” क्रोध में विवेकहीन होकर ” युद्ध ” को अंतिम विकल्प बना लेते हैं हम !”: सिद्धेश्वर
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” युद्ध तो किसी सनकी मस्तिष्क के द्वारा राष्ट्र पर थोपा गया अभिशाप है। “: अपूर्व कुमार
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” युद्ध अंतिम विकल्प तो क्या, पहला विकल्प भी नहीं होना चाहिए | “: नीलम नारंग
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🎞 पटना : 14/03/2022 ! ” युद्ध की बात करते ही एक व्यापक परिदृश्य हमारी आंखों के सामने आ खड़ा होता है ! भयानक तस्वीरें हमारे रोंगटे खड़े कर देतें हैं ,और इसे वही बेहतर तरीके से महसूस
कर सकता है, जो स्वयं युद्ध की विभीषिका से साक्षात्कार कर चुका होता है l ये बातें आज फिर हमारे जेहन में शोर मचाने लगी है कि हमारे भीतर का क्रोध स्वार्थ, अहंकार, अभिमान में इतना विवेकहीन कैसे और क्यों हो जाता है कि तमाम समझौते के रास्तों को विराम देकर, अंतिम विकल्प के रूप में ‘युद्ध ‘ को स्वीकार कर लेते हैं हम ? ”
भारतीय युवा साहित्यकार परिषद के तत्वाधान में, ऑनलाइन ” गूगल मीट ” पर, राष्ट्रीय परिचर्चा का आयोजन किया गया, जिसका विषय था, ” क्या अंतिम विकल्प युद्ध है ?” इस विषय पर विस्तार से चर्चा करते हुए उपरोक्त उद्गार संयोजक सिद्धेश्वर ने व्यक्त किया l उन्होंने कहा कि- क्रोध और अभिमान में आदमी पागल हो जाता है। अंततः परमाणु बम का उपयोग इसी पागलपन में हो सकता है, जिसके कगार पर खड़ी है यह दुनिया । ”
इस विचार गोष्ठी के मुख्य अतिथि अपूर्व कुमार ने कहा कि – युद्ध तो समझौते तक पहुंचने की एक अवांछित विधि मात्र है जोकि किसी भी सभ्यता के माथे का अब तक कलंक ही सिद्ध हुई है।इस प्रकार युद्ध को मैं किसी भी रूप, में किसी देश के लिए अंतिम विकल्प भी नहीं मानता! युद्ध तो किसी सनकी मस्तिष्क के द्वारा राष्ट्र पर थोपा गया अभिशाप है।
अपने अध्यक्षीय उद्बोधन में वरिष्ठ कथाकार नीलम नारंग ने कहा – ” युद्ध की अनिवार्यता उसी पल समाप्त हो जाती है, जब संवाद का जन्म होता है | आज भी युद्धों से बचा जा सकता है और इसका सबसे बड़ा विकल्प है संवाद, जहाँ हमने युद्धों की त्रासदी को झेला है, वहां संवाद और बातचीत के द्वारा बड़े बड़े मसलों का हल भी ढूंढा है | जहाँ इतिहास युद्धों का गवाह है, वहां इस बात का भी गवाह है कि पिछले सत्तर वर्षों में ही कई मुल्कों के आपसी वैमनस्य केवल संवाद से ही खत्म हुए है | मेरे विचार में युद्ध ‘अंतिम विकल्प’ तो क्या बल्कि युद्ध का विकल्प ही नहीं होना चाहिए | युद्ध कभी भी अंतिम हल नहीं होता | विचाराधीन मुद्दे पर युद्ध छेड़े जाने के बावजूद इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वह मसला या विवाद दोबारा सर नहीं उठाएगा | इतिहास साक्षी है कि युद्ध में लाखों लोग तबाह और बेघर हो जाते हैं, युवा मारे जाते हैं !”
संगोष्ठी पर विशिष्ट अतिथि चर्चित पत्रकार कवि एवं हरिभूमि के संपादक शंभू भद्र ने उपरोक्त विषय पर विस्तार से चर्चा करते हुए कहा कि – यूक्रेन के साथ रूस का युद्ध एक नेता के अहंकार की तुष्टि का युद्ध है, महाशक्ति की महत्वाकांक्षा का युद्ध है, विश्व में वर्चस्व की स्थापना का युद्ध है। यह युद्ध अमेरिकी वर्चस्व के खिलाफ रूस का प्रतिरोध है, अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो के विरुद्ध हल्लाबोल है। अपनी दुर्गति होने की बात जानते हुए भी अगर रूस ने यूक्रेन संग युद्ध का रास्ता चुना है तो निश्चित ही वार्ता व सुलह के सभी रास्ते बंद होने के बाद ही रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने फैसला किया होगा। यूक्रेन पर रूसी हमले को जायज नहीं ठहराया जा सकता है। युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है। युद्ध हमेशा महाविनाश लेकर आता है, मानवता की स्थापना के लिए युद्ध मुक्त दुनिया जरूरी है। भारत हमेशा शांति की चाहा रखता है l
ऋचा वर्मा ने कहा कि – ” किसी देश के लिए युद्ध अंतिम विकल्प होता है! लेकिन आज के समय में कोई नहीं चाहता की युद्ध छिड़े। विज्ञान की उन्नति और भूमंडलीकरण के इस दौर में अगर युद्ध छिड़ा तो सारी दुनिया इस युद्ध के चपेट में आएगी और संभव है के एक ऐसा विनाश.. महाविनाश आए कि इंसानियत भी खतरे में पड़ जाए। युद्ध एक ऐसी घटना है जिसे हारने वाला तो हारता ही है पर जीतने वाला भी कहीं न कहीं हारता ही है। क्योंकि जीतने वाला भी अपने बहुत से संगी साथियों , प्रियजनों और परिजनों को युद्ध में खोकर ही विजय प्राप्त करता है। ” दूसरी तरफ मुरारी मधुकर ने कहा कि -” मनोवैज्ञानिक पक्ष की दृष्टि से देखें , तो युद्ध का एक बड़ा कारण अनियंत्रित मनोवेग है जो व्यक्ति और देश दोनों पर लागू होता है। आक्रोशित और अविवेकी मनोवेग की दशा में विवेक समाप्त हो जाता है और कार्य के अंजाम या परिणाम की परवाह नहीं की जाती है; केवल परवाह की जाती है अपनी स्वार्थ सिद्धि की। ”
डॉ शरद नारायण खरे ने भी विचार गोष्ठी के पक्ष में कहां कि युद्ध केवल विनाश को जन्म देता है ! लोकतंत्र व मानवाधिकार के इस युग में न तो विस्तारवादी नीति का समर्थन किया जा सकता है,और न निरंकुशता का। हम दो महायुद्धों की विभीषिका देख चुके हैं,अतएव युद्धों से बचकर वार्ता के द्वारा ही समस्या-समाधान का प्रयत्न करना चाहिए। याद रहे कि युद्ध किसी समस्या का समाधान नहीं है,बल्कि वह अनेक नवीन समस्याओं जन्म देता है।अतएव युद्ध को न प्रथम न अंतिम विकल्प माना जा सकता है !
रचना पथिक के विचार से – “वर्तमान से लेकर भविष्य तक की सीख है न्याय के लिए लड़ना भी अगर मजबूरी हो, तो भी विनाश तो होता ही है, जिसे झेलना बहुत ही दुखदाई होता है तो हर हाल में अंतिम विकल्प समझौता शांति वार्ता और युद्ध विराम ही होना चाहिए l ”
जबकि राज प्रिया रानी के अनुसार -” शांति वार्ता एवं समझौता ही जनजीवन को दोबारा सुखद माहौल प्रदान कर सकता है। अन्यथा युद्ध के प्रकोप से आहिस्ता आहिस्ता समूल ही मानवता काल के गाल में समाहित हो जाएगा।” सच्चिदानंद किरण ने कहा कि -“मानवता के शिष्ठ संगत भावों में युद्ध अंतिम पड़ाव नहीं। शांति स्वरूप सद्भावना से ही कोई देश प्रगति व सम्प्रभुता की रक्षा में अग्रगण्य हो सकता है।विकसित देश बड़े पैमाने पर अतिसुक्ष्म शक्तिशाली परमाणु बम के उपकरण तैयार कर रहे हैं। ऐसे देश तो निश्चित रूप से युद्ध चाहेंगे ही। हमारा भारत देश एक ऐसा देश है जो शांति और अहिंसा का पक्षधर हैं जिसकी नजर में मानवीय संस्कार, संस्कृति व सभ्यता की सूची में युद्ध का कोई स्थान नहीं है। ”
इसके अतिरिक्त आराधना प्रसाद दुर्गेश मोहन, संतोष मालवीय, ज्योत्सना सक्सेना, बृजेंद्र मिश्रा, ललन सिंह, खुशबू मिश्र, डॉ सुनील कुमार उपाध्याय, अनिरुद्ध झा दिवाकर, बीना गुप्ता, स्वास्तिका, अभिषेक आदि की भी भागीदारी रही।
प्रस्तुति : ऋचा वर्मा ( सचिव ) / भारतीय युवा साहित्यकार परिषद) {मोबाइल: 9234760365 }
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