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– अरविन्द कुमार ‘मौर्य’

 

( प्रसिद्ध साहित्यकार शैलेश मटियानी जी की 14 अक्टूबर को 90  वां जन्मोत्सव के अवसर पर विशेष आलेख प्रस्तुत )

फुटपाथ पर बैठा हुआ व्यक्ति और डाल पर बैठा हुआ बंदर दोनों सड़क पर चलते हुए राहगीरों पर टकटकी लगाए हुए हैं और जैसे कि कोई राहगीर बंदरों की ओर चने या मुंगफली फेकता है, व्यक्ति और बंदर दानों की ओर दौड़ पड़ते हैं, इस छीना झपटी के बीच कई बार व्यक्ति और बंदरो के बीच लड़ाई की नौबत भी आ जाती है जिससे व्यक्ति घायल भी हो जाता है फिर दोनों एक दूसरे की भूख को समझते हुए समझौता कर लेते हैं । दाने- दाने को संघर्ष करता हुआ यह व्यक्ति कोई और नहीं हिंदी में प्रेमचंद के बाद दूसरा सबसे बड़ा कथाकार शैलेश मटियानी हैं जिसके साहित्य पर चर्चा करते हुए हंस के संपादक और प्रसिद्द आलोचक राजेंद्र यादव ने कहा था- ” मटियानी उन कहानीकारों में है जिनके पास सबसे अधिक संख्या में 10 – 12 की संख्या में ए – वन कहानियां है प्रेमचंद सहित हम सबके पास 5 – 6 से ज्यादा टॉप की कहानियां नहीं है जो अंतरराष्ट्रीय स्तर पर विश्व स्तर पर खड़ी हो सके” ।

नयी कहानी आंदोलन के इस महान साहित्यकार का जन्म प्राकृतिक सुंदरता से भरपूर उत्तराखंड के अल्मोड़ा जनपद के बाड़ेछिना गॉव में 14 अक्टूबर 1931 को हुआ था ।

इनके पिता विशनसिंह मटियानी पाँच भाईयों में दूसरे नंबर की संतान थे ।

इनके दादा इस क्षेत्र के प्रसिद्द घी व्यापारी थे जिनकी ईमानदारी को देखकर इस क्षेत्र में यह कहावत प्रसिद्द थी कि ” जितुवा को बोल, तगड़ी को तौल” अर्थात जीतसिंह के मुँह से कहा हुआ और तराजू का तौला हुआ बराबर होता है । इनके पूर्वज बाड़ेछिना से 10 किमी दूर मटेला गॉव के निवासी थे जिसके कारण इन्हें मटयाणी कहा जाता था जो आगे चलकर मटियानी हो गया ।

शैलेश मटियानी का व्यक्तिगत और साहित्यिक दोनों ही जीवन संघर्षों से भरा रहा है यह एक ऐसा संघर्ष था जो 12 वर्ष की उम्र से प्रारंभ हुआ और आजीवन चलता रहा।

जब शैलेश 9 वर्ष के थे तो उनके पिता ने ईसाई धर्म स्वीकार करते हुए दूसरी शादी कर ली और अपने गॉव से लगभग 50 किमी दूर बेरीनाग के पास एक गॉव में रहने लगे थे।

ऐसे में स्तन कैंसर से पीड़ित माँ और भाई – बहन के साथ ये अपने चाचा के आश्रित हो गए थे, जहाँ 12 वर्ष की अल्पायु में ही इन्हें अपने माता – पिता की चिता को अग्नि देने का दुखमय कार्य करना पड़ा था । माता – पिता की मृत्यु के बाद ये अनाथ बालक जिन्हें कुमाउँनी में ‘छोरमुल्या’ कहा जाता है अपने दादा – दादी के छत्र – छाया मे पलने लगे थे । इस समय इनके परिवार में दो नौकर कार्य किया करते थे ।

( शैलेश मटियानी जी की पत्नी के साथ लेखक अरविन्द कुमार ‘मौर्य’ )

छोरमुल्या शैलेश की स्थिति तीसरे नौकर की हो गयी थी । प्रातः उठकर नौले से पानी लाना, भैसों का दूध निकलना, पशुशाला की सफाई और फिर कुछ रूखा – सूखा खाकर जानवरों के साथ जंगलों को निकल जाना और शाम को लौटते समय सर पर लकड़ी का गठ्ठर  या घास का बोझ लेकर लौटना यही शैलेश की दिनचर्या हो गयी थी ।

गॉव से जूनियर परीक्षा उत्तीर्ण करने के उपरांत इंटरमीडिएट की शिक्षा के लिये अपने चाचा शेरसिंह के पास अल्मोड़ा चले गए जो कि वहाँ गोश्त का व्यापार करते थे ।

अल्मोड़ा आने के बाद भी शैलेश जी के जीवन में कोई विशेष सुधार नहीं आया था अब उनकी दिनचर्या में प्रातः उठाकर 2- 3 बकरों को काटकर, चमड़े निकालकर और उनकी अंतड़ियों को साफ करके दुकान में टाँगने के बाद ही स्कूल जाने का मौका मिलता था जहाँ से वापस लौटने पर फिर दुकान पर बैठना पड़ता था ।

वही छोटा भाई रामजे स्कूल के बाहर चूरन और मुंगफली बेचा करता था ।

अल्मोड़ा नगर निगम के पुस्तकालय में इन्हें सर्वप्रथम चंद्रकांता और डाकू बेहराम जैसे साहित्य को पढ़ने का अवसर मिला  ।

शैलेश जी के चचेरे भाई नेवी में कार्यरत थे जिन्हें कविताएं लिखने का शौक था ।

उनकी कविताएं नेवी की पत्रिकाओं में छपती थी ।

साथ ही इनके मित्र कुँवर सिंह तिलारा की कविताये भी अल्मोड़ा के स्थानीय पत्रों “शक्ति” और “कुमाऊँ राजपूत” में छपा करती थी । इन दोनों से प्रभावित होकर शैलेश मटियानी ने भी साहित्य रचना करना प्रारंभ कर दिया, पर कई कोशिशों के बाद भी उनकी रचनाएँ प्रकाशित ना हो सकी उल्टे लोगों ने यह कहना प्रारम्भ कर दिया कि “अरे वह जुआरी का बेटा और बूचड़ का भतीजा कविता – कहानियां लिख रहा है” ।

लोगों के तानों को सुनकर हताश होने के बजाय शैलेश के लेखक बनने की जिद और बढ़ती गयी, इसी बीच इनकी दो कहानियों का प्रकाशन दिल्ली की पत्रिकाओं अमर कहानियां और रंग महल में हो गया इस समय आप कक्षा नौ के विद्यार्थी थे ।

1951 में हाई स्कूल उत्तीर्ण करने के उपरांत अल्मोड़ा में अपना भविष्य ना देखकर चाचा के घर से चुराये घी को 20 रुपये में बेचकर अल्मोड़ा, रानीखेत होते हुए दिल्ली पहुँच गए पर यहाँ भी साहित्य विकास का उचित अवसर ना देखकर तत्कालीन साहित्य राजधानी इलाहाबाद जाने का फैसला किया पर टिकट का पैसा ना होने पर लाल किले के बगीचे में बैठकर तीन दिनों में अपना पहला उपन्यास “दोराहा” पूर्ण किया और उसे 15 रुपये में बेचकर इलाहाबाद की राह पकड़ी ।

इलाहाबाद आने के बाद भी संकटो ने शैलेश का पीछा नहीं छोड़ा।

ठंड से बचने के लिए एक घर के बरामदे में सोते हुए मकान मालिक द्वारा चोर समझ लेने के कारण जहाँ इनकी पिटाई हुई वही एक रात पुलिस चौकी में भी बितानी पड़ी । जीवन यापन की खोज में शैलेश मुजफ्फरनगर होते हुए पुनः दिल्ली पहुँच गए । एक बार फिर दिल्ली में मन ना रमने पर आपने बम्बई की राह पकड़ी । बम्बई का प्रवास साहित्यिक और व्यक्तिगत दोनों दृष्टियों से मटियानी जी के लिए महत्वपूर्ण साबित हुआ । लेख के प्रारंभ में दी गयी घटना शैलेश के बम्बई प्रवास की ही है ।

फुटपाथ से चने बीनने से लेकर मंदिर के बाहर भीख माँगने तक, कुलीगिरी करने से लेकर खून बेचने तक इन्होंने एक साल तक जीवन यापन के लिए कठिन संघर्ष किया, खून बेचने से इनका शरीर कमजोर हो गया था जिसके कारण कठिन कार्य करने में असमर्थ होने पर इन्होंने स्टेशन के बाहर चन्नी रोड पर स्थित ” श्रीकृष्ण पूरी हाउस” में कप – प्लेट धोने का कार्य करने लगे । बर्तन धोने से अवकाश मिलते ही यह रचना कार्य में लग जाते थे जिससे कारण इनकी अधिकांश रचनाएँ यही “मोरी” के पास बैठकर लिखी गयी । साढ़े तीन वर्ष तक होटल में कार्य करने के उपरांत जहाँ इनका वेतन आठ रुपये से बढ़कर 20 रुपये हो गया वही इन्होंने कविता, कहानी के साथ -साथ अपने दो उपन्यास “बोरीवली से बोरीबंदर तक” और “कबूतरखाना” भी पूर्ण कर ली थी । इसी बीच “धर्मयुग” के तत्कालीन सम्पादक के आग्रह पर आपने होटल का कार्य छोड़कर पूर्ण रूप से साहित्य लेखन का कार्य करने लगे ।

1957 में शैलेश मटियानी का विवाह नारायणी देवी के साथ हुआ जिन्हें प्यार से मटियानी जी “नीला” कहकर पुकारते थे । 1957 में शैलेश मटियानी जी के जीवन में महत्वपूर्ण पड़ाव तब आया जब आप पुनः इलाहाबाद चले आये ।

इलाहाबाद का यह प्रवास जहाँ शैलेश मटियानी जी को एक लेखक के रूप में प्रतिष्ठित किया वही ऐसा गम भी दे गया जो उनकी मौत का कारण बना । 1965 से 1992 तक के समयकाल में शैलेश इलाहाबाद रहे पर भूख के खिलाफ उनका संघर्ष यहाँ भी चलता रहा । कोई स्थायी नौकरी ना होने के कारण शैलेश पूर्णता ” कागज की खेती” से होने वाली आय पर निर्भर रहे जिसके कारण कभी –  कभी इनके छः सदस्यों के परिवार में फाकों तक  की नौबत आ जाती थी । शैलेश मटियानी लेखक की स्वत्रंतता के बड़े हिमायती थे यही कारण है कि कवि शिवदान सिंह चौहान और प्रगतिशील लेखक संघ के सज्जाद जहीर के आमंत्रण के बावजूद भी आप प्रलेस के सदस्य नहीं बनें । ऐसा नही था कि यह इनकार सिर्फ मार्क्सवादी संगठनों के लिए था अपितु इन्होंने दक्षिणपंथी संगठनों में इनकार कर दिया , इन  लेखक संगठनों को मटियानी जी ” गिरोह” की संज्ञा दिया करते थे जो लेखक की स्वत्रंतता को छीन लेते हैं । इस पर विचार करते हुए शैलेश मटियानी लिखते है कि “मार्क्सवाद … का यह दुराग्रह की अगर आप हमारे संगठन में नही है , हमारे विचार आपके विचार नही है तो आपको हम खारिज करते है … इससे बड़ी तानाशाही प्रवृति और क्या होगी ?” शैलेश मटियानी का विचार था कि साहित्य में किसी भी वाद की कोई सामाजिक  भूमिका नही हो सकती, किसी भी वाद के बूते पर श्रेष्ठ रचना असंभव है । रचना सदैव रचनाकार की संवेदना और प्रतिभा के प्रकार से सम्बध्द होती है – वाद का चौखटा जमाकर लिखवाना लेखकों को बंधुवा बनाना है ” ।

51 वर्षो के अपने साहित्यिक जीवन में शैलेश मटियानी ने 30 उपन्यास, 28 कहानी संग्रह, 9 लोक कथा संग्रह, 16 बाल कथा संग्रह, 1 एकांकी संग्रह तथा 13 निबन्ध संग्रहों की रचना की, इसके अतिरिक्त “विकल्प” और “जनपक्ष ” नामक पत्रो का संपादक व प्रकाशन कार्य भी किया । भूख, स्त्री और मौत मटियानी के साहित्य रचना के मुख्य आधार रहे इनके सम्पूर्ण साहित्य में यह व्याप्त दिखाई पड़ते हैं । इस पर विचार करते हुए शैलेश मटियानी लिखते है कि ” बुभुक्षा, स्त्री और मौत इन तीनों की चुनौती से गुजरे बिना आदमी अपने आत्यंतिक स्वरूप का साक्षात्कार शायद कर ही नही सकता। इन तीनों से गुजर कर भी मानवीय संवेदना और जिजीविषा आदमी के भीतर शेष रह जाय वही उसकी वास्तविक पूंजी होता है “। जीवन अनुभवों की सघनता पर बल देते हुए मटियानी जी आगे लिखते है ” अपने जीवन अनुभवों के आधार पर ही लेखक में वह क्षमता आती है जिसके बुते वह अपने अनुभव किये हुए को दूसरों को अनुभव कराता है और अस्तित्व को, अपने दुखों और अपनी  यातनाओं को दूसरों की स्मृति से जोड़ता है । उनके अस्तित्व का अविच्छिन्न हिस्सा बनाता है ।”

कुमाऊँ का खूबसूरत अंचल रहा हो या दिल्ली और मुंबई का महानगरीय परिवेश, इलाहाबाद के  साहित्यिक संगठनों की राजनीति रही हो या दिल्ली में देश की राजनीति इन सब विषयो पर मटियानी ने ना सिर्फ कहानी और उपन्यास विधा द्वारा लेखन कार्य किया अपितु अखबार और पत्रिकाओं में लेख भी लिखें तथा गलत को गलत और सही को सही कहने में कभी हिचके नही यही कारण है कि साहित्य और राजनीति में उनके दोस्त कम और दुश्मन अधिक बने ।

लेखक की अस्मिता के प्रश्न पर “धर्मयुग” पत्रिका के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट तक मुकदमा लड़े वही तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी को कवि मानने से इनकार करते हुए उन्हें 16 पेज का पत्र लिख देते हैं । शैलेश मटियानी के ये बेबाक विचार ही थे जिसके कारण लेखक संघो और प्रकाशनों ने इनके खिलाफ इस प्रकार की नाकेबंदी कर दी कि “जहाँ भी इन लोगों को पहुँच थी, वहाँ से कभी कोई आर्थिक सहायता नही होने दी” इसी बीच इनके होनहार छोटे बेटे मनु की हत्या ने इन्हें बुरी तरह तोड़ कर रख दिया । आर्थिक संघर्ष और बेटे की हत्या का दबाव अंततः पागलपन के रूप में प्रकट हुआ, इस मानसिक बीमारी से ही आपकी मृत्यु दिल्ली के अस्पताल में 2001 में हो गयी ।

शैलेश मटियानी का जीवन भूख से संघर्ष की कथा रही , यही कारण है कि ये सदैव एक ऐसे समाज के निर्माण के लिए प्रयत्नशील रहे जिसमें कोई भूखा ना हो पर यह संभव ना हो सका इसलिए वें तत्कालीन परिस्थितियों से असंतुष्ट होकर सदैव संघर्ष का आवाहन करते रहे । मटियानी लिखते है कि “विचारशील श्रेष्ठ रचनाकार विद्यमान विचारधाराओं एवं प्रवृत्तियों का विरोध करता है और नयी मानव सापेक्ष जीवन दृष्टि को अपने साहित्य में स्थापित करना चाहता है जैसा कि स्पष्ट है उसका यह संघर्ष सामान्य किस्म के संघर्ष से कही अधिक बड़ा और दुध्दर्शपूर्ण संघर्ष होता है ।इसलिए यह देखा जाता है कि अनेक लेखक बीच में ही थककर अपना संघर्ष समाप्त करके विद्द्यमान विचारधारा से समझौता करके स्वयं को मात्र युगीन परिस्थितियों के चितेरे बनकर ही संतोष कर लेते है” पर  “विशिष्ट साहित्यकार चूंकि अंतिम क्षणों तक संघर्ष करना चाहता है तथा वह करता भी है इसलिए उसका सम्पूर्ण जीवन ही संघर्षमय हो जाता है “शैलेश एक ऐसे ही कथाकार रहे है । शैलेश सच्चे अर्थों में एक पूर्ण साहित्यकार रहे , एक आम आदमी की अंतिम इच्छा जहाँ संपत्ति और सुखमय जीवन की लालसा होती है वही मटियानी की अंतिम इच्छा मात्र इतने अवकाश की रही कि 2- 4 अच्छी कहानियां, एक बड़ा उपन्यास और आत्मकथा और लिख सकू, पर दुर्भाग्य से समय ने उन्हें यह अवसर नही  प्रदान किया और मानसिक बीमारी की अवस्था में 2001 में मटियानी जी का स्वर्गवास हो गया ।

 

  • वरिष्ठ शोध अध्येता

कुमाऊँ विश्वविद्यालय, नैनीताल

Mob- 9936453665

 

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