– भोलानाथ कुशवाहा
अप्रैल का आधा महीना गुजर चुका था। धूप कड़क थी। मौसम की गर्मी के चलते बाहर सड़क पर दोपहर में भीड़-भाड़ कम हो गई थी। शुभेंदु के घर में कैश के नाम पर कुल तीन सौ रुपये बचे थे। उसकी तबीयत क्या थी, बस, समझिए कि कमजोरी के चलते ठंड का पूरा मौसम संभल-संभल कर डगमग रास्ता चलने में गुजर गया। लोग कह देते, बहुत कमजोर दिखाई पड़ रहे हो शुभेंदु भाई। अब बढ़ती गर्मी में तबीयत इतनी गड़बड़ हो गई कि घर से निकलना मुश्किल लगने लगा। आर्थिक स्थिति ऐसी थी कि कामचलाऊ इलेक्ट्रो होम्योपैथ डॉक्टर की दवा चल रही थी। शहर के चर्चित निजी डॉक्टर या तो बाहर चले गए बताए जा रहे थे या काफी महंगे थे। दवा कहीं करानी हो, पैसा तो जेब में होना ही चाहिए। चाहे वह सरकारी अस्पताल ही क्यों न हो। उधर, सरकारी अस्पताल जाना कोरोना को दावत देना जैसा भय पैदा किए था।
जब लगा कि अब बैंक से कुछ रुपये निकाल लेना बहुत जरूरी है नहीं तो गाड़ी फंस जाएगी, तब शुभेंदु ई-रिक्शा से दोपहर में बैंक पहुंच गया। वहां किसी तरह एक-एक कदम सीढ़ियां चढ़ा। बैंक के काउंटरों पर लंबी लाइनें लगी थीं। हर कोई अपने में व्यस्त था। दूसरे को देखने तक की किसी के पास फुरसत नहीं थी। आम खातेदार के लिए बैठने तक की कुर्सियां भी नहीं दिखाई दे रही थीं। शुभेंदु ने खड़े-खड़े किसी तरह पैसा निकालने वाले फार्म को भरा और लाइन में लग गया। जब वह लाइन में कैश काउंटर की खिड़की तक पहुंचा और पासबुक के साथ विथ ड्रा फॉर्म कैशियर को दिया, तो महिला कैशियर ने उस पर लाल स्याही से अंग्रेजी के कैपिटल लेटर में ‘स्टाप’ लिखकर बगल के काउंटर पर दिखाने का इशारा कर दिया। बगल के काउंटर वाले क्लर्क ने पेमेंट फॉर्म को उसके बगल की महिला काउंटर क्लर्क को पकड़ा दिया। फिर उस महिला क्लर्क ने सर्राटे में अपने तरीके से समझाया कि इस एकाउंट का के वाई सी कराना होगा। इसके लिए के वाई सी फार्म भरना पड़ेगा तथा आपके आधार कार्ड वाले मोबाइल नंबर पर ओटीपी दिया जाएगा। उसे एक्सेप्ट कर के वाई सी फार्म आगे स्वीकृति के लिए भेजा जाएगा। इसमें दो-तीन दिन लग जाएंगे।
शुभेंदु कोई व्यवसाई नहीं था कि रोज बैंक जाता रहा हो। वह तो साल-छह महीने में बहुत जरूरी होने पर बैंक का इस्तेमाल कर लेता था। उसमें भी उसका काम एटीएम से चल जाता था। उस दिन एटीएम मशीन के जवाब देने के कारण वह बैंक पहुंचा था। ऐसे में मैडम क्लर्क की जल्दी में कही गई सारी बातें उसे समझ में नहीं आईं। हां, इतना समझ में आ गया कि फिलहाल पैसा निकालना अभी संभव नहीं। परंतु इसे ऐसे ही छोड़ने के बजाय इस समस्या का कोई न कोई रास्ता शुभेंदु को निकालना ही था। सत्तर वर्षीय बीमार शुभेंदु को तत्काल रुपयों की जरूरत थी परंतु यहां तो के वाई सी नामक इस बला से निपटना पहले जरूरी था। बैंक में उस समय उसे वहां कोई ऐसा व्यक्ति खाली नहीं दिखा जिससे वह अपनी दिक्कत के समाधान के बारे में कुछ राय लेता।
अब पैसा निकालने की समस्या दूसरा रूप ले चुकी थी। एक तरफ उसकी बीमारी थी जिसके चलते उसका देर तक खड़ा होना मुश्किल हो रहा था, तो दूसरी तरफ भागदौड़ थी। फिलहाल उस समय कुछ स्पष्ट नहीं था कि क्या होगा, कहां से शुरुआत की जाए। इसी ऊहापोह में उसने एक पुराने रिटायर्ड बैंककर्मी मित्र को फोन किया, तो के वाई सी प्रक्रिया की कुछ परतें और खुल कर सामने आईं। मसलन आधार कार्ड और पैन कार्ड की फोटो कॉपी व साथ में के वाई सी फार्म पर चिपकाने के लिए एक फोटो भी चाहिए। इसके लिए उसे पुनः घर जाना पड़ा। घर से आधार कार्ड और पैन कार्ड लेकर वह फोटो स्टेट की दुकान पर गया। घर जाने-आने व फोटो स्टेट कराने में उसके लगभग पचास रुपये और खर्च हो गए।
वह बैंक पहुंचा तो उसके रिटायर्ड बैंककर्मी मित्र ने अपने किसी परिचित को मोबाइल पर फोन कर आधार कार्ड और पैन कार्ड को जोड़ने की प्रक्रिया पूरी करा दी। अब के वाई सी फॉर्म भरने की बारी आई। उस रिटायर्ड बैंककर्मी मित्र के सहयोग से फार्म भर कर संबंधित महिला क्लर्क तक पहुंचा दिया गया। चूंकि एक बैंककर्मी साथ में सहयोगी के रूप में था, तो शुभेंदु को राहत थी। इससे अन्य बैंककर्मी उसकी ओर ध्यान दे रहे थे। फिर संबंधित महिला क्लर्क ने आधार कार्ड के मोबाइल नंबर ओटीपी भेज दिया। परंतु मोबाइल के मैसेज में कुछ आया ही नहीं। आधार कार्ड जब बना था उस समय जो मोबाइल नंबर उसमें अंकित था उसी पर ओटीपी आना था। वह भी दस मिनट के अंदर रिसीव होना जरूरी था।
पहले तो यह मान लिया गया कि हो सकता है बैंक में नेट न पकड़ रहा हो। इसके लिए बैंक की सीढ़ियां उतर कर बाहर सड़क पर कुछ देर ओटीपी का इंतजार किया गया। बाहर सड़क का मौसम काफी गरम था। बीमारी के चलते शुभेंदु का गला भी सूख रहा था। उसे बार-बार पानी की तलब भी लग रही थी। फिर एक परिचित मोबाइल की दुकान पर बैठकर बात करने के बीच पता चला कि आधार कार्ड वाला मोबाइल नंबर तो मोबाइल पर ‘आन’ ही नहीं हो रहा है। तब ध्यान में आया कि उस नंबर को तो बहुत दिनों से चार्ज ही नहीं कराया गया है। फिर सौ रुपये देकर मोबाइल की एक दुकान में उस नंबर को रिचार्ज कराया गया। इस प्रक्रिया में आधा से पौन घंटा और लग गया।
बिगड़ी तबीयत में किसी मशीन के पार्ट की तरह शुभेंदु भागदौड़ करता रहा। क्या करता और कोई रास्ता ही नहीं था। अब आधार कार्ड के मोबाइल नंबर के चार्ज करने वाली बात बैंक की मैडम क्लर्क को जाकर बताई गई तो उसने फिर से ओटीपी दिया। उस ओटीपी का इंतजार करते-करते शुभेंदु और उसके रिटायर्ड बैंककर्मी साथी थक से गए। फिर शुभेंदु ने हार मान कर घर वापस जाने का मन बना लिया। वह ई-रिक्शा पर बैठने वाला ही था कि मोबइल पर ओटीपी आ गया। वह किसी तरह बैंक की सीढ़ियां चढ़ कर फिर बैंक की मैडम क्लर्क के पास पहुंचा। परंतु तब तक ओटीपी का दस मिनट का समय समाप्त हो गया था। फिर मैडम क्लर्क ने सुझाया कि आप बैंक के बाहर जाइए, हम यहां से ओटीपी देते हैं। जैसे ही वह आपको मिले, तुरंत लेकर आइए। ऐसा ही किया गया।
इसी दौरान एक नई समस्या ने संकेत देना शुरू कर दिया। मोबाइल की बैटरी लाल सिगनल देने लगी। उधर मोबाइल पर ओटीपी का मैसेज आने वाला था जबकि दूसरी ओर बैटरी समाप्त होने का डर भी सामने था। फिर मोबाइल को दुकान में चार्ज के लिए लगा दिया गया। बहरहाल, ओटीपी एक्सेप्ट होने की प्रक्रिया कई बार बैंक की सीढ़ियां चढ़ने-उतरने के बाद पूरी हो गई। अब के वाई सी फार्म हाथो-हाथ उस काउंटर से आगे उससे बड़े साहब तक पहुंचा। उन्होंने भी जांच और पूछताछ तथा सामने सिग्नेचर कराने के बाद ओके कर दिया। कुल मामला बैंक से पैसा निकालने का था जो उस समय संभव नहीं हो सका। कहा गया कि अब चौबीस घंटे बाद खाता चालू होगा। शुभेंदु अपने पास बचे सौ रुपये से कम पैसों के साथ घर लौट आया। विडंबना देखिए कि उस बैंक को एक दूसरे बैंक में मिला दिया गया था परंतु उसकी नई पासबुक देने की जल्दी नहीं थी। सब पुरानी पासबुक और पुराने भुगतान फार्म से काम चल रहा था। इस पर कोई आपत्ति नहीं थी। अगर जरूरी था तो के वाई सी के बहाने पैसे का भुगतान रोकना। शुभेंदु ने कुछ माह पहले अपने खाते में पैसा जमा किया था। उस समय भी कोई आपत्ति नहीं की गई थी। वैसे भी शुभेंदु एक छोटा खातेदार था। पांच-दस हजार में उसका काम चल जाता जो नहीं हो सका।
पैसे के अभाव में शुभेंदु डॉक्टर के पास भी नहीं जा सका। बाद में एक दिन अंतर कर वह जब फिर पैसा निकालने बैंक गया, तो कैशियर काउंटर की महिला क्लर्क ने उसके पेमेंट फार्म पर फिर स्टाप लिखकर बगल का रास्ता दिखा दिया। उस दिन बैंक में भारी भीड़ थी। लंबी लाइन लगी थी। निराश होकर शुभेंदु घर लौट आया। अब रोज के खर्च और खास तौर से दवा के लिए पैसा तो चाहिए था। दिन भर धूप में की गई भाग-दौड़ ने शुभेंदु की बीमारी को और बढ़ा दिया था। पैसे के अभाव में शुभेंदु घर में बेसुध गुमसुम पड़ा रहा। वह डॉक्टर के पास भी नहीं जा पा रहा था। बीमारी ऐसी थी कि सर्दी, जुकाम और कफ ने जकड़ रखा था। न भूख लग रही थी और न शौच की गुंजाइश थी। बस आंखें मूंदकर चारपाई पर पड़े रहने की मजबूरी थी। स्थिति इतनी खराब थी कि पेशाब के लिए उठने को भी मन को तैयार करना पड़ रहा था। अब एक ही रास्ता बचा था जिससे वह अभी तक बच रहा था। उसने हिम्मत जुटाकर मोबाइल पर अपने एक मित्र से सहयोग की अपील की। इत्तफाक से उधार पैसा मिल गया और अंधेरे में जैसे उम्मीद की एक किरन चमक उठी। अब कुछ पैसा हाथ में होने पर उसे एक-दो स्थानीय डॉक्टरों को दिखाया गया और दवा ली गई। एक डॉक्टर ने पानी भी चढ़ाया। इस तरह एक-दो दिन और निकल गए।
तबीयत में सुधार न होता देख शुभेंदु ने एक रात अस्पताल जाने का फैसला कर लिया। वह अस्पताल के इमर्जेंसी में पहुंचा तो वहां कोरोना का एक मरीज एंबुलेंस से पहले ही पहुंचा हुआ था। उसकी गंभीर हालत को लेकर डॉक्टरों में अफरातफरी मची थी। उस कमरे में केवल दो बेड थी। वहां इमर्जेंसी के डॉक्टर ने शुभेंदु को दूसरे बेड पर लिटाकर ऑक्सीजन लगा दिया और बाजार से मंगवाकर साढ़े पांच सौ का इंजेक्शन भी लगवा दिया। इसके बाद शुभेंदु को मेडिकल वार्ड में बेड खाली न होने के कारण चाइल्ड वार्ड में भर्ती कर लिया गया। वहां भी बेड के लिए कई बार भीतर-बाहर करना पड़ा। उसके बेड पर अपने मरीज के साथ आए लोग सोए पड़े थे। उन्हें हटाकर बेड खाली कराया गया।
पता चला एंबुलेंस वाला मरीज इमर्जेंसी में ही खत्म हो गया था। जो बेड शुभेंदु को मिली थी उसका ऑक्सीजन सप्लाई सिस्टम पहले से खराब था। उसे ठोंक-पीटकर ठीक किया गया। शुभेंदु को रात भर ऑक्सीजन लगी रही। एकाध मरीज तो रात में ही चल बसे। रात में उसका हाल-चाल लेने कोई डॉक्टर या स्टाफ नर्स नहीं दिखा। केवल वही लोग परेशान और स्टाफ नर्स को अपने मरीज की हालत बताने के लिए भाग-दौड़ करते दिखे जो साथ आए थे। दूसरे दिन सुबह डॉक्टर ने जब दौरा किया तो शुभेंदु को चेक करने के बाद कहा कि यह जगह महफूज नहीं। कोरोना की हालत आप देख ही रहे हैं। मैं एक हफ्ते की दवाएं लिख दे रहा हूं। बाहर से ले लीजिए। कमजोरी है। घर में ही इनकी देखरेख करिए। फिर शुभेंदु बाजार से हजार रुपये से ऊपर की दवा के साथ घर लौट आया। बाद में रिटायर्ड बैंककर्मी मित्र ने फोन पर बताया कि वह एक दिन के वाई सी का पता करने बैंक गया था। वहां बैंक की मैडम क्लर्क का कहना था कि के वाई सी क्लीयर होने का मामला हेड आफिस में फंसा है। उसके लिए रोज प्रयास जारी है।
– मिर्जापुर, उ प्र,
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