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– देवी नागरानी

मेरे एक अज़ीज़ दोस्त बहुत दिनों बाद मुझसे मिलने घर आए और चाय के दौर के साथ हम दोनों नई – पुरानी बातों को याद करके बीते पलों की बस्तियों में पहुँच गए।
मेरी आप बीती सुनकर वह दोस्त बातों की दौड़ में मुझसे आगे निकलते हुए कहने लगे, “वो दिन भी क्या दिन थे, अक्सर लोग मेरे पास अपनी-अपनी मांग लेकर आते और मैं उनकी झोलियाँ भर देता।“
“क्या मतलब?” मैंने सवालियां नज़रों से उनकी ओर देखा। “अरे, मैं सच कह रहा हूँ। कोई दस हज़ार, तो कोई पचास हज़ार, और कभी कोई सौ रुपये भी ले जाता।“ उसने अपनी डींग की शोख़ भावना को बरक़रार रखते हुए कहा ।
“तो क्या उन दिनों आप इतने अमीर थे जो उन्हें आसानी से इतने पैसे दे देते थे ?” मेरे सवाल अब जवाब की तलब में बेक़रार थे।
“अरे, भाई, जो भी था, ठाठ तो वही देने का रहा और न देने का सवाल ही कहाँ उठता था !”
“तो क्या देने की कोई मजबूरी थी?”
“हाँ थी, मैं बैंक में कैशियर जो था !”

न्यू जर्सी ( अमेरिका )

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