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डॉ. विष्णु शास्त्री सरल
प्रिये! तुम्हारा स्वर सुनकर यह
मन मेरा खुश हो जाता है,
कोई आकर चुपके-चुपके
कानों में कुछ कह जाता है।
भाव-कल्पनाओं में फिर से
नये पंख-से लग जाते हैं,
और वेदना के पल मेरे
निकट नहीं आने पाते हैं।
मन उत्तर देता न परस्पर
क्या है अपना रिश्ता-नाता,
फिर भी आशा-अभिलाषा का
एक नया आलोक दिखाता।
मिल जाती है शक्ति नई-सी
बाधाओं से लड़ लेता हूँ,
अपनी जीवनचर्या को मैं
कुछ आयाम नया देता हूँ।
किन्तु निरन्तर हृदय-सिन्धु में
तरल तरंगें कहाँ रहेंगी,
समय बीत जाने पर फिर ये
मनवांछित परिणाम न देंगी।
चाहे रहो नहीं तुम हर पल –
ही मेरे आँखों के आगे,
पर स्वर ही दे कभी सुनाई
दूर कहीं नीरसता भागे।
सदा उमड़ती रहे सरसता
शुचिता राह प्रशस्त बनाए,
दशा-परिस्थिति विषम न कोई
इस जीवन में आने पाए।