♦ सिद्धेश्वर
कविता समाज में कोई क्रांति लाए या न लाए, कविता इंसान को इंसान बनाए या न बनाए, लेकिन कविता यदि सचमुच कविता है, तो वह समाज में क्रांति लाने की जमीन जरूर तैयार करती है l क्रांति की मशाल में जल रही ज्वाला का काम करती है l कविता इंसान को इंसान बनने की तमीज सिखलाती है l
जिस समाज में नैतिकता और आदर्श के सारे मूल्य क्षरित हो रहे हैं, वहां पर यह क्या कुछ कम है कि कविता हमारी आत्मा की भाषा बनकर, शब्दों के माध्यम से, व्यक्ति और समाज की विसंगतियों पर लगातार प्रहार करते हुए आदर्श और नैतिकता का जोड़ – घटाव करना सिखलाती रहती है l यानी मानव सभ्यता के सर्वांगीण विकास में साहित्य का अतुलनीय प्रभाव है l खासकर वैसी जीवंत कविताओं की, जो हमारी संवेदनाओं को झकझोरने में सफल रहती है, अपनी काव्यात्मक बिम्ब का सौंदर्य गवाएं बिना l
अपनी इस छोटी सी साहित्यिक डायरी में हम कविता के इतिहास की व्याख्या तो नहीं कर सकेंगें, बस इतना संकेत देना चाहेंगे कि “कल और आज” की कविता का प्रभाव हमारे पाठकों पर कैसा रहा है ?
हम कल की कविता की बात करें तो तुलसीदास, कबीरदास, सूरदास से लेकर ढेर सारे सार्थक कवि मिल जाएंगे ! कल के कवियों में ही सर्वाधिक पठनीय सूर्यकांत त्रिपाठी निराला, रामधारी सिंह दिनकर, नागार्जुन, सुमित्रानंदन पंत, गोपाल सिंह नेपाली और थोड़ा आगे बढ़ें तो हरिवंश राय बच्चन, गोपालदास नीरज, दुष्यंत कुमार, गुलजार, सर्वेश्वर दयाल सक्सेना आदि की कविताएं और शायरी का आकलन हम कर सकते हैं l उनकी कविताएं कविता के सारे तत्वों से युक्त थीं, कविता के मापदंड पर खरी उतरती थीं l आम पाठकों के अनुकूल भी थीं l पाठकों के हृदय पर उनका सीधा प्रभाव पड़ता था l
वैसे सच पूछिए तो कविताएं तो आज भी बढ़िया लिखी जा रही हैं, लेकिन आम पाठकों के ऊपर पहले वाली कविताओं की तरह प्रभाव नहीं देख पा रहा हूं और ना ही उतनी हृदयस्पर्शी बन पा रही हैं आज की कविताएं ! सोचिए आखिर ऐसा क्यों ?
आज के प्रकाशक पहले के कवियों की पुस्तक प्रकाशित करना चाहते हैं, किन्तु आज के कवियों की नहीं l और कुछ पुस्तकें छप भी गईं तो सिर्फ पुस्तकालय और समीक्षकों के लिए, अपने गिने-चुने कवि मित्रों के लिए l आज भी कविता की पुस्तक की बिक्री के ख्याल से पहले के कवि ही सामने आते हैं l आखिर ऐसा क्यों ?
मेरी समझ से इसका मूल कारण है आज समकालीन कविता के नाम पर लिखी जा रही अधिकांश ऐसी कविताएं जो रस, माधुर्य, लयात्मकता और काव्यात्मकता आदि से बहुत दूर हो गई हैं तथा कविता के ढांचे को दरकिनार कर लिखी जा रही हैं, आज की अधिकांश कविताएं l यहां तक कि सपाटबयानी के नाम पर या तो बौद्धिक विचार को ही कई वाक्यों में तोड़कर, कविताएं लिखी जा रही हैं या फिर कविता के नाम पर ऐसे बिंब प्रस्तुत किए जा रहे हैं जो पाठकों को पहेली के सिवा और कुछ नहीं लगती l यानी, आज की अधिकांश कविताओं में होती है अनबुझ पहेली, अकल्पनीय यथार्थ l फिर तो ऐसी कविताओं की हृदय तक पहुंचने की बात बहुत दूर की है l
कल ही नहीं, आज भी कल के तर्ज पर समकालीन भाव को लेकर गीत -गजल लिखे जा रहे हैं l और ऐसी कविताएं ही पठनीय भी रह गई हैं, कविता से भाग रहे पाठकों को रोकने में सफल हो रही हैं l शायद यही कारण है कि बहुत सारे सपाटबयानी और गद्य लिखने वाले कवि भी गीत, गजल की ओर मुड़ रहे हैं l
संतोष का विषय यह है कि आज के युवा कवि इस खतरे को महसूस करने लगे हैं ! वे या तो सपाटबयानी से बचकर छंद लिखने का प्रयास कर रहे हैं या फिर मुक्तछंद यानी सपाटबयानी में भी छंद बैठाने का सफल प्रयास कर रहे हैं l
बैसाखी के सहारे कूद रहे मुट्ठी भर कवियों को यह भ्रम है कि बौद्धिक स्तर की कविताएं आम पाठकों को बौद्धिक बनाती हैं l पाठकों को बौद्धिक बनाने के लिए हिंदी में बी ए., एम ए. करने की आवश्यकता पड़ेगी और पाठ्यक्रम में बौद्धिक स्तर की कविताएं पढ़वाने की l
मेरे विचार से कविता महज़ पाठ्यक्रम का माध्यम नहीं, बौद्धिक बनाने का औजार नहीं, बल्कि पाठकों के हृदय में नश्तर की तरह सीधे-सीधे उतर जाने की कार्यवाही है l ”
मुझे संतोष है कि आज के युवा कवि कल और आज की कविता के इन मापदंडों ( अंतर ) को समझने लगे हैं और उसी तर्ज पर जीवंत कविताएं लिख रहे हैं l
बस, अब जरूरत है ऐसे सम्पादकों, प्रकाशकों की जो संकीर्ण भावना से बाहर आकर पाठकों के मर्म को समझते हुए कविता और अकविता के अंतर को समझने की कोशिश करें l साथ ही साथ नामचीजों की मोहमाया, भाई भतीजावाद के दरवाजों से बाहर आकर साहित्य की गंदी राजनीति से भी बाहर आएं और अपनी पत्रिका अथवा पुस्तक के माध्यम से सार्थक कविताओं को पाठकों के सामने रखें l
नहीं तो समय ने किसी को नहीं बख्शा है ! आने वाली पीढ़ी उन्हें इस कुकृत्य के लिए कभी माफ नहीं करेगी, जब आज की कविता कल की कविता की तरह कालजयी बनने से रह जाएगी और पाठकों से बहुत दूर हो जाएगी l
♦ डॉ. बी. एल. प्रवीण
आजकल लिखी और छापी जा रही अधिकांश कविताएं काव्यात्मक
गुणबोध से असंपृक्त एक अलग राह पर चल रही हैं। वहां न कोई अनुशासन है न ही कोई कसौटी। फिर परख का सवाल कहां। इन्हें खारिज कर देने में ही कविता की भलाई है। आजकल ‘सपाटबयानी’ शब्द की परिभाषा गढ़ी जा रही है। यहीं से कविता के साथ छल शुरू हो जाता है।
उन्हें कविता के गढ़ में प्रवेश कराने के मिथ्या उपक्रम से वंचित रखना होगा।
समय सापेक्ष हर काल में रचना के लिए अलग-अलग विषय वस्तु हो सकते हैं। कभी कभी रचना के तेवर और कलेवर में भी अंतर आना स्वाभाविक है। किंतु प्रस्तुति के लिए गद्य की बैसाखी ढूंढ़ने की
पहल बिल्कुल ही ठीक नहीं।
यह बात नहीं कि गद्य में प्रस्तुत कविताएं कविता होती ही नहीं। किंतु मस्तिष्क से उतरकर यदि वह ह्रदय में रस संचार न करे तो उसे काव्य की श्रेणी में रखना बेमानी होगी। कविता का अपना एक नैसर्गिक गुण होता है जो गद्य में होकर भी पहचान में आ जाता है।
बहुत सारी तुकबंदी में रचित रचनाएं कविता नहीं होतीं। इनमें शब्दों का अपव्यय मात्र दिखता है। इनसे बचने की जरूरत होगी।
ज़रूरत है कविता की अस्मिता को बचाने के लिए सार्थक पहल करने की। अच्छी और चुनिंदी कविताओं को सामने लाने की पहल। कविता पर समीक्षा और मीमांसा करने की पहल। एक साथ दस की बजाय एक ही कविता छापी जाए जिसे पढ़ने की जिज्ञासा उत्पन्न हो। पहल
करनी होगी तथाकथित स्थापित कवियों को भी कि वे हस्तक्षेप करने का सामर्थ्य दिखाएं, अकविता लेखन पर। चुपचाप बैठ कर कोसने से अच्छा है खुद का परिमार्जन करें और पटल पर सामने आते रहने की हिमाकत करें।
यह सच है कि अब की कविता पहले की अपेक्षा अधिक गतिशील हो गई है। धारदार बिंबों के द्वारा प्रत्यक्ष भाव और अर्थ के बिना भी शब्द अपने करामात दिखा सकते हैं, इसी की पहल हो रही है। अकारण ही व्याकरण के चंगुल में कोई फंसना नहीं चाहता।
बल्कि, कहा जाए कि शब्द सीधा संवाद करते हैं। परंतु कविता के लिए जरूरी है कि उसका रिदम बरकरार रहे।
दो पायों पर खड़ा शेर,चार पायों पर खड़ी क़ता तथा बेपायों पर खड़ी व गढ़ी कविता निःसंदेह अधिक सतर्कता की मांग करती है। निराला का ‘पथिक’ इस कड़ी की पहचान है तो उदाहरण भी है।
आज भी पुरातन ग्रंथ अधिकांशतः काव्य शैली में ही मिलते हैं। लिपि चाहे जो हो। किंतु दोहा और चौपाई
बोधगम्य होने के साथ-साथ कंठस्थ करने में भी सहज होते थे। अतः काव्य केवल स्वांतः सुखाय का निमित्त नहीं, इतिहास गढ़ने का हथियार भी है।
♦ अपूर्व कुमार
कल भी अच्छे पद्य का सृजन हुआ;आज भी अच्छे पद्य का सृजन हो रहा है; कल भी अच्छे पद्य का सृजन होगा। वास्तविकता यह है कि आज संख्यात्मक दृष्टिकोण से कल की अपेक्षा ज्यादा ही अच्छे काव्य का सृजन हो रहा है; परंतु आज की झूठी वाह-वाही एवं पैरवी से प्रमोशन और छपास वाले दौर में यह शिखंडी पद्य के नीचे दब जा रही हैं।
और फीर चर्चा में केवल परंपरागत कवि और उनकी रचनाएं ही शेष रह जाती है।
यह बात अलग है कि जैसे सूर्य बादल की ओट में ज्यादा देर दब नहीं सकता वैसे ही विशुद्ध कविताओं को दबाया नहीं जा सकता। लेकिन यदि समय रहते हम कवियों की अच्छी कविताओं को सराहें, प्रोत्साहित करें तो और बेहतर पद्य के रचना की संभावनाओं का विस्तार हो जाएगा। ऐसी स्थिति पद्य के लिए अच्छी होगी।
वर्तमान समय में भी हर विषय वस्तु पर अच्छे पद्य निरंतर सृजित हो रहें हैं। ऐसा नहीं है कि देशभक्ति हमें केवल दिनकर और गुप्त की रचनाओं में ही मिलेंगी। आप हरिओम पवार की रचनाओं से भी राष्ट्रभक्ति के उबाल प्राप्त कर सकते हैं। जरुरी नहीं की आप प्रकृति और पर्यावरण की कविता के लिए पंत कविताकोश ढूंढे। आप पर्यावरणविद् डॉ. मेहता नागेन्द्र को भी पढ सकते हैं। माना भक्ति के लिए रसखान और तुलसी पत्थर की लकीर है पुनश्च वर्तमान समय में भक्ति के अनेकों उत्कृष्ट पद निरंतर सृजित हो रहे है! बस आवश्यकता है उन तक पहुंचने की।
विभिन्न मंचों के माध्यम से विभिन्न विषयों पर अनेकों सुंदर कविताएं पढी जाती है। इस कड़ी में हो सकता है आज भी कुछ कविताएं इस मंच के माध्यम से उभर कर सामने आए!
हां, एक बात का ध्यान प्रत्येक कवि को रखना चाहिए कि अच्छे पद्य की रचना के लिए, अच्छे कवि की रचनाओं का अध्ययन और सूक्ष्मावलोकन नितांत आवश्यक है। आजकल के रचनाकार पढते -सुनते कम लिखने और सुनाने में ज्यादा ध्यान देते हैं। शायद यही कारण है कि आज की अधिकतर कविताओं में गेयता, तारतम्यता, संगीतमयता आदि गुणों का अभाव होता है जिससे वे बेजान और नीरस प्रतीत होते हैं। आज के फैशनपरस्त नारी की तरह अधिकतर कविताएं भी अलंकारहीन होकर अपने वास्तविक सौंदर्य को खोती जा रही हैं ! कविता का अलंकारहीन होना पद्य जगत के लिए अच्छा नहीं है!!
प्रस्तुति – ♦♦@ सिद्धेश्वर♦♦ यह परिचर्चा कॉपीराइट है। बिना अनुमति इसका उपयोग करना असंवैधानिक है l मोबाइल 92347 60365
(Email :[email protected])