– राज प्रिया रानी
सूजी हुई आंखें, थके मिज़ाज लिए बहादुर अपने घर की ओर मुड़ा ही था कि एक कड़कती आवाज पर ठिठक गया।
रात भर का संघर्ष और सुबह नींद की झपकी मानवीय संवेदना को सहज प्रदर्शित कर रहा था। अचानक थापा का मुख्य अधिकारी से आमना सामना एक संयोग था।
“थापा, मुंह छुपाए कहां भागे जा रहे हो ?”
बड़े ओहदे पर आसीन अधिकारियों को धमकी देने का लाइसेंस मिल जाता है।
“घर जा रहा हूं साब …” लड़खड़ाती जुबां से बहादुर बोला।
“निष्कासित कर दूंगा, हाथ मलते रह जाओगे …” भेदते शब्द निकले अधिकारी के, जो भावनाओं को छलनी कर दें।
“सैल्यूट मारना भूल गया क्या? ड्यूटी के नाम पर फाकींबाजी करते हो। एक टाइम ड्यूटी पर इतना घमंड …!” गरजते हुए अधिकारी बोला।
बहादुर ने सैल्यूट मारते हुए माफी मांगी, फिर कुछ कहना चाह रहा था कि अधिकारी वहाँ ठहरना अपनी इज्जत के खिलाफ समझा और केबिन की तरफ मुड़ गया।
वह केबिन पहुंचते ही वहां का नजारा देख आगबबूला हो गया। बिखरे दस्तावेज के विषय में जानकर ही पता चला रात को बहादुर की बहादुरी का कारनामा, जिसे सारे अधिकारी को गर्व से सलाम करने का जी चाह रहा था। बिपिन ने कहा, “साब, कल रात थापा अनजान शख्स के हाथ से सारे दस्तावेज छीनने में कामयाब हुआ, लेकिन खुद चोट का शिकार हो गया।”
अब मुख्य अधिकारी को एहसास हुआ कि कर्म से बड़ा कोई ओहदा नहीं होता!