– डा. सुनीता सिंह ‘सुधा’
गीत
आर-पार की साँसें भी अब
फँसी हुईं मझधारों में ।
ज्वार मचलता है मानस तक
घिरी हुई प्रतिकारों में ।।
हाथ लिए हथियार खड़े हैं
काट रहे नित नेह सभी ।
करुणा से है अंतर विचलित
मुक्ति न पाती देह कभी ।।
कोण-कोण में भरता संशय
मन भटका अँधियारों में ।
आर-पार की साँसें…….।।
शैवालों- सा सिहरता रहा है
बैरागी ये अंतर्मन ।
दीवारों तक हैं रेखांकित
तना सिर्फ बाहर से तन ।।
हैं उदास उत्सव की गलिया
जलती नित अंगारों में ।
आर-पार की साँसें……..।।
भाग रहा है जंगल-जंगल
बेपरवाह हुआ बेघर ।
भ्रम जमकर बैठा अंतर् में
देह बनी अब सौदागर।।
घन अँधियारा बढ़ता जाता
उर के नित गलियारों में ।
आर-पार की साँसें……..।।
– वाराणसी
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