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– डॉ. मेहता नगेन्द्र

तीन साल बाद विश्वविद्यालय में दीक्षान्त-समारोह का आयोजन आहुत हुआ था। उपाधि
धारियों की भीड़ का होना स्वाभाविक था। समारोह
के उद्घाटनकर्ता एवं मुख्य अतिथि विश्वभारती, शान्तिनिकेतन के कुलपति महोदय थे। उपाधि लेने की भीड़ में मैं भी शामिल रहा।
बैठने की हमारी पंक्ति, आगे वाली छात्राओं
की पंक्ति से पीछे थी।इस क्रम में ठीक मेरे आगे चार लड़कियाँ बैठी हुई थी। हाव-भाव और बातचीत से लगा कि ये चारों ज़िगर कटी सखी-सहेलियाँ हैं। उनकी कौतुहलता की बातचीत से साफ-साफ सुनाई दे रही थी। गपशप का विषय ससुराली माहौल का बखान था। एक से बढ़कर एक ससुराली बुकनियाँ छिड़की जा रही थी।कोई किसी से कम नहीं दिख रहीं थी।
इसी बीच पहली तुनक कर बोली–”क्या फालतू बोल रहीं हो मीरा, मेरे पति हाजीपुर के एस. डी.ओ.हैं। जीप-कार और नौकर-चपरासी की फ़ौज खड़ी रहती है,एक को आवाज दो,तो चार दौड़ता है। महारानी की तरह रहती हूँ।”
इस पर दूसरी तपाक से बोल उठी-” अरी सुषमा,तुम क्या कहती हो? कुछ भी कहो,आखिर तुम्हारे पति मेरे पति के मातहत रहेंगे। मेरे पति भी आइ.ए.एस. हैं। बहुत जल्द वैशाली जिला के डी.एम.बनने वाले हैं। हाजीपुर तो वैशाली जिला के अन्तर्गत है न।”
तीसरी नहले पर दहला निकली। आँख तरेर कर बोली–” अरी सुषमा,फॉर योर काइन्ड इन्फॉरमेशन, तुम तीनों मेरे सामने मामूली रहोगी, मेरे ससुर अभी विपक्षी दल के नेता हैं। चुनाव के वाद अगली सरकार इनकी ही बनेगी।और ये ही
मुख्यमंत्री बनेंगे। तुम सभी पैरवी करने मेरे पास आया करोगी।”
चौथी की बारी में चुप्पी। तीनों का दवाब बार-बार पड़ रहा था। फिर भी चुप्पी अंगद का पाँव बनी रही। अन्त में दोस्ती की कसम देने पर चुप्पी टूटी। मायूस होकर बोली-” तुम तीनों बहुत ही भाग्यशाली हो। मेरी सुनोगी, तो चुभन जैसी लगेगी। मैं तो अपने ही शकुनि मामा के जाल में फंस गई। ससुराल में एक नहीं तीन-तीन हमउम्र बेटियां मिलीं,जो अक्सर ‘मां’ कहकर हंस दिया करती हैं।

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