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– ओम प्रकाश राय यायावर

 

गतांक से आगे…

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किसलय की एक आदत थी, वह स्वप्नद्रष्टा था। कल्पना की दुनिया उसे बहुत भाती थी। कुछ महीने आरा रहने के बाद उसका दिल गाँव जाने को हुआ। दोस्तों ने किसलय में बड़ा परिवर्तन देखा। पहले वह उमंग और उल्लास से जीने की कला में माहिर व्यक्ति था, पर जब से वह इस भ्रमण से आया था, देखने में कुछ उदास और बेचैन जान पड़ता था। उसकी कुछ हरकतें तो अजीब तरह की होने लगी थी। उसका कमरा रेलवे स्टेशन से ठीक सटा था। प्लेटफार्म नम्बर – तीन और उसके कमरे में जरा-सा फासला था। वह रेलवे का एक पुराना क्वार्टर था, जहाँ वह दोस्तों के साथ रहता था। कमरे के मालिक अब यहाँ नहीं रहते थे, इसलिए घर को किराये पर लगा रखा था। कमरा बहुत कम किराये का था। दूर से देखने पर लाल भूतहा बंगला-सा लगता था, पर अंदर बहुत साफ-सफाई थी और फिर रेलवे क्वार्टर के वास्तुशिल्प का क्या कहना ? एक  छोटा- सा आँगन, आँगन में कुछ पेड़, एक बढ़िया-सा बरामदा- सब कुछ व्यवस्थित। वह आजकल रात में प्लेटफार्म पर अकेला खोया-खोया सा भ्रमण करने लगा था। दोस्तों ने कारण जानना चाहा, पर उसने कुछ भी साझा न किया और एक दिन गाँव आ गया। आरा से काफी दूर था उसका गाँव। गाँव में रहना उसे बहुत पसंद था। उम्र के लम्बे

अरसे तक उसने अपनी जिंदगी गाँव में ही बितायी थी। इधर कई वर्षों से प्रतियोगी परीक्षा की तैयारी के लिए वह आरा शहर में रह रहा था।

कहने को किसलय का एक परिवार था, पर उसका अपना इस दुनिया में कोई नहीं था। घर में चाचा-चाची और परिवार के दूसरे सदस्य थे। पिताजी का देहांत तो बहुत पहले हो चुका था, जब वह दूधमुँहा शिशु था, लेकिन उसे माँ की धुँधली याद अब तक थी। कई वर्षों से अपना खर्च वह खुद से चलाने लगा था। पहले गाँव में था, तो वहीं पास के विद्यालय में पढ़ाया करता था। जब शहर आया, तो कुछ दिन परेशानी हुई, पर वह मेहनतकश इन्सान था। पढ़ाई के साथ-साथ कमाई भी करना जानता था। आरा में उसने एक कोचिंग की शुरुआत की, तीस-चालीस बच्चे उसके पास पढ़ने आया करते थे और इन्हीं बच्चों की बदौलत वह अपना और अपने पढ़ाई का खर्च चलाया करता था। उसका परिवार एक किसान परिवार था, पर किसलय का अब उन खेतों से कोई वास्ता न था। गाँव में एक पुश्तैनी पुराना मकान था, जो घर की आर्थिक स्थिति और हालात का घोतक था। गाँव आने के बाद उसने खुद को सहज महसूस किया। स्नातक तक की पढ़ाई उसने गाँव के ही कॉलेज से की थी। उसके गाँव में एक बहुत ही पुराना और  समृद्ध  पुस्तकालय  था।  यहीं  पर  उसको  नयी-नयी  पुस्तकों  के अध्ययन का चस्का लगा। कई वर्षों तक ऐसे ही स्वतंत्र अध्ययन के बाद उसने सरकारी नौकरी की तैयारी के बारे में सोचा और कोचिंग के लिए आरा पहुँचा।

अब वह दिनभर पठन-पाठन में व्यस्त रहता। जिंदगी का दूसरा नाम पढ़ाई हो चुका था। पर पहले जो गाँव में रहकर वह पढ़ता था और अब नौकरी के लिए, दोनों में जमीन-आसमान का फर्क था। एक पढ़ाई का संबंध ज्ञान से था, दूसरे का अर्थ से।

घर पर भी उसका रवैया इस बार कुछ अलग दिखा। दूसरी दुनिया से अलग वह खोया- खोया-सा रहने लगा था। घरवाले इस बात को नहीं समझ पाये, बस हर पल वह ख्वाबों-ख्यालों में डूबा रहता। काव्या को वह अक्सर याद करने लगा था। उस यात्रा का एक-एक पल वह सैकड़ों दफा याद करता और फिर रोमांचित हो जाता। जब से वह नैनीताल से आया था, तभी से दिन में अनेक बार फेसबुक खोलता और काव्या जायसवाल  सर्च  करता,  पर  वह कभी उसे ढूँढ़ नहीं पाता। उसके पास  एक पुराना मोबाइल सेट था, जिसका स्क्रीन काफी छोटा था और नेट की सुविधा कुछ ज्यादा आकर्षक न थी। उसने तय किया इस बार आरा जाते ही एक बढ़िया-सा ब्रांडेड सेट

लूँगा, जिसमें स्क्रीन बड़ा हो और नेट बढ़िया चलता हो।

इस बार गाँव में वह कुछ ज्यादा जम गया, कारण एक तो गर्मी की छुट्टी थी,  दूसरा,  वह इन दिनों ज्यादा से ज्यादा  अकेला रहना चाहता था ताकि हर पल वह कल्पना की दुनिया में किसी के सामीप्य का एहसास कर सके। सुबह जगते – ही टहलने के लिए दूर नदी की ओर चला जाता। दोपहर में जब सभी सो जाते, तो वह बागीचे की तरफ निकल जाता। और रात में देर रात तक आँगन में खाट पर लेटे आसमान को देखता रहता। ऐसा लगता मानो चाँद-तारों से बातें कर रहा हो।

बड़ा-सा आँगन था। एक कोने में नीम का पेड़ था, उसी के नीचे चापाकल था। घर तो ईंट का था, पर उसमें सीमेंट का नहीं, बल्कि मिट्टी का प्रयोग था। ऊपर से खपरैल,

जैसे परंपरागत गाँव के मकान होते हैं। उस रोज़ बड़ी-ही निर्मल सुहानी चाँदनी रात थी। हर तरफ ज्योत्सना छिटक रही थी। हवा का शीतल झोंका रात की खूबसूरती में चार चाँद लगा रहा था। ऐसे में वह विचारों में निमग्न कभी चाँद को देखता, तो कभी स्वप्न – सुन्दरी की कल्पना करता। गुलजार मौसम ने उसके हृदय को उमंगों की तरंगों तथा प्रसन्नता से भर दिया था। वह अनायास आँगन में ही टहलने लगा और सोचने लगा काश एक बार वह फेसबुक पर दिख जाती।  यही  सब  सोचते  हुए  उसने  मोबाइल निकाला और fb पर उसे सर्च करने लगा, रात में नेट की स्पीड भी अच्छी थी। झट से कई नाम सामने आ गये। सबका नाम काव्या ही था, पर सरनेम या दूसरी चीजों में फ़र्क था।  उसने भूल से पूरा नाम  नहीं डाला था।  दोबारा से टाइप किया काव्या जायसवाल और सर्च मारा। काफी नीचे एक ऑप्शन था- काव्या जायसवाल फ्रॉम लखनऊ। सामने प्रोफाइल पिक्चर बहुत छोटे में और अस्पष्ट दिख रहा था। उसने जूम किया और फिर हैरत के मारे उछल पड़ा, महीनों का अथक प्रयास आज रंग लाया। उसे वह कैसे भूल पाता, जिसकी यादों ने उसका ये हाल कर दिया था। वह जल्दबाजी में सारे डिटेल्स को खंगालने लगा। एकदम नया अकाउन्ट था, बस कुछ एक मित्र ही अभी तक जुड़े थे। अब वह इस सोच में पड़ गया कि पहले मैसेज भेजे या फ्रेन्ड रिक्वेस्ट। इस दुविधा ने उसके पाँच मिनट बर्बाद किये और अंत में उसने तय किया कि काव्या कवि हृदय है, सो पहले मुझे कोई शायरी या कविता ही भेजना चाहिए। उसके बाद ही कुछ और सोचना चाहिए। ये देखना भी उचित होगा कि वह हमारे बारे में क्या सोचती है, मैसेज पढ़ने के बाद रिक्वेस्ट तो उसकी तरफ से भी आ सकता है।

उसने कुछ खूबसूरत पंक्तियाँ पहले से ही उसकी प्रशंसा में लिखा था, वह मन ही मन याद कर लिखने का प्रयास करने लगा। तभी अचानक से मोबाइल हाथ से फिसला और खाट के नीचे गिर गया। उसने झट से मोबाइल उठाया पर मोबाइल बंद हो चुका था। उसने ऑन करने के लिए बटन दबाया पर  मोबाइल नहीं खुला। उसके बाद अनगिनत प्रयास किया, पर वह अपने कार्य में सफल न हो सका। उसे बहुत खीझ आ

रही थी, ऐसे आनंद के पल में व्यवधान पता नहीं क्या हुआ ? बैट्री खत्म हो गयी या सेट में कुछ खराबी हो गयी, तय नहीं कर पाया, पर मन शांत न रह सका, विकल हो गया। विचारों में उथल-पुथल मच गयी और विचार शृंखला लंबी होती गयी। कुछ   इधर के, कुछ उधर के भिन्न-भिन्न ख्याल आते रहे और इसी दरम्यान पता नहीं कब वह नींद की आगोश में समा गया।

 

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किसलय ने आरा आते ही मोबाइल खरीदा, नेट पैक से संबंधित विस्तृत जानकारी प्राप्त की और फिर नेट रिचार्ज करवाया। उत्सुकता इतनी ज्यादा थी कि उसने रास्ते में ही फेसबुक लॉग इन कर काव्या जायसवाल सर्च मारा। फिलहाल नेट की स्पीड बहुत स्लो थी। वह पसीने से तर-बतर हो चला था। इर्द-गिर्द नजर उठाकर देखा, तो पास ही में डाकघर का जिला मुख्यालय था। उसने झटपट अपने आप को डाकघर के अहाते में किया। एक तरफ एक कोने में जा फर्श पर बैठ गया। हालांकि फर्श गन्दा था, पर रोमांच चरमोत्कर्ष पर था।

बार-बार नेट का सिग्नल गायब हो जा रहा था। उसने कई बार रि-ट्राई का ऑप्शन क्लिक किया और फिर अंतत: वह उस प्रोफाइल पर पहुँच ही गया, जिसकी उसे तलाश

थी। पूरे प्रोफाइल को गौर से देखा। यह वही काव्या थी, जिसकी उसने कल्पना की थी। अब उसके मन में अंतद्वन्द  नहीं था। वह तय कर चुका था कि सबसे पहले मैसेज करेगा और तब फ्रेंड रिक्वेस्ट सेन्ड करेगा। उसने रोमन में टाइप करना शुरू किया-

नमस्ते ! आज मैं आपको फेसबुक पर देख धन्य हो गया। अपनी इस खुशी का इजहार मैं कैसे करूँ सोच नहीं पा रहा। आपकी खिदमत में हमने कुछ टूटे-फूटे लफ़्ज़ लिखे हैं। मीटर और काव्यशिल्प की ज्यादा समझ तो मुझे है नहीं, बस भावों का संचार भर समझिएगा-

‘‘आपके साथ बीते पल हमेशा याद आएंगे

वो मेरा आज हो या कल हमेशा याद आएंगे

नदी का बह चुका पानी भला कब लौटा है

मगर गहराइयों के तल हमेशा याद आएंगे।’’

 

इन पंक्तियों को कई बार पढ़ा और बहुत विचार किया कि क्या ये इस समय भेजना जायज होगा ? और अंत में जज्बाती हो सेन्ड कर दिया। इसके बाद उसने अधीरता से फ्रेंड रिक्वेस्ट भी सेंड कर डाला। किसलय उन लोगों में से था, जो वास्तविक दुनिया से कम सरोकार रखते हैं, भावनाएं, जज्बात और उतावलापन कुछ  ज्यादा था जनाब में। इस मायने में उसकी सारी शिक्षा व्यर्थ नजर आती थी, क्योंकि शिक्षा का एक उद्देश्य तो आत्मनियंत्रण की क्षमता विकसित करना भी होता है, पर किसलय को अपने ऊपर बहुत नियंत्रण न था। हालांकि वह धुन का पक्का, बस एक बार में एक ही काम करने वाला व्यक्ति था।

संदेश भेजने के बाद कुछ  शांतचित हुआ। समय देखा, तो दोपहर के बारह बज रहे थे। मौसम बेहद गर्म और धूप की तीव्रता भयानक थी। जहाँ बैठा था, वहीं खड़ा हो आस-पास देखने लगा। उसे बहुत ताज्जुब हुआ कि जहाँ वह बैठा था, सामान्य तौर पर कभी ऐसी जगह पर नहीं बैठता। वहाँ धूल की हल्की-सी एक परत जमी हुई थी। उसने अब तक मुँह में कुछ  भी न डाला था, यहाँ तक की आज चाय पीने की भी सुध

न रही थी। अब तक तो कुछ ख्याल ही न था, भूख और प्यास का, पर जब मोबाइल को पॉकेट में रखा, तो भूख और प्यास दोनों ने एक साथ हमला किया। बड़ी विकट परिस्थिति होती है, जब दोनों एक साथ दस्तक दें। किसी एक का स्वीकारना, दूसरे को पसंद नहीं। और अगर दोनों एक साथ किया जाये, तो दोनों को तृप्ति नहीं। वह बाहर अहाते से निकल सड़क पर आ चुका था।

मकसद में कामयाबी और धूप ने कदमों की गति तेज कर दी। दस ही मिनट में वह अपने कमरे तक पहुँच गया। कमरे पर पहुँचते ही कपड़ा खोला और तौलिया लपेट ब्रश करने  लगा।  उसके बाद घर से लाया हुआ दो-एक ठेकुआ खाकर  थोड़ा-सा सुस्ताया। कुछ देर बाद स्नान के लिए चापाकल पर पहुँचा और बाल्टी में पानी भरने लगा। बाल्टी जैसे ही भरी अचानक से मोबाइल पर मैसेज का रिंगटोन बजा। खैर, उसने इस तरफ ध्यान नहीं दिया, क्योंकि उसे उम्मीद थी कि कम्पनी वाले पूरे दिन फालतू का मैसेज भेजते रहते हैं, उन्हीं का मैसेज होगा। उसने इत्मीनान से स्नान किया और फिर भोजन के संबंध में विचार करने लगा कि क्या उचित होगा ? खाना बनाना चाहिए या ठेकुआ और नमकीन से ही काम निकाला जाए। दूसरे मित्रों और रूम पार्टनरों में से कोई नहीं था, सभी अपने गाँव गये थे। उसने तय किया कि पहले कुछ   देर आराम किया जाये, और फिर बिछावन पर लेट सुस्ताने लगा। आदतन हाथ मोबाइल की तरफ गया और मैसेज देखने लगा। आश्चर्य से ‘धत् तेरे की’ मुँह से निकला और खुशी के मारे उछल पड़ा। देखा, तो वह fb का मैसेज था, जो उसके मोबाइल के मैसेज बॉक्स में पड़ा था। चूँकि इस वक़्त उसका डाटा कनेक्शन ऑफ था। मैसेज पढ़ने के साथ ही फेसबुक खोला और वहाँ अच्छे से नये नोटिफिकेशन को देखने लगा। उसने देखा मैसेज बॉक्स नये मैसेज को इंडिकेट कर रहा था। उसने झट से मैसेज बॉक्स क्लिक किया।

काव्या ने फ्रेंड रिक्वेस्ट एक्सेप्ट कर लिया था, साथ ही एक छोटा – सा मैसेज भी लिखा था- नमस्ते ! आपको fb पर देख मुझे भी अपार प्रसन्नता हुई। आपकी पंक्तियाँ दिल को छू गयीं, लेकिन माफ कीजिएगा मैं आज कु छ ज्यादा व्यस्त हूँ, इसलिए ज्यादा कुछ नहीं कह पा रही। बाय।

किसलय ने भी जल्दबाजी दिखायी और तत्काल एक मैसेज लिखा- ‘‘क्या आपको अब भी वो रात याद है, जब एक स्वप्निल यात्रा में हम दोनों साथ-साथ शरीक थे या आपने मुझे विस्मृत कर दिया ?’’ किसलय ने इसके बाद कई रोज तक उसके संदेश का इंतजार किया, पर कोई संदेश न आया। पर राहत की बात ये थी कि उसका मैसेज अब तक पढ़ा ही नहीं गया था। यानी कि काव्या तब से लेकर अब तका fb  पर आयी ही नहीं थी। बेचारा किसलय इस आशा से कि शायद अब मैसेज पढ़ लिया गया हो अपने fb के मैसेज बॉक्स को प्रत्येक पाँच मिनट पर एक बार जरूर देखता।

कई बार ये भी सोचता, काश, जवाब भले ही बाद में दिया जाता, पर कम से कम एक बार मैसेज तो पढ़ लिया गया होता। कई दिनों तक उसने निरंतर प्रयास जारी रखा। वह सबकुछ  भूल गया। बस अंगुलियाँ हर पला fb पर व्यस्त रहतीं। कभी किसी का कोई पोस्ट लाइक करता, तो किसी के पोस्ट पर कोई कमेन्ट करता। इसी चक्कर में वह हर पल व्यस्त हो चला था। अपने आपको बहुत संभाल और जबरदस्ती कर घंटे भर के लिए पढ़ाई करता, फिर वापस जैसे भौंरा फूलों की तरफ खींचा जाता है, वह मोबाइल की दुनिया में खो जाता। इंतजार की पीड़ा क्या होती है, इसमें मजा क्या आता है और मीठा दर्द किसे कहते हैं, इसका सबसे सटीक उत्तर किसलय दे सकता था, पर कल्पना हर पल सकारात्मक  रुख अख्तियार किये हुए थी और उसने खुद को आनंद के गलियारे में खड़ा पाया।

 

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काव्या एक संपन्न परिवार से थी।  रुपये-पैसे की कमी कभी उसने देखी नहीं था, पर इसका मतलब ये नहीं था कि वह गरीबी को नहीं जानती थी। काव्या उदार और दानी

प्रवृत्ति की थी। दानी इस मायने में की, खुद कष्ट में रहकर भी दूसरों की मदद कर देती थी। ऐसा नहीं कि उसमें कोई खामी न थी और वह इस संसार से परे की चीज थी। पर कोई वर्षों साथ रहने के बाद भी एक-आध खामी ही उसके व्यक्तित्व से निकाल पाता।

वह सर्वगुण संपन्न होकर भी लेशमात्र अभिमानिनी न थी। वह बचपन से ही मामा के परिवार में रही थी। मामा महेश बाबू एक उच्चकोटि के व्यक्ति और आदर्श शिक्षक थे। वे बच्चों के प्रति बेहद ईमानदार और शालीन स्वभाव के हँसमुख इन्सान थे। उनके व्यवहार की पूरी की पूरी   छाप काव्या पर पड़ी थी। धर्म और सदाचार उनके रोम-रोम में विराजमान था।

महेश बाबू को कोई पुत्री न थी, पर वह काव्या को अपनी पुत्री से ज्यादा मानते थे। वे नौकरी करते-करते कई शहरों का चक्कर लगा चुके थे। इसका लाभ भी काव्या को मिला था। स्थान परिवर्तन समायोजन की क्षमता प्रदान करता है। काव्या का अपना घर देवल था, पर वहाँ उसका बहुत कम आना-जाना होता था। इस घर और वहाँ के घर में बहुत अन्तर था। वहाँ धन की पूजा होती थी, यहाँ विद्या की। वहाँ सुबह से शाम

तक जी तोड़ मेहनत होती थी ताकि आमदनी बनी रहे, यहाँ एक संतुलित जिंदगी होती थी ताकि स्वास्थ्य और सौंदर्यबोध बना रहे।

काव्या पढ़ने में मेधावी थी और खूब मन लगाकर पढ़ती थी, शिक्षा से उसका शुरू से वास्ता रहा। इधर चार वर्षों से उसका संबंध लखनऊ से रहा था। महेश बाबू ने गोमतीनगर में एक छोटा – सा घर भी खरीद लिया था। उन्हें लखनऊ बहुत पसंद था।

 

काव्या ने बारहवीं की परीक्षा बहुत अच्छे अंकों से उतीर्ण की थी। विज्ञान की  छात्रा होने के बावजूद उसकी रूचि साहित्य में बहुत ज्यादा थी। वह इस मामले में बहुत कशमकश में थी कि आगे क्या और कैसे करना चाहिए ? वह हमेशा इस दुविधा में वर्क पड़ी रहती थी कि सिविल सर्विसेज की तैयारी करे या सोशल के लिए खुद को तैयार करे। उसने करियर के संबंध में महेश बाबू से कभी खुल कर बात न की थी।

बस दोस्तों ने जो कह दिया, उसे ही वह अच्छा मान लेती। उम्र का यह एक ऐसा मोड़ होता है, जहाँ लगता है कि सब कुछ  किया जा सकता है – सारे ऑप्शन खुले होते हैं,

पर उचित चयन न होने पर एक दिन ऐसा भी समय आता है, जब सारे रास्ते बंद नजर आते हैं। विकल्प की कमी हमेशा संकल्प को मजबूती प्रदान करती है।

अपने कॉलेज में वह एक ख्यातिप्राप्त कलाकार थी। नाटक, भाषा, वाद-विवाद, गीत-संगीत और विभिन्न सांस्कृतिक आयोजनों में वह महाविद्यालय की सिरमौर थी। सृजनशीलता और रचनात्मकता उसमें कूट-कूटकर भरी हुई थी। आजकल वह कभी – कभी  हिंदी-उर्दू  मिश्रित कविता भी लिखने लगी  थी।  उसकी कविताएं ज्यादातर सामाजिक समस्याओं पर आधारित होती थीं। यानी यूँ कहिए कि साहित्य का चस्का उसे लग चुका था और विचारों से वह साहित्यकार तो जन्मजात थी। उसने कुछ  दिन पहले चंद खूबसूरत पक्तियाँ लिखी थीं, जिसे लोगों ने बहुत पसंद किया था-

समन्दर से कोई तिनका डुबोया तो नहीं जाता,

गुहर साहिल पे उससे यूँ ही, खोया तो नहीं जाता।

ये सच है पाँव का काँटा तो, काँटे से निकलता है,

मगर कीचड़ कभी कीचड़ से धोया तो नहीं जाता।

महेश बाबू जब भी कोई नयी रचना सुनते, तो बहुत खुश होते और काव्या को खूब प्रेरित करते। एक संर्पूण और मनोरम नारी की जो कल्पना हम करते हैं, उससे दो कदम वह आगे  थी।  जो  एक बार उससे मिल लेता,  वह उसका मुरीद हो  जाता।  अपने रूपलावण्य, चित प्रकृति और नैसर्गिक गुणों से वह सपनों की राजकुमारी लगती थी।

ममेरे भाई कमल की देख-रेख और पढ़ाई का दायित्व उसी के ऊपर था। शाम को दोनों अक्सर किसी पार्क में घूमने चले जाते थे, वहाँ इनका एक समूह होता था और खूब मस्तियाँ होती थीं। कितनी आश्चर्यजनक दैव की लीला है, कोई उम्र भर के लिए आनंद और खुशी लिए आता है और कोई उम्र भर दर्द और परेशानियों का बुत बने जीवन गुजारता है। सब नसीब का खेल है और कुछ  कहते हैं सोच का फर्क है, पर सोच जहाँ से उत्पन्न होती है, उस अनन्त का भी तो कोई महत्व है।

काव्या और कमल को साथ देख कोई भी उन्हें सगा भाई – बहन ही समझता और वो आपस में प्रेम भाव भी वैसा ही रखते थे, मानो सहोदर। वैसे काव्या दो बहनें थी, अपना कोई भाई न था। पिता जी देवल के सबसे धनी व्यापारी थे। उनकी कोठी में ऋद्धि-सिद्धि बरसती थी। उनके यहाँ धन का साम्राज्य था।  रुपये और हाय रुपये इसके लिए सुबह से शाम तक नाना छल – प्रपंच और दाँव का उपयोग होता था। लक्ष्मी जितनी आती, भूख उतनी ही बढ़ती जाती थी। पिता चुन्नीलाल बस हर रिश्ते और आदमी की कीमत पैसे से तौलते थे। यहाँ पुरुष व्यस्त रहते थे और महिलाएं जिंदगी का असली आनंद उठाती थीं। भोग-विलास की सारी वस्तुएं उनके घर में विराजमान थीं। काव्या की एक छोटी बहन सुजाता थी। काव्या को सगा भाई न था, इस कारण उसकी माता जी को मन-ही-मन इस बात की बहुत पीड़ा होती थी। अपने दर्द को कम करने के लिए वह अक्सर विंध्याचल और दूसरे देवालयों में  माथा टेकने जाती थीं।

प्राय: मानसिक क्लेश का विस्थापन धार्मिकता में हुआ करता है। जैसा कि चुन्नीलाल अकूत संपत्ति के मालिक थे, वह हर अच्छे और बुरे तरीके का प्रयोग व्यापार में करते थे, पर दिखावा में कोई कमी न होती। लाखों  रुपये धर्म और दूसरे कार्यो के लिए चंदे में दिये जाते थे, ताकि लोगों की नजर में प्रतिष्ठा बनी रहे। हर महीने इनके यहाँ कोई न कोई पार्टी हो ही जाती थी। दरअसल इनका परिवार संयुक्त परिवार था। चुन्नीलाल घर के मुखिया थे। पार्टियों के लिए बस एक बहाना भर चाहिए था। चाहे किसी का जन्मदिन हो या मैरेज – डे, दावत जरूर होती। बड़े – बड़े लोगों का आना-जाना लगा रहता था।

चरम भौतिकतावादी चुन्नी बाबू अपने आप को किसी शहंशाह से रत्ती भर भी कम नहीं समझते थे।

 

5

काव्या की मित्र-मंडली विस्तृत थी, क्योंकि ऐसे मिलनसार व्यक्ति को हर कोई दोस्त बनाना पसंद करता है। पर एक दोस्त बहुत खास थी- पूजा। वह उम्र में काव्या से थोड़ी बड़ी थी। वह काव्या के विपरीत चंचल, मुखर, अल्हड़ और नटखट थी। नित्य नये शरारतों में उसे बहुत मजा आता था। व्यंग्य, मजाक और भाषा की प्रवीणता पूजा के अमोघ अस्त्र थे। नित्य नये-नये शब्दों का प्रयोग और नामकरण की कला में बेहद पारंगत थी- पूजा। तिल का ताड़ बनाना इनका शौक था। वह काव्या को खूब सताया करती थी, पर थी बहुत साफ दिल की। दोनों गर्ल्स स्कूल में पढ़ी थीं, इसलिए लड़कों से बहुत ज्यादा कभी संपर्क रहा नहीं। पूजा के चेहरे का रंग सांवला पर नयन-नक्ष तीक्ष्ण और बेहद चिताकर्षक था। एक खास फर्क, जो पूजा को सबसे जुदा करता था, उसके लंबे और घने काले मेघ से बाल थे। काव्या को जितना ही शौक कविता लिखने का था, पूजा की उतनी ही रूचि कविता पढ़ने में थी। प्यार और मुहब्बत की बातें करना, किस्सा – कहानी सुनाना और अजीब-अजीब ख्वाब देखना पूजा को बेहद पसंद था। पूजा की घूरती आँखें, पल भर में बदलता चेहरा… अजनबियों में एक भय-सा पैदा करता था। उस दिन जब दोनों सहेलियाँ पार्क में साथ बैठीं, तो पूजा नैनीताल की यात्रा के संबंध में कुछ ज्यादा जानने को व्यग्र दिखी। काव्या ने इस यात्रा के संबंध में बहुत ज्यादा कुछ कहा न था, कारण काव्या तो ऐसे यात्रा की आदी थी और बार-बार नयी यात्रा की चर्चा वह जानबूझ कर नहीं करती थी ताकि पूजा उसे आत्मश्लाघी न समझे, पर पूजा ने जब कहा कि उसे नैनीताल घूमने का बहुत मन है, वह कई बार फिल्मों में नैनीताल के विहंगम दृश्यों को देख पुलकित हो जाती है, तो काव्या ने उस यात्रा का वर्णन शुरू किया और सब कुछ    अच्छे से बताया, पर वापसी के अनुभवों को नहीं बताया। काव्या उस घटना को बहुत महत्व नहीं दे रही थी अथवा किसी पुरुष के संबंध में पूजा से कुछ कहना उचित न लगा।

‘‘इस बार रेल की यात्रा कैसी रही ? मुझे तो ट्रेन से सफर में बहुत मजा आता है।’’ पूजा ने उत्सुकता से पूछा ।

‘‘अच्छा – खासा रहा।’’

‘‘कुछ नये लोगों से परिचय और जान-पहचान हुई ?’’

‘‘कोई बहुत खास तो नहीं, पर आने के दरम्यान दो दिलचस्प बिहारियों से मुलाकात हुई। एक तो नेता थे और दूजा बेहद पढ़ा-लिखा और स्पष्टवादी व्यक्ति था।’’

‘‘मतलब प्रौढ़ था ?’’ पूजा ने अधीरता से प्रश्न किया।

‘‘नहीं, देखने से तो ऐसा लगता था मानो हमउम्र हो, पर बातों से बहुत सयाना था। बाद में पता चला, यही कोई तीन-चार साल उम्र में बड़े होंगे। ज्ञान के सहोदर भ्राता और आधुनिक  समाज के जीवित गूगल थे। हरेक प्रश्न का सटीक उत्तर था उनके पास।’’

‘‘देखने में कैसा था और व्यवहार से…?’’ पूजा ने चाव से पूछा ।

‘‘ छोड़ो ना इन बेकार की बातों में क्या रखा है, एक अजनबी के लिए हम अपना इतना अमूल्य समय क्यों बर्बाद करें ?’’

‘‘मुझे लगता है, तुम मुझसे कुछ छुपा रही हो, कहीं प्यार-व्यार का मामला तो नहीं ?’’

यह कहते हुए पूजा हँस पड़ी और काव्या  छुइ – मुई के लता की तरह सिकुड़ गयी। काव्या को लगा, पूजा कुछ ज्यादा रुचि ले रही इस बात में, पर वह यह भी जानती थी कि इतनी आसानी से पूजा छोड़ने वाली नहीं, जब तक सब कुछ   उगलवा न ले।

‘‘तुम्हें प्यार और लड़कों के सिवा कुछ और थोड़े सुझता है… ये प्यार – व्यार की बीमारी मुझे नहीं होने वाली। हाँ, तुम्हारे लिए अब मुझे कोई इलाज ढूँढ़ना होगा।’’

‘‘तो फिर सीधे-सीधे बताती क्यों नहीं ?’’

‘‘उनका नाम किसलय था।  सैकड़ों पुस्तकों का अध्ययन कर  चुका है।  व्यवहार कुशलता में कोई कमी नहीं थी और उसके चलते रात की यात्रा अच्छी – खासी मजेदार रही। वह तरह-तरह के किस्से-कहानियाँ सुनाता रहा। एक कविता भी सुनाया। उसकी तर्कशक्ति बहुत जबरदस्त थी।’’

‘‘क्या मुझसे भी ज्यादा ?’’ पूजा ने ढीठाई से पूछा ।

‘‘कह नहीं सकती, मुकाबला कराना पड़ेगा।’’

‘‘तुम किस पक्ष का समर्थन करोगी?’’

‘‘मैं… मैं… तो निर्णायक की भूमिका में रहूँगी।’’ दोनों सहेलियाँ हँस पड़ी, फिर काव्या ने गंभीर होकर कहा, ‘‘पर एक फायदा मिला मुझे उससे मिलकर, अब तक जो अनिर्णय की स्थिति थी, उसका हल निकल आया।’’

‘‘क्या हुआ?’’

‘‘अब मैंने तय किया है कि पढ़ाई, विद्वता के लिए करनी है, परीक्षा में नंबर के लिए नहीं। अब मैं विज्ञान नहीं पढ़ना चाहती, फिजीक्स के बजाय मेटा फिजीक्स पढ़ने को दिल कर रहा, अब मैं विदुषी बनना चाहती हूँ।’’

‘‘तो ये किसलय का असर है ? एक ही रात में इतना प्रभाव डाल दिया, …कहीं महीने भर साथ रह जाता, तो तुमको पहचानना मुश्किल हो जाता।’’

‘‘तुम मजाक से बाज नहीं आओगी, मैं गंभीर हूँ इस मुद्दे पर और तुमसे कुछ सलाह चाहती हूँ और तुम हो कि  छेड़ती रहती हो मुझे।’’

‘‘ना बाबा ना, मैं इस मामले में कोई सलाह नहीं दे सकती। तुम्हारे मामा जी ज्यादा बेहतर सलाह देंगे इस मसले पर। भूल से कहीं मेरी सलाह तुम्हारे करियर को खराब कर दे, तो मैं जीवनभर अपने आप को माफ नहीं कर पाऊँगी।’’ दोनों चुप हो कुछ देर तक अपने आप में उलझी रहीं।

‘‘मेरी झाँसी की रानी को कोई राजा मिला अथवा नहीं ?’’ अब पूजा पूरी तरीके से मजाक के मूड में थी।

‘‘किसकी मजाल जो इधर आँखें उठाकर देखे,  आँखें न  निकाल लूँ।’’  काव्या ने कहा।

‘‘और अगर तुम्हारी आँखें कहीं अटक गयी तो ?’’ पूजा ने आँखें मटकाते हुए पूछा ।

‘‘हो नहीं सकता।’’ काव्या ने जवाब दिया।

‘‘कल्पना करो,  हम दोनों अगर एक ही इंसान को पसंद करने लगें, तो क्या होगा ?’’ पूजा ने चिढ़ाने के अंदाज में कहा।

‘‘कुछ नहीं,  तुम्हारे लिए छोड़ दूँगी,  मजाक और बातचीत मैं  करूँगी,  रिश्ता तुम निभाना।’’ काव्या ने भी बात में रस लेते हुए मुस्कुराकर जवाब दिया।

‘‘क्या तुम उम्र भर ऐसे ही रहोगी… कभी बदलाव की कोई गुंजाइश नहीं होगी ?’’ पूजा ने पूछा ।

बड़े दार्शनिक लहजे में काव्या ने कहा, ‘‘जब मौसम, प्रकृति, नदी, पहाड़, झरने वक़्त के साये में सब बदलते रहते हैं, तो हम तुच्छ इन्सानों की क्या हस्ती ? फिर भी मैं अपने आप को  बदलना नहीं चाहती।  वैसे भी तुम्हारी ये मस्ती,  अल्हड़पन, शोखमिजाजी,  शरारत और चुलबुलापन देख एक न एक दिन  कोई सपनों का राजकुमार तुम्हारे पैरों पर लोट जाएगा… तो भला तुम्हारी खुशी से बढ़कर मुझे और क्या चाहिए ?’’

‘‘तुम्हें चाहिए किसलय जैसा प्रेमी, जो तुम्हें हर वक्त काबू में रख सके। भला इस यायावरी, कविता, विद्वता और अध्यात्म के सहारे कब तक दिन गुजरेगा ? इसके भीतर भी तो कोई  दिल  होगा ?’’  पूजा  ने लापरवाही से काव्या के सीने  पर  हाथ रखते हुए कहा।

‘‘ये दिल नहीं पत्थर है, जहाँ वर्षा के पानी से घास नहीं उगने वाली।’’ काव्या ने धीरे से पूजा के हाथ को अपने हाथ में ले लिया।

‘‘तो काई जम जाएगी और मन उसी के जैसा मैला हो जाएगा। दिल को दर्पण बनालो…  पारदर्शी और नाजुक,  क्योंकि नारी का हृदय ऐसा ही होना चाहिए।’’  पूजा

ने कहा।

‘‘ताकि दुनिया बार-बार तोड़ती रहे। कांच तो एक बार में बिखर जाएगा, पर दिल रूपी शीशा हर बार टूटेगा और जख्म कर जाएगा और वक्त का मरहम जख्मों को हर बार भरने की कोशिश करेगा।’’ काव्या ने इस बार पूजा को एकदम निरुत्तर कर दिया था। बातों का सिलसिला लंबा होता जा रहा था, अंधेरा हो चला था और पार्क में लाइट जल चुकी थी, सो समय का ख्याल कर बात अधूरी छोड़ घर को चल पड़ी दोनों।

क्रमश :

 

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आपका रसिया ( उपन्यास, भाग – 1 ) 

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