साक्षात्कार –
लंबी बातचीत
सिद्धेश्वर
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नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’
सुप्रसिद्ध कवि-कथाकार- चित्रकार सिद्धेश्वर से नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’ द्वारा लिया गया साक्षात्कार
आज मैं आप सभी को एक ऐसे शख्स से रूबरू कराने जा रही हूँ, जो किसी परिचय के मोहताज नहीं हैं l रेल विभाग से अवकाश प्राप्त करने के बाद, आज वे पूरी तरह से साहित्य को समर्पित हो गए हैं और ऑनलाइन के माध्यम से वरिष्ठ, कनिष्ठ और नवोदित लेखकों को एक मंच प्रदान कर, उन्हें सोशल मीडिया के हर प्लेटफार्म से उनको पहचान दिला रहे हैं l साथ ही साथ, कविता – लघुकथा गोष्ठी करते हुए, नवोदित लेखकों का पुस्तक विमोचन कराते रहे हैं l रेखाचित्र प्रदर्शनी, कविता -लघुकथा पोस्टर प्रदर्शनी तो करवाते ही रहे हैं l
मैं बात कर रही हूँ, जाने माने कवि – लघुकथाकार और रेखांकन में सिद्धस्त श्री सिद्वेश्वर जी का l
नीतू – नमस्कार सर ! आपने मुझे भेंटवार्ता के लिए समय दिया, इसके लिए धन्यवाद ! सर, आप अपने लेखन का शुरुआती सफर बताएं l आपने लेखन की शुरुआत कब और कैसे की ?
सिद्धेश्वर – मैंने लेखन की शुरुआत अपनी 14 वर्ष की उम्र से किया ! बचपन से ही मुझे कविता, कहानी आदि पढ़ने का बहुत शौक था ! और मैं सिन्हा लाइब्रेरी अक्सर जाया करता था !
उस वक्त पटना से ‘कृतसंकल्प’ पत्रिका प्रकाशित हुआ करती थी ! बच्चों के पत्रिका बालक, नंदन विवेकानंद बाल संदेश और पराग से मेरा विशेष लगाव था l रचनाओं को पढ़ते हुए मेरे भीतर यह जिज्ञासा जगी कि मैं भी कुछ लिखूं l
आरंभिक लेखन कविता से हुई l आगे चलकर हमने डायरी, कहानी, बाल कहानी, लघुकथा सब कुछ लिखा l स्कूल की स्मारिका में, मेरी पहली कविता ‘मां’ प्रकाशित हुई ! बालक में मेरी पहली कहानी ‘सोने का पंख’ प्रकाशित हुई ! मेरी पहली प्रकाशित लघुकथा ‘आगमन’ है जो कृतसंकल्प के लघुकथा विशेषांक में प्रकाशित हुई l
नीतू – मैंने सुना है कि आपको बचपन से ही पत्रिका प्रकाशन का भी शौक था !
सिद्धेश्वर – नीतू जी, आपने सही सुना है l मुझे लगता था कि मैं भी पत्रिका का संपादन कर सकता हूं l कुछ और हाथ न लगा तो मैं स्वयं ही अपने हाथों से लिखकर और उस पर चित्रांकन करते हुए ‘आशा’ नाम से, हस्तलिखित पत्रिका के कई अंक प्रकाशित किया, जो आज भी मेरे पास संग्रहित है l
मैंने हस्तलिखित, लघुकथा पर केंद्रित पत्रिका ‘लघुकथा संसार’ भी निकालना शुरू किया, जो अखिल भारतीय प्रगतिशील लघुकथा मंच द्वारा आयोजित वार्षिक लघुकथा सम्मेलन में, लोकार्पित भी होती रही l डॉ. कुमार विमल, डॉ. सतीशराज पुष्करणा, सुकेश साहनी, रामनिवास मानव, सत्यनारायण आदि वरिष्ठ साहित्यकारों द्वारा लोकार्पण किया जाता रहा l
मेरे द्वारा संपादित हस्तलिखित पत्रिका लघुकथा संसार की समीक्षा दैनिक ‘आज’ में हृदय नारायण झा ने किया, तो काफी उत्साह मिला और फिर मैंने इसके कई अंक संपादित कियाl
आगे चलकर डॉ. बी. एल. प्रवीण के संपादन में प्रकाशित ‘प्यार जगत’ पत्रिका से भी मेरा जुड़ाव रहा ! और फिर अपने संपादन में ‘अवसर’ पत्रिका के भी कई अंक प्रकाशित किए !
नीतू – आप पहले कवि हैं या लघुकथाकार या रेखाचित्रकार ?
सिद्धेश्वर – आपने बहुत अच्छा सवाल किया है, किंतु बहुत कठिन भी ! कविता, कहानी, लघुकथा और फिर रेखाचित्र, सबकुछ मेरे आरंभिक लेखन काल से प्रकाशित होते रहे हैं l किंतु अधिक सफलता लघुकथा और चित्रकला में मिली है, इस बात में कोई दो मत नहींl
कई मित्रों ने कहा कि आप किसी एक विधा को अपनाइए l लेकिन रविंद्रनाथ टैगोर, महादेवी वर्मा, निराला, आदि कई ऐसे रचनाकारों से मैं प्रभावित था, जिन्होंने किसी एक विधा में नहीं, बल्कि कई विधाओं में अपनी रचना कौशल का परिचय दिया l खासकर महादेवी वर्मा और टैगोर जी ने तो कई चित्र भी बनाए थे l आज भी विजेंद्र, विज्ञान व्रत, संदीप राशिनकर, राजेंद्र परदेसी, अनुप्रिया, मार्टिन जॉन जैसे कई वरिष्ठ साहित्यकार अच्छे रेखाचित्र बनाते रहे हैं l फिर मैं इनसे परहेज क्यों करूं, जबकि हमारे पाठक, संपादक और प्रकाशक भी इसे बखूबी पसंद कर रहे हैं l अब पाठक पर ही छोड़ देना चाहिए कि मेरी किस विधा को वे अधिक पसंद करते हैं और वे मुझे किस रूप में देखते हैं ?
जहां तक मेरी बात है, मैं अपने को सबसे पहले कवि, फिर लघुकथाकार और फिर चित्रकार के रूप में स्वयं को देखता हूं l इन तीनों में कितना सफल हूं यह तो आप लोग ही बताएंगे l मैं तो सिर्फ अपनी धुन में, अपना काम करने में विश्वास रखता हूं l
नीतू – आपकी अभी तक कितनी पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं और किस विधा पर ?
सिद्धेश्वर – मेरी अपनी लिखी हुई, सात पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं l सबसे पहले बूँद -बूँद सागर (लघुकथा संग्रह ), उसके बाद इतिहास झूठ बोलता है (कविता संग्रह ), ढलता सूरज ढलती शाम (कहानी संग्रह), भीतर का सच (लघुकथा संग्रह ), दहशतजदा ( उपन्यास अंश ),काव्य कलश ( लघुकथा पुस्तिका ) और सोने के पंख ( बाल कहानी संग्रह ) !
इसके अतिरिक्त हमने पांच पुस्तकों का संपादन भी किया है, जिसमें ‘आदमीनामा’ (बिहार की लघुकथाकारों की पहली पुस्तक) काफी चर्चित रही ! मेरी कलाकृति पर भी एक पुस्तक प्रकाशनाधीन है l
नीतू – कविता, लघुकथा के अनुसार आप रेखांकन भी बनाते हैं l यह कैसे संभव होता है ? आपके रेखांकन किन – किन पत्र – पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं ?
सिद्धेश्वर – मैं किसी एक विषय से संदर्भित चित्र नहीं बनाता l आधुनिक ग्राफिक्स भाव चित्र बनाता हूं l ऐसे चित्रों की खासियत है कि ये कई रचनाओं के साथ मेल खा जाते हैं और संपादक जहां उचित समझता है, वह उसका उपयोग कर लेते हैं l हमारे रेखाचित्र की पृष्ठभूमि कैनवास बहुत विस्तृत है ! कुछ लोगों के सुझाव पर अब मैं अपनी रेखाचित्र का विषय भी देने लगा हूं ! लेकिन मेरा अपना मानना है कि चित्र का शीर्षक देकर हम उसके भाव को सीमित दायरा में बांध देते हैं l यह दर्शकों, पाठकों पर छोड़ देना चाहिए कि वह उसे किस रूप में देखता है l हमारा ग्राफिक आर्ट (चित्र ) कोई एक कविता या कहानी नहीं जिसे किसी एक भाव भूमि से बांध दिया जाए l
स्थूल चित्र में यदि आप किसान का चित्र बनाते हैं तो कोई भी उसे किसान ही कहेगा l किंतु हमारे ग्राफिक्स आर्ट में ऐसी बात नहीं है l “जाकी रही भावना जैसी हरि मूरत देखी तिन तैसी” वाली कहावत हमारे इन चित्रों में परिलक्षित होती है !
हमारे प्रकाशित चित्रों की संख्या कविता कहानी से कहीं अधिक है ! और देश – विदेश की एक हज़ार से अधिक पत्र-पत्रिकाओं में, पुस्तकों के आवरण में, मेरे तेरह सौ से अधिक रेखाचित्र( कलाकृति) प्रकाशित हो चुकी हैं l वागर्थ, नया ज्ञानोदय, आजकल, कथादेश, समकालीन भारतीय साहित्य, अन्यथा, नई धारा, सुपर ब्लेज़, हंस, कथाक्रम, हिंदुस्तान, नवभारत टाइम्स जैसी मुख्यधारा की पत्र – पत्रिकाओं से लेकर तमाम लघु पत्रिकाओं तक, मेरे रेखा चित्र प्रकाशित होते रहे हैं और आज भी हो रहे हैं !
नीतू – अभी कुछ महीने पहले आप रेलवे से अवकाश प्राप्त किए हैं ! उसके पहले आप अपनी सेवाएँ देते हुए भी साहित्यिक कार्य से जुड़े रहते थे ! उस समय कितनी परेशानियों का सामना करना पड़ता था, क्योंकि लेखन और नौकरी एक साथ संभव नहीं हो पता !
सिद्धेश्वर – मुझे लगता है परेशानियों में ही हम अधिक बेहतर लिख पाते हैं ! हालांकि हमारी नौकरी ऐसी थी कि इसमें कई लेखकों को हमने कलम छोड़ते हुए भी देखा है l लेकिन हमारे रेल विभाग में रहते हुए भी, कई साहित्यकार आज साहित्य जगत के सितारा बन बैठे हैं l
यदि लेखक के भीतर जिज्ञासा और ललक हो, तब कोई भी परिस्थिति बाधक नहीं बन सकती, हाँ, परेशानियों का कुछ अधिक सामना अवश्य करना पड़ सकता है l मेरे साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ l परिवार वालों के साथ कम और साहित्य के साथ कुछ ज्यादा समय दिया हमने l क्योंकि मेरी दिनचर्या का अधिक समय तो मेरी नौकरी में ही निकल जाती थी l
लेखक को अपने लेखन के लिए या अध्ययन के लिए स्वयं ही समय निकालना पड़ता है l ट्रेन में ड्यूटी करने के बाद, जब मैं विश्राम घर पहुंचा था, तब विश्राम कम और पत्र-पत्रिका और पुस्तक अधिक पढ़ा करता था l
कई बार तो चलती हुई ट्रेन में ही ड्यूटी करते हुए, रफ में ही कुछ लिख लेता था और घर पहुंचने के बाद उसे फाइनल रूप देता था l बूंद बूंद सागर लघुकथा संग्रह की अधिकांश लघुकथाएं, इसी ट्रेन में ड्यूटी करते हुए लिखी है हमने l
( हँसते हुए ) हां, इतना जरूर है कि लेखन में अधिक समय देने के कारण, अपनी पत्नी को बहुत मनाना पड़ता था l
और कभी-कभी अपने ऑफिस में अपने अधिकारियों से बातें भी सुननी पड़ती थीl
नीतू – कोई ऐसा वाक्य बताएं, जब ऑन ड्यूटी कोई लेखक – पाठक आपको पहचान लेता था, तब आपको कैसा महसूस होता ?
सिद्धेश्वर – लेखक को अपना पाठक वर्ग मिल जाए तो किसे खुशी नहीं होती ? वे मुझसे कुछ कविताएं सुनने का आग्रह भी कर बैठते थे l कभी-कभी तो एक कवि गोष्ठी ही हो जाती थी ट्रेन में l
एक – दो भेंटवार्ता तो हमने चलती हुई ट्रेन में ही लिया है, जब पता चला कि भोजपुरी गायिका देवी हमारे कोच में ही यात्रा कर रही हैं l भोजपुरी नायक निरहुआ से भेंट भी ट्रेन में ड्यूटी करते हुए हुई थी और हमने ड्यूटी करते हुए भी उनसे भेंट वार्ता ले लिया थाl
कुछ ऐसे भी लोग मिले जो टी. टी. ई. जान कर मुझसे किसी कारण बकझक कर रहे थे और जब पता चला कि मैं कवि कथाकार हूं तब वह मुझे जरूरत से अधिक सम्मान देने लगे l क्योंकि वे स्वयं भी कथाकार थे l ऐसे ही एक प्रसिद्ध कथाकार मुझे ट्रेन में ही मिले रामदेव सिंह l
नीतू – आप टी.टी. ई. रह चुके हैं और माना जाता है कि टी. टी ई . का हृदय कठोर होता है l जबकि लेखक का कोमल l इससे तालमेल कैसे बैठते थे ?
सिद्धेश्वर – किसी भी विभाग में सभी एक जैसे हृदय के नहीं होते l हमारा जॉब कुछ ऐसा जरूर था कि लोग गलतफहमी में मुझे कठोर भी समझ बैठते थे l लेकिन जब मैं उनके कुछ गुस्से का जवाब भी प्यार से देता था, तब उन्हें बड़ा आश्चर्य होता था l एक टी. टी. ई. ऐसा भी हो सकता है क्या ?
अच्छाई और बुराई हर जगह है ! लेकिन यह सच है कि सच्चा साहित्यकार चाह कर भी बहुत बुरा नहीं हो सकता l क्योंकि उसके भीतर आदर्श, नैतिकता और संवेदनाओ की एक लंबी हेयर लिस्ट होती है l उसे अपने मान-सम्मान का भी ख्याल होता है ! वह जो लिखता है उसके विरोध में जाने पर उसकी आत्मा उसे एक बार अवश्य कचोटती है, धिक्कारती है l ड्यूटी करते समय बहुत बार ऐसी विडंबना भी आती रही है, जब हम अपने नेचर के बहुत खिलाफ नहीं जा सके !
नीतू – कोरोना के कारण आप ऑनलाइन ज्यादा सक्रिय हुए हैं l इससे आप ज्यादा लोगों तक पहुंच भी बनाने में सफल भी हुए l हमेशा आडियो – वीडियो के जरिए लेखकों की रचनाएँ आपके द्वारा सोशल मीडिया पर छाई रहती है ! इस काम में कितनी परेशानी आती है ? सविस्तार बताएं l
सिद्धेश्वर – कोरोना काल में हम ऑनलाइन इतने सफल होंगे यह अंदाजा मुझे भी नहीं था l दरअसल मेरी प्रवृत्ति शुरू से रही है कि कुछ नया करूं, दूसरों से हटकर करूं l इसी जिजीविषा ने मुझे इस ओर मोड़ाl
बचपन से ही हमारा उद्देश्य रहा है कि नई प्रतिभाओं को एक मंच प्रदान करना और उनके भीतर सृजन के लिए उत्साह पैदा करना I इसी उद्देश्य से हमने 1979 में भारतीय युवा साहित्यकार परिषद की स्थापना भी की थी l उपेक्षित साहित्यकारों को एक मंच प्रदान किया थाl जिसमें शामिल 50 से अधिक साहित्यकार आज देश भर में, अपनी लेखन का जलवा दिखला रहे हैंl
जिस तरह कविता क्रांति नहीं लाती, बल्कि क्रांति की जमीन तैयार करती हैl ठीक उसी प्रकार कोई भी साहित्यिक संस्था या लघु पत्रिकाए, नई प्रतिभाओं को, महान साहित्यकार नहीं बनाती, बल्कि महान साहित्यकार बनने की भूमि तैयार करती है l उनके लिए सृजन का पाठशाला बनती है l इससे कोई आर्थिक लाभ मिले या ना मिले, इतना आत्मिक संतोष तो जरूर मिलता है कि हमने भी सामाजिक सेवा की तरह, नई प्रतिभाओं को अंकुरित होने में मदद किया है, उनके भीतर सृजन की भूख जगाकर, बेहतर लिखने के लिए प्रेरित किया, अधिक से अधिक अध्ययन करने के लिए हमने उसे प्रोत्साहित कियाl वरना इस प्रोत्साहन और मंच के, कितनी ही प्रतिभाओं को हमने मरते हुए भी देखा है l
हमारे यह उद्देश्य ऑनलाइन ज्यादा बेहतर और बहुआयामी लगी l बहुदा पैसे के अभाव में, हम सार्थक गोष्ठियों का आयोजन करने में और पत्रिकाओं के प्रकाशन में असमर्थ रह जाते हैं या चूक जाते हैं l
ऐसी स्थिति में ऑनलाइन गोष्ठियां बाधक नहीं बनती, बल्कि सहायक होती है l और यही कारण है कि ढेर सारी साहित्य पत्र पत्रिकाएं जो आज बंद हो रही है,, डिजिटल मंचों पर ऑनलाइन गोष्ठियों और रचनाओं का प्रकाशन बढ़ गया हैl
डिजिटल मंच पर बहुत सारी रचनाएं अध् कचरी भी होती है l किंतु दूसरा पक्ष यह भी है कि बहुत सारी ऐसी श्रेष्ठ रचनाएं जो व्यावसायिक पत्र – पत्रिकाओं में स्थान नहीं पाती, युवा प्रतिभा होने के कारण उन्हें उपेक्षित किया जाता है, वह इन डिजिटल मंचों हॉट पत्रिकाओं के माध्यम से, सिर्फ लेखकों तक नहीं बल्कि आम पाठकों तक सीधा पहुंच जाती है l और उसकी तत्कालिक प्रतिक्रिया भी हमें मिल जाती है l
इस कारण सृजन की उपयोगिता तो बढ़ती ही है, सृजनात्मक लेखन करने के लिए लेखकों में भी उत्साह पैदा होती है l
ऑनलाइन कविता पाठ का सिलसिला देखते हुए, हमने ऑनलाइन लघुकथा पाठ भी आरंभ किया l लघुकथा आंदोलन में यह एक मिसाल का काम किया, जिसके कारण वरिष्ठ साहित्यकार चित्रा मुद्गल जैसे रचनाकारों के साथ साथ देश भर के वरिष्ठ साहित्यकारों का भी सानिध्य और समर्थन मिला l
और इस प्रकार हमारे मंच और हमें, ऑनलाइन सर्वाधिक समर्थन और प्रशंसा हाथ लगी l अवकाश प्राप्त करने के बाद साहित्य सेवा करने का इससे बेहतर उपयोग और क्या हो सकता था ? हमें यह देखकर संतोष हुआ की एक आंदोलन के रूप में चलाया गया हमारा यह प्रयास, न जाने कितने साहित्यकारों को कोरोना काल में सिर्फ राहत ही नहीं दिया बल्कि उन्हें अवसाद में जाने से भी बचाया और इस अवधि में भी सृजन रहने की प्रेरणा जगायाl कई नए कवि लघुकथाकारों को जन्म दिया इस मंच ने l क्या इसे हम समय और पैसे की बर्बादी कह सकते हैं ?
नीतू – मेरी खुद की दो किताबें आपके द्वारा निस्वार्थ विमोचित हुई है, इसके लिए मैं सदा आपकी आभारी रहूंगी ! यही कारण है कि मैंने आपको लेखकों का ‘गॉडफादर’ कहा है ! दूसरे खेमे वाले आप पर इस बारे में दोषारोपण भी करते हैं, उन्हें आप क्या कहेंगे ?
सिद्धेश्वर – यह आप की महानता है कि आप हमारी जज्बात को समझने की कोशिश की है, वरना हमारे साहित्य जगत में, ढेर सारे ऐसे लोग हैं, जो एक दूसरे की टांग खींचने में ही, अपनी सारी उम्र गँवा बैठते हैं l ऐसे लोगों को इतिहास कभी याद नहीं रखताl
आपको हमने जो सहयोग किया वह कई लोगों को भी किया है ! कुछ लोगों ने आप की तरह याद रखा और कइयों ने हमें भुला भी दिया l किंतु उन्हें शीर्ष पर पहुंचा देखकर मुझे खुशी मिलती है, एक आत्मिक खुशी ! ठीक उसी प्रकार जिस तरह एक पौधे को लगाने के बाद माली यह भूल जाता है कि उसका फल कौन-कौन लोग खाएंगे ?
लोग यह नहीं सोचते कि आखिर इसमें मेरा स्वार्थ क्या है ? सिवाय इसके कि उनकी प्रगति में थोड़ा यश और सम्मान मुझे भी मिले l और जब यह भी नहीं मिलता है, बल्कि अपमान ही मिलता है तो थोड़ा दुख तो अवश्य होता है l किंतु आप जैसे कई लोग ऐसे भी हैं, जो हमारी जज्बात को समझते हैं, हमें मान सम्मान देते हैं l मेरे लिए इतना ही काफी है, इस सोच के साथ की कोई तो होगा, जो हमें इतिहास बनने से नहीं रोकेगा l
दूसरों की बुराई वही करते हैं जो खुद बेहतर करना नहीं चाहते और एक दूसरे से ईर्ष्या और द्वेष करते हैं l हमारे नैतिक कर्म को फलता फूलता देख नहीं पाते l लेकिन किसी भी अच्छे काम के लिए, ये सारी बातें कोई खास मायने नहीं रखती l
नीतू – आज नवोदित लेखकों को गुमराह करने के लिए सम्मान पत्रों की खरीद–फरोख्त ज्यादा की जा रही है l यह कितना घातक है ?
सिद्धेश्वर – नीतू जी, आपने बहुत ही सार्थक और जरूरी सवाल किया है l सम्मान देना या लेना बुरी बात नहीं l लेकिन जिस तरह से आज सम्मान और पुरस्कार खरीदा और बेचा जा रहा है, इससे लेखकों को नुकसान के सिवा कोई फायदा नहीं है l
लेखक इस भ्रम में जरूर होते हैं कि उन्हें सम्मान मिला है l लेकिन एक तरफ से यह उनका अपमान होता है, जिसे सभी लोग जानते हैं, स्वयं लेखक भी इस बात को महसूस करता है कि उसे झूठी लोकप्रियता, प्रशंसा के सिवा और कुछ भी हासिल नहीं हो रहा है l एक ऐसी लोकप्रियता और प्रशंसा जिसका महत्व पाठक भी नहीं देता, जब वह उनकी अधकचरी रचनाओं से रूबरू होता है l मुख्यधारा की पत्र – पत्रिकाएं तो वैसे भी ऐसे रचनाकारों को, हासिये पर रखती हैं l
लेकिन यहां पर एक सवाल यह भी है कि जब साहित्य अकादमी और ज्ञानपीठ जैसे सर्वोच्च पुरस्कार भी खरीद – बिक्री और लेन – देन के लिए बदनाम हो चुकी है, तब इन छोटे-छोटे सम्मान और पुरस्कारों को क्या कहा जाए ?
दरअसल कोई भी सम्मान या पुरस्कार छोटा या बड़ा नहीं होता l छोटा या बड़ा होता है, उसके पीछे का उद्देश्य और माध्यम l ढेर सारी संस्थाएं तो ऐसी भी आज हैं, जो थोक के भाव से सम्मान पत्र बांट रही है, प्रतिदिन ! ऐसा रवैया आजकल ऑनलाइन भी दिखने लगा है l स्वयं रचनाकार सोचे कि इसकी क्या उपयोगिता है उसके लिए ? क्वांटिटी और क्वालिटी में फर्क होता है या नहीं ?
ऐसी धोखाधड़ी और झूठी प्रशंसा की खरीद बिक्री में, अधिकांशत: वैसे रचनाकार ही दिख रहे हैं, जिनको अपने सृजन पर विश्वास नहीं होता और जो मेहनत से नहीं, बल्कि रातो – रात महान साहित्यकार बनने का ख्वाब देख रहे होते हैं l
कुछ ऐसे लोग भी हैं जो साहित्य को बाजार समझ बैठे हैं ! यदि ₹ 25000 देकर एक लाख का पुरस्कार मिल जाए तो इसमें घाटा क्या है ? लेकिन 400 – 500 रूपये गवां कर, सम्मान पत्र के नाम पर, सिर्फ एक कागज का टुकड़ा मिल जाए, तो इसे आप क्या कहेंगे ? इससे सम्मान पुरस्कार देने वालों को भले आर्थिक लाभ मिल जाए लेकिन रचनाकारों को कुछ भी हासिल नहीं होता, सिवाय झूठी प्रशंसा और धोखा के l
यदि सचमुच साहित्य सेवा करना है और प्रेमचंद, निराला की राहों पर चलना है तो युवा पीढ़ी के रचनाकारों को ऐसे आडंबर और जालसाजों से बचना चाहिए l बगैर मेहनत किए और श्रेष्ठ सृजन किए, ऐसे पुरस्कार सम्मान से परहेज करना चाहिए l वरना आपके कमरे में टंगी हुई, खूबसूरत दीवारों को ढकी हुई, ये कागज के पुलंदे आपकी ही खिल्ली उड़ाती नजर आएंगी l
नीतू – लघुकथा और कविता दोनों अलग-अलग विद्याएँ हैं l आप इस पर कैसे कमांड रखते हैं ? कभी ऐसा भी हुआ हो, जब आप एक ही विषय पर लघुकथा और कविता दोनों लिखे हों ?
सिद्धेश्वर – साहित्य की कोई भी विधा हो, उसका विषय हमें आसपास के समाज और परिवार से ही मिलता है l अब यह हम पर निर्भर करता है कि उसे हम किस विधा में सृजित करें l बोहनी, माँ की ममता, आदमियत, कफन आदि कई ऐसी रचनाएं हैं, जिसका विषय वस्तु लघुकथा और कविता दोनों में हमने लिया हैl ऐसा कम ही होता है l लघुकथा घटना प्रधान होती है जबकि कविता भाव प्रधान l और दोनों की सृजन प्रक्रिया भी अलग-अलग होती है l इसलिए कोशिश यह रहती है कि जिस विषय पर, लघुकथा लिख चुका हूं, उस पर कविता ना लिखूं l
हां, लघुकथा के विषय को विस्तार देते हुए कहानी हमने कई लिखी है l क्योंकि दोनों विधाओं का व्याकरण, आकार प्रकार और तकनीक भले अलग हो, किंतु दोनों होती है घटना प्रधान ही l कविता उससे कहीं अलग है l कविता के लिए कुछ अलग भावधारा होती हैl
नीतू – आपकी पत्नी बीना सिद्धेश जी भी कविता लिखती हैं l उनकी कोई पुस्तक भी आई है ?
सिद्धेश्वर – संगीत में डिप्लोमा किया है हमारी पत्नी बीना सिद्धेश ने l कविता के प्रति उनकी आरंभिक रुझान जरूर रही l किंतु पारिवारिक जिम्मेदारियां उठाने के बाद कविता, कहानी, लेखन लगभग बंद पड़ गया l शादी के पहले लिखी हुई उनकी कुछ कविताओं को हमने संशोधित कर, एक पुस्तक का रूप अवश्य दिया, जिसका नाम है,”देवदूत होते हैं सपने !” इस पुस्तक पर, उनकी सभी कविताओं के साथ कलाकृति मेरे द्वारा बनाई गई है !
नीतू – आप रेलवे से जुड़े रहे और लेखक भी हैं, लेकिन आपके सुपुत्र सत्यम सिद्धेश किसी दूसरे रचनात्मक कार्य से जुड़े हैं l साथ में बहू भी l संक्षिप्त में उनके कार्य बताएं l आपकी सुपुत्री स्वस्तिका सिद्धेश को लेखन में रूचि है या नहीं ?
सिद्धेश्वर – लोग कहते हैं कि बच्चों में भी परिवार का संस्कार पलता है l और हमारी छाप भी मेरे बच्चों में पड़ी है l सत्यम सिद्धेश को बचपन से ही चित्र बनाने का और कविता लिखने का शौक था l उसके एक-एक चित्र बाल भास्कर और बाल भारती पत्रिका में पुरस्कृत भी हुई थी और दो कविताएं हिंदुस्तान और रेलवाणी में प्रकाशित भी हुई थी l
आगे चलकर यही अभिरुचि उसे एनिमेशन की ओर मोड़ दिया l वह एनिमेशन में ग्रेजुऐशन करने के बाद, दिल्ली के एक बड़े संस्थान में एनिमेटर के पद पर कार्यरत है l बहू सीनियर मरचेन डाइजर है l
बेटी स्वास्तिका सिद्धेश को भी बचपन से चित्र बनाने का और कविताएं लिखने का शौक था ! उसके कुछ चित्र भी हिंदुस्तान और रेलवाणी में प्रकाशित हुए थे l उसने कुछ कविताएं भी लिखीl इस शौक को वह बहुत आगे नहीं बढ़ा पाई l एम.बीए. करने के बाद वह एक प्राइवेट संस्थान में काम कर रही है l
नीतू – जहाँ तक मुझे ज्ञात है साहित्य सेवा के लिए अभी तक आप को किसी सरकारी संस्था से कोई पुरस्कार आदि नहीं मिल पाया है, ऐसा क्यों ?
सिद्धेश्वर – नहीं, ऐसी बात नहीं है l मुझे कुछ सरकारी पुरस्कार भी मिले हैंl मैंने पहले भी कहा कि तिकड़म बाजी से पुरस्कार लेने से हमें परहेज करना चाहिए l शायद इसलिए पुरस्कार या सम्मान लेने में हमें जल्दीबाजी नहीं थी l जब मेरी पुस्तक प्रकाशित हुई “बूंद बूंद सागर” (लघुकथा संग्रह ) तब उसे बिहार सरकार द्वारा रेणु पुरस्कार से पुरस्कृत और सम्मानित किया गयाl मेरी दूसरी पुस्तक आई, “इतिहास झूठ बोलता है !” जिसे सर्वश्रेष्ठ काव्य पुस्तक के लिए हमारे रेल मंत्रालय ( भारत सरकार) द्वारा मैथिलीशरण गुप्त सम्मान से पुरस्कृत और सम्मानित किया गया !
इसी संस्थान द्वारा सर्वश्रेष्ठ कहानी संग्रह के लिए मेरी तीसरी पुस्तक “ढलता सूरज ढलती शाम” को प्रेमचंद पुरस्कार से सम्मानित पुरस्कृत किया गया ! यह हमारे लिए गौरव की बात इसलिए थी कि इस संस्थान द्वारा एक ही रचनाकार को आज तक दो पुरस्कार नहीं मिले थे, वह भी प्रथम पुरस्कार l कोई माने या ना माने लेकिन यह सच है कि, ये दोनों पुरस्कार मेरे लिए अप्रत्याशित था l और पुरस्कार सम्मान मिलने के पहले तक मुझे इसकी जानकारी भी नहीं थी l
पाठकों द्वारा प्राप्त मान-सम्मान से बढ़कर कोई पुरस्कार नहीं होता और वह हमें मिलता रहा है l मेरी कलाकृतियों और रेखाचित्रों के लिए इतने ढेर सारे दर्शकों और पाठकों का जो मान – सम्मान मिलता रहा है वह भी किसी पुरस्कार से कम है क्या ?
इसके अतिरिक्त भी दर्जनों संस्थाओं ने हमें सम्मानित पुरस्कृत किया है और यह हमारा सौभाग्य है ! क्योंकि हम से बेहतर लिखने वाले रचनाकारों की कमी नहीं है ! जिन रचनाकारों तक पुरस्कार या सम्मान देने वालों की नजरे पहुंच नहीं रही उनकी नज़रे तो वहां पहुंच रही है, जहाँ पर सम्मान या पुरस्कार खरीदने के लिए कतार लगाए साहित्यकार खड़े हैं l
नीतू – अंत में नवोदित लेखकों को कोई संदेश दें ताकि वह साहित्य सृजन में अग्रसर हो !
सिद्धेश्वर – बस यही सुझाव देना चाहूंगा कि ऐसे पुरस्कार व सम्मानों के पीछे दिग्भ्रमित होने के बजाय अधिक से अधिक साहित्य का अध्ययन करें और अपनी सृजनात्मक क्षमता पर विश्वास रखें l यदि वे बेहतर सृजन करेंगे तो आज नहीं तो कल, सफलता उनके कदम चूमेगी l
वे अपनी आलोचना से घबराए भी नहीं और न ही किसी की उपेक्षा से हताश हो! क्योंकि उनकी आत्मशक्ति आत्मबल ही उनके सृजन को अपनी मंजिल तक पहुंचने में मदद करेगी l
अपनी पुस्तक प्रकाशन के पीछे भी जल्दीबाज़ी न करें l प्रकाशको की धोखाधड़ी से बचें l पुस्तक प्रकाशित हो जाना ही श्रेष्ठ लेखन का मापदंड कदापि नहीं हो सकता l हां, पुस्तक से रचनाओं का मूल्यांकन अवश्य बेहतर तरीके से होता है l इसके लिए पुस्तक प्रकाशन के पहले बेहतर सृजन आवश्यक है l या तो कोई प्रकाशक उसकी पुस्तक को अपने खर्च से प्रकाशित करें या फिर वे स्वयं सहकारी प्रकाशन के आधार पर अपनी पुस्तक को पाठकों तक पहुंचाएं l
साक्षात्कार दाता – सिद्धेश्वर “सिद्धेश सदन”, द्वारिकापुरी, रोड नंबर 2, पोस्ट बीएचसी, हनुमान नगर, कंकड़बाग, पटना 800026 (मोबाइल ;92347 60365)
साक्षात्कारकर्ता – नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’, ( संपादक ) साहित्यप्रीत.कॉम
श्री भगवान प्रसाद, कोयला दुकान, राजा बाजार, कटेया रोड, बिहिया – 802152. जिला – भोजपुर ( बिहार ) मो . 7256885441 मेल – [email protected]