– अलका मित्तल
शादी को चालीस साल बीत गये। संतान सुख से तो वंचित रहे, लेकिन… इसकी कमी भी उन्हें कभी महसूस नहीं हुई। लगता एक दूसरे के लिए ही बने हैं वे।
पति पत्नी से ज़्यादा वे दोस्त थे। दर्द एक को होता महसूस दूसरा करता।
“सुजाता, मुझे अकेला छोड़कर कभी मत जाना,” देव अक्सर कहते।
“ठीक है, मगर आप भी निभाना अपना वादा ।” सुजाता हँसते हुए कहती।
इसी हँसी मज़ाक़ में साल दर साल निकलते गये। अचानक सुजाता की तबियत ख़राब हो गई। बेहोश होकर गिरी तो फिर उठ ही नहीं पाई। रात-दिन देव अस्पताल में ही रहते। खाना, पीना, सोना सब भूल गये। सब बहुत समझाते, “बीमार हो जाओगे, थोड़ा आराम कर लो।”
लेकिन नहीं… वह तो जड़ हो गये।
सुजाता की तबियत ज़्यादा बिगड़ गई और वह कोमा में चली गई।
घर और अस्पताल यही दुनिया थी देव की। सुबह तैयार होते ही सुजाता की पसंद का खाना-नाश्ता पैक करते और गुलाब का फूल तो… कभी ले जाना नहीं भूलते, क्योंकि सुजाता को गुलाब बालों में लगाना बहुत पसंद था।
आज भी देव सुजाता के बेड के पास ही चेयर लेकर बैठ गये । सब सामान सुजाता के पास रखा और बातें करने लगे।
रोज़ इस प्रक्रिया को देखने वाली नर्स उनके पास आई, ”अंकल जी, आंटी न तो बोल सकती है न देख सकती है न ही सुन सकती हैं फिर ये सब…’’
“ ठीक, कहा तुमने वह ये सब नहीं कर सकती, लेकिन मैं ये सब महसूस करता हूँ, हमारा जुड़ाव भावनाओं का है। सुकून मिलता है मुझे इसीलिए।” भरी आँखों, रूँधे गले से इतना ही वह कह सके।