कृति: चमन-चमन के फूल
संपादन: नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’
संपर्कः साहित्य केन्द्र प्रकाशन
गुरुद्वारा रोड, लक्ष्मी नगर
नयी दिल्ली-110092
पृष्ठः 112 मूल्यः 175/-
समीक्षकः मुकेश कुमार सिन्हा
अलग-अलग मिजाज के साहित्यकारों की अलग-अलग मिजाज की रचनाओं को ‘चमन-चमन के फूल’ (साझा संग्रह) में समेटा गया है। इसमें गीत हैं, गजलें हैं, कविताएँ हैं, तो शेरों-शायरी भी।
हालिया दिनों में साझा संग्रह के प्रकाशन की गति बढ़ी है। इसकी सबसे बड़ी खासियत यह है कि पाठक एक साथ विविध मिजाजों के साहित्यकारों की रचनाओं को पढ़ सकते हैं, उनके विचारों से रू-ब-रू हो सकते हैं। शायद यही कारण है कि आज साझा संग्रह के प्रकाशन में रचनाकार और प्रकाशक सक्रिय हैं।
साहित्य केन्द्र प्रकाशन, नयी दिल्ली से नीतू सुदीप्ति ‘नित्या’ के संपादन में ‘चमन-चमन के फूल’ प्रकाशित हैं, जिनमें 20 कवि, गीतकार व गजलकार की रचनाएँ संग्रहित हैं। भीड़-भाड़ में चुनिंदा रचनाकारों का चयन सच में बेहद मुश्किल है। बकौल संपादक, बीस फलदार पौधों में से कुछ फूलों को चुनना सहज-सरल नहीं था। मैगबुक, नयी दिल्ली के समूह संपादक शंभु सुमन लिखते हैं-यह पुस्तक बीस कवियों की रचनाओं का एक साझा संकलन है। इसमें काव्य की विभिन्न विधा, जैसे कविताएँ, गीत, ग़ज़ल, नज़्म को बेहद खूबसूरती के साथ संजोया गया है।
बदलाव के इस दौर में सब कुछ बदल गया है। पुरानी संस्कृति बदल गयी, पुराने संस्कार भी बदल गये हैं। अपना प्यारा सा गाँव भी कहीं खो गया है? उस गाँव को ढूँढने में पाँव थक गये हैं। गाँव खो गया है पत्थरों की भीड़ में। गाँव का गँवईपन खो गया है। गाँव वीरान पड़ा हुआ है, क्योंकि गाँव की जरूरतों ने इसे वीरान कर दिया। सुनील सौरभ गाँव को उलाहना देते हैं और उसी से पूछते हैं-बोल न मेरा गाँव, तू कैसे बदल गया? गाँव के संस्कार बदल गये हैं। मान-सम्मान और प्रतीक को अब कौन पूछता है? सावन-भादों में पेड़ों पर सहेलियों के साथ कौन झूलता है झूला? लिखते हैं-
मिट्टी-खपरैल घरों की सोंधी महक
अब कंक्रीट के जंगल में कहाँ?
बोल न मेरा गाँव
तू कैसे बदल गया?
गाँव के बदलाव से डॉ. रामकृष्ण भी दुःखी हैं। उनकी कलम दुःखी होकर लिखती है-
तार-तार रिश्ते हैं
गाँव, घर, जेवारों के
रोज नए रचते हैं
दाँव सब शिकायत के।
केदारनाथ सविता की लंबी कविता हो या छोटी, कविताएँ खुलकर अपनी बातें कह रही हैं। उनकी कलम भ्रष्टाचार और राजनीति पर व्यंग्य कसती है। वहीं, माँ की महिमागान के साथ ही विभा माधवी की चिंता देश और समाज को लेकर है। आखिर अखबार में छप क्या रहा है? नकारात्मक खबरों से पृष्ठ भरे पड़े हैं। खून-डाका से रँगा हुआ अखबार बिक रहा है। यथार्थ है कि दुनिया में इमान की कोई पूछ नहीं है। फरेबी, लालची, ढोंगी और मक्कर की हर जगह इज्जत है। गजलकारा की चिंता है-
यहाँ हर लोग जीते खौफ में खूनी हुआ मंजर
सितारे चाँद भी रोते भयानक रात होती है।
शहर-गाँव में अमन-चैन के खो जाने से प्रवीण आर्य कुमार ‘क्रैश’ चिंतित हैं। आखिर लोग खंजर क्यों लिये बैठे हैं? इंसानियत को किसकी नजर लग गयी है? आखिर खून की प्यास नित्य दिन बढ़ती ही क्यों जा रही है? लिखते हैं-
ताउम्र जोड़ा तो बना आशियाँ अपना।
ये तिनका-तिनका इसे बिखेर गया कौन।।
सेवा सदन प्रसाद दो टूक कहते हैं-
इंसानियत को दफना रहा, आज का यह आदमी,
बेच रहा है अपना ईमान, आज का यह आदमी।
डॉ. अरुण कुमार वर्मा आश्चर्य होकर लिखते हैं-
यह शहर भी हादसे का शिकार कैसे हो गया।
रकीबों के हाथ में पतवार कैसे हो गया।।
ऐसे वक्त में डॉ. सच्चिदानंद प्रेमी गीत प्रीत का गाना चाहते हैं, लेकिन उनके सामने भी समस्या है कि अच्छे गीत कहाँ से लायें? जब सावन ‘जेठ’ बन जाये, तो रिमझिम बूँद की उम्मीद कैसे की जा सकती है? अवधेश कुमार ‘आशुतोष’ लिखते हैं कि असुर अब भी यहाँ हावी है। उम्दा सवाल है कि आखिर दुनिया क्यों नहीं बदल पा रही है? समाज की प्रकृति और लोगों की आकृति में कब तक बदलाव होगा? डॉ. योगेन्द्र नाथ शुक्ल की तरह हर साहित्यकार को यह अवश्य लगता होगा कि आखिर क्यों लिख रहा हूँ? जब दुनिया उसी हाल में है।
कि आखिर क्यों?
मन से फूटने वाले वे शब्द
नहीं बदल पाते दुनिया
जबकि कहलाते हैं वे शब्द ब्रह्म।।
नंदलाल मणि त्रिपाठी ‘पीताम्बर’ आशावादी रचना गढ़ते हैं-
छँट जाएगा अँधेरा विश्वास कीजिये।
सूरज निकलने का इंतजार कीजिये।।
बेटी वरदान है। बेलगाम बेटों पर सवाल उठाने वाली डॉ. पुष्पा जमुआर लिखती हैं कि बिटिया से ही घर-परिवार और देश-समाज है। सच में, अब बिटिया हँसना सीख गयी है, खिलखिलाना सीख ली है। सीख गयी है हवाओं में उड़ना, उसे अब प्रतिकूल परिस्थितियों से लड़ना आ गया है। माला वर्मा भी मानती हैं कि बेटियों से ही आज है और बेटियों से ही कल। बेटियों ने हर जंजीर को काट डाला है। उसे अब डर नहीं है। बेटियों को इस स्थिति तक लाने में माँ की अहम् भूमिका है। बेटियों को माँ उत्साह बढ़ाती है, तैयार करती है उसे सम-विषम परिस्थितियों में खुद को ढालने के लिए। अम्बालिका ‘फूल’ लिखती हैं-
दिया बहन का प्यार तुम्हीं ने, सखियाँ भी नहीं तुमसे बढ़कर
मन की बात समझ तू लेती, छुपा न पाऊं कभी चाहकर।
इश्क का भूत किस पर सवार नहीं होता? जवानी में हर कोई इससे ‘घायल’ हो जाता है। फिर, दर्द, गम और जुदाई से वास्ता पड़ता है। हाँ, आजकल प्रेम नहीं होता! प्रेम तो दशरथ ने किया था फगुनिया के साथ, राधा ने किया था कृष्ण के साथ। अब तो देह भर का रिश्ता है बस। डॉ. राजश्री तिरवीर नसीहत देती हैं-
न वासना से कभी प्यार हो सकता अमर।
करो जो प्यार इसे छोड़ना जरूरी है।
जहान भारती ‘अशोक’ की कलम नारी के अंतर्मन को रखती है। कौन स्त्री नहीं चाहती कि खुशियों का हिस्सा प्रियतम को मिले? प्रियतम बेमिसाल होते हैं, लाजवाब होते हैं? उनके नेह भरे स्पर्श से कलाई की चूड़ियाँ बज उठती हैं, कंगन खनक उठता है, कण-कण थिरक जाता है। मगर, नारी की पीड़ा को देखिए-
खिल उठती मैं भी; गुलाब की मानिंद
नेह भरा स्पर्श पर, तुम्हारा न मिला।
डॉ. प्रदीप गुप्ता की कलम विरह की आग में जल रही है। कलम को अफसोस है कि प्यार पूर्णतः को नहीं पा सका? आखिर प्यार पूर्णतः को क्यों नहीं पाता है? अनुत्तरित सवाल है। क्यों प्यार करने वालों पर नजर रखी जाती है? ताउम्र किसी की याद के साथ जीना बहुत मुश्किल है। बाँहें चाहती हैं उन्हें समेटना! लिखते हैं-
तेरी पायल की छमछम से
मन में सरगम बजता था
तेरी चूड़ी की खन-खन से
मेरा जीवन सजता था।
जग ने गूंथने दिया नहीं, हमें प्यार की माला में,
कब तक जी बहलाऊं, हाला और प्याला में।
अरुण निशंक भी लिखते हैं-
वो दिन कौन सा है
जिसमें याद तुम्हारी न आती होगी।
दिल के आंगन का सूनापन नहीं रुलाता होगा,
सुबह पलकें शबनम में न नहाई होगी।
यह जिंदगी दुबारा मिलने वाली नहीं है, फिर हम क्यों तनाव लें? भय से आखिर क्यों डरना, रोज तिल-तिलकर क्यों मरना? भय से तो मुकाबला करना है। हम कल की चिंता में आज को क्यों बर्बाद कर रहे हैं? ‘अति’ के चक्कर में क्यों अपना जीवन नरक में डाल रहे हैं? वही होगा, जो लिखा है। वैसे भी वक्त से पहले और किस्मत से ज्यादा किसे कब मिला है? हाँ, सतत प्रयास करते रहना है, किसी भी सूरत में हिम्मत नहीं हारना है। सिद्धेश्वर रचते हैं-
जितनी मिली है खुशियां
उसे-सहेजना भी सीख
हिम्मत वालों के सामने,
पर्वत भी शीश झुकाएगा।
वहीं सुधाकर मिश्र ‘सरस’ समझाते हैं-
तपकर ही निखरता है सोना कीमत में रहे जो खास, सफलता निश्चित है।
चलते रहें सीधी राह बेशक मंजिल आएगी पास, सफलता निश्चित है।
20 बगिया के चुनिंदा फूलों की महक से सुवासित ‘चमन-चमन के फूल’ में देश-समाज को लेकर चिंता है, माँ का गुणगान है, सतत प्रयत्नशील रहने की नसीहत है। वीरान गाँव है, मरती संवेदना है, कलम की पीड़ा है। प्रेम है, तो विरहा है। मसलन, कविताओं के अलग-अलग मिजाज हैं। हाँ, कुछेक स्थानों पर शब्दों की मामूली त्रुटियाँ है। चंद्रबिंदु और अनुस्वार के प्रयोग में ढिलाई दिखी। आवरण मनमोहक है, उस पर अंकित पंक्तियाँ बरबस ध्यान खींच लेती है-
सुलगेंगे जब
शब्द संवेदना की
आंच पर तभी
कुछ अच्छा पकेगा!
-मुकेश कुमार सिन्हा
द्वारा सिन्हा शशि भवन
कोयली पोखर, गया-823001
चलितवार्ता-9304632536
अति सुंदर समीक्षा।