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– प्रीति चौधरी “मनोरमा”

आजकल की युवा पीढ़ी के दृष्टिकोण से यदि हम प्रेम शब्द को परिभाषित करें, तो प्रेम महज एक शारीरिक आकर्षण है। किंतु यह प्रेम की संकुचित अवधारणा है, व्यापक शब्दों में यदि हम देखें तो प्रेम को परिभाषित करना एक  अत्यंत दुष्कर काज है। क्योंकि प्रेम अवर्णनीय और अभिव्यक्ति से परे होता है। इसे शब्दों की बैसाखियों की आवश्यकता ही नहीं पड़ती है। यह हृदय में स्वछंद विचरण करता है। यदि हम प्रेम का बखान शब्दों के माध्यम से करते हैं, तो वह प्रेम न होकर विज्ञापन मात्र होता है। प्रेम किसी भी व्यक्ति, वस्तु, अथवा स्थान से हो सकता है। प्रेम की कोई सीमा नहीं होती, यह सागर की तरंग-मालाओं की भाँति अथाह होता है । इसकी गहराई को मापना असंभव है । यह व्योम की परिधि की भाँति असीमित होता है इसकी व्यापकता का आकलन किया ही नहीं जा सकता है। प्रेम हमें एक दूसरे से जोड़े रखता है। प्रेम ही वह भाव है, जिसके द्वारा यह दुनिया संचालित होती है । प्रेम से ही परिवार है… प्रेम से ही जहान है… यदि कोई व्यक्ति सुख-दुख का साझीदार बनता है, तो अनायास ही मन में उसके लिए प्रेम का भाव उत्पन्न हो जाता है। कोई भी व्यक्ति जो हमारी भावनाओं को समझता है, हम उसके प्रति लगाव की भावना रखने लगते हैं और इस लगाव का ही नाम प्रेम है। प्रेम का क्षेत्र अत्यधिक विस्तृत है, यह मात्र प्रेमी-प्रेमिका के मध्य होने वाले संबंध को ही नहीं दर्शाता है, अपितु इसमें माँ का बच्चे के लिए ममत्व… पिता का पुत्री के प्रति स्नेह… भाई का बहन के प्रति लगाव… पति का पत्नी के प्रति प्रेम… सभी गहन प्रेम  के ही रूप हैं। जिसमें हम एक-दूसरे के प्रति गहरा रिश्ता रखते हैं । प्रेम शब्दों के परिसीमन से परे होता है। प्रेम को शब्दों में बाँधना उचित नहीं है और जो शब्दों की सीमा में बंध जाए, वह प्रेम नहीं है।

प्रेम त्याग और बलिदान का दूसरा नाम है। अंत में चंद पंक्तियां प्रेम की भावना को समर्पित करती हूँ-

माँ के आँचल में जो ममत्व की मिठास है,

पिता के सानिध्य में जो सुरक्षा का आभास है,

वही तो अगाध प्यार का अहसास है।

बहिन को भाई  पर जो अटूट विश्वास है,

हृदय में  प्रेम अंकुर का जो बीज ख़ास है,

वही तो अगाध प्यार का अहसास है।

प्रिय की स्मृतियों से जो प्रेयसी उदास है,

तन से दूर होकर भी जो आत्मा के पास है,

वही तो अगाध प्यार का अहसास है।

विषम परिस्थितियों में जो बाकी बची आस है,

चौदह वर्ष राजसुख तज दिए जो जानकी ने,

वही तो अगाध प्यार का अहसास है।

प्रेम लड़का और लड़की के मध्य  आकर्षण का विषय नहीं है, अपितु यह प्रकृति की निरंतरता को दर्शाता है। प्रकृति के कण-कण में प्रेम विद्यमान है। जीवनदायिनी पवन जो सबको सांसों का उपहार देती है, ईश्वरीय प्रेम का पर्याय है। मंदिर में बजती हुई घंटियों की आवाज भक्तों की ईश्वर के प्रति अगाध आस्था का प्रतीक है। समूचा जगत प्रेम के द्वारा ही क्रियाशील है, अन्यथा यह  सारा जगत मृतप्रायः सा  प्रतीत होता है। प्रेम ही सृष्टि की निरंतरता का वाहक है।

प्रेम शब्द पर जितना भी लिखा जाए उतना कम है–

“प्रेम एक एहसास है

जैसे साँसों का चलना

कभी धीरे-धीरे कभी तेज

प्रेम है प्राणवायु सा अपरिहार्य

जीवन के लिए।

जैसे पथिक ग्रीष्म ऋतु में

चाहता है तरु की छाया

जैसे नदी चाहती है सागर की

अथाह गहराइयों में

खो जाना

और भूल जाती है

स्वयं का अस्तित्व भी।

वैसे ही प्रेम होता है

आत्मिक,पवित्र,पावन।

निश्छल और निःस्वार्थ।

जिसमें प्राप्त करने की

अभिलाषा नहीं।

साथ रहने की चाह नहीं।

भोगने की इच्छा नहीं।

प्रेम तो भाव है मन का

अंतःकरण की तलहटी में

है जिसका केंद्रबिंदु।

जो सदैव दीप्तमान है

उर के मंदिर में

बनकर अलौकिक ज्योति।

रहता है नयनों में

बनकर स्नेह का जलधि

खारा और नमकीन।

और कभी ओस की

बूँद बनकर ठहर जाता है

पलकों पर

बरसने को आतुर घन सा।

बनकर पीयूष

सिंचित करता है

हृदय वाटिका को।

इसमें जीत नहीं हार नहीं

प्रेम तो निराकार है

साक्षात देव सा।

अमूर्त है परमेश्वर सा।

प्रेम का सौंदर्य रहता है

चिरकालिक…

सदैव रहता है बसंत

प्रेम के सानिध्य में।

मिलता है परम् आनंद

आत्मा को प्रेम से।

यह प्रेम ही आत्मा का आहार है।

उपहार है समूची सृष्टि के लिए

यही जीवन की पूँजी है

धरोहर है स्नेह बंधन की…”

 

  • जनपद बुलन्दशहर

उत्तरप्रदेश

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