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एक नया एपिसोड : तेरे मेरे दिल की बातें

अधिकांश लेखकों का मानसिक और आर्थिक
शोषण हो रहा है l : सिद्धेश्वर

पटना ! 20/09/2022! ” साहित्य के श्रमजीवी, ईमानदार और सजग सृजक को, रेवड़ी की तरह बंट रहे मान सम्मान से संतुष्टि नहीं मिलती l पूरी संतुष्टि तब मिलती है जब उनके सृजन का सही मूल्यांकन होता है l लेकिन उचित मूल्यांकन करने वाले और हमारे साहित्य समाज में अपने नैतिक मूल्यों के प्रति कितने लोग ईमानदार दिखते हैं ? कितने लोग हैं, जो कवि लेखकों से बिना नाम,पदनाम पूछे साहित्य सृजन की श्रेष्ठता के आधार पर, उचित सम्मान देते हैं ? उनकी सारगर्भित रचनाओं को जन जन तक पहुंचा सके, ऐसे लोग कितने हैं? बंधे बंधाए लेखकों कवियों को बार-बार प्रकाशित करने की अपेक्षा,उनकी स्तरीय रचनाओं को पत्र पत्रिकाओं में अपेक्षित स्थान देने वाले कितने संपादक प्रकाशक है ? सरकारी संस्थानों के मंचों पर ऐसे साहित्यकारों का मूल्यांकन करने वाले कितने लोग हैं ?
क्योंकि लेखकों का आर्थिक शोषण करने वाले लोग तो आपको हजारों मिल जाएंगे l लेकिन आर्थिक लाभ पहुंचाने वाले गिने-चुने लोग ही होते हैं, वह भी आजकल ढूंढे नहीं मिलते l इस प्रकार अधिकांश लेखकों का मानसिक और आर्थिक शोषण हो रहा है l”
फेसबुक के अवसर साहित्यधर्मी पत्रिका के पेज पर, कवि कथाकार सिद्धेश्वर ने ऑनलाइन एक नया एपिसोड आरंभ किया गया है ” तेरे मेरे दिल की बातें ” जो साहित्यिक सांस्कृतिक एवं सामाजिक संदर्भों से जुड़ी हुई है l निर्भीक, निष्पक्ष एवं बेबाक टिप्पणी के लिए चर्चा के केंद्र में आ गई l आधे घंटे के इस लाइव एपिसोड में आज की साहित्य की राजनीति पर कई सवाल खड़ा करते हुए उपरोक्त उद्गार सिद्धेश्वर ने व्यक्त किया, जिससे देशभर के दर्शकों ने सराहा l मंच पर ऑनलाइन आकर वैशाली के अपूर्व कुमार ने कहा कि –
एक दूसरे के दिल की बातों को इस एपिसोड के माध्यम से जन जन के बीच लाकर, एक वैचारिक क्रांति का रूप दिया जा रहा है l
पौने एक घंटे तक चली इस एपिसोड में, सिद्धेश्वर ने विस्तार से कहा कि – इस तरह के सवाल सिर्फ हमारे आपके नहीं, देश के उन लाखों-करोड़ों उपेक्षित साहित्यकारों का है, जिनके सवालों को सवाल समझकर उस और झांकने वाला भी कोई नहीं मिलता l
हमारे और आपके ये तमाम सवाल हैं साहित्य की राजनीति का खेल खेलने वाले उन तमाम अधिकारियों के सामने, जिन्हें सालों भर पहले अपने बने बनाए हुए ,साहित्यकारों के लिस्ट के आगे कोई नया नाम नजर ही नहीं आता l
क्या कभी इस ओर किसी ने सोचने की भी कोशिश की है कि प्रत्येक वर्ष मुख्यधारा की पत्र-पत्रिकाओं से लेकर, मुख्यधारा की साहित्यिक संस्थानों तक आखिर कुछ साहित्यकारों का ही वर्चस्व क्यों स्थापित रहता है? क्या कभी किसी ने इन सवालों पर भी सवाल उठाया है कि हर वर्ष कुछ नए साहित्यकारों का नाम जोड़ने के अपेक्षा, अपने इर्द-गिर्द मंडराने वाले साहित्यकारों की अधिक याद उन्हें क्यों आती है ? कभी किसी ने उनसे यह पूछने की यह जुर्रत की है कि आजकल अच्छे लिखने पढ़ने वाले साहित्यकारों कवियों का अभाव हो गया है क्या ? क्या हिंदी साहित्य विकास की ओर जाने के अपेक्षा पतन की ओर जा रहा है ? क्या साहित्य के विकास के रथ का पहिया रुक गया है ? क्या हिंदी में अच्छे साहित्य का अकाल पर गया है ? या फिर साहित्य की राजनीति के इन खिलाड़ियों ने, भाई भतीजावाद, व्यक्तिगत लाभ का आदान-प्रदान, एक दूसरे की पीठ खुजलाने की बीमारी, पदोन्नति पाने की तरह उचित पैरवी को ही अपना सशक्त हथियार बना लिया है l इस ऑनलाइन लाइव मंच पर संतोष मालवीय , ऋचा वर्मा, सपना चौधरी, सुनील कुमार उपाध्याय, नीलम श्रीवास्तव,निर्मल कुमार दे
आदि ने भी अपना विचार साझा किया!

प्रस्तुति : ऋचा वर्मा (मोबाइल :9234760365)

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