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आपका रसिया

(एक शायर की प्रेम कहानी)

(उपन्यास)

ओम प्रकाश राय यायावर’

आपका रसिया

कॉपीराइट  : ओम प्रकाश राय ‘यायावर’

पहला संस्करण : 2019

सहयोग राशि : 150 रुपये

ISBN : 978-93-87773-49-3

प्रकाशक

रश्मि प्रकाशन

204, सनशाइन अपार्टमेंट,

बी-3, बी-4, कृष्णा नगर, लखनऊ  -226023

इस पुस्तक के सर्वाधिकार सुरक्षित हैं। प्रकाशक/लेखक की लिखित अनुमति के बिना इसके किसी भी अंश की फोटोकॉपी एवं रिकॉर्डिंग सहित इलेक्ट्रॉनिक अथवा मशीनी, किसी भी माध्यम से अथवा ज्ञान के संग्रहा एवं

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पितातुल्य ब्रजमोहन सहाय को

(जिनकी प्रेरणा से मेरे लेखक जीवन का क, ख, ग प्रारंभ हुआ)

छोटी बहन ज्योति को

(निराशा के स्याह अनंत सागर में भटकते हुए जब कभी थककर बैठा तो तुम प्रकाश पुंज की तरह नज़र आयी)

लेखकीय

अपने आप से लड़ना दुनिया की सबसे बड़ी लड़ाई है और कई लोग ताज़िंदगी यह लड़ाई लड़ते रहते हैं, उन्हीं में से मैं भी एक हूँ। ऐसा नहीं कि ऐसे लोगों में प्रतिभा की कमी होती है बल्कि सच तो यह है कि ऐसे लोगों में प्रतिभा और महत्वाकांक्षा की अधिकता होती है, ऐसा भी नहीं कि ऐसे

लोग हमेशा जीवन में असफल ही होते हैं, अनुकूल परिस्थिति होने पर कई बार ऐसे लोग अपने कार्यक्षेत्र में शिखर पर भी होते हैं पर अमूमन ऐसे लोग निजी और व्यावहारिक ज़िंदगी में असफल ही माने जाते हैं। मैं ऐसी बात इस मौ़के पर क्यों कह रहा हूँ, जबकि मेरी नयी किताब आपके हाथों में है। दरअसल यह किताब इसी आत्मयुद्ध की बानगी है। ‘काशी टेल’ की सफलता से सराबोर मेरा मन हर बार इस द्वंद पर आ फँसा कि इस किताब को प्रकाशित होना चाहिए अथवा

नहीं… यह मेरी पुरानी रचना है, जिसे मैंने ‘काशी टेल’ से पहले लिखा था, तब यह कहानी अधूरे रूप में रह गयी थी और कई जगह मोटी और तार्किक त्रुटियाँ साफ़ तौर पर दिख रही थीं। मैंने इस रचना का पुनर्लेखन किया और कहानी का लगभग आधा हिस्सा नया लिखा। इस किताब के लिए मैंने इतना परिश्रम किया और समय दिया कि उतने में मैं कम से कम दो और नयी किताबें ज़रूर लिख सकता था लेकिन मामला दिल का था और मैंने यह किताब दिल से लिखा।

मेरी यह पुस्तक एक नये थीम पर, नये वातावरण में और नये ढंग से लिखी गयी है।

संक्षेप में यह एक ऐसी लड़की की कहानी है, जो आम लोगों से बिल्कुल जुदा और उलट सोचती है, जो अति महत्वाकांक्षी है और अकेले अपने दम पर समाज को बदल देना चाहती है, जो प्रेम संबंधों को लेकर हमेशा पशोपेश में रहती है, जो व्यक्ति से ज्यादा महत्वर्पूा उसके कार्य को समझती है,

लेकिन सर्वगुण संपन्न होने के बावजूद उसका व्यक्तित्व मानवीय अंतर्विरोधों से भरा पड़ा है। खै़र अगर किताब पसंद नहीं भी आये, तो आप इस अदना से लेखक की नादानी समझ माफ़ कर देंगे, अगर संयोग से पसंद आ जाए तो यह आपकी सहृदयता भी होगी, लेकिन हर सूरत में मुझे आपके

बहुमूल्य व बेबाक सुझाव और शिकायत का बेसब्री से इंतज़ार होगा…

वे तमाम लोग, जिन्होंने इस किताब को इस शक्ल तक पहुँचाने में प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष रूप से मददगार बने, उनका शुक्रिया : सबसे पहले वे ख़ास तीन लोग, जिनकी ग़ज़लों और शेरों-

शायरी  का  प्रयोग  मैंने  इस  किताब  में  किया  है-  अंशिका  शर्मा, चंद्रशेखर पांडेय और विनायक विद्यार्थी। मेरे ख़ास दोस्त- बृजेश सिंह, युवराज, संजीव, रौशन पांडेय, पंकज उपाध्याय, कीर्ति, दिव्या,   टूनटून  सिंह,  आशीष  जायसवाल,  पल्लवी  द्विवेदी,  निशांत  तिवारी,  नितेश सिंह सेंगर,

माधवी परमार, ब्रजभूषा यादव, रिपूंजय चौबे। मेरे शुभचिंतक और मार्गदर्शक-प्रो. विभा जोशी,

प्रो. याकूब यावर, प्रो. धीरेन्द्र राय, शैलेश मिश्रा, सुदिप्ता, मौर्या अरुण प्रताप, अश्विनी तिवारी, अंकित, अभिषेक पटेल, ऋतुराज, रमेश सिंह (संपादक, द पायनियर), विजय विनीत  (संपादक,

जनसंदेश टाइम्स), अनिमेष, चंदन तिवारी, चंद्रप्रकाश तिवारी, प्रशांत, देवेश, निधि सिंह, राहुल त्रिपाठी… आप सबके प्रति मैं दिल की गहराइयों से आभार व्यक्त करता हूँ।

  • ओम प्रकाश राय ‘यायावर’

आपका रसिया

1

उस साल गर्मी कुछ पहले ही दस्तक दे चुकी थी। मौसम का मिजाज अचानक से बेहद क्रूर और भयानक हो गया था। वृक्षों के पत्ते तक नहीं डोल रहे थे। प्रकृति का कण – कण बेजान और मृतप्राय जान पड़ता था। ऐसा लगता था, मानो पवन देव किसी बात पर रूठ कर पहाड़ के किसी खोह-कंदरे में छुप गये हों और उन्हें ढूँढ़ने के लिए लोग पहाड़ों की तरफ सरपट भागे जा रहे थे।

एक ऐसी ही उमस भरी बोझिल शाम थी, बरेली स्टेशन पर बड़ी भारी भीड़ लगी थी। चारों तरफ कोलाहल मचा हुआ था। इस भीड़ में नैनीताल से लौटने और पहाड़ों की तरफ जाने वालों की संख्या सबसे ज्यादा थी। जो पहाड़ों से लौट रहे थे, उनका दिमाग ताल-तलैया और हिल स्टेशनों की मलयजी शीतलता से सराबोर था। जो जाने के लिए बेचैन थे,  उनके  नयनों में सूरमई नयन सदृश्य  चिरयौवना  नैनी  झील  का कल्पना-चित्र तैर रहा था।

बरेली और काठगोदाम के बीच कई स्पेशल ट्रेनें चलायी गयी थीं। बावजूद नये लोगों का हुजूम हर घंटे उमड़ पड़ता। पर्यटकों का रेला थमने का नाम नहीं ले रहा था।

यह कहानी इसी बरेली स्टेशन के प्लेटफार्म  नम्बर  एक  से  शुरू  होती  है। 

रात के तकरीबन नौ बज रहे थे और एक युवक, जो इस शहर के लिए अनजान था, बुक स्टॉल पर खड़े हो दुकानवाले से बातें कर रहा था। दोनों एक-दूसरे से मिल विस्मित और आश्चर्यचकित थे, कारण दोनों का किताबों से अद्भुत लगाव था। देखने में दुबला-पतला और साधारण कद-काठी का किसलय बातों से बहुत सयाना था। काफी देर तक कई पुस्तकों पर चर्चा करने के बाद किसलय ने एक पुस्तक खरीदा और बातों को समेटते हुए कहा, ‘‘मुझे पहली बार कोई ऐसा मिला, जो पुस्तकों के साथ रहकर

पुस्तकों से प्यार करता हो। मैं आपको कभी भूल नहीं पाऊँगा। आपके अध्ययन की गहराई और साहित्य के प्रति निष्ठा ने मुझे रोमांचित कर दिया है। एक खास बात और मैंने देखी- कई ग्राहक सिर्फ किताबें उलट-पलट कर चले गये, जिसने जो माँगा सो दिखाते रहे, पर आपने जरा-भी झुंझलाहट प्रकट न की। शांतचित आप अपने कार्यों में लगे रहे। इससे ये साबित होता है कि आप से बढ़कर कोई व्यापार का तजुर्बेकार भी

नहीं हो सकता। आपका ग्राहकों से बर्ताव बेहद सराहनीय है।’’

प्रत्युत्तर में दुकानदार ने कहा, ‘‘और आपको भी भुलाया नहीं जा सकता। इतनी कम उम्र में इतना व्यापक अध्ययन। साहित्य की इतनी अच्छी समझ और इतनी मोहक

बात करने की कला। आज अरसे बाद मुझे भी महसूस हुआ कि नहीं आजकल के छोरे भी पुस्तकों से लगाव रखते हैं। मुझे तो ऐसा लगता था कि अब ये धंधा कुछ ही

वर्षों में चौपट होने वाला है। इलेक्ट्रॉनिक्स और आभासी दुनिया ने पुस्तकों का दम घोट दिया है, पर आपसे मिल के कुछ  अलग लगा।’’

‘‘खैर, अब हम आपसे आज्ञा चाहेंगे। वैसे दिल तो चाहता है कि आपसे अनवरत

बातें करता रहूँ, पर मेरी ट्रेन आ रही है। जिन्दगी रही, तो दोबारा मिलेंगे।’’ किसलय ने जल्दबाजी में कहा। सामने ही ट्रेन आ लगी थी, पलभर में किसलय ने अपना सामान उठाया और ट्रेन की तरफ चल पड़ा। एक-दो डिब्बे देखने के बाद तुरंत एक खाली सीट की तरफ बढ़ा। कम्पार्टमेंट आधा-अधूरा भरा था। उसे यह देखकर ताज्जुब हुआ कि स्टेशन पर भीड़ के बावजूद टे्रन खाली-सी है, भारतीय रेल का साधारा कम्पार्टमेंट

बेचारा। खिड़की के पास वाली सीट मिल गयी थी। मई का महीना था। गर्मी अपने शबाब पर थी। किसलय ट्रेन में बैठने से पहले अक्सर दिशा का बहुत ख्याल रखता

था। ट्रेन जिधर जाती, उसके विपरीत दिशा वाली सीट पर ही बैठता था, ताकि स्वच्छ हवा मिल सके। यात्रा के अनुभवों के मामले में वह बेजोड़ था। वह जिस सीट पर

बैठा था, वह सिंगल सीट थी। सामने की सीट अब तक खाली थी। उसकी बायीं तरफ दोनों लम्बी सीटों पर कुल मिलाकर चार-पाँच लोग ही थे। ट्रेन को रुके बीस मिनट से

ज्यादा हो चुका था। किसलय ने अपना सामान अच्छे से रखा, पानी पीया और सीट पर बैठ,  सामने के सीट पर पाँव फैला अपने आपको सहज करने लगा। दिनभर की थकान को उसने कुछ कम करना चाहा।

बहरहाल, सामने की सीट पर एक नेताजी आकर विराजमान हो गये। अचानक से उसके दिमाग में एक बात बिजली की तरह आयी- काश ! कोई खूबसूरत चेहरा इस यात्रा में आँखों के सामने होता, तो बहुत मजा आता। जैसा कि स्वभाविक है, सभी ऐसा पसंद करते हैं और किसलय तो उम्र के उस पड़ाव पर था, जहाँ ऐसी कल्पना अक्सर जेहन में घर करती है।

खैर, सामने बैठे नेताजी से किसी मसले पर बातें शुरू हो गयीं। बहुत मजेदार बातें थीं, इर्द – गिर्द के लोग भी चाव से सुन रहे थे। भारतीय रेल हो और राजनीति की बातें न हो, यह तो असंभव है। यही तो एक मुद्दा है, जिसे सभी मनोरंजन के रूप में लेते हैं। राजनीति पर चर्चे से बढ़कर कोई मनोरंजन नहीं और नेताओं से बढ़कर कोई जोकर नहीं। जनाब, ऐसे मौकों पर ऐसी-ऐसी रणनीतियाँ और राजनीति के दाँव-पेंच जानने को मिलेंगे कि सोचना पड़ता है कि अगर आज चाणक्य और भीष्म होते, तो उन्हें अपने अल्पज्ञान पर तरस आती। राजनीति से संबंधित ऐसी-ऐसी गुप्त जानकारियाँ प्रकट होती हैं, जिसे दुनिया की कोई खुफिया तो क्या, जुलियन अंसाजे भी नहीं बता सकते।

विचार-विमर्श अब अपने लय में आ चुका था। इधर गाड़ी भी अब खुलने ही वाली थी। लगातार हॉर्न बज रहे थे, तभी एक परिवार वहाँ पधारा और किसलय के बायें वाली दोनों सीटों पर कुछ  जल्दबाजी में आसन ग्रहण किया। कुल चार लोग थे। देखने – से ऐसा जान पड़ा जैसे पति-पत्नी और बच्चे हों। पति – पत्नी अधेड़ उम्र के थे।

लड़के की उम्र बारह के आस-पास थी और लड़की अट्ठारह की थी। लड़की आते ही सीट पर सो गयी और उस सीट पर जो दो लोग थे, उन्हें दूसरी सीट पर बिठा दिया गया, चूँकि ट्रेन में भीड़ तो थी नहीं। इधर किसलय और नेताजी के बीच में तर्क-वितर्क बढ़ता जा रहा था। बात राजनीति से शुरू हुई थी, पर अब उसकी परिधि में वेद-शास्त्र, शिक्षा और तमाम कई तरह की बातें शामिल हो गयी थीं। यात्रियों में से कुछ  नेताजी की तरफ हो गये और अधिकांश किसलय की तरफ। सभी मजे ले रहे थे। मुफ्त का मनोरंजन मिल जाए, इससे बेहतर क्या हो सकता है ? ट्रेन लगभग प्रत्येक पन्द्रह – बीस मिनट पर  रुकती जा रही थी। किसलय ने जानना चाहा कि ऐसा क्यों हो रहा है ? तो पता चला कि यह तो पैसेंजर ट्रेन है, ऐसे ही चलती है। अब जाकर किसलय को पता चला कि वह गलत ट्रेन में चढ़ गया है। वह एक्सप्रेस की जगह सवारी गाड़ी पर चढ़ चुका था। उसे रेलवे की लापरवाही पर बहुत गुस्सा आया। घोषणा करते हैं कि एक्सप्रेस आ रही है और आ गयी सवारी गाड़ी, क्या बेहूदगी है ? भगवान भरोसे गाड़ियाँ चल रही हैं। कहीं इतना बड़ा धोखा होता है। प्लेटफार्म नम्बर तो यही घोषणा किया जा रहा था और ये धोखा सिर्फ किसलय के साथ ही नहीं हुआ था, बल्कि कई और लोगों के साथ भी  हुआ था। सामने जो फैमिली बैठी थी, उसके साथ भी ऐसा ही हुआ था। वे लोग भी गलतफहमी में एक्सप्रेस का टिकट ले सवारी गाड़ी पर चढ़ गये थे। बातचीत से मालूम हुआ, उस

परिवार के सबसे बड़े सदस्य का नाम महेश कुमार है और वे लखनऊ में शिक्षक हैं।

महेश बाबू बेहद मिलनसार व्यक्ति थे। सो, थोड़े ही समय में किसलय और महेश बाबू आपस में खुलकर बातें करने लगे। रात के बारह बजने वाले थे और नेताजी का भाषण

लम्बा  होता  जा  रहा  था।  साथ  ही  किसलय  के  तर्करूपी तीर से नेताजी रह-रहकर लहूलुहान हो रहे थे। ऐसे में महेश बाबू कभी नेता जी को सहारा देते, तो कभी किसलय

 की तरफ से बोलते। अचानक एक झटके में सोयी हुई लड़की उठकर बैठ गयी, पालथी मार लिया और अपने अस्त – व्यस्त बालों को ठीक करने लगी । किसलय की नजर यकायक जब सामने पड़ी, तो आँखें उस पर टिक गयीं, बिल्कुल चेतना-शून्य।

क्या लड़की थी ! दिलकश चेहरा था। एक ऐसा चेहरा, जो वर्षों तक भुलाया नहीं जा सकता था- अनुपम। वह, गेहुँए रंग की रूपसी, चौकोर मुखड़ा, चौड़ा ललाट और चेहरे पर खूबसूरत तिल। सच कहा जाए, तो ऐसा चेहरा किसलय ने अब तक कहीं नहीं देखा था। अगर आज वह जज की भूमिका में होता, तो मिसवर्ल्ड या मिस यूनिवर्स का खिताब उस देवी के चरणों  में होता। सुंदरता चेहरे में होती है कि देखने वालों की आँखों में, ये तय करना मुश्किल था उस वक़्त। अक्सर सोकर जगने पर हमारा चेहरा और खिल जाता है। मासूमियत नूर बनकर चेहरे से टपकने लगती है। कल्पना कीजिए, आपके सामने कोई स्वप्नसुंदरी हो और वह आपको गौर से सुन रही हो तो क्या मंजर होगा ? दिल में एक साथ इतने ख्वाब और ख्याल उमड़ रहे थे कि दिमाग ने सोचना बंद कर दिया और जुबान पर ताले लग चुके थे। खैर, किसी तरह उसने अपने आपको संतुलित किया, पर उसे अब भी बोलने से डर लग रहा था, कि कहीं कुछ मुँह से ऐसा- वैसा या सच्ची बात न निकल जाये। वह अपनी बातों से इस खिले हुए चेहरे को मुर्झाना

नहीं चाहता था। क्या मालूम कौन – सी बात उसे अच्छी न लगे। किसलय ने एक बार किसी तरह नजरें हटाई और फिर दूसरी बार जब उनकी तरफ देखा, तो क्या गजब के आत्मविश्वास का संचार हुआ।

नेता जी अब धार्मिक विषयों पर अपने मत रख रहे थे। मत क्या थे, वही सनातन धर्म के प्रति बेरूखी। किसलय बारी – बारी से उनकी एक – एक बातों के जवाब में मोटे – मोटे  प्रसंगों के माध्यम से अपने विचार रख रहा था। एक बार तो उस देवी ने भी जबरदस्त तरीके से किसलय की बात का समर्थन किया। खैर, महेश बाबू ने कुछ खामोशी से मसले को सुलझाया। अब तक तो सिर्फ चेहरा देखा था किसलय ने, पर

अब जाके गले की तासीर भी प्रकट हुई। आवाज में मक्खन जैसी मुलायमियत और शहद जैसी मिठास छन रही थी। थोड़ा – बहुत किसलय ने उसकी भावनाओं को भी समझा पर आंतरिक सुन्दरता से अब भी वाकिफ न था।

रात के एक बज रहे थे। अधिकांश लोग सोने लगे थे, नेताजी भी बैठे-बैठे ही ऊँघने लगे थे। महेश बाबू की पत्नी शांति देवी ने कहा – ‘‘काव्या खाना निकालो ! बहुत देर हो चुकी है।’’ काव्या ! क्या खूबसूरत और दिव्य नाम है… किसलय ने मन ही मन कहा। दो झोले खाने की सामग्री से भरे हुए थे, पूड़ी, हलवा, भुजिया, आचार, दही और गुलाब – जामुन, विधिवत खाने का प्रबंध था।

महेश बाबू ने किसलय से खाने के लिए पूछा, पर उसने ना कह दिया। पूछना एक बात होती है और खिलाना दूसरी बात। सो किसलय ने इसे महज औपचारिकता भर समझा। लेकिन शांति देवी ने जोर दिया कि खाना बहुत ज्यादा है, आप भी खा लीजिए।

और तो और जब काव्या ने भी आग्रह किया, तो किसलय उनके संग खाने लगा। सबसे अंत में दही और गुलाब – जामुन का दौर चला। महेश बाबू ने नेताजी को भी जगाकर खाना खिलाया। खाने का दौर घंटे भर तक चला, उसके बाद सब लोग सोने का टंट – घंट करने लगे। महेश बाबू ऊपर वाली सीट पर सोने के लिए चले गये। उनका पुत्र कमल, ऊपर वाली दूसरी सीट पर सो रहा था। काव्या और शांति देवी दोनों एक ही सीट पर थीं। काव्या खिड़की के पास बैठ चुकी थी और शांति देवी शेष सीट पर सोने लगी थीं। उनका सिर काव्या की ओर तथा पैर दूसरी तरफ था।

किसलय खाना खाने के वक़्त काव्या के विपरीत वाली सीट पर आकर बैठ गया था और अब तक वहीं था। उसकी इच्छा हो रही थी कि मोहतरमा से कुछ बातें हो जातीं, तो यात्रा सफल हो जाती। जानबूझकर उसने जगह बनायी और काव्या के सामने खिड़की के पास बैठ गया। काव्या को कोई ऐतराज न था, ऐसा जान पड़ा। अब उसने बहुत साहस करके काव्या से पूछा, ‘‘अगर आपका इरादा सोने का न हो, तो क्या हम बात कर सकते हैं ?’’

‘‘हाँ, हाँ, बिल्कुल मुझे कोई ऐतराज नहीं।’’ काव्या ने प्रत्युत्तर में कहा। उसके चेहरे पर एक अजीब-सी मुस्कान की रेखा दौड़ पड़ी।

दोनों आमने – सामने बैठ गये थे, ऊपर लोग सो रहे थे। हवा के झोंके से काव्या के बाल उसके चेहरे पर बार-बार आ रहे थे। ऐसा लगता था, मानो काली घटाएं रह-रहकर पूर्ण चंद्र को आच्छादित कर रही हों। किसलय ने गौर से देखा – क्या फूल-सा चेहरा था ! पास से देखो अथवा दूर से आकर्षण ज़रा भी कम नहीं होता। सादगी तो जैसे अंग-प्रत्यंग से झलक रही थी। कोई मेकअप नहीं, कोई शृंगार नहीं, कोई आभूषण नहीं,

चेहरे की मासूमियत मानो बचपन की ईमानदारी। कुछ देर तक वह अपलक निहारता रहा, जब तंद्रा भंग हुई, तो कुछ झेंप-सा गया।

‘‘हाँ, तो आप कुछ  कह रहे थे।’’- काव्या ने कहा।

‘‘हाँ, मैं कुछ कह रहा था… क्या कह रहा था ? लगता है भूल गया।’’

‘‘भूल गये, कैसे ? अभी तो आप इतना अच्छा आख्यान दे रहे थे, नेताजी के साथ। मैं तो भाव-विभोर हो रही थी, आपको सुनकर। विद्वान शब्द बस सुन रखा था, आज साक्षात रू-ब-रू हुई। विद्वता क्या होती है, यह महसूस किया।’’ काव्या ने संजीदगी से कहा।

‘‘रहने  भी  दीजिए,  लज्जित क्यों कर रही  हैं,  वो तो ऐसे  ही बोले जा रहा  था।’’ किसलय ने शर्माते हुए कहा।

‘‘आपको विश्वास नहीं होगा, मुझे आपको सुनने में बहुत मजा आया।’’ काव्या ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘ओ हो, शुक्रिया ! ये तो आपका बड़प्पन है। वैसे आपका नाम बेहद खूबसूरत है।’’

‘‘और मैं…..?’’ उसने खिल-खिलाकर हँसते हुए पूछा।

किसलय लघु क्षण के लिए स्तब्ध रह गया। अब इसका जवाब देने का मतलब वह जानता था, इसलिए अपने आप को सम्भालते हुए कहा, ‘‘आपकी तारीफ में तो कुछ कहते हुए भी डर लगता है।’’

‘‘ऐसा क्यों ?’’ उसने अपनी पलकों को जल्दी-जल्दी तीन बार झपकाया।

‘‘ऐसा इसलिए कि अगर तारीफ कुछ कम हो जाये, तो पाप लगेगा। क्योंकि अभी- अभी आप लोगों का नमक खाया है…. और तारीफ कुछ ज्यादा हो जाए, तो वैसे भी खैर नहीं।’’

‘‘मुझे भी अपना नाम अच्छा लगता है। मुझे अपने नाम से बेहद प्यार है।’’ काव्या ने मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘हाँ, हाँ, आपका नाम तो अच्छा है ही, उससे भी बढ़कर आपका व्यक्तित्व है।’’ ‘‘बहुत – बहुत शुक्रिया, जो आपको मेरा नाम अच्छा लगा।’’

‘‘लेकिन बहुत कम ऐसा होता है, जब लोगों को अपना नाम अच्छा लगे।’’ किसलय ने कहा। ट्रेन ने जोर से हार्न दिया और एकाएक गति बहुत तेज हो गयी। दोनों चुप हो खिड़की से बाहर देखते रहे। चाँदनी रात थी और अत्यन्त ही मनमोहक दृश्य उभर रहा था।

‘‘वैसे आप आजकल क्या कर रही है ?’’ मैंने पिछले साल इन्जीनियरिंग का एंट्रेंस क्वालीफाई किया था। मुझे सरकारी कालेज मिल रहा था, पर मेरा मन वहाँ जाने को

नही था। इसलिए B. Sc. में एडमिशन ले लिया। ये मेरा दूसरा साल है, पर आप किस क्लास में पढ़ते है ?’’ काव्या ने पूछा ।

‘‘मैंने ग्रेजुएशन कर लिया है,  अब जनरल कम्पटीशन  की तैयारी में लगा हूँ।’’ किसलय ने मन ही मन उम्र का अंदाजा लगाया। ज्यादा से ज्यादा अट्ठारह की होगी, पर देखने से तो जैसे सोलह साल की लगती है।

‘‘अच्छा ही किया, जो दिल को भाए वही करना चाहिए।’’ उसने किसलय की बात का समर्थन करते हुए कहा।

महेश बाबू इतनी ही देर में गहरी नींद में सो गये थे….. उनकी नाक बज रही थी। रात की नीरवता को रह-रहकर ट्रेन की आवाज तोड़ती ।

‘‘देखिएगा, मैं कुछ  ज्यादा बातूनी किस्म का इंसान हूँ। जब नींद आने लगे, तो बता दीजिएगा।  वर्ना मैं रातभर आपको  बक-बक  सुनाता रहूँगा  और  आप  परेशान हो जाएंगी।’’

‘‘अरे, नहीं-नहीं, आप ऐसा क्यों सोच रहे हैं ? ये तो मेरा सौभाग्य है, जो आप जैसे गुणी व्यक्ति से मुलाकात हुई।’’ ‘‘आप रहती कहाँ हैं?’’

‘‘लखनऊ में, वैसे मेरा घर देवल है।’’

बातचीत से पता चला, महेश बाबू काव्या के मामा हैं और वह उन्हीं के पास रहकर पढ़ाई करती है।

‘‘आप लोग इधर आ कहाँ से रहे हैं?’’

‘‘नैनीताल से।’’

‘‘मैं भी तो नैनीताल से आ रहा हूँ ओह काश कि…।’’

‘‘काश क्या- चुप क्यों हो गये, आधे पर छोड़कर।’’

‘‘बस कुछ नहीं……. कुछ ज्यादा बोल गया।’’

‘‘आप नैनीताल क्या करने गये थे ? कोई परीक्षा थी ?’’

‘‘नहीं, बस घूमने का इरादा हुआ, बैग संभाला और चल पड़ा, फिर तो रानीखेत भी हो आया।’’

‘‘वाह! बहुत आनन्द आया होगा… क्या असीम शांति और नीरवता   छायी रहती है रानीखेत में।’’

‘‘क्या आप वहाँ गयी हैं ?’’

‘‘हाँ, मैं तो लगभग पूरा उत्तराखंड घूम चुकी हूँ। मामा जी घूमने के बेहद शौकीन हैं और शिक्षा विभाग में  छुट्टी की  कोई  कमी  तो  है  नहीं।  मुझे  भी  घूमने  का  बहुत शौक है।’’

‘‘मैं तो यायावर हूँ इस मामले में।’’ किसलय ने उत्तेजित होते हुए कहा।

‘‘तभी तो इतना ज्ञान अर्जित किया है आपने।’’ काव्या ने आँखों को नचाते हुए जब कहा, तो किसलय का दिल तेजी से धड़कने लगा।

‘‘नैनीताल में आपलोग कहाँ ठहरे थे और कितने दिन बिताये ?’’ किसलय ने पूछा ।

‘‘हमलोग एक सरकारी गेस्ट हाउस में ठहरे थे और कुल मिलाकर पाँच दिन नैनीताल में बिताये पर दिल अभी भी वहाँ से आने को नहीं कर रहा था।’’

किसलय ने मन ही मन गाना की, उस दिन तो मैं भी नैनीताल में ही था, जब ये लोग आये होंगे।

‘‘आप कहाँ ठहरे थे ?’’ काव्या ने यकायक प्रश्न किया।

प्रश्न सुनकर किसलय कुछ  झेंप गया, वह कैसे कहे कि गु द्वारे में ठहरा था, पर बात को संभाल लिया और कहा, ‘‘एक साधारण मगर पवित्र आशियाना था।’’

‘‘इसके मायने ?’’

‘‘इसके मायने तो कुछ  नहीं। यायावर भला एक जगह कहाँ टिक सकते हैं, जहाँ ठिकाने मिल जाये, वहीं ठहर जाते हैं।’’

‘‘अकेले घूमते हुए आप बोर नहीं होते?’’ काव्या ने आँखों के पास झूलते बालों को कान के पीछे  व्यवस्थित करते हुए पूछा।

‘‘अब तो आदत-सी हो गयी है और मैं अकेले कहाँ होता हूँ, प्रकृति भी तो अपने रंग में रंगी मेरे संग होती है।’’

‘‘सही कहते हैं, प्रकृति से बढ़कर कोई दोस्त नहीं है।’’ काव्या ने सिर हिलाते हुए समर्थन किया।

‘‘आपकी हॉबी क्या है ?’’ किसलय ने तत्क्षण प्रश्न किया।

‘‘किताबें पढ़ना, कविता लिखना,  सैर-सपाटा और बास्केट बॉल खेलना।’’

‘‘इसका मतलब मैं एक कवयित्री के साथ यात्रा कर रहा हूँ ?’’

‘‘नहीं,  मैं  एक विद्वान  के साथ यात्रा  कर रही  हूँ ।’’  दोनों  इस  बात पर जोर  से हँस पड़े।

कुछ देर  बाद  किसलय  ने  कहा,  ‘‘जरा  धीरे  बोलिए,  लोग सो रहे हैं,  उन्हें परेशानी होगी।’’

किसलय सोचता है, काश ! आज की रात खत्म न होती, जिंदगी इसी ट्रेन के डिब्बे में सिमट जाती, वक्त कुछ  आराम कर लेता। उसने मूल्यांकन किया, तो पाया कि इससे खूबसूरत और हसीन रात उसकी जिंदगी में इससे पहले कभी न आयी थी। सुंदरता और व्यावहारिकता का ऐसा अद्भुत समागम शायद बहुत संयोग से दिखता है। बहुत कम समय में किसलय ने काव्या के कई गुणों को परख लिया। वह व्यवहारकुशल, मृदुभाषी और बड़े ही सौम्य स्वभाव की थी।

‘‘आपको कविता का शौक कब से है ?’’ किसलय के प्रश्न ने खामोशी तोड़ा।

‘‘जब मैं आठवीं में थी, तो मैंने पहली बार कविता लिखने की कोशिश की थी।’’ काव्या ने कहा।

‘‘अरे वाह ! क्या खूब तो देर किस बात की, मैं कविता का प्रेमी हूँ, अपने आप को रोकना मुश्किल हो रहा है, हो सके तो अपनी लिखी कोई एक रचना सुनाइए बहुत मेहरबानी होगी।’’

काव्या ने बगैर भाव खाए एक कविता सुनाना शुरू किया-

ये नीम की पीपल की घनी छांव, छोड़कर,

किस ठौर जा रहे हो, अपना गाँव छोड़कर।

ये काग, ये कोयल, ये आम, शमी, ये गुलर,

आये हैं मनाने तुम्हें, सब काम छोड़कर।

देवी से मंदिरों की नदियाँ करें शिकायत,

सौ बार किया मिन्नत दो हाथ जोड़कर।

रो-रो के पानी नहरों का भी हो गया खारा,

मरते हैं मजुरे भी खलिहान  छोड़कर।

माना कि रौनकें हैं प्यारी शहर की लेकिन,

कोई जाता है क्या ऐसे घर – बार  छोड़कर।

‘‘वाह, गजब, लाजवाब क्या उम्दा रचना है,’’ किसलय का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा, ‘‘पर एक बात मैं समझ नहीं पाया, आप तो शहर में रहती है फिर गाँव के बारे में इतना सूक्ष्म अवलोकन, ये कैसे ?’’

‘‘मैं अक्सर छुट्टियों में गाँव जाती रहती हूँ नानी के यहाँ ….मुझे गाँव बहुत पसन्द हैं और काफी समय मैंने गाँवों में गुजारा है। आपने मेरा तो पूछ लिया, पर अपना शौक नहीं बताया।’’

‘‘बताया तो था। यायावरी का शौक है और साहित्य पढ़ने का।’’

‘‘तब तो आप भी कुछ  न कुछ जरूर लिखते होंगे ?’’

‘‘मैं भी कभी-कभार कविता लिख लेता हूँ।’’

‘‘अरे, मुझे तो मालूम ही नहीं था कि आप भी कविता लिखते हैं, तो फिर आप भी कुछ सुनाइए ।’’ काव्या ने हैरान होते हुए कहा।

‘‘मैं क्या सुनाऊँगा ? आपने ऐसी उच्च कोटी की कविता सुना दी कि मेरी हिम्मत ही नहीं होती कुछ   सुनाने की।’’

‘‘अब बात मत बनाइए चुपचाप सुनाइए। मैं तो बहुत विकल हो रही आपको सुनने के लिए।’’

किसलय ने काव्या के बार-बार अनुरोध करने पर एक गज़ल सुनाया।

नजर के सामने खाली गिलास रहने दो,

हमारे जिस्म पर थोड़े लिबास रहने दो।

तल्खियां रिश्तों की गहराई नापने लगीं,

आँखों के पानी में कुछ प्यास रहने दो।

मफासत दिलों की गर कम करनी हो,

शहद घोलो रिश्तों में मिठास रहने दो।

गर कोई गैर कभी अपनापन बाँट दे,

उस अजनबी को थोड़ा खास रहने दो।

जज्बातों को यूं बयां नहीं करते कभी,

दिल में मेरे भी कुछ एहसास रहने दो।

‘‘कितना बढ़िया चित्रण किया है आपने, वाह ! कमाल है ! आप कितना दूर तक सोच लेते हैं। लेकिन संयोग की बात है हम दोनो की पसंद काफी मिलती – जुलती है ।’’

दोनों चुप थे। काव्या ने पानी की बॉटल निकाला और पानी पीने लगी। वापस बॉटल जब सीट के नीचे रख रही थी, तभी कुछ  याद आया। उसने बॉटल किसलय की तरफ बढ़ाया, ‘‘.. पानी पीजिएगा..?’’

किसलय के पास भी पानी की बॉटल थी, पर इतने प्यार से कोई कुछ कह दे और खासकर, वह भी एक खूबसूरत लड़की, तो इन्कार करना बहुत मुश्किल हो जाता है। उसके मन में अचानक से एक भाव आया।

छोड़ दे साथ कोई ऐसा हमसफर न हो

मोहब्बत हो, मगर जमाने को खबर न हो।

पानी की तलाश कहाँ तक ले जाएगी

तुम गर मिलो, तो प्यास उम्र भर न हो।

पर प्रत्यक्ष में वह ऐसा कह न सका।

‘‘आपने आगे करियर के बारे में क्या सोचा है… आपको ऐक्टिंग करना कैसा लगता है ?’’ किसलय ने पूछा ।

‘‘अच्छा लगता है… पर करियर के लिहाज से नहीं, बल्कि आत्मसंतुष्टि के लिए।’’

 ‘‘लेकिन आपकी पर्सनाल्टी को देखते हुए यह क्षेत्र भी अच्छा  था।’’

‘‘मुझे ग्लैमर से बहुत घबराहट होती है। और वैसे भी कैरियर के बारे में बहुत कुछ निर्णय नहीं कर पायी हूँ। क्या करना है सोच नहीं पाती, लेकिन समाज सेवा का खूब शौक है।’’

‘‘फिल्मों और किताबों से प्रभावित होकर या सच में ?’’

‘‘नहीं, किसी से प्रभावित होकर नहीं, अलबत्ता अंत: प्रेरणा से।’’ ‘‘आपको फिल्में देखना कैसा लगता है?’’

‘‘ठीक लगता है।’’

‘‘आपके फेवरेट ऐक्टर्स कौन हैं?’’ उसने शरमाते हुए पूछा ।

‘‘नये में तो सब  ठीक-ठाक  ही  हैं,  पर पुराने ऐक्टरों  में  मनोज कुमार मुझे बहुत पसंद हैं।’’

‘‘आपकी सोच के हिसाब से वही आपके फेवरेट हो सकते हैं।’’

‘‘अरे, इसमें सोच का पसंद से क्या संबंध है?’’

‘‘संबंध है न,  आपका राष्ट्रवाद,  देशप्रेम  और  भारतीय संस्कृति का इतना पैरोकार होना।’’

‘‘क्यों आप राष्ट्रवादी और देशप्रेमी नहीं है ?’’ ‘‘राष्ट्रवादी तो नहीं, पर देशप्रेमी हूँ।’’

काव्या कुछ देर चुप रही।

‘‘क्या आप फेसबुक और सोशल साइट्स पर ऐक्टिव हैं ?’’

‘‘नहीं, फिलहाल तो नहीं… पर अब जमाने के हिसाब से चलना ही पड़ेगा     बहुत जल्द जुड़ जाऊँगी। अभी तो मेरे पास अपना मोबाइल भी नहीं। कुछ दिन पहले गुम हो गयी। सिम बन्द करानी पड़ी। मुझे बहुत ज्यादा इन सब चीजों की जरूरत भी नहीं पड़ती और इस कारा समय की बचत भी होती है। और उस समय का सदुपयोग मैं अपनी हॉबी में करती हूँ।’’

किसलय  ने  अपने  आप  से  कहा,  विचित्र  लड़की  है,  पता नहीं किस दुनिया में रहती है ?

‘‘तो फिर आपसे संपर्क बनाये रखना बहुत मुश्किल होगा ?’’

‘‘ईश्वर चाहेंगे, तो मुलाकात हो ही जाएगी… आप चाहे तो मामा का नं. ले सकते हैं मेरे पास तो अभी है नहीं, वरना मुझे कोई आपत्ति नहीं थी।’’

ठीक मेरी तरह सोच रखती है ये तो, लेकिन दिमाग से थोड़ा-बहुत पैदल नहीं लग रही ? किसलय ने अंदर ही अंदर अपने आप से संवाद किया। ऐसा लगा मानो उसने सुन लिया हो।

‘‘आपने कुछ  कहा ?’’ काव्या ने पूछा ।

‘‘नहीं। क्यों, आपको कुछ सुनाई पड़ा क्या ?’’ दोनो हँस पड़े।

काव्या को अब जम्हाई आने लगी थी। किसलय को लगा की वह सोना चाहती है, इसलिए सोचा कि जो पूछ  ना हो पूछ ही लें, फिर पता नहीं मौका मिले या नहीं।

बातों का दौर यूँ ही जारी रहा, दोनों एक-दूसरे को अच्छी तरह समझ गये थे। पर दिल था कि कुछ और हो जाए, किये जा रहा था।

सुबह चार बजे काव्या झपकी लेने लगी, तो किसलय भी एक तरफ खामोश हो रूप का रसपान करने लगा, ख्वाबों के झालर बुनते-बुनते…

इसी बीच अचानक से महेश बाबू की आवाज उभरी, ‘‘आप अभी तक सोये नहीं ? आइए ऊपर सो जाइए।’’ वह खुद नीचे आ गये और किसलय को ऊपर सोने के लिए भेज दिया।

सुबह सात बजे किसलय जगा, तो गाड़ी लखनऊ स्टेशन पर पहुँच चुकी थी।

महेश बाबू और काव्या सामान संभाल रहे थे। किसलय ने भी उनकी मदद की, सभी लोग स्टेशन से बाहर आ गये। किसलय भी बाहर तक  छोड़ने गया। महेश बाबू ने सारा सामान एक टैक्सी में रखा और फिर किसलय से जाने की इजाजत ली। टैक्सी चल पड़ी, पर किसलय के पाँव वहीं जम गये, वह बहुत देर तक रास्ता निहारता रहा। जब

भावनाओं से बाहर निकला, तो ऐसा लगा मानो एक हसीन स्वप्न के बाद नींद खुली हो और सारा का सारा स्वप्न याद रह गया हो। दिल तो यही कह रहा था कि यहीं बैठ उनका इंतजार करें, अगर वो आ जाते तो ठीक था। वरना इस इंतजार की खुमारी में उम्र गुजार देते। तब तक पटना – कोटा एक्सप्रेस की घोषणा होने लगी, किसलय ने घोषणा पर ध्यान  दिया और फिर निस्तेज हो प्लेटफार्म की तरफ ऐसे बढ़ा  मानो मणि विहीन नाग।

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