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– जयन्त

महीने भर की छुट्टी के बाद सुरेंद्र बाबू कार्यालय वापस लौटे तो पास की टेबल पर धूल की परत जमी हुई थी. उन्हें आश्चर्य हुआ छोटे बाबू आ चुके थे उन्होंने उनसे ही पूछ लिया –

“वंदना नहीं आ रही है क्या ?”

“उसे तो साहब ने निकाल बाहर कर दिया ना .”

“तभी इतनी गंदगी है…” उसके जगह पर कोई दूसरे को तो रखा गया होगा ?”

“हां, हां है ना, छेदी …”

छोटे बाबू ने आवाज लगाई और चालीस–पचास का हट्ठा-कट्ठा मझोले कद का व्यक्ति सामने आ खड़ा हुआ. वह गंदगी में सना हुआ था. सुरेंद्र बाबू ने उसे देखा और मन ही मन सोचा जो स्वयं इतना गंदा है वह सफाई क्या करेगा परंतु उन्होंने कुछ कहा नहीं. छेदी ने टेबल-कुर्सी पर पड़े धूल को झाड़-पोछ दिया. उन्होंने उसे समझाया कि साफ-सफाई का ध्यान रखा करे. उसने ‘जी सरकार’ कहा और चला गया. सुरेंद्र बाबू ने जानना चाहा कि वंदना क्यों हटा दी गई थी. उसका काम इससे बहुत अच्छा था. उन्हें पता चला था कि वह किसी के साथ पकड़ी गई थी. उन्होंने कोई विशेष ध्यान नहीं दिया था क्योँकि अब सेवानिवृत्ति के पंद्रह महीने ही शेष हैं. घर परिवार की जिम्मेदारियां और कार्यालय के कागजात कार्य पूरा करने में ही वे स्वयं को व्यस्त पा रहे थे. कार्यालय का काम पूरा करके निकलते तो शाम हो जाती.

आज भी वह जब उठे तो घड़ी पांच से ऊपर बजा रही थी. उन्हें भूख और प्यास दोनों का अनुभव हो रहा था. वे बाहर निकल कर आए और सड़क पार कर सामने की झोपड़ीनुमा दुकान पर बैठ गए. दुकानदार उनकी संकेत पर एक प्लेट में दो समोसे रख गया. समोसे ठंडे हो चले थे परंतु भूख कहीं ज्यादा तेज थी. दुकान पर उनके सिवा कोई और नहीं था. तभी उनके पीछे से एक स्त्री कंठ उभरा- ‘प्रणाम सर,’ वे चकित होकर जरा तिरछे हुए –

“अरे वंदना !“

वंदना जमीन पर उनसे कुछ दूर पर बैठ गई तो उन्होंने दुकानदार को उसे भी समोसे देने का संकेत किया. सुरेंद्र बाबू ने जानना चाहा कि वह कैसी है ?

“ठीक हूं सर.”

“साहब ने तुम्हें निकाल दिया क्यों ?”

“आपको नहीं पता सर !”

“लोग कुछ…“

“लोग तो कहते ही हैं सर…!”

सुरेंद्र बाबू चुप रहे और वंदना मद्धिम स्वरों में बोलती गई -“लोग दूसरे के दुख को नहीं समझ पाते हैं. मेरी कहानी की कीमत पांच हजार लगाई गई. पता है, शायद आपको भी पता चला ही होगा ?”

“नहीं, मुझे तो यह नहीं पता. तुम बताओ तो समझ में आए कैसी कहानी ?“

वह सिसक पड़ी और बताया कि छोटे लोगों की और छोटी जाति वालों की इज्जत ही क्या ? सुरेंद्र बाबू उसकी पिता के उम्र के थे. फिर भी लाज आड़े आती थी. पति भी सफाई का काम करता है. गिर पड़ा. कंधे की हड्डी उतर गई. इलाज के लिए रुपए नहीं थे. ऑफिस में सबके सामने हाथ फैलाया परन्तु किसी ने कुछ खास मदद नहीं की. बहुत थोड़े से रुपए जमा हो सके, उतने से कुछ नहीं हो सकता था. ऑफिस के एक पिउन ने अंत में सशर्त मदद का प्रस्ताव रखा. मुझे पन्द्रह हजार की आवश्यकता थी. मुझे बिकना पड़ा. बोली लगी बीस हजार की. ऑफिस में शाम के समय जिस समय सिर्फ एक-दो आदमी रहते हैं, वही समय तय हुआ. किस्मत खराब थी, पकड़ी गई और साहब ने बुला लिया. मैं… पता नहीं क्यों, शायद अपने या औरत की झूठी लाज…  पता नहीं, समझ में नहीं आता सर ! मेरी जुबान ही पलट गई. मैं रो पड़ी और झूठ कहा कि मेरे साथ जबरदस्ती…, उधर वह मूर्ख बीच में ही बोल उठा कि बीस हजार पर बात हुई है. साहब ने डांटा तो उसने रुपए निकाल कर दिखाए. साहब ने रुपए रखवा लिए. मेरे हाथों में पांच हजार रख दिए और बाहर जाने को कहा. बड़ी हमदर्दी से कहा –

“अभी इतना रखो. तुम्हें मुझे बताना चाहिए था.“

उन्होंने मुझे बाहर जाने का संकेत किया कि कल आने पर मिलना. मैं कमरे से बाहर चली आई.

वंदना चुप हो गई तो सुरेंद्र बाबू के मुख से उनके लंबे अनुभव को पीछे छोड़ एक प्रश्न सामने आया –

“दूसरे दिन क्या हुआ तुम मिली ?“

वे समझ नहीं पा रहे थे कि उन्होंने यह प्रश्न क्यों पूछा ? वंदना ने विस्मय से उनकी तरफ गहरे अंधेरे में देखा और बोली-

“अगले दिन मैं ऑफिस के बाहर थी सर !“

 

  • जयन्त (जयन्त कुमार)

द्वारा – श्री अवध बिहारी प्रसाद, शिवदुर्गालय गली, महेन्द्रू, पटना – 800006 (बिहार) मोवाइल न. 91 9430060336, [email protected]

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