– अंशु सिंह
“मौली…उठो बेटा, सुबह के नौ बजने को आए, आज क्लास है न तुम्हारी?”
मां द्वारा नींद से जगाने की कई कोशिशों के बाद बेटी ने जवाब दिया, “नहीं!”
और बिस्तर पर करवट ले ली…। आधा-पौन घंटा और बीता…। मौली बेहद अनमने अंदाज में उठी। फटाफट ट्रैक सूट पहना और सिर्फ ये कहते हुए बाहर निकल गई, “मॉम, पार्क में जॉगिंग के लिए जा रही हूं।”
नीना जब तक दरवाजे तक पहुंचतीं, उसके जोर से बंद होने की आवाज हुई।
‘क्या हो गया है इस लड़की को? 27 की हो गई है। ऑफिस में पूरी टीम संभालती है। लेकिन खुद को संभालना नहीं आता है। कोई रूटीन ही नहीं है। न सोने का, न जागने का, न खाने-पीने और न ही काम का…! इतने साल बाद तो घर आई है। फिर भी खुश नहीं लगती…।‘ नीना अपने मन से यूं ही बातें करते हुए वापस रसोई में चली गईं।
हालांकि, एक पीड़ा उन्हें अंदर ही अंदर सता रही थी, ‘कैसे पूछूं मौली से ?’कैसे जानूं कि उसके मन में क्या चल रहा है? वह चिंतित थीं।
रसोई के समीप ही ड्राइंग रूम में साईं बाबा का भजन गूंज रहा था। रोज सुबह उठते ही नीना कोई न कोई संगीत या भजन लगा ही देती थीं, ताकि घर अथवा मन के भीतर किसी प्रकार की नकारात्मकता को प्रवेश करने का अवसर न मिले…बेटी की बेरुखी को भी इसी कारण नजरअंदाज कर पा रही थीं और अपने ऊपर संयम रख रखा था…।
उधर, पार्क में मौली भी कानों में हेडफोन लगाए कितने ही चक्कर लगा चुकी थी। घंटे भर से ज्यादा बीत गए थे। आकाश में सूरज बादलों की ओट से बाहर निकल आया था। उसकी तपिश भी महसूस की जा सकती थी। गीले घास की ओस भी सूखने लगी थी। पसीने से लथपथ मौली एक बेंच पर जा बैठती है। वह जूते निकालती है और पांव ऊपर कर आराम की मुद्रा में आसन जमा लेती है। पार्क में इक्का-दुक्का लोग ही थे। कुछ पल इधर-उधर निहारते हुए, उसके मन का घोड़ा दौड़ने लगता है, ‘कैसे बताऊं मॉम को सौरभ के बारे में। क्या बताऊं? जॉब से ज्यादा टेंशन तो अब उसके अधूरे काम को पूरा करने की है।‘ वह उधेड़-बुन में थी। असमंजस में थी। तभी कहीं से 8-10 वर्ष का एक बच्चा उसके करीब आता है, “दीदी, कुछ खाने को है क्या? कल से पेट में कुछ नहीं गया है।”
ठंड में मैली-फटी सी एक शर्ट और हाफ पैंट पहने उस लड़के को देखकर भी मौली उसे नजरअंदाज करती है। लेकिन बच्चा कम जिद्दी नहीं था या कहें कि बेबस था…। वह लगातार गुहार लगाता रहा। दीदी का दिल पिघलने लगा और पूछ ही बैठी, “क्या नाम है बच्चे तुम्हारा?”
कुछ पल के बाद वह बोलता है, “सोनू।”
मौली ने पूछा, “तुम्हारे मां-बाबा कहां हैं?’
बच्चे ने कहा, “नहीं मालूम कहां चले गए हैं दोनों। दो दिन से ढूंढ रहा हूं।”
मौली उसे घर लेकर आती है और दरवाजे पर ही खड़े रहने की हिदायत देते हुए अंदर जाती है। वापस आकर कुछ बिस्कुट औऱ ब्रेड के साथ कुछ गर्म कपड़े देते हुए कहती है, “सीधे अपने कमरे पर जाओ। और भगवान पर भरोसा रखो। लौट आएंगे मां-बाबा।”
बच्चे के जाने के बाद मां बेटी से पूछती है, ‘तुमने उसे किसके कपड़े दिए?’
मौली ने कहा, “निहाल के।”और वह अपने कमरे में चली जाती है।
नीना को यह जरा भी अच्छा नहीं लगा था कि मौली ने निहाल के कपड़े उस बच्चे को दे दिए। निहाल के सामान, उसके खिलौने, कपड़ों को वर्षों से संभाल कर जो रखा था उन्होंने। दरअसल, निहाल मौली के भाई कुणाल का बेटा था, जो अमेरिका के अटलांटा शहर में रहता था। दस साल पहले वे सब जो भारत से गए, उसके बाद न लौटकर आना हुआ और न ही कभी फोन करने की जहमत उठायी…। परिवार से कोई संपर्क ही नहीं रह गया था उनका। लेकिन कहते हैं न कि मां का दिल, उनकी भावनाएं, तर्क-वितर्क कुछ खास ही होते हैं। नीना को बेटे या उसके परिवार से कोई शिकायत नहीं थी। स्कूल से रिटायरमेंट के बाद वह अकेले ही ठाणे में रहती थीं और सप्ताहंत में वृद्धाश्रम जाकर वहां थोड़ी सेवा कर आती थीं। लोगों के चेहरों पर मुस्कुराहट लाकर उन्हें संतुष्टि मिलती थी।
मौली बीटेक की पढ़ाई पूरी करने के बाद पांच साल से हैदराबाद में नौकरी कर रही थी। उसका कम ही घर आना-जाना हो पाता था। हां, अगर कोविड न आता, तो आज भी मां-बेटी अपने-अपने शहरों में अकेले ही रह रही होतीं। लेकिन नीना को वह अकेलापन उतना नहीं सालता था, जितना खालीपन अब महसूस कर रही थीं वह।
वह रसोई में बेटी का मनपसंद गाजर का हलवा बनाते हुए सोच रही थीं कि शायद इसे खाने के बाद उसकी खुशी फिर से लौट आए…। आखिर हलवे में वे ढेर सारा प्यार जो भर रही थीं। नीना कमरे में दाखिल होती हैं। मौली को लैपटॉप पर काम करते देख, वह उसे डिस्टर्ब करना ठीक नहीं समझतीं और टेबल पर हलवा रख लौट जाती हैं। उन्हें उम्मीद थी कि शायद बेटी कुछ बोलेगी। लेकिन ऐसा कुछ हुआ नहीं। क्योंकि मौली का मन तो कहीं और था। वह लैपटॉप के साथ तो थी, लेकिन काम में जी नहीं लग रहा था। एक अजीब-सी उदासी थी। दिल रोना चाहता था, जिसकी दिमाग इजाजत नहीं दे रहा था। वह किन्हीं ख्यालों में डूबी थी, ‘मई महीने में जब ऑफिस में खबर आई थी कि अगले डेढ़ साल वर्क फ्रॉम होम करना होगा, तो कितनी खुश थी मैं। मां के साथ अपने घर पर रहने का ऐसा मौका जो मिल रहा था। मां की तो खुशी का ठिकाना नहीं था, जब उन्हें मैंने यह खबर दी थी।‘ सच ही तो सोच रही थी मौली। वर्षों बाद घर लौटी बेटी पर लाड़-प्यार बरसाने में नीना ने कोई कसर कहां छोड़ी थी। उसकी छोटी-सी-छोटी जरूरतों का खयाल रखती थीं। मां-बेटी घंटों बातें किया करते थे, मानो कितने जन्म से बिछड़े हुए थे। कई सारी प्लानिंग चल रही थी। लेकिन हर मां की तरह नीना को मौली की शादी की थोड़ी चिंता थी। और एक दिन उन्होंने बेटी से सौरभ को लेकर उसकी राय पूछ डाली…। लेकिन जिस जवाब की उम्मीद थी, वह मिला नहीं। बल्कि अचानक से सब बदल गया। मौली उनके साथ बैठने, बात करने से कतराने लगी…। या तो ऑफिस के काम में व्यस्त रहती या बाहर निकल जाती। एहतियात के साथ बाहर निकलने की यह आजादी भी कुछ समय पहले ही मिली थी…।
मौली कुर्सी से उठती है। अलमारी में रखे पुराने एलबम को निकालती है और खिड़की के करीब बैठ जाती है। खिड़की में लगे हल्के गुलाबी रंग के पर्दे से धूप छनकर आ रही थी। वह एलबम पलटने लगती है…। उसमें सौरभ और अपनी बचपन की तस्वीरों को देख मन फिर से भावुक हो उठता है, ‘क्यों इतनी दूर चले गए तुम? आखिरी बार देखने का मौका भी नहीं दिया?’
सौरभ उसके बचपन का दोस्त था। दोनों ने साथ ही इंजीनियरिंग भी की। उसकी बहन कोमल से ही भाई कुणाल की शादी हुई। जिंदगी सुंदर थी। छोटे-छोटे लम्हों को खूब जीते थे सभी। सौरभ बेंगलुरू में नौकरी कर रहा था और समय निकालकर बीच-बीच में गरीब बस्ती के बच्चों को पढ़ाया भी करता था। जब कोविड ने दस्तक दी, तो उसने दोस्तों व जानने वालों से बच्चों के लिए पुराने फोन का इंतजाम किया और उन्हें फोन पर ही पढ़ाने लगा…। उनसे वीकेंड्स पर यूं ही बातें भी किया करता था।
मौली यादों में खोयी हुई थी, ‘ मुझे भी बच्चों से बातें करके अच्छा लगता था। हमने तय किया था कि जब सब सामान्य हो जाएगा, तो हम दोनों नौकरी छोड़ एक स्कूल शुरू करेंगे, जहां दाखिले का कोई नियम नहीं होगा। जो बच्चे पढ़ना या कुछ सीखना चाहते हैं, वे वहां आ सकते हैं…और भी कई योजनाएं थीं…। अब पता नहीं क्या औऱ कैसे होगा…।‘
कमरे में अंधेरा छाने लगा था। मौली ने लैंप जलाया। हल्की पीली रौशनी में भी उसकी उदासी छिप नहीं रही थी, ‘मां को तो बताना ही पड़ेगा। उनसे छिपाना मुश्किल हो रहा…वह पता नहीं क्या-क्या सोच रही होंगी मेरे बारे में…।‘ इसी बीच नीना रूम में दाखिल होती हैं, ‘ कैसा लगा गाजर का हलवा? ‘
मौलीने चौंक कर कहा,“हलवा ? कहां है ?”
उफ्फ…वह टेबल पर पड़ा ठंडा हो चुका था।
मौलीने कहा,“मॉम, कुछ बताना है आपको…।”
नीनाबोली,“बाहर आ जाओ, वहीं बातें करते हैं। मैंने तुम्हारे फेवरेट पनीर टिक्के बनाए हैं। हलवा भी गर्म कर देती हूं….।”
मौली को खुद पर गुस्सा और अंदर से ग्लानि हो रही थी…। मां इतना खयाल रख रही हैं और मैं क्या दे रही हूं उन्हें…। वह बाहर निकलती है।
डाइनिंग टेबल पर दोनों पहले खामोशी से एक-दूसरे को देखती हैं…फिर एक गहरी सांस लेकर मौली बताती है,“मॉम, सौरभ इज नो मोर…।”
“क्या…? कुछ भी कह देती हो…? मैं अभी फोन लगाती हूं उसे…।”
मौली मां के हाथों से फोन लेते हुए कहती है, “यह सच है। सॉरी मैं हिम्मत नहीं कर पा रही थी आपको बताने की…। जब भी कोशिश करती, उसका चेहरा सामने आ जाता और मैं डर जाती कि आपको कुछ न हो…।”
मौली किसी तरह पूरी घटना को समेटने की कोशिश करती है, “दो महीने पहले सौरभ को हल्का-हल्का सा जुकाम व बुखार हुआ था। एक दिन अचानक रात में उसे सांस लेने में तकलीफ हुई…। उसने पड़ोस के फ्लैट में रहने वाले अंकल को फोन कर बुलाया…। उन्होंने एंबुलेंस बुलाने की कोशिश की। दो घंटे के बाद एक एंबुलेंस आया…। वह अस्पताल पहुंचा। तीन घंटे बाद ही डॉक्टर ने घोषणा कर दी…। उसके दिल ने धड़कना बंद कर दिया था…।” इतना बोलते ही मौली फूट पड़ी…आंखों में सिमटे आंसू बाहर बहने लगे….।
मां ने बेटी को सीने से लगा लिया।
कुछ देर बाद मौली ने कहा, “कोविड टेस्ट रिपोर्ट न आने के कारण उसके शव को अस्पताल में ही रखा गया था। अगले दिन रिपोर्ट आई। वह पॉजिटिव था। मैं नहीं जा सकी उसकी आखिरी यात्रा पर…और न ही उसके कोई अपने….। अस्पताल वालों ने ही शेष जिम्मेदारी निभायी…।”
उस पल नीना ने मौली से सिर्फ इतना कहा, “जब नई सृष्टि रची जाएगी, तो ईश्वर को सौरभ जैसे युवाओं की ही तो जरूरत होगी। इसलिए उन्होंने उसे अपने पास बुला लिया है। तुम्हारे साथ मैं हूं…। हम दोनों उसके सपने को पूरा करेंगे…।”
तभी दरवाजे पर घंटी बजती है..।
मौली दीवार पर टंगी घड़ी देखती है, दस बजे रात में कौन आया है? मैं देखती हूं।
दरवाजे पर सोनू खड़ा था, “दीदी, मां-बाबा लौट आए हैं। ये बताने के लिए आया था। आपने कहा था न कि भगवान पर भरोसा रखो..।”
मौली सोनू को गले से लगा लेती हैऔर उसे अपनी गाड़ी से उसके घर तक छोड़कर आती है…। लौटते हुए उसके मन का सारा बोझ, भारीपन रुई की तरह हवाओं में उड़ चुका था…वह शांत थी और आकाश के तारों के बीच कहीं छिपे सौरभ को दुआएं दे रही थी…।
अच्छी कहानी अंशु की…