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– विनय साग़र जायसवाल

ग़ज़ल
221-2121-1221-212
***
क्या खाक जुस्तजू करें हम सुब्हो-शाम की
जब फिर गईं हों नज़रें ही माह-ए-तमाम की

जो कुछ था वो तो लूट के इक शख़्स ले गया
जागीर रह गई है फ़कत एक नाम की

ख़ुद आके देख ले तू मुहब्बत के शहर में
शोहरत हरेक सम्त है किसके कलाम की

ज़ुल्फ़ें हटा के नूर अँधेरे को बख़्श दे
प्यासी है कबसे देख ये तक़दीर शाम की

खोली जब उस निगाह ने मिलकर किताबे-इश्क़
उभरीं हरेक हर्फ़ से मौजें पयाम की

मिल जायेंगे ज़रूर ज़मीं और आसमां
अब बात हो रही है सुराही से जाम की

साग़र धुआँ धुआँ है फ़ज़ाओं में हर तरफ़
शायद लगी है आग कहीं इंतकाम की

– बरेली
माह-ए-तमाम –पूर्णिमा का चंद्रमा
नूर–प्रकाश
इंतकाम –बदला

3 thoughts on “मौजें पयाम की”
  1. विनय सागर जायसवाल जी की ग़ज़ल
    मौजें पयाम की
    बहुत ही उम्दा ग़ज़ल है । विनय साग़र जसवाल जी अच्छे ग़ज़लकारों में से एक हैं ।

  2. कालीचरण निगोते , होशंगाबाद , मध्यप्रदेश.... says:

    बहुत ही बढ़िया और शानदार हिंदी साहित्य मंच……

  3. कालीचरण निगोते , होशंगाबाद , मध्यप्रदेश..... says:

    गज़ल शंहशाह परम आदरणीय विनय साहेब जी की बेमिसाल , नायाब गज़ल….उत्कृष्ट पेशकश…..

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