– शंकर लाल माहेश्वरी
ब्रज बिहारी श्री कृष्ण की नगरी मथुरा में कृष्ण का एक मित्र था। उसका नाम उद्धव था। वे प्रकाण्ड पण्डित और ज्ञानी थे। प्रभु भक्ति के लिए ज्ञान मार्ग के अनुसरण को ही महत्ता दिया करते थे। उनकी मान्यता थी कि प्रभु प्राप्ति के लिए ज्ञान योग की विशिष्ट महिमा है। जबकि वैष्णव भक्ति परम्परा में प्रेम मार्ग को सर्वोपरि माना गया है। हिन्दू दर्शन के अनुसार भक्त को प्रेम योग की भक्ति के मार्ग पर अग्रसर होने पर ही उस महान सत्ता का साक्षात्कार हो सकता है। उद्धव जी को अपने ज्ञान पर अत्यधिक गुमान था। कृष्ण ने उद्धव जी को ज्ञान मार्ग का संदेश देने के लिए गोपियों के पास गोकुल भेजा ताकि वहाँ जाकर प्रेम की परकाष्ठा को अपनी आँखों से देख सके। कृष्ण का संदेश लेकर उद्धव गोकुल पहुँचे। कृष्ण द्वारा भेजी गई पत्रिका राधिका को देकर गोपियों के मध्य ज्ञान का संदेश प्रस्तुत करने लगे।
गोकुल में जब गोपियाँ कृष्ण के बारे में व्याकुल होकर उद्धव से बात करती हैं तो वे उनसे ब्रह्म व योग की चर्चा करते हैं। ज्ञान के गुमान में उद्धव निर्गुण ब्रह्म का पाठ पढ़ा कर उन्हे सांसारिक प्रेम से मुक्त कराना चाहते है। वे कहते है कि-
सुनौ गोपी हरि कौ संदेस।
करि समाधि अंतर गति ध्यावहु, यह उनको उपदेस।।
वै अविगत अविनासी पूरन, सब घट रहे समाई।
तत्वज्ञान बिनु मुक्ति नहीं, वेद पुराननि गाई।।
सगुन रूप तजि निरगुन ध्यावहु, इक चित्त एक मन लाई।
वह उपाई करि बिरह तरौ तुम, मिले ब्रह्म तब आई।।
दुसह संदेस सुन माधौ को, गोपि जन बिलखानी।
सूर बिरह की कौन चलावै, बूडतिं मनु बिन पानी।।
उपंग पुत्र उद्धव का कथन है कि हे! गोपियों तुम समाधि लगाकर अपने मन से निर्गुण निराकार ब्रह्म की उपासना करो। वेद पुराण भी कहते हैं कि तत्व ज्ञान के बिना कोई उद्धार नहीं है। कृष्ण के सगुण स्वरुप का परित्याग कर परब्रंह्म की भक्ति में संलग्न हो जाओ। जब गोपियाँ यह संदेश सुनती हैं, तो वे अत्यधिक व्याकुल और दुखी हो जाती हैं। उसी समय एक भ्रमर वहाँ बीच में आ जाता है। गोपियाँ उद्धव को ही काला भ्रमर कहकर खरी खोटी सुनाने को तत्पर हो जाती हैं। वे भ्रमर को संबोधित करते हुए अप्रत्यक्ष में उद्धव को कहती हैं-
कौन काज या निरगुन सौं, चिरजीवहू कान्ह हमारे।।
लोटत पीत पराग कीच में, बीच न अंग सम्हारै।
भारम्बार सरक मदिरा की, अपरस रटत उघारे।।
तुम जानत हो वैसी ग्वारिनी, जैसे कुसुम तिहारे।
घरी पहर सबहिनी बिरनावत, जैसे आवत कारे।।
सुंदर बदन, कमल-दल लोचन, जसुमति नंद दुलारे।
तन-मन सूर अरपि रहीं स्यामहि, का पै लेहिं उधारै।।
हे भँवरे! तुम अपने मधु पीने मे व्यस्त रहो। तुम्हारे निर्गुण ब्रह्म से हमें क्या? हमारे लिए तो सगुण रुप श्री कृष्ण चिरायु रहे। तुम स्वयं तो पराग में सने रहते हो। अपने शरीर की सुध बुध भी खो देते हो। मधुरस पान में तुम्हे शरीर की सुध नहीं रहती और उसी के विरुद्ध बातें बनाते हो। हमें तो कोई ब्रह्म स्वीकार नहीं है। हमने तो यशोदा नन्दन नील कमल के समान नयन वाले यशोदा पुत्र श्री कृष्ण पर अपना तन मन वार दिया है। अब निर्गुण ब्रह्म के लिए तन मन कहाँ से लावे। वे कहती हैं-
मधुबनी लोगि को पतियाई।
मुख औरै अंतरगति औरै, पतियाँ लिख पठवत जु बनाई।।
ज्यौं कोयल सुत काग जियावै, भाव भगति भोजन जु खवाई।
कुहुकि कुहुकि आएं बसंत रितु, अंत मिलै अपने कुल जाई।।
ज्यौं मधुकर अम्बुजरस चाख्यौ, बहुरि न बूझे बातें आई।
सूर जहँ लगि स्याम गात हैं, तिनसौं कीजै कहा सगाई।।
एक गोपी उद्धव पर व्यंग्य बाण प्रस्तुत करते हुए कहती हैं कि मथुरा के लोगों पर कैसे विश्वास किया जा सकता है ? उनके मुख में कुछ और तथा बाहर कुछ और है। हमें स्नेहिल पत्र लिख रहे है। और उद्धव को ज्ञान का संदेश लेकर भेज रहे हैं। जिस प्रकार भँवरा पराग रस चखने के बाद उसे पूछता भी नहीं। काले शरीर वाले भी एक से ही हैं। उनसे संबंध रखने में क्या लाभ? उद्धव के ज्ञानोपदेश सुनकर गोपियाँ खीज उठती हैं और अपने तर्क प्रस्तुत करते हुए कहती है-
निरगुन कौन देस को वासी।
मधुकर कहि समुझाई सौंह दै, बूझतिं सांचि न हांसी।।
को है जनक, कौन है जननि, कौन नारि कौन दासी।
कैसे बरन भेष है कैसो, किहिं रस मैं अभिलाषी।।
पावैगो पुनि कियौ आपनो, जो रे करेगौ गांसी।
सुनत मौन ह्वै रह्यौ बावरो, सूर सबै मति नासी।।
जब गोपियों ने निगुर्ण के निवास, उसके रंग रुप, माता-पिता, दास-दासी और वेशभूषा के बारे में पूछा तो उद्धव निरुत्तर हो गये। उसकी बुद्धि को पाला मार गया और गोपियाँ पुनः उलाहना देकर कहती हैं कि ये ठग विद्या यहाँ नहीं चलने वाली। मूली के बदले मानक लेना चाहते हो। हम तो कृष्ण कन्हैया पर मोहित है। इस निर्गुण ब्रह्म का निर्वाह करना हमारे लिए दुष्कर है।
जोग ठगौरी ब्रज न बिकैहे।
मूरि के पातिन के बदलै, कौ मुक्ताहल देहै।।
यह ब्यौपार तुम्हारो उधौ, ऐसे ही धरयौ रेहै।
जिन पें तैं लै आए उधौ, तिनहीं के पेट समैंहै।।
दाख छांडि के कटुक निम्बौरी, कौ अपने मुख देहै।
गुन करि मोहि सूर साँवरे, कौ निरगुन निरवेहै।।
उद्धव! क्या तुम्हे कुब्जा ने तो नहीं भेजा? तुम अपने निर्गुण के कण्टकाकीर्ण मार्ग से स्नेह के सीधे राजमार्ग को क्यों अवरुद्ध कर रहे हो। वेद पुराणों में कहीं भी स्त्रियों के लिए जोग लेने की की शिक्षा नहीं दी गई है। तुम्हे तो दूध छाछ में भी अन्तर ज्ञात नहीं है-
सुनहु मधुप निर्गुन-कंटक तें राजपंथ क्यों रूधो?
उद्धव जी आप यहाँ से जाइये। हमारा एक मन था वह तो श्याम के साथ चला गया। दस बीस मन तो है नहीं। आप ही बताइये कि किस मन से आपके ब्रह्म की उपासना करे। हमारा उद्धार तो यशोदा नन्दन कृष्ण कुमार ही करेंगे, दूसरा नहीं। उद्धव गोपियों के व्यग्यं बाण एवं तर्क युक्त अभिव्यक्ति, उनके कटाक्ष, उनकी विरह वेदना और निर्गुण के प्रति उपेक्षा भाव से सगुण भक्ति से आप्लावित हो जाते है-
आयौ हो निरगुण उपदेसन, भयौ सगुन को चैरौ।।
जो मैं ज्ञान गह्यौ गीत को, तुमहिं न परस्यौं नेरौ।
अति अज्ञान कछु कहत न आवै, दूत भयौ हरि कैरौ।।
निज जन जानि-मानि जतननि तुम, कीन्हो नेह घनेरौ।
सूर मधुप उठि चले मधुपुरी, बोरि जग को बेरौ।।
गोपियों का कृष्ण के प्रति अनन्य प्रेम भाव को देखकर उद्धव भाव विभोर हो गये। वस्तुतः वे निर्गुण ब्रह्म का उपदेश लेकर आये थे किन्तु सगुण के उपासक बनकर लौट रहे है। उद्धव को अब समझ में आया कि भगवान कृष्ण ने मेरी अज्ञानता को दूर करने के लिए ही यह सारा उपक्रम निर्मित किया है। भ्रमर गीत में गोपियों की सहदृयता, वाक्पटुता और तर्कशीलता की झलक मिलती है। सूरदास ने गोपियों की विरह वेदना को बड़े ही मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है-
‘‘ निसिदिन बरसत नयन हमारे, सदा रहत पावस ऋतु हमपे, जबसे श्याम सिधारे।।
हरि हमारे हृदय में ऐसे गढ़ गये है कि अब वे कैसे निकल सकते है। वे तिरछे होकर अड़ गये है।
‘‘ हरि उर माखन चोर अरे अब कैसे निकसत उधौ सुनि उधौ तिरछे हेव जू अड़े।
उद्धव ज्ञान के गुमान में गुरु बनकर आये थे किन्तु पे्रम की सराबोर सरिता में गंभीर अवगाहन कर चेले बन कर चले गये।
इस प्रकार प्रेम मार्ग का अनुसरण करते हुए उद्धव मथुरा लौट आये। ‘‘ सूरदास मानवतावादी दृष्टिकोण का नियामक प्रेम ही है। मानव जीवन में प्रेम की सत्ता और महत्ता का ऐसा गायक हिन्दी साहित्य में दूसरा कोई नहीं ’’ – प्रो. मैनेजर पाण्डेय।
सूरदास का यह भ्रमर गीत ज्ञान पर प्रेम की विजय का प्रतीक है।
– पूर्व जिला शिक्षा अधिकारी
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