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  • सतीशराज पुष्करणा

 

कई घरों का दरवाज़ा खटखटाने के पश्चात् राम आसरे बाबू ने अपने पूर्व परिचित दीनानाथ जी के दरवाज़े पर दस्तक दी | दरवाज़ा खुलने पर दीनानाथ जी ने सामाजिक औपचारिकताओं का निर्वाह किया |

राम आसरे बाबू भी औपचारिकताओं का निर्वाह करते हुए जल्दी ही मतलब की बात पर आ गए, “देखिए ! मैं अपनी बेटी के लिए आपके बेटे का हाथ माँगने आया है…निराश न कीजिएगा |”

“निराश…और मैं ?…नहीं… ! नहीं !…हाँ ! डर है निराश कहीं आप ही न कर दें |”

“देखिए ! लेन – देन की चिंता न कीजिएगा… मुझसे जो कुछ भी बन पडेगा… आपकी सेवा करूँगा |”

“नहीं…नहीं…राम असरे जी ! आप गलत समझ रहे हैं | मैं भी बेटी वाला हूँ… लेन-देन की बात भला मैं क्या करूंगा ! बस्स ! मैं तो चाहता हूँ कि मेरा बेटा आप ले लें और अपना बेटा मुझे दे दें |… और हाँ ! न कुछ आप देन…और लेन |”

“दीनानाथ जी ! क्षमा करें !… कहाँ मेरा बेटा सरकारी इंजीनियर और कहां आपका बेटा कॉलेज का मात्र लेक्चरर |”

“तो इसमें बुराई ही क्या है ? भई ! दोनों का स्टेटस तो लगभग बराबर ही है | फिर लेक्चरर की सामाजिक प्रतिष्ठा कुछ अधिक ही होती है, राम आसरे जी !”

“अजी भाड़ में गई प्रतिष्ठा !… वेतन के अतिरिक्त मेरा बेटा…लाख किस्मत फूट जाने पर भी, आपके बेटे से दुगना तो आसानी से कमा ही लेता है…हूंह…|”

 

नोट : आदरणीय सतीशराज पुष्करणा सर की कुछ लघुकथाएं साहित्यप्रीत के पास उपलब्ध है । जो उन्होंने स्वयं नीतू को भेजी थी । सर को नमन !

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