– डॉ. रंजना शर्मा
प्रीतम! बात-बात में कहते हैं
प्रिये! तुम्हारा जाता हुआ रूप भी लुभाता है
साठ के बाद भी षोडसी सी लगती हो।
सरसों के फूल सी कमर लचकाती हो
पलाश के फूल सी रिसियाती हो।
काली सफेद लटें मुख पर बिखराती हो
श्वेत बर्फ की परत पर पर्वत माला सी लगती हो।
अभी भी लाल गुलाब सी रौनक है
गले की खराश में जब गुनगनाती
थकित हुई, परंतु कोकिला सी लगती हो।
कोकिल कंठी का खिताब पाकर दिल भर आता है।
सच पूछो तो पुनः यौवन लौट आता है।
चाल पर, ढाल पर, हर हाल पर कविता बनाना
मुख पर लगे मास्क को अवगुंठन समझना।
हौले-हौले सीढ़ी चढ़ाकर छत पर घुमाना,
दोने में दबाकर जलेबी और बेड़यीं खिलाना
फाग जब आता है प्रीतम मिश्री घोल जाता है।