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  – डॉ.मेहता नगेन्द्र

 

बाल-लघुकथा

पड़ोस के चौथे मकान में मेरी नातिन तुलिका की सहपाठी सहेली दीप्ति रहती है। दो और बहनें हैं। दीप्ति जब भी मेरे घर आती तो, तुलिका की तरह मुझे भी नानू जी से सम्बोधित करती। मैं आन्तरिक रूप से अभिभूत हो जाता।

आज घर पर रक्षाबंधन की रौनक छाई है। मुझे बाज़ार से बेसन के लड्डू लाने को कहा गया। मैं निकला। लौटते समय चौथे मकान की तरफ मेरी गर्दन अनायास घूम गई। देखा, दीप्ति अकेले अपने बरामदे पर गुमशुम बैठी है। गेट खोल कर अन्दर गया। दीप्ति से पूछा, ‘क्या बात है बेटे ? आज तो बच्चे, खासकर भाई-बहन, उछल कूदकर खुशी मनाते हैं और तुम गुमशुम बैठी हो?’

‘क्या करूं नानू। मेरा कोई भाई नहीं है। किसको राखी बांधू?’ रुआंसी स्वर में दीप्ति बोली।

सुनकर कुछ क्षण के लिये स्तब्ध रह गया। दीप्ति का मनोबल को सुदृढ करते हुए मैंने कहा, ‘ नहीं बेटे, आज तुम राखी अवश्य बांधोगी।’

इस पर उसने खुश होते हुई पूछा, ‘मगर, किसकी कलाई में?’

मैं ने अपना हाथ आगे बढ़ा दिया। वह उछली और दौड़ती हुई अन्दर गई। एक सुंदर सी राखी लाकर मेरी कलाई में बांध दी। मैं उसे अपने घर ले आया।

दीप्ति को देखकर तूलिका काफी प्रसन्न हुई।

दीप्ति तुनक कर बोली, ‘ देखो तूलिका, आज मैं ने नानू की कलाई पर राखी बांधी है। अब यह  मेरे नानू से नानू भैया बन गये।’

पलक झपकते ही बेसन के लड्डू सफाचट हो गए।

 

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