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– राजीव कुमार

चम्पा ने आज सुबह से कुछ भी नहीं खाया। भुख-हड़ताल ही कर दी उसने। जीद्द पे अड़ी रही। माँ समझाने-बुझाने के लिए आई तो चम्पा ने कहा, ’’मैं तुम्हारी आँसुओं से पीघलने वाली नहीं हूँ।  पापा को भेजो, आखिर पढ़ायी का खर्चा उन्हीं को तो उठाना है। जब वो मेरी बात मान लेंगे तो उन्हीं के हाथ से पहला निवाला खाकर हड़ताल तोड़ूंगी।’’
’’अन्न-जल से भी कोई जीद्द करता है भला ? इसने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? ’’ माँ ने रोटी का निवला जबरदस्ती मुंह में ठूंसने की कोशिश की तो चम्पा ने हाथ झिड़क दिया और होंठ को और जोर से भींच कर, चेहरा दुसरी तरफ घुमा कर बैठ गई।
’’ नाशपीटी, करमजली।’’ बोलकर उसकी माँ सोनकेशी उठ खड़ी हुई और अपने पति की चारपाई पर बैठ आँसू बहाने लगी।
विश्वेश्वर जी अखबर पर नज़र गड़ाए बैठे थे और मन को झकझोर देने वाला समाचार ढूंढने की कोशिश कर रहे थे। कुछ ही समय के बाद उनको चाय की तलब महसूस हुई। चारपाई के कड़कने की आवाज से आभास तो हो ही गया था कि पत्नी बगल में ही बैठी है। अखबार पर नज़र गड़ाए ही उन्होने पत्नी को झकझोर कर कहा, ’’चम्पा की माँ, जरा चाय तो पिलाना।’’
सोनकेशी फिर भी मौन बैठी रही तो उन्होंने अखबार मोड़कर सोनकेशी की आँखों में देखा। सोनकेशी के आँखों के किनारे से आँसू के दो बूंद लूढ़क पड़े।
’’अरी क्या हुआ, बोल न क्या हुआ ?’’ विश्वेश्वर ने झकझोर कर पुछा तो सोनकेशी रोती हुई बोली, ’’आप तो दो बार चाय पी चुके मगर लाडली चम्पा ने कुछ भी नहीं खाया है।’’
’’कुछ भी नहीं खाया है ? चल तो।’’ विश्वेश्वर जी चारपाई  से उठकर चम्पा के पास बैठ गए, पीछे से सोनकेशी भी आ गई।
’’ये क्या बचपना है चम्पा ?’’ विश्वेश्वर जी ने सामने रखी थाली, जिस पर मक्खी भिनभिना रही थी, नज़र जमा कर पूछा।
’’खाना खाती है या वरना ? ’’ विश्वेश्वर जी ने तुनक कर कहा तो, चम्पा को अपनी ओर घूरते हुए पाया।  उसकी आँखों में नमी जमी हुई थी। चम्पा ने पूछा, ’’वरना क्या पापा ?’’ जवाब के इन्तजार में वो नज़र गड़ाए बैठी रही।
चम्पा ने कहा, ’’ पापा, मैं कॉलेज जाऊंगी, खुब पढ़ाई करूंगी और प्रशासनिक अधिकारी बन कर आपका, समाज का नाम रौशन करूंगी।’’
विश्वेश्वर जी ने खिज कर कहा, ’’ मैंने तो स्पष्ट कह दिया था कि…। देख मनकू की बेटी, हरिया की बेटी, और सिद्धू की बेटी परवतिया कोई तो कॉलेज नहीं जा रही है, तुम अकेली उतनी दूर कैसे जाओगी ? जीद्द छोड़ दो बेटी, खाना खा लो। ’’
’’नहीं पापा जी, जब तक आगे पढ़ने की इजाजत नहीं देंगे, मैं मर जाउंगी पर खाना नहीं खाउंगी।’’ चम्पा की आँखों में गर्वीली चमक उभर आई।
’’ पड़ी रहो, मरो भूखे- प्यासे। तुम्हारी भूख हड़ताल से मैं हिलने वाला नहीं। विश्वेश्वर जी ने उठते हुए कहा।
’’मैं भी आपकी ही बेटी हूँ पापा, आपने भूख हड़ताल से पुरा प्रबंधन हिला दिया था और मजदूरों के हक की बात मनवा ली थी।’’ चम्पा ने यह बात गुस्से  में कही।
विश्वेश्वर जी ने उस समय की भूख की स्थिति को महसूस करने के बाद अपनी फूल सी लाडली बेटी के पतले-दुबले शरीर को देखकर उसको कॉलेज जाने की इजा़जत दे दी।

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One thought on “जीद्द”
  1. ‘जिद्द’ एक अच्छी लघुकथा है। कथानक काफी प्रभावपूर्ण और समाज की बदलती धारा को प्रोत्साहन देती है। थोड़ा शब्दों को समेटा जा सकता था। उससे रचना का सौंदर्य ज्यादा निखर जाता। साधुवाद

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