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   – विद्या शंकर विद्यार्थी 

जा रहे हैं हम गांँव की ओर, शहर छोड़कर

मोटर गाड़ी की धूल धुआँ जहर छोड़कर
यादें आ रही है राह में गाँव बरगद की छांव
विश्राम करते राही धूल में होते उनके पांव
छपी हुई अखबार की झूठी खबर छोड़कर।
जा रहे हैं हम गाँव की ओर, शहर छोड़कर।।
लड़कियाँ फैशन की साड़ियाँ दिखलाती हैं
पिता समान जानकर हमसे नजरें झुकाती हैं
महँगी दुकान की लिफ्टिंग शटर छोड़कर।
जा रहे हैं हम गाँव की ओर, शहर छोड़कर।।
उचक्के सोने का चैन महिला से ले उड़े
शरारती मुस्कुराते रहे सिपाही नहीं ढूँढ़े
शहर में रोज दिन का यह बवण्डर छोड़कर।
जा रहे हैं हम गाँव की ओर, शहर छोड़कर।।
कितने नौनिहाल रोटियाँ चुनते हैं अलावों पर
दवा नहीं लगती उनकी भूख,भूख की घावों पर
हृदयहीन आदमी बिल्कुल पत्थर छोड़कर।
जा रहे हैं हम गाँव की ओर, शहर छोड़कर।।
One thought on “गाँव की ओर”

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