाये? रह-रहकर गुस्सा

भी आ रहा था। खैर, किसलय ने भी रिप्लाई दिया।

पूजा : माफ करना, हमने आपको बहुत दु:खी किया। आइ एम वेरी सॉरी। हो सके तो मुझे माफ कर दीजिएगा।

किसलय : हम्म।

पूजा :  आप तो कवि हृदय हैं। आपकी दृष्टि से कुछ भी थोड़े हम  छुपा सकते। मेरा इरादा कभी गलत न था।

किसलय : अब ये बकवास मत सुनाइए। आपके चलते मैं आज किन हालतों में हूँ आपको क्या मालूम?

पूजा :  हाँ, मैं इसके लिए खुद को कसूरवार मानती हूँ। किसलय : फिर आपने जानबूझकर झूठ का सहारा क्यों लिया?

पूजा : मैं नहीं जानती थी एक दिन मेरी शरारत का ऐसा नतीजा होगा। वरना मैं कभी ऐसा नहीं करती। सच तो ये है कि आपकी कविताओं से मैं इतनी प्रभावित हो गयी थी कि अपने आपको रोक नहीं पायी।

(लेखकों, कवियों और कलाकारों की यही तो सबसे बड़ी कमजोरी है यदि कोई इनके सृजन की तारीफ कर दे, तो वह आपका सात खून भी माफ कर दें।) किसलय : आप झूठ बोल रही हैं। यदि आपको कविता से इतना ही लगाव होता, तो आपको अपने नाम से रिक्वेस्ट भेजने में कौन-सी आफत आ जाती।

(हालांकि वह अपने आप से कह रहा था कि वह सच बोल रही है।)

पूजा :  मुझे लगा था कि मैं जल्द ही सबकु सच-सच बता दूँगी, पर इतनी गति से सबकुछ   हुआ कि मैं अपने आपको रोक ही नहीं पायी।

किसलय :  आपको मालूम है? आज मैं कितनी घोर विपत्ति में हूँ। मेरा पूरा करियर तबाह हो चला है। मैं चाहकर भी काव्या से दूर नहीं हो पा रहा।

पूजा : क्या यह काव्या को भी मालूम है?

किसलय : पता नहीं, मालूम भी हो तो उन्हें क्या फर्क पड़ता है। और वैसे भी लड़कियों को सिर्फ अपनी भावना का ख्याल होता है, दूसरे के लिए तो जैसे भावना नाम की कोई चीज ही नहीं होती।

पूजा  :  मैं  आपके  लिए  क्या  कर  सकती  हूँ,  ताकि  आप  मुझे  सच्चे  मन  से  माफ कर देंगे।

किसलय : ये आप मुझसे नहीं खुद से पूछिए कि आप मेरे लिए क्या कर सकती हैं?

बात करते-करते जब किसलय का सिर बहुत ज्यादा दुखने लगा, तो वह बातचीत बंदकर आँखें मूँद नींद का इंतजार करने लगा। अगले रोज किसलय की तबीयत बहुत ज्यादा खराब हो गयी। उसे चलने-फिरने में भी परेशानी होने लगी थी। उसने कमरे से बाहर निकलना भी लगभग बंद कर दिया था। वह घर से थोड़े पैसे लेकर आया था और पहले से ट्यूशन पढ़ा के कुछ    पैसे जमा किये थे, उसी की बदौलत काम चल रहा

था, लेकिन यह सब बहुत लम्बे समय तक चलना संभव नहीं था।

एक रोज दिल्ली से विवेक आया, तो ढूँढ़ते-ढूँढ़ते किसलय के कमरे तक पहुँच गया। किसलय इस वक्त बिस्तर पर लेटा कुछ  सोचने में व्यस्त था। विवेक ने जब किसलय को देखा, तो दंग रह गया। पूरा शरीर सुखकर काँटा हो गया था। आँखें बहुत डरावनी और चेहरा कितना कुरूप लग रहा था। बाल बहुत लम्बे और लट हो चले थे।

बढ़ी हुई दाढ़ी बहुत भयानक लग रही थी।

‘‘अरे, तुमने ये क्या हाल कर लिया?’’ जवाब देने की जगह किसलय जबरदस्ती मुस्कुराने की कोशिश करता रहा।

‘‘तुम्हें हुआ क्या? इतने दिनों में तुमने एक बार भी फोन नहीं किया और फिर तुम्हारा नम्बर तो कभी लगता ही नहीं।’’

‘‘हुआ क्या ? कुछ भी तो नहीं। मैं तो आज भी वैसे ही हूँ।’’

विवेक ने कमरे को एक बार ठीक से देखा। ऐसा लगा जैसे महीनों से साफ-सफाई न हुई हो। कमरे की सीलन बदबू मार रही थी। एक कोने में शराब की कुछ  बोतलें भी

पड़ी थी। किताब-कॉपी पर धूल की एक मोटी परत चढ़ गयी थी। सिगरेट के टुकड़ों से कमरा भरा था। कपड़े मैले-कुचैले अलगनी पर झूल रहे थे। जो कपड़ा किसलय ने पहना  था,  उस  पर  भी  सिलवटें  पड़  चुकी  थी।  वह  सोचने  लगा,  जो  व्यक्ति  कभी स्वच्छता का कितना ख्याल रखता था, वह आज ऐसा कैसे हो गया ? उसे कुछ भी

माजरा  समझ  में  नहीं  आ  रहा  था।  हालांकि  उसने  थोड़ा-बहुत  इधर-उधर  से  किसी लड़की और प्रेम प्रसंग का मामला सुना था और आज तो जैसे प्रमाण भी मिल गया। ‘‘ये क्या हाल बना रखा है तुमने ? मैं तो खुशी का संदेश लेकर आया था, लेकिन तुम्हें इस हाल में देख मुझसे कुछ   भी बयां न हो पा रहा।’’

‘‘अरे ऐसा क्या, बोलो-बोलो, मेरा मन तो सुनने के लिए बेचैन हो रहा।’’ उसने किसी तरह गले लगाते हुए कहा।

‘‘मेरा सेलेक्शन बैंक पी.ओ. में हो गया।’’

 

‘‘बधाई हो ! वाह मेरे यार, अब इससे बढ़कर मेरे लिए क्या खुशी की बात हो सकती है ?’’ जाने कहाँ से किसलय की आँखों में आँसू आ निकले।

‘‘तुमने…लेकिन…ये सब…क्या और कैसे ?’’ वह भाव विह्वल हो सोच नहीं पाया, क्या और कैसे कहे।

‘‘अरे भई कुछ नहीं, जिंदगी हमेशा समतल रास्ते पर ही थोड़े चलती है, सब कुछ इसी जिंदगी में तो पा लेना होता है… खुशी-गम, नौकरी-चाकरी, बीबी-बच्चे, प्यार- तिरस्कार। अब किसी खास एक चीज के लिए अलग से जन्म लेकर थोड़े आना होता है ? सब प्रारब्ध की बात है, जिसके हिस्से जो मिल जाए, जब मिल जाए, जितना मिल जाए, कोई जानबूझकर इसे थोड़े ले पाता है।’’

‘‘अब ये अपनी फिलॉसफी बंद करो और चुपचाप मुझे सब कुछ बता दो। …तो

क्या मैंने तुम्हारे बारे में जो सुना था, वह सब सच था?’’

किसलय ने सब कुछ सच-सच बता दिया। चूँकि विवेक उसके खास मित्रों में से था, उस पर भरोसा किया जा सकता था। उसी दिन विवेक ने किसलय को ले जाकर डॉक्टर को दिखाया। कई दिनों तक दोनों अस्पताल का चक्कर लगाते रहे। कुछ दिन के लिए उसे अस्पताल में भर्ती भी होना पड़ा। इस एक महीने में विवेक ने प्राणपण से किसलय की खूब मदद की। एक रोज स्वस्थ होकर किसलय अस्पताल से वापस उसी कमरे में जा रहा था। शरीर अभी भी कमजोर ही था, पर विवेक का साथ पा किसलय बहुत हद तक संभल चुका था।

 

19

एक लम्बे अरसे बाद काव्या ने एक दिन किसलय को कॉल किया। इस बीच किसलय ने कई बार काव्या के पास कॉल किया था, पर नम्बर हर बार स्विच ऑफ ही मिलता

था। उसने दो-एक बार fb पर भी काव्या को मैसेज लिखा, पर वह मैसेज कभी देखे न गये थे, इसलिए जवाब भी नहीं आया था। उसने इन सबके बावजूद कई बार काव्या से  संपर्क  की  कोशिश  की।  एक  बार  तो  देवल  भी  गया,  पर  वह  अपने  मनोरथ  में असफल रहा। वह पलभर में काव्या की लरजती आवाज को पहचान गया। इधर-उधर की ढेर सारी बातें हुई और ढेर सारी बातें मौके पर याद भी न आयीं। काव्या को अब तक यह भी नहीं मालूम था कि किसलय की तबीयत कई महीनों तक खराब रही थी। काफी देर बात करने के बाद काव्या ने पूछा, ‘‘आपने क्या तय किया, क्या लक्ष्य

निर्धारित किया?’’ उसने बताया कि अब उसे आपकी जरूरत पड़ी है, उसकी योजना में आपका साथ बेहद महत्वूर्पा है।

किसलय  ने  थोड़ा  समय  माँगा  इन  सब  बातों  पर  विचार  के  लिए।  वह  अब जल्दबाजी में कुछ    भी नहीं करना चाहता था, लेकिन दिल ने आज पुन: हलचल मचा दिया। कम से कम एक बार तो मिल ही लेना चाहिए, जब इतने प्यार से वह बुला रही, उसके अंदर से आवाज आयी।

किसलय ऐसे इन्सानों में से था, जिन्हें पढ़ने में बहुत  रुचि होती है, पर सामाजिक कार्यों से वह दूर रहना चाहते हैं। उसे भीड़-भाड़ में जाना और लोगों के साथ मिलकर काम करना पसंद नहीं था। उसे समाज-सेवा में जरा भी  चि नहीं थी। वह बस भद्र पुरुष की तरह एक सामान्य और निजी,  चिकर जिन्दगी जीना चाहता था। दूसरों के लिए कष्ट उठाना, लोगों की भिन्न-भिन्न तरह की बातों को झेलना, शायद किसलय

के लिए यह सब संभव नहीं था। उसने बहुत गंभीरता से विचार किया और सोचा, पर काव्या का नाम सुनते ही उसका दिमाग बंद हो जाता था और सिर्फ दिल की चलने लगती थी। अब उसके पास एक मात्र यही ख्वाहिश रह गयी थी कि इसी बहाने वह काव्या के साथ तो रह पाएगा। वह जानता था, इस दुनिया में दो-एक लोगों को  छोड़, उससे किसी को कोई अपेक्षा नहीं थी। एक बार घरवालों ने शादी के लिए पूछा था,

पर किसलय ने मना कर दिया, तब से इस संबंध में भी कभी कोई नहीं पूछता था।

उसने पूछा, ‘‘आप कहाँ हैं इस वक्त ?’’

काव्या ने बताया, वह उत्तर बिहार के किसी छोटे से गाँव में थी और फिर एक दिन किसलय चल पड़ा काव्या से मिलने- ‘देवधा’। उसने कॉल कर बता दिया कि वह आज  आ  रहा  है।  काव्या  ने  कहा,  ‘‘आपका  स्वागत  है !  बस  स्टैंड  पहुँचते  ही कॉल कीजिएगा।’’

दिनभर की ऊबाऊ यात्रा के बाद शाम चार बजे वह एक छोटे से बस स्टॉप मनिहारी  उतरा।  उसने  आस-पास  चाय-पान  के  दुकान  वालों  से  देवधा  के  बारे  में पूछताछ की। उसने काव्या के नम्बर पर कॉल भी किया, पर काव्या का नम्बर स्विच ऑफ था। बस स्टैंड के पास ही गुसलखाना था, वहाँ जा उसने यात्रा में पड़े धूल-गर्दे को साफ किया। नल पर पानी से चेहरा साफ किया, कपड़े बदले, बाल काढ़े और फिर एकदम से दूल्हा की तरह बन-ठन कर तैयार हो गया। वह देवधा जाने के बारे में सोच ही रहा था, तब तक काव्या ने कॉल बैक किया। उसने कहा, ‘‘आप वहीं  रुकिए,

मैं अभी आयी।’’ कुछ ही देर बाद काव्या एक ऑटो लिए वहाँ पहुँच गयी। किसलय आराम से ऑटो में बैठ गया और ऑटो काव्या के इशारे पर एक तरफ चल पड़ा।

बाजार से बाहर निकल ऑटो चलते-चलते एक गाँव के खड़ंजे से होकर गुजरने लगा था। उसने गाँव के नाम को एक जगह नेमप्लेट पर पढ़ा, यही देवधा था। दोनों इस बीच आपस में बात करने में मशगूल हो चुके थे। किसलय ने एक बार सरसरी निगाहों से काव्या की तरफ देखा। क्या हुलिया बनाया था? एक सीधी-सादी ग्रामीण परिवेश की योगन लग रही थी। वह काव्या को इस नये लिबास में देख चकित और थोड़ी-सी उलझन में था। ऑटो एक खुले खेत के सामने चाहरदिवारी के बाहर  का। दोनों उतर कर अंदर गये। तब तक किसलय मन ही मन यह हिसाब जोड़ चुका था कि वह कितने दिनों बाद आज काव्या से मिल रहा। उसने दिन, महीने और घंटा-मिनट तक कैलकुलेट कर लिया था। किसलय ने एक बार पूरे अहाते पर दृष्टिपात किया। कितना बड़ा चौरस आँगन था, बाँस के लट्ठों और घासफूस से बने कई आकर्षक घर दिख रहे थे। एक तरफ कुछ पक्के कमरे भी थे, पर उनका छप्पर भी खपरैल अथवा पुआल के ही दिखे। समुचा अहाता यज्ञशाला की तरह लग रहा था। गोबर से लिपा हुआ विशाल फर्श बड़ा ही समतल और नयनप्रिय जँच रहा था। जगह-जगह  छायादार वृक्ष की गाँछ दिख रही थी। कदम्ब के कुछ पेड़ तो अब  छायादार भी हो चले थे।  छोटे- छोटे बच्चे वहाँ दौड़ और खेल रहे थे। कुछ और लोग भी थे, जो शायद नौकर थे, वे सब भी अपने-अपने काम में व्यस्त थे। ऐसे ही एक लुभावने घास, पत्ते और लकड़ी के छप्पर वाले कमरे में काव्या ने किसलय को बैठाया। सामान एक तरफ काव्या ने संभालकर रखा और इशारे से बताया कि उस तरफ हाथ-मुँह धोने के लिए चापाकल है। खैर, किसलय तो पहले से ही हाथ-मुँह धोकर तैयार था। कुछ ही मिनटों में एक अधेड़ उम्र की औरत जलपान लेकर आयी। किसलय जलपान करता रहा और बीच-बीच में काव्या से बात करता रहा। खाना समाप्त होते ही काव्या ने कहा, ‘‘अभी आप यात्रा से थके होंगे, आराम कीजिए, तब तक मैं भी कुछ  काम निपटा लूँ, फिर आराम से बातें होंगी।’’ किसलय कहना तो बहुत कुछ  चाहता था, पर कुछ ख्याल कर कुछ   न कहा।

एक नौकर किसलय के साथ हो गया, उसने किसलय की सारी जिम्मेदारी अपने ऊपर ले ली थी। कुछ देर बाद किसलय ने स्नान की इच्छा व्यक्त की, नौकर पानी भरने चला गया। स्नान कर किसलय आराम करने लगा। यात्रा की थकान ने किसलय को कुछ ही देर में अचेत कर दिया। वह सुबह तक सोता रहा। जब आँखें खोली, तो सुबह के पाँच बज चुके थे। उजाला पैर दबाये पसरने लगा था। बाहर इसी वक्त काफी

चहल-पहल थी। वह निवृत हो जब टहलने के लिए खुले में आया, तो देखा काव्या पत्थर के एक बड़े से तख्त पर अर्ध पद्मासन की अवस्था में बैठी थी। कई जन काव्या को घेरे बैठे थे। उन सबकी नजरों और वाणियों से असीम श्रद्धा झलक रही थी। दूर से देखने पर ऐसा जान पड़ता था, मानो कोई देवी स्वर्ग से उतर कर आयी हो और ये दर्शनार्थी उसका दर्शन पा धन्य हो रहे हों। काव्या कुछ बोलते-बोलते बाएँ तरफ मुड़कर देखी, तो किसलय एकटक उसे निहार रहा था। वह क्षणभर को झेंप गयी, पर तत्क्षण किसलय  की  तरफ  मुखातिब  हो  बोली,  ‘‘शुभ  प्रभात!  नींद  तो  अच्छी  आयी ?’’ किसलय जब तक कुछ बोलता, उसके पहले ही उसने कहा, ‘‘नहा-धोकर जल्दी से तैयार हो जाइए, फिर साथ में चाय-नाश्ता करेंगे। संयोग की बात है, आज रविवार है

इसी बहाने मैं आपको आस-पास के गाँवों में घुमाऊँगी।’’

घंटे भर में दोनों एक नये कमरे में, जिसकी दीवार पर मोटी मिट्टी की लेप थी और ऊपर फूस का छप्पर था, चटाई पर बैठ दोनों चाय पी रहे थे। गर्मी का दिन होने के बावजूद कमरा बहुत ज्यादा शीतल था। चाय की खुशबू के साथ माटी की महक किसलय और काव्या का ध्यान बार-बार आकृष्ट कर रही थी।

‘‘कैसा लगा मेरा नया आशियाना ?’’ काव्या ने चहकते हुए पूछा।

किसलयचुपचाप काव्या के चेहरे के बदलते रंग को देखता रहा। चाय खत्म होते ही काव्या ने किसलय के बाएँ हाथ को पकड़ा और लगभग खींचने के अंदाज में बाहर खुले में ले जाकर एक ओर खड़ा किया और कहा, ‘‘खैर, जैसा भी हो, पर मुझे लगता है देवल वाले घर से तो बेहतर ही होगा। अब से यही मेरा घर है।’’ यह कहते हुए उसने दोनों हाथों को फैला एक बार गोल-गोल घूम लिया। उसे ऐसा करते देख लगा, मानो सारा ब्रह्माड अपनी बाँहों में भरना चाहती हो। वह एक-एक कमरे और स्थान के बारे में बताती रही, उनकी उपयोगिता और उद्देश्य की व्याख्या करती रही। किचेन कहाँ है,

प्रार्थना स्थल कहाँ है, बच्चे खेलते कहाँ हैं, कोई विशेष कार्यक्रम कहाँ होता है? वह सब बताती रही। उसने अहात से बाहर एक तरफ ले जाकर एक बोर्ड दिखाया, जिसे किसलय ने अब तक नहीं देख पाया था। उस पर मोटे अक्षरों में लिखा था ‘‘विद्या

विहार आश्रम।’’

किसलय ने गंभीरता से पूछा, ‘‘यह सब क्या है और किस उद्देश्य से?’’

काव्या ने शुरू से बताना शुरू किया। उसने यही देवधा से ही अपने कार्यक्रम की शुरुआत की थी। अब यहाँ करीब तीन सौ लड़के पढ़ते थे। कई लड़के-लड़कियाँ स्थायी रूप से यही रहकर पढ़ाई कर रहे थे। उसने यह भी बताया कि वह इस तरह के

पाँच आश्रम खोल चुकी है। और भी कई जगहों से लोगों का आमंत्रण मिल रहा। वह उचित स्थान का चयन कर रही। अब वह सुदूर गाँवों में जाने वाली थी, जहाँ या तो स्कूल नहीं हैं या हैं भी तो बहुत दूर-दूर। ऐसे भीतर के गाँव में सड़कों की भी उचित व्यवस्था  नहीं  है।  वह  ऐसे  ही  कई  आश्रम  खोलना  चाहती  है।  उसके  आश्रम  में अधिकांश ऐसे परिवार के बच्चे हैं, जिनके घरवाले शिक्षा के प्रति उदासीन हैं। ज्यादातर निम्न जाति और बेहद निर्धन परिवार के बच्चे।

किसलय चुपचाप सुनता रहा और देखता रहा। वह जो-जो दिखाती रही, वह कल्पना करता रहा, इतना करने के लिए उसने कितनी भाग-दौड़ की होगी। कुछ ही देर

बाद उसने दूसरे गाँव के बारे में बताया, जहाँ वह कुछ ही दिनों में आश्रम की शुरुआत करने वाली थी। खैर, किसलय उस रोज दिन भर काव्या के साथ घूमता रहा और बहुत कुछ   समझता रहा। वह उसके सोच की गहराई से दंग था। उसने प्रत्येक आश्रम के बारे में कितना प्लान किया था, ‘‘एक कोने में पुस्तकालय होगा, एक कोने में सामुदायिक भवन होगा, एक तरफ महिलाओं के लिए कई केंद्र होंगे, जहाँ वे एक साथ बैठकर भजन-कीर्तन, प्रवचन का भी आनंद ले सकें, साथ ही सिलाई-कढ़ाई और ब्यूटीशियन जैसे कई कोर्स भी कर सकें। जो पढ़ी-लिखी महिला हो, वह बच्चों को पढ़ाने में मदद भी कर सके।’’ इस तरह की असंख्य योजनाएं थीं काव्या के पास, जिसे सुनकर वह बस कौतूहल से उसे देखता रहा।

देर शाम जब गाँव से कई महिलाएं काफी संख्या में आने लगीं और एक तरफ बैठ सहज भाव से आपस में बात-विचार करने लगीं, तो काव्या ने भी उनके बीच जगह बनाया, वह उन्हें कुछ   कथा-कहानी सुनाने लगी। एक तरफ किसलय सुनता रहा और मन ही मन कहता रहा, ‘‘कितनी विदुषी हो गयी यह लड़की, वेद शास्त्र और पुराण पर क्या जबरदस्त पकड़ है, इसने कितना चिंतन-मनन किया होगा इसके लिए।’’ काव्या जब एक-एक श्लोक और ऋचाओं पर प्रकाश डालती, तो वाणी से धार्मिकता की अविरल धारा बहने लगती। रह-रहकर जब समवेत स्वर में भजन गूँजता, तो ऐसा लगता, मानो पृथ्वी की बजाय वह किसी दूसरे लोक पर आ गया हो। काव्या आज उसे और भी दिलचस्प और अलौकिक लगी। उसने महसूस किया जैसे यह सब काव्या की नहीं बल्कि उसकी खुद की सफलता हो। किसलय को आज यह पूर्ण विश्वास हो

चला कि काव्या जो चाहती है, वह कर लेगी। उसका सारा भ्रम आज टूट चुका था।

पहले कई बार उसे यही लगता था कि जो वह सोचती है वह सब बस ख्याली पुलाव है, जिन्हें वह सिर्फ मन बहलाने के लिए जब-तब बंद आँखों से देख लेती है।

 

20

रात को खाना खाकर जब दोनों एक साथ बैठे तो, जैसे यादों की बारिश ने दोनों को अपनी आगोश में भर लिया। किसलय आज दिल से काव्या के सामने नतमस्तक हो

चुका था। अध्यात्म और विज्ञान का अद्भुत समन्वय उसने काव्या के अंदर पाया था। उसकी इस कदर तार्किकता और व्यावहारिकता से ओत-प्रोत बातें किसलय को आज

बावला कर गयी थीं। वह इतना उतावला था कि बहुत कुछ एक ही बार में जानना चाहता था। काव्या ने प्रथम दिन के प्रवास से लेकर अब तक की सारी बातों को विस्तार से बताया।

किसलय चुप न रह सका और अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए मन में जो संशय था, वह भी पूछ     ही बैठा, साथ ही वह यह भी जानने को व्यग्र था कि अब आगे कि क्या प्लानिंग हैं?

‘‘मैं ये नहीं समझ पा रहा, जब आपने खुद से इतना कुछकर लिया था, तो फिर क्या सोचकर मुझे बुलाया?’’ किसलय ने छटपटाहट में पूछा।

‘‘शुरुआत तो आशातीत रही, अब यहाँ से आपकी भूमिका अहम हो जाएगी। मेरे साथ-साथ आपको भी बहुत दौड़-धूप करनी होगी। नये-नये जगहों को चिन्हित करना होगा। वहाँ कैसे आश्रम की स्थापना हो पाएगी, इस पर काम करना होगा। अब वक्त आ चला है, जब आप अपने तमाम अर्जित और बौद्धिक ज्ञान का जौहर दिखाएं। मेरा उद्देश्य सिर्फ उपदेश देना भर नहीं, बल्कि ऐसे तमाम वंचित, शोषित और पीड़ित की

लड़ाई लड़नी है, जिन्हें अब तक समाज में अपना हक और एक सम्मानित जिंदगी नहीं मिल सकी। और ये तभी संभव हो पाएगा, जब नयी पीढ़ी शिक्षित होगी। शिक्षा के अलावा और कोई ऐसा मंत्र नहीं, जो समाज में समानता ला सके।’’

‘‘माना  कि  स्कूल  और  आश्रम  तक  तो  ठीक  था,  पर  ये  धार्मिक  प्रवचन  और सामुदायिक कार्यक्रम, इसका औचित्य मुझे समझ में नहीं आया।’’ किसलय ने पूछा ।

‘‘आपने इतने दिनों में महसूस कर लिया होगा कि धर्म के पीछे लोग कितने दीवाने हैं। लोग धर्म के नाम पर हजारों-हजार  रुपये फेंक सकते हैं, पर सामाजिक कार्य के लिए कोई मदद माँगने जाये, तो हाथ खड़े कर देंगे। ऐसे में प्रत्येक आश्रम में एक मंदिर भी बन जाये, तो क्या फर्क पड़ता है। मंदिर और धर्म के नाम पर भी अगर लोग एक सूत्र में प्रेम और भाईचारा के साथ रहें, अपनी संस्कृति और संस्कार का संवर्धन करें तो क्या परेशानी ? मैं इन  ऊपयों का सदुपयोग लोक कल्याण के लिए करना चाहती हूँ। सुदूर गाँवों में शिक्षा के प्रति कोई  झान नहीं, देश की वर्तमान परिस्थिति से भोले-भाले ग्रामीण का कोई सरोकार नहीं, अशिक्षा के कारण हर नेता और पार्टी इन ग्रामीण को जैसे मन, वैसे बहका कर वोट ले जाते हैं। आज  भी  हमारा  ग्राम्य  समाज  गहन  अंधेरे  खोह  में  पड़ा  है।  प्रत्येक  गाँव  में पुस्तकालय की व्यवस्था होनी चाहिए ताकि सभी एक जगह इकट्ठा हों, ज्ञान-विज्ञान, दर्शन और राजनीति को समझें और खुलकर चर्चा करें। लोग समाचार पत्र-पत्रिकाओं और साहित्य, इतिहास में  रुचि लेना शुरू करें। सही मायने में लोकतंत्र तब तक अधूरा

है, जब तक जनता शिक्षित न हो जाये। देश की दुर्दशा, बढ़ती गरीबी, बेरोजगारी और भिन्न-भिन्न समस्याओं की मूल जड़ जनसंख्या है, पर सभी राजनीतिक दल अपनी- अपनी दाल गलाने में व्यस्त हैं। किसी को जनसंख्या विस्फोट की भीषा विभीषिका का अंदेशा नहीं और अगर है, भी तो व्यक्तिगत स्वार्थ के आगे कुछ सोचने का विचार नहीं। मैं अपनी हर सभा में जनसंख्या नियंत्रण के तरीकों को समझाना चाहती हूँ। लोग इसकी अच्छाइयों को समझें, तभी एक आदर्श समाज की परिकल्पना संभव है।

किसलय ने मन-ही-मन चुहल किया, ‘आपका बस चले तो आप किसी को शादी ही न करने दें, न तो आपको अपनी करनी है, ना ही दूसरे को करने देना चाहती हैं।’

काव्या जब थोड़ी शांत हुई, तो किसलय ने भारी मन से पूछा- ‘‘आप जो कर रहीं और जो कुछ करना चाहती हैं, ये सब कब तक चलता रहेगा ? इतना बड़ा देश है, इसमें कितने ऐसे आश्रमों की जरूरत पड़ेगी, क्या आपको इन सब कार्यों का कहीं

अंत भी नजर आता है?’’

‘‘नहीं, इसका कोई अंत नहीं। मैंने गीता पढ़ी है और गीता का निष्काम कर्म तो आप भी जानते हैं, फिर अंत और परिणाम  को लेकर क्या सोचना ?’’

‘‘आप दुनिया में सभी के लिए काम नहीं कर सकतीं, इसलिए अपनी ऊर्जा और क्षमता के लिमिटेशन को समझें। जितना संभव हो, जरूर करें, पर अकेला चना भाड़ नहीं फोड़ता। दूसरों को भी तो करना चाहिए। सारी दुनिया का ठेका, आपने ही तो नहीं ले रखा है। अब लोग अपने घर के बाहर भी सफाई न करें, तो आप कहाँ-कहाँ और किसके-किसके घर तक ऐसा करती फिरेंगी ? आप मानव हैं, आपके असंख्य अवतार

और रूप नहीं, आपकी भी सीमाएं हैं।’’ किसलय ने आवेश में कहा।

‘‘मैं तो यही जानती हूँ कि ऊर्जा और क्षमता की कोई सीमा नहीं। यह तो अनन्त है। जितना मुझसे हो सकेगा, मैं पूरी शिद्दत से करना जानती हूँ। मैं चाहती हूँ कि लोग एक बार सोचने पर मजबूर हो जाएं। आज दो हाथ हैं, कल चार होंगे। बढ़ते-बढ़ते एक दिन करोड़ों हाथ उठेंगे इन सब कार्यों के लिए। सच कहें किस बाबू, तो यहाँ करने के लिए बहुत कुछ   है, ऐसी एक जिन्दगी तो क्या, कई जिन्दगी के बाद भी काम समाप्त न हो। मैं आपको काम बताऊँ, ये उचित नहीं जान पड़ता। आप जितना हो सके, अपने लिए कार्य निर्धारित करें, दो-चार दिन रहने के बाद आप ढेर सारी नयी चीज़ों को भी समझ जाएंगे। और आपने पूछा कि मैंने आपको क्यों बुलाया, तो इसका उत्तर ये है कि मैं अपनी छवि आप में देखती हूँ। वैसे भी कोई साथ में तो है नहीं, जिससे मैं अपने मन की बातों, सफलता-असफलता, उचित-अनुचित, शुभ-अशुभ की चर्चा कर सकूँ।

बस इस भवसागर में केवल एक आप ही तो हैं, जिन्हें मैं इस मामले में अपने दिल के बहुत करीब पाती हूँ। इस रास्ते में बहुत बाधाएं आ सकती हैं, कई जगह घोर- विरोध का भी सामना करना पड़ सकता है, उन तमाम विषम परिस्थितियों में कोई तो ऐसा साथ में होना चाहिए, जो मेरे विचलित मन को धैर्य और प्रेरणा दे सके। एक आप ही से तो इतनी उम्मीद है और अगर आप भी…।’’  उसका गला भर आया था। उसने

बात को आधे पर ही खत्म कर एक लंबी सांस ली।

किसलय कुछ देर खामोश रह इन बातों का मर्म समझता रहा। कुछ देर के लिए कमरे का वातावरण बेहद भारी हो गया। ऐसे में काव्या ने थोड़ी दिल्लगी की, ‘‘और

आपका मन अगर न लगे, तो कहिएगा पूजा को भी बुला लूँगी।’’ पूजा के नाम पर दोनों का चेहरा खिल उठा। कुछ   देर के लिए एक नया मसाला मिल चुका था और दोनों अब पूजा के बारे में बात करने लगे थे।

काव्या कई बार सोचती कि किसी तरह पूजा और किसलय का आपस में मेल- मिलाप हो जाता, तो मेरे लिए भी परिस्थिति बहुत अनुकूल हो जाती। उसके दिल में

पूजा के प्रति लेशमात्र भी बदले और ईष्या की भावना न थी। उसकी प्रकृति तो हिमालय जैसा स्थिर और शांत थी। एक बार निश्चय कर लिया, तो फिर उससे डिगना उसने सीखा नहीं था। इस नये रूप में तो वह इतनी तेजस्विनी और प्रकाशमान हो चली थी, मानो बुराई तो उसके इर्द-गिर्द भी न आ सके। साधारा लोगों की तरफ उसने एक बार

तीक्ष्ण निगाहों से देख भर लिया, तो लोगों की घिग्घी बंध जाए। ब्राह्चर्य और पवित्रता की आभा उसके शरीर से    छनकर  आती  थी।  नैकट्य  के  इस  अभिन्न  पलों  में  भी किसलय को कभी-कभी ऐसा भान होता, मानो वह काव्या के पास रहकर भी दूर होता जा रहा है, पर दूसरे ही पल खुद को वह बेहद समीप पाता। किसलय की जिंदगी नदी के दो पाट की तरह उलझ कर रह गयी थी। वक्त आहिस्ता-आहिस्ता गुजरता रहा और एक ऐसा भी समय आया, जब किसलय को इस कार्य में असीम सुख की प्राप्ति होने लगी। उसकी कार्यपरायणता और कर्तव्यनिष्ठा देख काव्या भौंचक्की रह जाती। तड़के सुबह से शाम तक बस दुनिया की फिक्र लगी रहती, निज का कुछ भी ध्यान न रहा।

परमार्थ में उसका मन रम गया था और सबसे बढ़कर उसके लिए आनन्द का स्रोत काव्या का साथ था। काव्या वो मूर्ति थी, जिसके सामने अकिंचन भक्त विषवमन करने

में कोई कोताही नहीं करते, मन का मैल अपने आप धूल जाता। किसलय का सारी थकान और परेशानी उस एक पल में काफूर हो जाता, जब काव्या की अलौकिक आँखें सामने होती। एक अजीब प्रेरणा और शीतलता का आभास होता।

सब कुछ सहज चल रहा था। हजारों लोगों का कल्याण हर रोज हो रहा था। सबका आशीष माथे लग रहा था, पर शायद प्रारब्ध को ये मंजूर न था और एक रोज एक अप्रत्याशित घटना घटी। उस रोज शाम से ही बेमौसम बारिश होने लगी। काव्या इन दिनों कुछ ज्यादा चुस्त और मुस्तैद थी अपने कामों में, पर किसलय आज सुबह से ही शिथिल हुआ जा रहा था। शाम होते-होते तबीयत ज्यादा खराब हो गयी। बहुत

तेज बुखार और सिरदर्द था। फौरन डॉक्टर को इतला की गयी, डॉक्टर ने अच्छे से चेकअप किया और जरूरी दवा दी। कुछ  घंटों में बुखार और पीड़ा खत्म होने की बात कह डॉक्टर चले गये। काव्या एक पल के लिए किसलय को अकेला नहीं  छोड़ना चाहती थी। नौकरों को उसने बाहर विदा किया और खुद देखभाल की कमान संभाल ली। माथे पर ठंडी पट्टी बाँधी और सिर पर ठंडे तेल रख चंपी करने लगी। पलभर में अपने आपको उसने साधारण नारी की तरह सेवा के लिए अग्रसर कर लिया। काव्या के हाथों ने जादू-सा असर किया। दर्द धीरे-धीरे कम होने लगा था। पता नहीं सच्चाई क्या थी, दर्द कम होने लगा था या किसलय के बर्दाश्त करने की क्षमता बढ़ गयी, कहना मुश्किल था। काव्या किसी दासी की तरह विपन्न आँखें लिए किसलय के तकलीफ को कम करने के लिए नाना उद्योग कर रही थी। वह एक कुशल नाई की तरह  सिर  पर  बहुत  बारीकी  से  थपकी  देने  लगी।  किसलय  उल्टा  मुँह  करके  चम्पी करवाता रहा। रह-रहकर उसका पीठ और सिर काव्या के उभारों को छू जाता। वह अर्ध पद्मासन की अवस्था में बैठा था इस वक्त।

पहले तो किसलय ने इस ओर ध्यान नहीं दिया, पर धीरे-धीरे गुदगुदी होने लगी। संवेदना जग चुकी थी। उसे ऐसा भी लगा, मानो काव्या ने जल्दबाजी में टी-शर्ट के नीचे कोई अंत: वस्त्र नहीं पहना हो। अब वह चित लेट गया था और काव्या तलवे सहलाने लगी थी। काव्या को देखने से ऐसा जान पड़ता था, मानो अभी-अभी नहाकर आयी हो। उसके दोनों हाथ एकदम बर्फ की तरह शीतल थे। उसके  छुअन से एक अनचाही नमी का एहसास हो रहा था। उसके बाल खुश्क हो चले थे और खुले पीठ पर छितराये हुए थे। टी-शर्ट बालों के स्पर्श से हल्का भीग-सा गया था। वह जब भी जरा-सा ज्यों झुक जाती, उस वक्त उसके घने बाल मनचले हो उठते। जिस तौलिया को वह कंधे पर लिये आयी थी, वह उसी का उपयोग तलवे सहलाने में कर रही थी। तौलिया का एक छोर काव्या के कंधे पर था, तो दूसरे  छोर से वह किसलय के पैर में रगड़ कर रही थी। पतले सूती टी-शर्ट से उसके अंग साफ झलक रहे थे। किसलय उसके मांसल उभारों और बीच के ढलान में फिसलने लगा था। वह इस वक्त भरपूर नयन सुख ले रहा लगा था। उसकी आँखों पर काव्या की जवानी का नशा  छाने लगा। उसकी कामुकता, नयनों से निकले तीर की तरह उसे आर-पार भेद रही थी। काव्या अभी  तक  बेसुध  थी।  वह  अपने  कार्य  में  इतनी  तन्मय  थी  कि  इस  ओर  ध्यान  ही

नहीं गया।

‘‘अब आप रहने भी दीजिए। मुझे अच्छा नहीं लग रहा, आपका इस तरह मेरा पाँव दबाना।’’ वह कमर सीधा करते हुए बैठ चुका था। उसने काव्या के दोनों हाथों को अपने सीने से  छुआते हुए कहा, ‘‘इन कर कमलों की जगह इन तुच्छ पावों में नहीं, यहाँ है।’’ उसने अति उत्साह में दोनों हाथों को चूम लिया। वह जब तक कुछ सोचती, बोलती उसने साहस कर आगे बढ़ उसके माथे को होंठो का स्पर्श दिया। बेतरतीब बाल फैल गये आवरा-सा। काव्या का चेहरा अंगीठी की तरह तपने लगा। वह मूक बनी रही। किसलय ने कोई प्रतिरोध न देख उसके चेहरे को दोनों हाथों से धीरे से उठाया और गले को चूमने लगा। बड़ी गहरी और लम्बी चुंबन थी। उसका ध्यान तब भंग हुआ जब मुँह में दो-एक बाल आ गये। उसने बायें हाथ से बालों को इकट्ठा करने की कोशिश  की,  पर  वह  विफल  रहा।  उसका  बायां  हाथ  जुल्फों  में  उलझ  गया  और अंगुलियाँ अठखेलियाँ करने लगी। वह उसकी जुल्फों को कई तरीके से सजाता रहा। उसके बालों से निकलने वाली मसालेदार खुशबू किसलय को मदहोश करती रही। काव्या का सब्र अब जवाब देने लगा। उसके अंदर वर्षो से संचित कामवासना की छिटपुट चाह अब तक विशाल पहाड़ बन चुकी थी, जो इस छुअन से बर्फ की नदी की तरह पिघलने लगी। अचानक से काव्या के हाथों में गति हुई। उसके हाथ किसलय के पीठ पर फिसलने लगे। वह बिजली के झटके की तरह काँप-सा गया। शायद यह उसके लिए अप्रत्याशित था। वह पुलकित होता रहा, काव्या सिहरती रही। उसने काव्या के कंधों को पकड़ उसकी आँखों में झाँका। ऐसा लगा, मानो मौन स्वीकृति ले रहा हो। इस बार वह अंगुलियों से काव्या के होंठो की लालिमा को चमकाने और चटक करने लगा। उसके हाथ मतवाले हो गये। अंगुलियाँ शरीर के पोर-पोर को गुदगुदाने लगीं। उसने मृदु हाथों से काव्या के वक्ष को होले से दबाया। यह बिल्कुल नया एहसास था काव्या के लिए। काव्या का दिमाग कई बोतल विस्की के नशा से भर गया। किसलय

ने उसके शरीर के हर कोने-अंतरे को स्पर्श किया, जैसे वह अनजानी राहों पर सम्भल कर चल रहा हो। काव्या की सुध-बुध जाती रही। वह बावली हो उठी। उसका मन

मचल उठा। किसलय ने कब काव्या को बाँहों में भर बिस्तर पर सुला दिया, इसका ख्याल काव्या को न रहा। उसने खुद को कपड़ों से मुक्त कर लिया। वह आहिस्ता से काव्या के वस्त्रों को शरीर से उतारता रहा। वह लजाती रही, पर किसलय के नग्न शरीर को सरसरी निगाहों से देखती रही। शायद आँखों को तृप्ति मिल रही थी। कसरती तो नहीं, पर गठीला बदन था उसका। दोनों एक-दूसरे से खूब कसकर लिपट गये। शरीर से शोले बरसने लगे थे। वह काव्या के अंदर ऐसे उतर रहा था, जैसे कोई तपता आग का गोला आसमान से टूटकर उसके अंदर समाहित हो गया हो। उसे जलन होने लगी, दर्द भी असह्य होने लगा था, पर इस दर्द में भी मजा था।

दोनों एक-दूसरे में डूबने लगे थे। वासना के तूफान में बौराई काव्या ने कब उसके कंधे पर दांत गड़ा दिया, उसे खुद मालूम न चला, लेकिन निशान रह गये थे। ऐसा लगा जैसे दौरा पड़ा हो। सम्भालना मुश्किल हो रहा था। दोनों कुछ देर तक हवा में उड़ते रहे। यह एक असीम उड़ान थी, जिसमें समय, स्थान और निज की चेतना जाती रही। हर एक थिरकन आनंद से परिपूर्ण थे। तन और मन दोनों भीग रहे थे। धीरे-धीरे सब कुछ शान्त और सहज हो चला। किसलय ने महसूस किया कि काव्या उससे ज्यादा समाधिस्थ थी, इस काम क्रीड़ा में। शायद एक महिला एक पुरुष से कई गुणा ज्यादा सेक्स  एंजॉय  करती  है।  अगर  कोई  मीटर  ऐसा  होता,  तो  जरूर  बताता।  पुरुष  नाना क्रियाकलापों और आसनों द्वारा स्त्रियों का भोग और उपभोग जरूर कर सकते हैं, पर संभोग तो अधिकांश मौके पर सिर्फ महिलाएं ही करती हैं। आँधी थम गयी थी। मन के आकाश से वासना का धुंध छंट चुका था। दोनों थक चुके थे, पर मन इतनी जल्दी कहाँ थकने वाला था। काम तृष्णा कई बार जगती रही और हर बार दोनों तृप्त होते रहे। कुछ देर तक दोनों बिस्तर पर एक-दूसरे की बाहों में बाहें डाल निढाल पड़े रहे। दोनों अब उन पलों को याद करने लगे थे, जो अब बीत चुके थे। एक तरफ काव्या को कोई अमूल्य निधि खोने के भ्रम का एहसास हो रहा था, तो दूसरी ओर ऐसा लग रहा था जैसे अकाल के बाद झमाझम बारिश ने पृथ्वी का रोम-रोम तर कर दिया हो। सुबह जब कमरे में सूरज की पहली किरण वातायन से झाँकने लगी, तो किसलय

जगा। वह बिल्कुल स्वस्थ हो चुका था। रात की बातें उसे मीठे स्वप्न की भांति याद आ गयीं। उसका मन प्रफुल्लित हो गया। वह एक-एक पल को याद कर रोमांचित होने

लगा। कितनी खूबसूरत रात थी। कैसा अनोखा संगम था। उसने घड़ी देखी और झटपट उठकर बैठ गया। सामने मेज पर एक बड़ा-सा पत्र नजर आया, ‘कल तक तो मेज सुना-सा था, आज ये अचानक पत्र कैसा’ उसे आश्चर्य हुआ। वह अपनी उत्सुकता को रोक नहीं पाया और पत्र खोलकर पढ़ने लगा। दूसरे ही पल वह काँप गया, वह काव्या का लिखा हुआ पत्र था-

प्रिय किसलय,

आप जब पत्र पढ़ रहे होंगे, तब तक मैं दूर निकल चुकी होऊंगी, इसलिए धीरज से काम लेना। आप रात की बात के लिए अपने आप को कसूरवार मत ठहराना। कहीं

न कहीं मुझमें कमी थी, तभी तो ऐसा हो पाया। मैं जिस पवित्र उद्देश्य से निकली थी, वह अधूरा छोड़, मुझे ये नया कदम उठाना पड़ा। मुझे अपने आप पर बहुत ग्लानि हो रही। जिसे दुनिया देवी रूप में देख रही थी, वो एक पल के लिए अपने आप को संभाल न पायी। मैंने बहुत विचार किया कि अब क्या करना होगा, चूँकि मुझसे पाप हुआ है और मैं इसका प्रायश्चित करना चाहती हूँ। मैंने इन कार्यो को शुरू करने से पहले वचन लिया था कि जब तक अपने मंजिल को पा न लूँगी, अपने कौमार्य को संभाल रखूँगी। अपनी पवित्रता और चरित्र पर बहुत गर्व था मुझे। शायद ये गर्व नहीं अहंकार था और अहंकार ही तो ईश्वर का आहार है। शायद इसी कारण मुझ पर ये तोहमत लगी। मेरे पास अब इतनी ताकत न थी कि मैं आपकी आँखों में आँखें डाल सकती। मैं ये नहीं कहती कि शारीरिक मिलन गलत होता है, पर ये समय गलत था। मैं अपने पद की गरिमा और आदर्शों से चूक गयी। मैंने अपने आप को कभी साधारण महिला की तरह पाया ही नहीं, वरना मैं भी शादी और तमाम रिश्तों को निभाती। सच कहूँ तो मुझे प्यार से इसीलिए डर लगता था, क्योंकि इसकी अंतिम परिणिति शारीरिक मिलन ही तो है। आप सच मानें, ये अकस्मात बिजली गिरने जैसी बात थी। आपके चुंबन और मेरे

बालों में उलझे आपके हाथ ने अचानक से मुझे बावली कर दिया। मैं किंकर्तव्यविमूढ़ रह गयी और जब तक कुछ निर्णय  कर पाती, तब तक आप काफी आगे बढ़ चुके थे। मजबूर हो मैंने चुपचाप आपको समर्पित कर दिया। मैं यहाँ से कहाँ जाऊँगी, ये आप पता नहीं कर पाएंगे। शायद हम फिर कभी मिलेंगे या नहीं, कोई नहीं जानता। इसलिए आपके लिए मैं ब्लैंक चेक  छोड़े जा रही, आपको जब जितने पैसे की जरूरत होगी आप निकाल सकते हैं। मैं नहीं चाहती आप रुपये-पैसे को लेकर कभी कष्ट में पड़े।

मुझे दु:ख इस बात का है कि जिस नीड़ को सजाने के लिए मैंने एक-एक तिनके को बड़ी शिद्दत और मेहनत से इकट्ठा किया था, आज उसे छोड़कर जाना पड़ रहा, पर

कोई बात नहीं मेरे लिए जगह और काम की कोई कमी नहीं। मैं जहाँ भी रहूँगी अपने उद्देश्यों में लगी रहूँगी, लेकिन आप मेरे इस सपनों के महल को ढहने मत देना। आप अगर सच में मुझसे प्यार करते हैं, तो उस प्यार की कसम ये सारा कुछ   आप संभालेंगे।

ये हमारे प्यार की निशानी होगी। आप तो सब कुछ जानते हैं। इस संस्था का कोई भी भेद मैंने आपसे नहीं  छुपाया। आपको जो उचित लगे, करें। मुझे और भी खुशी होगी, अगर आप किसी बहाने पूजा को भी इस संस्था से जोड़ लें। मुझे अपराबोध तो जरूर हो रहा, पर दूसरी ओर ये भी लग रहा कि चलो जो हुआ अच्छा ही हुआ, क्योंकि कभी-कभी मैं भी आपको देखकर कमजोर हो जा रही थी। इसलिए आग और घी का दूर रहना ही ठीक होगा । आपका बेमिसाल त्याग और प्यार सदा से अनुकरणीय और प्रेरणा स्रोत्र रहेगा मेरे लिए

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क्रमश :

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