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– अरविंद श्रीवास्तव

 

कभी कहीं आधा-अधूरा जीवन नहीं होता। या तो वह पूरा होता है या फिर नहीं होता। स्कूल की बस का स्टापेज मुख्य सड़क पर था और नंदिनी का घर वहां से अधिक दूर नहीं था। परन्तु इतना तो था ही कि घर पहुंचने में उसे पांच से सात मिनट तक लग जायें। नंदिनी अपनी मां के साथ इस गली में किराये के मकान में रहने के लिये अभी चार-पांच दिन पहले ही आयी थी। उसकी मां यहां से थोड़ी दूर स्थित एक प्राइवेट इण्टर कालेज में संविदा के आधार पर नियुक्त हुई थीं और समाजशास्त्र पढ़ाती थीं। वेतन अधिक नहीं था फिर भी इतना तो था ही कि वे दोनों ठीक-ठाक रह सकती थीं ।नंदिनी की मां सविता भविष्य के लिये कुछ पैसे बचा भी लेती थीं। चाहे कैसी भी स्थिति  क्यों न हो, सविता नंदिनी की पढ़ाई की जरूरतों को पूरा करने में कोई कमी नहीं रखती थी। बस से उतरने के बाद नंदिनी मुख्य सड़क को पार कर अपने मकान तक पहुंचने के लिये गली में मुड़ी ।

दो मकानों को पार कर जैसे ही वह अपनी दाहिनी ओर के मकान के सामने पहुंची, उसने देखा कि वहां एक लड़का तेजी से घूमते हुए चाक पर मिट्टी के कुल्हड़ बना रहा था। नंदिनी के लिये यह कला नयी थी । उसने यह पहले कभी नहीं देखा था।  लड़के के दोनों हाथ लगभग कंधे तक मिट्टी से सने हुऐ थे। उसने एक धोती को घुटनों से ऊपर तक चढ़ा कर बांध रखा था और केवल एक  बनियान ही पहन रखी थी । नंदिनी का ध्यान उसकी बलिष्ठ भुजाओं, चौड़ी छाती या फिर आकर्षक गेहुआ रंग पर नहीं था । वह तो बस उसकी कला देख रही थी कि किस प्रकार वह घूमते हुए चाक पर रखी गीली मिट्टी को अपनी उंगलियों और अंगूठे के जोर से कुल्हड़ का आकार देकर कलाई पर पड़े हुए एक धागे से बने हुए कुल्हड़ों को चाक पर रखी गीली मिट्टी से काटकर अपने बगल में रखता जा रहा था।

चाक का तेजी से घूमना जैसे ही थोड़ा कम होता, वह अपने बगल में मिट्टी से सने हुए एक डंडे से उस चाक को फिर तेजी से घुमा देता। वह अपने काम में इस प्रकार से लीन था कि अपने आस-पास घट रही किसी भी घटना के प्रति उसका कोई ध्यान ही नहीं था।

नंदिनी ने अभी ’नाइन्थ’ क्लास में ही एडमिशन लिया था। सविता ने अच्छी शिक्षा दिलाने के उद्देश्य से ही उसका एडमिशन अपने स्कूल में नहीं कराया था । इसलिए नंदिनी शहर के एक नामी अंग्रेजी माध्यम के स्कूल में पढ़ती थी। सविता अपने स्कूल से जल्दी वापस आ जाती थी, किन्तु नंदिनी की क्लासेज थोड़ी देर तक चलती रहती । उसका स्कूल भी शहर से बाहर छः सात कि0 मी0 दूरी पर था, इस कारण भी नंदिनी कुछ देर से ही लौटती थी। नंदिनी केवल दो वर्ष की थी जब उसके पिता एक सड़क हादसे का शिकार हो इस दुनिया से दूर चले गए थे । तभी से सविता उसकी मां और पिता दोनों के कर्तव्यों का निर्वाह करती चली आ रही थी। पति की मृत्यु के बाद शहर में सविता को यह तीसरा मकान किराए पर लेना पड़ा था।  पति की मृत्यु के बाद उसकी आमदनी काफी कम रह गयी थी । इस कारण अब वह कोई बड़ा मकान किराए पर  नहीं ले सकती थी।

घूमते हुए चाक पर विविध आकार – प्रकार के मिट्टी के बर्तनों को देखते-देखते नंदिनी उसकी कला पर इस कदर मुग्ध हो गयी थी कि उसे समय का कुछ पता नहीं चला कि वह कितनी देर से किसी और के घर के  गेट के बाहर कंधे पर स्कूल बैग और हाथ में पानी की बोतल लिए अकेली खड़ी देखती रही है। कौतूहल ने जैसे उसके पैर जमा दिए थे।

काफी देर तक नंदिनी घर नहीं पहुंची, तो सविता को बेटी की चिन्ता होने लगी। उसने बाहर निकलकर सड़क तक जाकर देखने की सोची। जिस जगह नंदिनी की स्कूल बस रूकती थी, उस जगह कई अन्य स्कूलों की बसें भी दोनों समय अपने-अपने स्कूलों के बच्चों को लेने और छोड़ने के लिए आकर रूकती थीं।

थोड़ा और समय बीता, तो सविता की चिन्ता और बढ़ गयी। वह नंदिनी का पता लगाने घर से बाहर निकली और अपने दाहिनी ओर देखा। उसने दो घर छोड़कर एक घर के बाहर तपती हुई धूप में नंदिनी को खड़े हुए देख लिया, तब पहले वहीं से आवाज़ दी, किन्तु जब नंदिनी ने नहीं सुना, तो थोड़ा आगे बढ़कर फिर आवाज़ लगाई।परन्तु नंदिनी ने फिर नहीं सुना। हारकर सविता ने उसके पास जाकर उसे पीछे से पकड़ लिया और झकझोरते हुए पूछा-

“यहां खड़ी क्या देख रही हो ?“

“मां, वो देखो, यह लड़का कितनी सफाई से मिट्टी के बर्तन बना रहा है।“ वह बोली।

“सो तो ठीक है, लेकिन इतनी तेज धूप में क्यों तप रही है ? देख, तेरा बदन कितना तप रहा है।“  सविता ने उसके गालों पर हाथ फेरते हुए कहा – ” तेरे फूल से गाल कोयले की तरह गर्म होकर लाल हो गये हैं, अब चल यहां से।“

सविता नंदिनी का हाथ पकड़कर घर की ओर चल पड़ी।

चन्दू इस बात से बेखबर था कि उसके घर के बाहर क्या हो रहा है । वह अपने काम में तब तक लगा रहा, जब तक चाक पर रखी उसकी सारी गीली मिट्टी समाप्त नहीं हो गयी।

मिट्टी से सने अपने हाथ – पैरों को अच्छी तरह धोकर चन्दू ने पजामा और कुर्ता पहना। मां से मांगकर दोपहर के खाने में बची हुई रोटी और नमक, मिर्च तथा प्याज को पीस कर बनी हुई चटनी के साथ खाया। जब तक वह खाता रहा, मां उसके पीछे बैठकर हाथ से बनाये गये पंखे से हवा करती रही। जबकि चन्दू ने  कहा था कि मां, मुझे इतनी गर्मी नहीं लगती, मगर वह  जानता था कि मां कब मानने वाली है।

“मुझे लगता है अवां की आग ठंडी हो गयी है। कल सुबह बर्तन निकाल लेना।“ मां बोली।

“हाँ, मां।आज इतने कच्चे बर्तन बन चुके हैं कि उन्हें पकाने के लिए कल फिर से नया अवां लगाना होगा। “

“मिट्टी के बर्तनों के खरीददार अब कम हैं। नहीं तो इतने बर्तन जो अब पक गये हैं, वो सब तीन-चार दिन में बेच लेते ।”

“मां, जितने बर्तन पक चुके हैं, हम उन्हें दस दिनों के अन्दर बेच ही लेंगे।“

“दस दिन में भी बिक जायें तो भी हमारी जिन्दगी ठीक-ठाक से चलती रहेगी।“  मां ने एक ठंडी सांस भरते हुए कहा।

“मां, तुम देख लेना एक दिन फिर मिट्टी के बर्तनों के दिन आएँगे ।“

“तेरे मुंह में घी- गुड़ हो।“ आशा और प्यार की दृष्टि  से चन्दू के चेहरे की ओर देखते हुए मां ने कहा और किसी विचार में खो गयी।

तीस साल पहले जब मैं ब्याह कर इस घर में आयी थी तब इतने बर्तन केवल दो-तीन दिन में ही बिक जाते थे । अच्छी आमदनी भी हो जाती थी। हमें तब मुहल्ले में गरीब नहीं समझा जाता था, किन्तु धीरे-धीरे बिक्री कम होती गयी और हम गरीब । ब्याह के चौदहवें साल में काफी  इलाज और मन्नतें मांगने के बाद चंदू हुआ था। तब तक भी सब कुछ ठीक-ठाक ही था। चंदू छः साल का ही था, तब से वह अपने पिता से बर्तन बनाना सीखने लगा था और दस साल तक होते – होते वह सब कुछ सीख गया था ।

स्कूल जाने से पहले तथा आने के बाद चंदू बर्तन बनाने में अपने पिता की मदद भी करने लगा था । पिता उसे पढ़ा-लिखाकर इस खानदानी व्यवसाय से दूर करना चाहते थे। वे पढ़े-लिखे नहीं थे, किन्तु चंदू को पढ़ाना चाहते थे। इसीलिए उसका नाम भी ’चन्द्र प्रकाश’ रखा था ।परन्तु नियति को यह सब मंजूर नहीं था। चंदू पन्द्रह वर्ष का था और वह आठवीं क्लास पास कर चुका था कि अचानक दोपहर को एक दिन बर्तन बनाते-बनाते उसके पिता की तबियत बिगड़ी और अस्पताल पहुंचते- पहुंचते रास्ते में ही उन्होंने दम तोड़ दिया । तब चन्दू ने पढ़ाई छोड़ कर ’चाक’ पकड़ लिया… जिन्दगी चलाने के लिये ।

“तू फिर कुछ सोचने लगी।“

कुछ कहने के लिये चंदू ने सिर उठाया, तो देखा सामने से दीपक चला आ रहा है।

दीपक चंदू का बचपन से ही दोस्त था और इस समय इण्टर फस्ट ईयर का छात्र था । दोनों ने एक साथ आठवीं क्लास पास की थी। पहली क्लासों में चंदू के नम्बर दीपक सेअच्छे होते थे ।

“ले देख, उधर दीपक आ रहा है। तू बैठकर बातें कर, मैं चली घर के काम करने।“  मां ने कहा और उठकर घर के अन्दर चली गयी।

दीपक चंदू के बनाए हुए बर्तनों के पास आकर ठहरा और एक-एक बर्तन को बहुत गम्भीरता से देखने लगा।

’’देख क्या रहा है, यह तो मेरा रोज का काम है।“ चंदू ने उसके पास आकर कहा ।

“हां! तेरा काम तो रोज का है, परन्तु आज कुछ खास है इन बर्तनों में।“

“खास क्या है, सब एक जैसे ही तो हैं ।“

“यही तो मैं देख रहा हूँ, कुछ खास न होता तो वह इतनी देर तक खड़ी देखती न रहती।“

“कौन ? मुझे नहीं पता।“

“अरे ! उसी टीचर की लड़की जो चार-पांच दिन पहले राम काका के मकान में किराये पर रहने आयी है।“

“कोई आया तो है, पर कौन मुझे नहीं मालूम।“

“हाँ, तुझे तो इन मिट्टी के बर्तनों के सिवा और कुछ सूझता ही नहीं।“

“काम के समय मुझे इधर-उधर कुछ दिखाई नहीं देता, यार।“

“हाँ, सो तो है, परन्तु वह तेरे गेट के बाहर खड़ी तुझे बर्तन बनाते हुए वह तब तक देखती रही  जब तक कि उसकी मां आकर उसे हाथ पकड़कर ले नहीं गयी।

“अच्छा, मुझे तो कुछ पता ही नहीं चला।“

“तेरे हाथों में जो जादुई कला है, उस पर मुग्ध होकर कोई भी निहारता रह सकता है।“

“पर तुझे कैसे पता।“

“आज मैं स्कूल से जल्दी आ गया था, तब तू अपने काम में व्यस्त था । मैं अपने घर के बाहर बरामदे में  पढ़ रहा था ,वहीं से देखा।“  हमेशा की तरह दोनों बैठकर घंटों बातें करते रहे।

*                   *                   *

नंदिनी के लिये यह रोज का क्रम हो गया था। स्कूल आते-जाते वह एक बार उस ओर देख अवश्य लेती थी। कभी-कभी गीली मिट्टी से उसी प्रकार के बर्तन बनाते वह दिख जाता तो कभी कोई और काम करते। कभी-कभी तो कई-कई दिनों तक दिखता ही नहीं। नंदिनी की रूचि केवल सफाई से बनाते हुए बर्तनों में थी। अभी तक उस व्यक्ति से वह अंजान ही थी, जिसके हाथ गीली मिट्टी को घूमती हुई एक चाक पर बिना किसी त्रुटि के आकार दे रहे थे।

नंदिनी का कौतूहल मिट्टी के बर्तनों के प्रति बना ही रहा, तो एक दिन उसने मां से पूछ ही लिया –

“माँ, मिट्टी के इतने बर्तनों को बनाकर ये करते क्या हैं ?“  नंदिनी की आँखों में सहज जिज्ञासा ही थी।

“अरे, तुमको पता नहीं। इन बर्तनों को बाजार में बेचकर ही ये लोग अपना घर और परिवार चलाते हैं ।“

“मगर अब उन्हें खरीदता ही कौन है ? मैंने तो कभी नहीं देखा ।”

“बेटी, बाजार में प्लास्टिक और थर्मोकोल के बर्तनों के आ जाने से मिट्टी के बर्तनों का चलन कम हो गया है, किन्तु जब मैं तुम्हारी उम्र की थी, तो केवल मिट्टी के बर्तन ही चलन में थे।“ मां ने कहा।

“मां, क्या आपको इस तरह के बर्तन बनाने आते हैं ?“

“नहीं ! तू अपनी पढ़ाई-लिखाई में ध्यान लगा।“मां ने फिर कहा।

“पढ़ाई – लिखाई तो ठीक है । मुझे भी बर्तन बनाना सीखना है।“ वह बोली।

“तुझे क्यों सीखना है ? यह कोई आसान काम नहीं है । इसमें बहुत शक्ति और मेहनत लगती है । जिस मिट्टी से तू बर्तन बनते हुए देखती है न, उस मिट्टी को बर्तन बनाने के योग्य बनाना कोई आसान काम नहीं है।“ मां बोली।

“मां, यह काम आसान हो या न हो, लेकिन मुझे बस सीखना ही है । जो काम दुरूह होता है, उसी को सीखने में तो मजा है ।“

“अच्छा, ठीक है। मैं चन्दू से कह दूंगी कि वह तुम्हें अपना काम सिखा दे।“ बेटी के आग्रह और जिद के सामने माँ को हाँ कहनी पड़ी।

“सच मां !“ नंदिनी ख़ुशी से मां के गले से लिपट गयी ।

इधर चन्दू की माँ ने उससे सारी बात कही । चन्दू के माथे पर बल पड़ गए।

“लेकिन मां, वह लड़की मिट्टी के बर्तन बनाना कैसे सीख पाएगी ? यह इतना आसान काम नहीं है । काफी शारीरिक शक्ति लगती है इसमें ।“

“तुझे मिट्टी बनाकर चाक चलाना है और फिर गीली मिट्टी से बर्तन किस तरह बनते हैं उसे इतना ही सिखाना है ।“

“पर मां, उसे सिखाने के लिए तुमसे किसने कहा ?“

“नंदिनी की मां ने ! वह किसी स्कूल में पढ़ाती हैं।“

“तो उसका नाम नंदिनी है।“  चन्दू ने मन में कहा – इसी के बारे में दीपक उस दिन कह रहा था।

“क्या सोच रहा है ? वह रोज नहीं आएगी । केवल रविवार को छुट्टी के दिन आएगी ।“

“ठीक है मां, तुम कहती हो, तो जितना मुझसे हो सकेगा उतना सिखाने का उसे प्रयास करूंगा।“

*     *    *

केवल हाथ – पैर ही नहीं, नंदिनी के सारे कपड़े मिट्टी से सने हुए थे। उसने एक कुल्हड़ बनाने के लिये कितने प्रयास किए थे, उसे याद नहीं था । उसने भी अपने मन में ठान लिया था कि आज कम से कम एक कुल्हड़ तो उसी प्रकार बनाएगी जैसे चन्दू बनाता है। चाक पर काम करते हुए नंदिनी को तीन-चार दिन हो गये थे, परन्तु अभी तक उससे एक भी कुल्हड़ नहीं बना था। यह ऐसा काम था, जो खुद के प्रयास से ही होना था। जबकि चन्दू उसे कुल्हड़ बनाने की कला को बहुत बार सिखा चुका था। वह जानता था कि यह कोई सरल काम नहीं है ।उसे भी अपने पिता से सीखने में कम से कम दस-पन्द्रह दिन लगे थे। तब जाकर उससे पहला कुल्हड़ बन पाया था।

चन्दू अपनी जगह से धीरे से उठा और नंदिनी के पीछे बैठकर उसके हाथों को पकड़कर पहला कुल्हड़ बनाने में उसकी मदद की। नंदिनी ने कहा – एक और ! फिर देखते – देखते कितने ही कुल्हड़ बन गये।

“नंदिनी, अब तुम अपने-आप एक बनाकर देखो।“ उसका हाथ छोड़ते हुए चन्दू ने कहा।

“हाँ, ठीक है।“ चन्दू की ओर मुस्कुराते हुए नंदिनी ने कहा।

एक – दो प्रयास के बाद नंदिनी के हाथों से पहला कुल्हड़ बन गया।

“यह देखो, चन्द्र प्रकाश जी, बिल्कुल वैसा ही कुल्हड़ बना है, जैसा तुम बनाते हो।“ नंदिनी ख़ुशी से बोली ।

“अभी थोड़े और प्रयास की जरूरत है।“  चंदू ने बने हुए कुल्हड़ को देखकर कहा।

“आज मैं बहुत खुश हूँ।“  एक और कुल्हड़ बनाते हुए नंदिनी ने कहा, “इसे मैं अपनी मां को दिखाने के लिए ले जाना चाहती हूँ।“

“हाँ, जरूर ! परन्तु ध्यान रखना रास्ते में इसका स्वरूप बिगड़ने न पाये।“

* *  *

दो वर्ष बीतते-बीतते नंदिनी चन्दू के रंग में रंग चुकी थी । अपनी छुट्टियों में जब वह सीखने के लिए दोपहर को उसके घर पर होती, तो अक्सर चन्दू की मां दोपहर का खाना उसे चन्दू के साथ ही खिला दिया करती थी। नंदिनी भी कई बार अपने घर से चंदू के लिए खाना बनाकर ले जाती थी ।

नंदिनी हाईस्कूल में बहुत अच्छे नम्बरों से पास हो गयी थी और इण्टर के लिए उसने गणित के साथ कम्प्यूटर सांइस  विषय को चुना था।

इण्टर की पढ़ाई में व्यस्त रहने के कारण नंदिनी का चन्दू के घर जाना थोड़ा कम तो हो गया था, परन्तु खत्म नहीं हुआ था। बर्तन बनाने की कला नंदिनी अच्छी तरह सीख गयी थी। अब वह कुल्हड़ बड़ी सहजता से बना लेती थी।

जाड़े की छुट्टियों में एक दिन नंदिनी की मां ने चन्दू और उसकी मां को खाने पर बुलाया । उद्देश्य था नंदिनी का जन्मदिन, किन्तु जन्मदिन की बात उनको बतायी नहीं गयी थी। नंदिनी के लिए पिछले तीन-चार वर्षों के बाद यह अवसर आया कि उसके जन्मदिन पर किसी को बुलाया गया था, नहीं तो  वह और उसकी मां इस दिन को चुपचाप अपने घर मना लेती थीं। रात में खाने के बाद चन्दू को पता लगा कि आज नंदिनी का जन्मदिन है तो वह भागकर गया और उपहार देने के लिए अपने बनाये गए कुछ खिलौने जिसमें एक शेर था, एक लड़का और एक लड़की ले आया । उपहार में चन्दू के हाथ से बने हुए खिलौने  पाकर  नंदिनी का फूल सा चेहरा खिल गया ।

“चन्दू, तुम इस तरह के खूबसूरत खिलौने भी बनाते हो।” खिलौने  देखते हुए नंदिनी ने अनायास  पूछ लिया।

“हाँ, बेटी, मिट्टी के बर्तन और खिलौने बनाना हमारे परिवार का मुख्य व्यवसाय रहा है।“  चंदू की मां ने बात को बीच में काटते हुए उत्तर दिया।

चन्दू अभी तक लगभग चुप था, किन्तु वह नंदिनी के प्रश्न का स्वयं भी कोई उत्तर देना चाहता था। उसने धीरे से कहा,

“ मैं इससे भी बहुत अच्छे और सुन्दर खिलौने बना सकता हूँ, परन्तु मिट्टी के बर्तन और खिलौने बाजार में कम ही बिकते हैं, इस कारण नहीं बनाता।“

“चन्दू, शायद तुम नहीं जानते सरकार प्लास्टिक के सभी उत्पादों को बन्द करने जा रही है। देखना, तुम्हारे बनाये इन बेहतरीन बर्तनों और खिलौनों की मांग बढ़ जायेगी।“

“यह सब हम भी बहुत दिनों से सुन रहे हैं, लेकिन सरकार बन्द करे तब ना ? “ चंदू की मां ने कहा।

“अभी तक सरकार केवल कह ही रही थी, किन्तु जिस प्रकार से इससे पर्यावरण के नुकसान सामने आ रहे हैं ,उससे अब सरकार काफी गम्भीर है।“  नंदिनी ने चन्दू और अपनी मां की ओर देखते हुए बहुत भोलेपन से कहा ।

“प्लास्टिक के सामानों का प्रचलन बन्द हो जाये तो हमारा यह प्राचीन उद्योग फिर से हरा-भरा हो जाये।” चन्दू की मां अचानक बोल उठीं।

“सो तो है ही। यह प्लास्टिक कभी नष्ट नहीं होता । इसके कारण काफी प्रदूषण फैलता है, जो कि इंसानों और जानवरों दोनों के लिए हानिकारक है।“ इस बार नंदिनी की मां सविता ने कहा।

धीरे-धीरे करके दिन बीतते रहे। दोनों परिवारों के बीच घनिष्ठता बढ़ती जा रही थी। चन्द्र प्रकाश और नंदिनी के बीच की औपचारिकताएं मिटने लगी थीं। वे एक – दूसरे के प्रति सहज हो रहे थे । इस बीच नंदिनी इण्टर की परीक्षा में भी पास हो गई  और कम्प्यूटर साइंस में बी.एस.सी.  करने के लिए विश्वविद्यालय में एडमिशन ले लिया ।

नंदिनी कालेज से वापस लौटी, तो थोड़ी देर हो गई थी। चन्दू बर्तन बनाने के बाद हाथ – पैर धोकर अपने घर से बाहर टहल रहा था । नंदिनी ने उसे  बाहर देखा, तो वह घर जाने से पहले उसके पास चली आई।

’’चन्दू, तुम जानते हो आज सरकार ने प्लास्टिक बन्द करने की औपचारिक घोषणा कर दी है और यह प्लास्टिक तीन महीनों में पूरी तरह बन्द हो जायेगा।“

“ओह सच में ! तीन महीनों में पूरी तरह बन्द हो जायेगा।“

“हाँ, बाजार में मिट्टी के बर्तनों की मांग बढ़ने वाली है । आप जल्दी से अपना काम शुरू कीजिए । मैं भी आपकी सहायता  करूंगी।“

’’अरे, नहीं ! अब आप कालेज में पढ़ती हैं । मेरे साथ कहाँ  अपने हाथ खराब करेंगी ।“

“सच बोलो चन्दू, क्या तुम नहीं चाहते कि मैं तुम्हारे साथ बर्तन – खिलौने बनाऊं ।“

“मैं चाहता हूँ आप पढ़कर बड़ी अफसर बनें और बस कभी-कभी थोड़ी देर के लिए यहाँ आ जायें मेरे काम को देखने के लिए।“

“चन्दू, मैं बड़ी अफसर बनने नहीं जा रही हूँ । मैं तुम्हारे साथ मिलकर इस काम को ही बड़ा बनाना चाहती हूँ।“

“ धत् ! इस छोटे काम से  कोई बड़ा बना है भला ? “

“चाहे कोई पहले बड़ा बना हो या न बना हो, किन्तु मैं तुम्हारे साथ मिलकर इस काम को बड़ा बनाने की शपथ लेती हूँ।“

“किन्तु।“

“किन्तु क्या चन्दू ?“

“मैं अपने को इस योग्य नहीं समझता।“

“चन्दू, कोई व्यक्ति कभी छोटा या बड़ा नहीं होता है। हर एक की पहचान उसके काम से होती है,और फिर तुम तो हुनरमंद हो।”

चन्दू कुछ कह नहीं सका। उसने अपनी आँखें नीचे कर लीं । उसे विश्वास नहीं हो  रहा था कि जो वह सुन रहा है ,वह सच भी है अथवा नहीं।

चन्दू को चुप देखकर नंदिनी ने फिर कहा, “मेरी मां कहती है कि व्यक्ति का हुनर सबसे ऊपर होता है। जो व्यक्ति जितना अधिक हुनरमंद होता है वह उतना ही शालीन, सभ्य और योग्य होता है। यह सब गुण मैं तुझमें देख रही  हूँ।”

“फिर भी मैं अपने आप को आधा – अधूरा और अयोग्य समझता हूँ।”

“चन्दू, एक बात जानते हो !कभी कहीं आधा-अधूरा जीवन नहीं होता। या तो वह पूरा होता है, या फिर नहीं होता। और मैं पूरा जीवन जीना चाहती हूँ। यह पूर्णता तुम्हारे साथ ही होगी, और जो हुनरमंद है वह अयोग्य तो हो ही नहीं सकता।”

*         *        *

सात वर्ष कितनी जल्दी बीत गए थे इसका पता ही नहीं चला। उनकी शादी हुई । उसके बाद चार वर्षीय पुत्र गौरव का एडमीशन एक अच्छे स्कूल के प्ले ग्रुप में करा दिया गया था। घर के बाहर लॉन  में मोटर से चलने वाले चार चॉक  लगाये थे, जिन पर चार लोग चन्द्र प्रकाश के निर्देशन में उसके बताने के अनुसार काम कर रहे थे। घर के बाहर बने बरामदे को ऑफिस बना दिया गया था, जहां नंदिनी के साथ दो असिस्टेंट और काम करते थे। बर्तनों की मार्केंटिंग हेतु चार लड़के रख लिए गये थे, जो शहर और आस-पास के शहरों से भी आर्डर लेकर आते थे। बने हुए माल की सप्लाई के लिए शीघ्र ही एक पिकअप वान छोटा हाथी भी खरीद लिया गया। चन्द्र प्रकाश के दोनों हाथ अब भी मिट्टी से सने हुए रहते थे। गौरव कभी दादी के साथ, तो कभी नानी के साथ खेलता रहता था। मिट्टी की भीनी-भीनी सुगंध उनके चारों ओर शीतल चांदनी की तरह फैली रहती थी ।

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