– चित्रा मुद्गल
“अंकल, ओ अंकल …! प्लीज, सुनिए न अंकल…!”
संकरी सड़क से लगभग सटे बंगले की फेंसिंग के उस ओर किसी बच्चे ने उन्हें पुकारा .
सचदेवा जी ठिठके, आवाज कहां से आई – भांपने लगे . कुछ समझ नहीं पाए . कानों और गंजे सिर को ढके, कसकर लपेटे हुए मफलर को उन्होंने तनिक ढीला किया . मधुमेह का सीधा आक्रमण उनकी श्रवण – शक्ति पर हुआ है . अक्सर मन संयत स्वर के बावजूद दबा नहीं पाता .
सात – आठ महीने से ऊपर हो रहे होंगे . विनय को अपनी परेशानी लिख भेजी थी उन्होंने . जवाब में उसने फोन खटका दिया – श्रवण – यंत्र के लिए वह उनके नाम रूपये भेज रहा है . आश्रमवालों की सहायता से अपना इलाज करवा लें . बड़े दिनों तक वे अपने नाम आने वाले रुपयों का इंतजार करते रहे .
गुस्से में आकर उन्होने उसे एक और खत लिखा . जवाब में उसका एक और फोन आया – एक पेचीदा काम में उलझा हुआ था, इसलिए उन्हें रूपये नहीं भेज पाया . अगले महीने हैरो के एक भारतीय मित्र भारत आ रहे हैं . घर में उनका लाजपत नगर में है . फोन नंबर लिख लें उनके घर का . उनके हाथों पौंड्स भेज रहा है . रूपये या तो वे स्वयं आश्रम आकर पहुंचा जाएंगे या किसी के हाथों भेज देंगे . नाम है उनका डा. मनीष कुशवाहा .
महीना शुरू होते ही उन्होंने उनके घर फोन करना शुरू कर दिया . तीसरी दफे पता लगा कि वे सोलह तारीख की रात आ रहे हैं . उनके फोन करने से पहले डा . मनीष कुशवाहा का फोन आ गया . रामेश्वर ने सूचना दी तो वे उमग कर फोन सुनने पहुंचे . मनीष कुशवाहा ने बड़ी आत्मीयता से उनका हाल – चाल पूछा . जानना चाहा, क्या – क्या तकलीफें हैं उन्हें . शुगर कितना है ? ब्लडप्रेशर की कौन – सी गोली ले रहे हैं ? कितनी ले थे हैं ? विनय के पास लंदन क्यों नहीं चले जाते ? विनय की बीवी, यानी उनकी बहू तो स्वयं डाक्टर है ….
रुपयों की बात ही न शुरू हुई . झिझकते हुए उन्होंने खुद ही पूछ लिया, “बेटा, विनय ने तुम्हारे हाथ कुछ रूपये भेजने को कहा था .”
मनीष को सहसा स्मरण हो आया, “कहा तो था विनय ने … आश्रम का फोन नंबर लिख लो, बाबूजी के लिए कुछ रूपये भिजवाने हैं … मगर मेरे निकलने तक …. दरअसल, मुझे भी अति व्यस्तता में समय नहीं मिला कि मैं उसे याद दिला देता .”
विनय को चिठ्ठी लिखने बैठे तो कांपने वाले हाथ गुस्से से कुछ अधिक ही थर्राने लगे . अक्षर पढ़ने लायक हो पाएं तभी न अपनी बात कह पाएंगे ! तय किया फोन पर ही खरी खोटी सुनाकर ही चैन लेंगे . फोन पर मिली मारग्रेट . बोली कि वह उनकी बात समझ नहीं पा रही . विनय घर नहीं है . मैनचेस्टर गया हुआ है . मारग्रेट के सर्वथा निर्लिप्त भाव ने उन्हें क्षुब्ध कर दिया . छलनी हो उठे . बहू के बात – बर्ताव का कोई तरीका है यह ? फोन लगभग पटक दिया उन्होंने . कुछ और हो नहीं सकता था . क्रोध में वे सिर्फ हिंदी बोल पाते हैं या पंजाबी . मारग्रेट उनकी अंग्रेजी नहीं समझती, तो हिंदी, पंजाबी कैसे समझेगी ? पोती सुवीना से बात न कर पाने का मलाल हफ्तों कोंचता रहा . हालांकि बातें तो वह उस गुड़िया की भी नहीं समझते .
ढीले किए मफलर से ठंडी हवा सुरसुराती धंसी चली आ रही . ढीठ ! नवंबर के किनारे लगते दिन हैं ठंड की आवती सभी को सोहती है, उन्हें बिल्कुल नहीं . सांझ असमय सिंदूरी होने लगती . धुंधलका डग नहीं भरता . छलांग भर बेल्ल्ज अंधेरे की बांह में डूब लेता है . आश्रम से सैर को निकले नहीं कि पलटने की खदबद मचने लगती .
मफलर कसकर लपेट आगे बढ़े, ताकि ‘मदर डेयरी’ तक पहुंचने का नियम पूरा हो ले . नियम पूरा न होने से उद्विग्नता होती है . किसी ने नहीं पुकारा . कौन पुकारेगा ? भ्रम हुआ है . भ्रम खूब भरमाने लगे हैं इधर . अपनी सुध में दवाई की गोलियां रखते हैं पलंग से सटी तिपाई पर, धरी मिलती है तकिये पर !
अगल – बगल मुड़कर देख लिया . न सड़क के इस पार, न उस पार ही कोई दिखा . हो, तब न दिखे !
कदम बढ़ा लिया उन्होने . कब तक भकुआए – से खड़े रहे ?
पहले वे चार – पांच जने इकठ्ठे हो शाम को टहलने निकलते . एक – एक कर वे सारे बिस्तर से लग गए . बीसेक रोज पहले तक उनका रूम – पार्टनर कपूर साथ आया करता था . अचानक दोनों पांवों में फीलपा हो गया . डॉक्टर वर्मा ने बिस्तर से उतरने की मनाही कर दी . कपूर उन्हें भी सयानी हिदायत दे रहा था कि टहलने अकेले न जाया करें . एक तो संग – साथ में सैर – सूर का मजा ही कुछ और होता है और फिर एक – दूसरे का ख्याल भी रखते चलते हैं . सावित्री बहन जी नहीं बता रही थी मिस्टर चड्ढा का किस्सा – राह चलते अटैक आया, वहीं ढेर हो गए ! तीन घंटे बाद जाकर कहीं खबर लगी . सेहत का ख्याल करना ही है तो आश्रम के भीतर ही आठ – दस चक्कर मार लिया करें . बूढी हड्डियों को बुढ़ापा ही टंगड़ी मारता है
कपूर की सलाह ठीक लगकर भी अमल करने लायक नहीं लगी . उन्हें मधुमेह है . केवल गोलियों के बूते मोर्चा नहीं लिया जा सकता, इस नरभक्षी रोग से . रोजो जिंदा थी तो उन्हें कभी अपनी फ़िक्र नहीं करनी पड़ी . नित – नए नुस्खे घोंट – घोंटकर पिलाती रहती – करेले का रस, मेथी का पानी, जामुन की गुठली की फंकी और न जाने क्या – क्या .
“येss अंकल… अंकल चss च . इधर पीछे देखिए न ! कब से बुला रहा हूं … फेंसिंग के पीछे हूं मैं .”
“पीछे आइए, इधर – उधर देखिए न .” फेंसिंग के पीछे से उचकता बच्चा उनकी बेध्यानी पर झुंझुलाया .
हकबकाए – से वे पुन ठिठककर पीछे मुड़े . अबकी सही ठिकाने पर नजर टिकी, “ ओss तू पुकार रहा है मुझे ?” फेंसिंग के उस पार से बच्चे के उचकते चेहरे ने उन्हें एक बारगी हुलास से भर दिया .
“क्यों भई, किस वास्ते ?”
उसका स्वर अनमनाया, “मेरी गेंद बाहर चली गई .”
“कैसे ?”
बच्चे का स्वर उनके फिजूल – से प्रश्न से खीझा, “बालिंग कर रहा था .”
“अच्छा ! तो बाहर आकर खुद क्यों नहीं ढूंढ लेते अपनी गेंद ?”
बच्चे का आशय भांप वे मुस्काए .
“गेट में ताला लगा हुआ है .”
“ताला खुलवा लो मम्मी से.”
“मम्मी नर्सिंग होम गई है .”
“नौकरानी तो होगी घर में कोई ?”
“बुधि राम गांव गया है . घर पे मैं अकेला हूँ . मम्मी बाहर से बंद करके गई है .” बच्चे के गबदू भोले मुख पर लाचारी ने पंजा कसा .
“हूंअ, अकेले खेल रहे हो ?”
“अकेले … मम्मी किसी बच्चे के साथ खेलने नहीं देती .”
“भला वो क्यों ?”
“मुझे भी गुस्सा आता है – बिगड़ जाओगे . यहां के बच्चे जंगली हैं .”
“बड़ी गलत सोच है . खैर… तुम्हें नर्सिंग होम साथ लेकर क्यों नहीं गई ?”
माँ की बेवकूफी पर उन्हें गुस्सा आया – “ घंटे आधे घंटे की ही बात तो थी, बच्चे को इस तरह अकेला छोड़ता है कोई ?”
“मम्मी घंटे – भर में नहीं लौटेंगी, अंकल ! रात नौ बजे के बाद लौटेंगी .”
“इतनी देर से ?”
“मम्मी तो डाक्टर हैं . मेरे साथ रहने के लिए नर्सिंग होम से एक नर्स आंटी आएंगी अभी . वहीं गेट खोलेंगी, घर भी खोलेंगी … पहले तो अंकल, मम्मी मुझे घर में बंद कर जाती थीं .”
उनके माथे के बल चिंता और अविश्वास से गहराए, “ और तुम्हारे पापा कब आते हैं ?”
पटर – पटर बोलने वाला बच्चा अनायास चुप्पी की खोह में उतर गया .
“नहीं हैं ?” आशंकित हो उन्होंने प्रश्न किया . फिर लगा कि इतने छोटे बच्चे से उन्हें यह सवाल नहीं पूछना चाहिए था .
“हैं न !” बच्चे ने संशय निवारण किया .
“फिर ?” उसे कुरेदने से वे स्वयं को रोक नहीं पाए . “अलग रहते हैं .”
“अलग क्यों रहते हैं ?”
“मम्मी लड़ती हैं उनसे .”
“ओ ss….”
“अंकल, मेरी गेंद ढ़ूंढ़ दीजिए न !”
“तुम मुझे अंकल क्यों कह रहे हो, मैं तुम्हारे दादाजी की उम्र का हूं . मुझे दादाजी कहो .”
बच्चा असमंज में पड़ गया .
“बूढ़ों को दादाजी कहकर पुकारते हैं .” उन्होंने समझाया .
बच्चा लहकर बोला, “हां, नानाजी भी बोलते हैं .”
“दादाजी को नहीं जानते ?”
“नइss….” बच्चे ने मासूमियत से मुंडी हिलाई .
“चलो, मुझे दादाजी पुकारा करो ! पुकारोगे न ?” सहसा उनका गला भर्रा आया . हैरत हुई स्वयं पर .
“पुकारूंगा, पर मेरी गेंद ढ़ूंढ़कर देनी होगी आपको .”
“ढ़ूंढ़ दूंगा . पहले पुकारो !”
“दादाजी, मेरी गेंद ढ़ूंढ़ दीजिए न .”
सचदेवा जी की बूढी आंखों में एकाएक पैनापन आ समाया . बड़ी देर तक सड़क के किनारे की घास – फूस में बच्चे की गेंद टोहते रहे . बच्चे की हिदायत पर सड़क के उस पार भी गेंद ढ़ूंढ़ने की कोशिश की उन्होंने . गेंद कहीं दिखी नहीं .
हताश हो वे उसके निकट आ खड़े हुए . बच्चे का चेहरा उतर गया .
“तुम यकीन के साथ कह सकते हो कि गेंद बाहर उछली थी ?”
“हां, उछली है .”
अचानक फेंसिंग के ऊपर उचके बच्चे का संतुलन गड़बड़ाया . धप्प से गिरने की आवाज इस और आई . वे घबराए . ध्यान गया . खासी ऊंची फेंसिंग से उचककर इतना छोटा बच्चा कैसे बतिया सकता था . निश्चय ही किसी चीज पर खड़ा हुआ होगा – “ बरखुरदार, गिर कैसे गए ? भई चोट तो नहीं आई ?”
“नहीं दादाजी, घास पर गिरा हूं .”
पल – भर में बच्चे का चेहरा फिर से जल कीर सतह पर कमल – सा खिल आया .फोरन गिरने की सफाई दी, “आप डर गए ? क्या है न दादाजी, मैं तो छोटा बच्चा हूं न, लकड़ी के खोखे पर खड़ा हूं .”
“अच्छा ! अच्छा अब संभलकर खड़े रहो .” यह नहीं कह सके कि ऐसे मत खड़े हुआ करो . यह भी लगा कि जब तक वे इस ओर खड़े रहेंगे, बच्चा खोखे पर से नहीं उतरने वाला . बोले, “ यह तो तय है कि गेंद अहाते के भीतर ही गिरी है कहीं . तुम मानो या न मानो . मैं चलूं . अंधेरा होने को है .”
“अरे, नई, नई, दादाजी, मत जाइए न ! प्लीज ! बच्चे ने नन्हीं हथेलियां नचाईं, “गेंद तो गुम हो गई … अकेले खेल भी नहीं सकता न !”
जी भड़भड़ा आया . कोई उन्हें रोकने का इतना मनुहार कर सकता है . मोटे चश्मे के पीछे आंखों में गीली धुंध पसर गई . ऊपर तने अपने चेहरे को उन्होंने नीचे गिरा लिया, ताकि धुंध की पिघलती बाढ़ को घूंट सकें .
बच्चे को वे अनिश्चय में जकड़ने लगे .
“रुकेंगे न !”
सहमति में उन्होंने सिर हिलाया . धुंधलके में जली बत्तियां उन्हें चौंधियाती हैं . किरमिच के जूतों में कसे पंजों से जमीन फूंक – फूंक कर साधनी होती है .
मासूम को उनकी दिक्कत का क्या अंदाजा ? बताकर भी क्या होगा ! मानेगा ही नहीं . जिद्दी कम नहीं .
“कल भी आएंगे ?”
“आऊंगा, सैर का यहीं रास्ता है . मगर क्यों ? कल क्यों आऊँ ?”
“ आज तो गेंद मिली नहीं, कल ढ़ूंढ़ दीजिएगा . मम्मी को नहीं बताऊंगा, गुम हो गई .”
“देखो, तुम्हारे लिए मैं कल नई गेंद खरीद लाऊंगा ढ़ूंढ़ूगा नहीं, बूढ़ा हो गया हूं न, अधिक देर झुक नहीं सकता .”
“नई गेंद ?” आप मुझे नई गेंद लाकर देंगे ?” अविश्वास के बावजूद बच्चे के गबदू चेहरे पर ललक कौंधी .
ललक ने उन्हें पुलकाया, “ इसमें अचरज की क्या बात है ! दादाजी अपने पोते को नई गेंद नहीं खरीद कर दे सकते ?”
“फिर तो, फिर तो … अच्छी वाली गेंद खरीद कर लाइएगा . वो जैसी गेंद से कपिल देव बालिंग करता है !”
“अच्छी वाली ही लाऊंगा .” बड़े दिनों के बाद वह हंसे . अपनी हंसी पर विस्मित भी हुए . उन्हें तो यहीं लगता था कि हंसी से उनका नाता टूट चुक है . तभी बच्चे का चेहरा फेंसिंग पर से गायब हो गया .
वे भौचक से कहते कि अचानक जहाज के मस्तूल – सा उन्हें बैट नजर आया . अगले पल बैट अवलोकन के लिए उनकी ओर बढ़ाया गया . वे बच्चे का मनोभाव ताड़ गए .
“अच्छा तो है .”
उनका बहलाना उसे रुचा नहीं, “ये अच्छा है ? प्लास्टिक का है . देखिए कितना पिचक गया है !”
उनकी हंसी ने पंख फड़फड़ाए, “मतलब कि तुम्हें बैट भी नया चाहिए ?”
जवाब न देकर एकाएक बच्चा चौकन्ना हुआ, “नर्स आंटी गेट खोल रही हैं दादाजी, मैं जा रहा हूं … आपसे कल यहीं मिलूंगा .”
उन्होंने बच्चे से नाम तो पूछा ही नहीं ! अपनी नासमझी पर खीझे . तुरंत आवाज लगाई, “साहब बहादुर, अपना नाम तो बताते जाओ ?”
“मैं तो बिल्लू हूं, दादाजी, बिल्लूss !” खोखे पर से उतरते हुए हड़बड़ाया जवाब आया .
पलटने में रास्ता बहुत छोटा लगा – बिल्लू रास्ते भर कुदकियां मारते उनके संग चलता रहा …
बिल्लू इसी सेक्टर में रहता है . हारी – बीमारी छोड़ लगभग रोज ही वे इस और घूमने आते हैं, पर अब तक कभी उससे भेंट का सुयोग नहीं हुआ .
करिश्मा किया गेंद ने . खूब उछली . ठीक उनके पाले में आ गिरी . पहले क्यों नहीं गिरी, इसी बात का मलाल हो रहा था . ऐसा न करें, बैट – बाल खरीदने की बजाए बिल्लू को पूरा क्रिकेट किट ही खरीद दे ? भौंचक रह जाएगा . बल्कि खूब खुश होगा .
पैसे पता नहीं कितने खर्च होंगे . होंगे, सो होंगे . पेंशन वृधाश्रम के नाम लिख दी है उन्होंने . उसी मद में उनके रहने – खाने, दवा – दारु आदि की व्यवस्था हो रही है . पिछले वर्ष से बढ़ी हुई पेंशन ही नहीं मिल रही, जब से बढ़ी है उसकी बकाया रकम भी इकठ्ठी मिली है . अतिरिक्त रुपयों में से बड़ी मुश्किल से सावित्री बहन जी ने मांगने पर कुछ ढीले किए, बढ़ी महंगाई और वृधाश्रम के निरंतर बढ़ रहे खर्चों का रोना रोते हुए ट्रस्ट की सीमाओं की ओर खुलकर इशारा किया उन्होंने, “ट्रस्ट कहाँ तक बोझ वहन करे ! आर्थिक संसाधन के रास्ते मुंह सिए हुए हैं . अधिकांश बुजुर्ग ऐसे हैं जिनके घरवाले साल – डेढ़ साल तक नियमित खर्च भेजते रहे, अब जिम्मेदारी से मुंह मोड़ सन्नाटा खींचे बैठे हैं . वृधाश्रम में रहकर भी बुजुर्ग अपनी बची – खुची संपत्ति अंत में अपनी उन्हीं ‘लायक’ औलादों के नाम लिख जाते हैं, जिन्होंने उन्हें तिरस्कृत कर घर से बाहर कर दिया .
सिधेश्वरी बहनजी का किस्सा भूले नहीं होंगे आप . एकमात्र मकान बच्चों के नाम लिख देने के बावजूद इसी शहर में होकर भी उनके घरवाले क्रियाक्रम को आमने नहीं आए, “इसी बात पर खफा थे कि उन्होंने क्यों अपनी सोने की चूड़ियाँ और गले की भारी लड़ आश्रम को दान कर दी .”
कल जरा जल्दी सैर को निकलेंगे . रिक्शे में बैठ पहले अट्टा मार्केट जाएंगे . खेल का समान बेचने वाली किसी बढियां – सी दूकान से बिल्लू के लिए क्रिकेट किट खरीदेंगे . उस पर अपना आशीष लिखेंगे और लिखेंगे, ‘बिल्लू को उसके दादाजी की और से .’
डाक्टरनी मां को शायद उनके उपहार पर आपत्ति हो . बिल्लू क्रिकेट किट लेने से शायद डरे . बच्चा है . उससे अपनी ललक दब नहीं पाई . जल्दी इसलिए भी निकलना चाह रहे थे कि नर्सिंग होम निकलने से पूर्व डाक्टरनी से उनकी भेंट हो जाए . डाक्टरनी चाहे जितना ना – नुकुर करे, वे नहीं मानने वाले … परिचय देंगे . ऐरे – गैरे आदमी नहीं हैं वे . ‘नवोदय विद्यालय’ के अवकाश प्राप्त प्रधानचार्य हैं . घर – परिवार वाले हैं .
वृधाआश्रम के गेट में घुसते ही प्रांगण में इकट्ठा भीड़ ने उन्हें आशंकित कर दिया है . कहीं राम को प्यारी तो नहीं हो गई चटर्जी दी ? घोर कष्ट में थीं . कल दोपहर ही तो उन्हें कैलाश अस्पताल से यह कहकर वापस भेज दिया गया था कि उनकी दोनों किडनियों ने लगभग काम करना बंद कर दिया है . अब – तब का मामला है . उनकी इच्छा थी कि आश्रम में, अपने संगी – साथियों के बीच, वह आखिरी सांस लें . वही तो उनका घर – परिवार है . सावित्री बहन जी का आदेश हुआ है . रात्रि भोजन से पूर्व सभी बुजुर्ग चटर्जी दी से पंक्तिबध मिलेंगे ही नहीं, बल्कि डेढ़ घंटे उनके कमरे के समक्ष बैठ भजन – कीर्तन भी करेंगे . वही भजन जिन्हें वे स्वयं मग्न हो गाया करती थीं – “गिरधर, गिरधर, गिरधर …. मोर मुकुट वाले वंशीधर … माखनचोर, माखनचोर किशन कन्हाई तू सिरमौर .” डूबकर कीर्तन हुआ .
सहसा विमला बहन जी हर्ष – विभोर हो चीख उठी थीं . आंखें खोल दी हैं चटर्जी दी ने ! कुछ कहना चाह रही हैं ! खड़िया – पुते – मुख पर पपड़ियाए होंठ अस्फुट – सा कुछ बुदबुदा रहे थे . हो सकता है, तुलसीदल और गंगाजल मुंह में टपकाने के लिए कह रही हों . साध्वी के मुंह से और क्या निकलेगा !
“जाओ दौड़ो ! जल्दी गंगाजल और तुलसीदल लाओ .”
गंगाजल आने तक विमला बहन जी चटर्जी के होंठों के पास कान रख दिए . चटर्जी दी लगातार त्याग दिए बेटे का नाम बुदबुदा रही थीं – ‘श्या… मो … ल …श्या ….मो … ल…’
विमला बहन जी के बताते ही सभी बुजुर्गों में चीरती अनमनाहट व्याप गई . सरेआम चटर्जी दी कहती थीं – मरूं तो दाह – संस्कार चाहे जिससे करवा देना, नालायक बेटे को खबर न करना .
जुटे लोगों के निकट पहुंच तनातनी – भरे माहौल ने उन्हें अबूझ बना दिया . सावित्री बहन जी के मतमताए चेहरे से मामला कुछ और ही लगा .
भीड़ को चीरकर सावित्री बहन जी की नजर उनकी ओर लपकी . उम्र में उनसे छोटी होने के बावजूद वे अपनी उग्रता नियंत्रित नहीं रख पाई . आश्रम की प्रबंधिका होने के नाते संभवत .
“अंधेरे में लौटना आपके लिए वाजिब नहीं, भाई साहब . ऊँच – नीच क्यों नहीं समझते ?” अगले ही पल नौकरों के जत्थे में खड़ी सुंदरी को उन्होंने कर्कश हो डपटा, “कमरे में पड़ी चटर्जी दी आखिरी सांसें गिन रही हैं और तू कसाई हृदय उन्हें अकेला छोड़ धरने पर आ बैठी है ? नौकरी पकड़े चार दिन नहीं कि पर निकल आए तेरे ? अभी इसी वक्त निर्णय कर ले, नौकरी करनी है तुझे या नहीं …”
चेतावनी से घबराई सुंदरी फ़ौरन जत्थे से अलग हो भीतर की ओर मुड़ ली . कुछेक नौकरानियों ने उसकी कुहनी धर ओकने की चेष्टा की, मगर कुहनी झटककर उसने उनकी ओर मुड़कर भी नहीं देखा .
मामला पूछने पर पता चला, आश्रम में रसोइये समेत अन्य सातों नोकर – नौकरानियों ने रामेश्वर के पक्ष में धरना दे रखा है . रामेश्वर ने तेरह नंबर वाले शिवदसानी जी की शिकायत की है कि उन्होंने उसके साथ अविश्वसनीय अमानवीय व्यवहार किया .
घंटे – भर पहले उन्होंने उससे शाम की चाय के बदले गिलास भर दूध मांगा . संग में अरारोट के तीन – चार बिस्कुट . रामेश्वर ने दूध का गिलास जैसे ही उनके बिस्तर से लगी मेज पर टिकाया, अचानक शिवदासानी जी हिंसक हो खौलते दूध का गिलास उसके ऊपर उंडेल दिया . रामेश्वर की छाती जल गई . रोते – चीखते उसने वृधाआश्रम सिर पर उठा लिया, “प्राण लै लियो निर्दयी बुड्ढ़े नेss…”
हैरान बुजुर्गों को रामेश्वर ने अपनी दूध से भींगी छाती खोलकर दिखाई छाती जल रही है . उसकी पूरी छाती काले रोओं से भरी है . ललाई नहीं दिखाई दे सकती है . दिखाई देती तो उन्हें अंदाजा लगता शिवदासानी जी की निर्दयता का . मामला मामूली नहीं . दब नहीं सकता . ज्यादती के खिलाफ प्रतिवाद होगा .” तत्काल सारे नौकरों ने काम से हाथ खींच लिए .
बिस्तर पर लगे बुजुर्ग को टट्टी करने वाला मनेसुर हाथ मटका – मटका कर नेतई बघारने लगा, “एक तो हम कबर में पांव दिए इन बूढ़े – बढियों को माई – बाप कबूल कर तन – मन से इनकी सेवा – टहल करें, ऊपर से इनका भस्मासुरी क्रोध झेलें . कोई पूछे इनसे, तुम्होर अपने जाए तो हगना – मूतना उठाने को राजी नहीं जो उठा रहे, उन्हीं को रेतने को तुम त्रिया रहे ? आखिर हम भी तो हाड़ – मांस के मानूस ठहरे, कोई लोहा – लक्कड़ के गढ़े – बने तो हैं नहीं ! बोलिए !”
क्षुब्ध सावित्री बहन जी ने बुजुर्गी को फटकारा, “आप लोग नौकरों को इंसान क्यों नहीं समझते ? पैसा ही सब कुछ नहीं होता . मिशन भावना न हो तो आपकी एक घंटी पर ये अपना खाना – पीना छोड़कर हाथ बांधे आ खड़े न हों .”
नौकरों की पुचकार के पीछे सावित्री बहन जी की मंशा अस्पष्ट नहीं, नौकरों की पूंछ सहलाए बिना उठ खड़े हुए संकट से उबर पाना आसन नहीं .
बुजुर्गों को छोड़ वे क्षुब्ध रामेश्वर की ओर उन्मुख हुईं . सिध्हस्त अभिनेत्री – भावुकता ओढ़े, “मैं एक ही बात कहती हूं, रामेश्वर ! शिवदासानी जी की जगह तुम्हारे पिता ने यह हरकत की होती तो उनके साथ तुम्हारा यहीं व्यवहार होता ? जाओ ? डिस्पेंसरी खुलवाकर डा. सब्लरवाल जी से दवा ले लो . चाहो तो घर जाकर आराम करो . तुम्हारे बदले शिवशंकर नाइट – ड्यूटी कर लेगा .” रामेश्वर के कंधे थपथपाए उन्होंने .
“वैसे ही काफी देर हो चुकी है . जाओ, सब अपने – अपने काम पर लगो … और आप लोग सुनिए ! कल की भांति आज भी खाना खाने से पहले चटर्जी दी के लिए आप लोग कीर्तन करेंगे .”
रामेश्वरी की चुप्पी को अनुमति मान नौकर खिसकने लगे .
बूढ़ों की झुरियों में उलझी उदासी डेरा उठाने को राजी न थी . नब्बे साल की उम्रदराज कमलेश बहन जी को सावित्री बहन जी के निहोरे जंचे नहीं . अपनी बैठी आवाज में शिवदासानी जी की पैरवी के लिए झुकी कमर से आगे आईं .
जाने को उधत रामेशवर को टोका उन्होंने, “तू इतना भर बता पुत्तर ! माता शेरावाली दी सौ तुझे . दूध कितना गर्म था ?”
“खौलता था .”
“खौलता दूध का गिलास तू लाया कैसे ?”
अनपेक्षित प्रश्न से रामेश्वर सकपकाया, “अंगौछे में लपेटकर .”
“तू गिलास अंगौछे में लपेटकर लाया और शिवदासानी भाईजी ने गिलास नंगे हाथ चुक, फौरन तेरे ऊपर उड़ेल दिया ?”
खिसखिसाया रामेश्वर बमका, “आपका मतलब मैंने झूठ बोला ?”
“ना, ना, पुत्तर ! तू झूठ नहीं बोल रहा . बस, दूध के नीचे तूने आंच जरा ज्यादा ही बढ़ा दी .”
ठहरे हुए लोग एकबारगी हंस पड़े .
शिवदासानी जी के कमरे के सामने से गुजरते हुए सचदेवा जी अपने कमरे की ओर बढ़े कि उन्हें बिस्तर पर बेचैन बैठे पा भीतर जाकर मिल लेने को विवश हो उठे .
सांस तेज चल रही थी उनकी . दमा उखड़ रहा था . आंखों से उफनती तकलीफ ने उन्हें बिस्तर पर बैठने का संकेत दिया .
पूछने पर भरे मन से बताने लगे . मना करने के बावजूद रामेश्वर खूब तंग करने लगा है इधर उन्हें . गुनगुना दूध मांगो तो फ्रीज का ठंडा दूध लाकर रख देगा . कहो कि इसे तनिक गरमा लाओ, नुकसान करेगा, तो साफ मना कर देगा कि रसोई के चूल्हे खाली नहीं हैं . सुबह पूछ के जाएगा कि नाश्ते में दलिया खाना है या कॉर्नफ्लैक्स ? दलिया मांगने पर घंटे – भर बाद आकर सूचित करेगा कि दलिया खत्म हो गया . कॉर्नफ्लैक्स – दूध खाना चाहें तो वह ले आए .
अक्सर ताना मारता है उन्हें कि न वे कभी तीज – त्यौहार मुठ्ठी में चांपते हैं, पकड़ाते हैं उसे, न उनके मिलवइए – भेंटवइए . बस, घंटी बजा – बजाकर सेंत – मेंत उसे गधे – सा दौड़ाते रहते हैं .
आज वही किया उसने . मांगने पर ठंडा दूध लाकर रख दिया . गरम करके लाने के लिए कहते ही वही किया पुराने टोंचते बोल दोहराने लगा . गुस्से के मारे वे आपा खो बैठे .
“ले बख्शीश …”
भीतर की खोलन ने सहसा बीच रास्ते पछाड़े खा रही सांसों – उसांसों को कंठ में दबोच लिया . शिवदासानी जी की आंखें बाहर आने लगीं . मेज पर धरे अस्थमा पंप को उठा देने का संकेत किया उन्होंने . मुंह खोलकर पलों तक प्राणवायु पूरी ताकत से फेंफड़ों में खींचते रहे . कुछ सामान्य हुए तो अचानक धैर्य छोड़कर बच्चे – से बिलखने लगे . पास सरककर उन्होंने आत्मीयता से उनके कंधे थपथपाए तो पाया, शीत की घुरघुरी सदृश उनकी इकहरी देह कपकपा रही है . वे मन – ही – मन शिवस्तोत्र पढ़ने लगे .
रोज रात जान – बूझकर खुले छोड़ दिए जाने वाले बाथरूम की पीली रोशनी की चौड़ी शहतीर और कपूर के नींद की गोलियां से उपजे कर्कश खर्राटे सचदेवा जी को झपकने तक नहीं दे रहे .
न शायद वे बहाने गढ़ रहे हैं . रोशनी हमेशा पूरी – पूरी रात उनके पलंग से गज – भर की दूरी पर जागती रहती है . और कपूर के खर्राटे उन्हें इत्मीनान से भर देते हैं कि इर्द – गिर्द सब ठीक है . निश्चिंत हो वे सो सकते हैं .
शायद अंत में हिलोरे ले रही कोई अधीरता है जो उन्हें सोने नहीं दे रही . हां, शायद यही सच है . वे बिल्लू के लिए बेचैन हैं . कब भोर हो . सूरज चढ़े . दोपहरी सांकल खोले और वे फटाफट अट्टा मार्केट दौड़े, ताकि उसके लिए मनपसंद क्रिकेट किट खरीदकर उसे चमकृत कर दें . वह तो नादान सोचे बैठा होगा कि ज्यादा – से – ज्यादा दादा जी उसके लिए गेंद के साथ बैट ले आएंगे, बस …
गोल – मटोल गप्पू से चेहरे पर छल्लेदार बाल कैसे झबरीले – से हैं !
माया की धार तेज हुई – क्रिकेट किट के साथ बिल्लू के लिए कैप भी खरीदेंगे . ठीक वैसी ही, जैसे गवास्कर के बेटे रोहन गवास्कर को दूरदर्शन पर पहने देखा था .
डॉक्टरनी के लिए भी कुछ ले जाना होगा . हल्दीराम के काजू या पिस्ते की बर्फी ले लेंगे . बिल्लू खाएगा मजे से . हौंस कुलांचे भर रही थी … लेकिन इतना कुछ खरीदने के लिए रूपये हैं पास में ? विनू के लिए जब बैट खरीदते थे तब मुश्किल से तीस – पैंतीस का आता था . महंगाई ने तब आदमी की जेब सुंघनी भर शरू की थी . तब उतनी ही सुंघाई भारी लगती थी . अब तो मामला सौ प्रतिशत उल्ट .
क्यों न अपनी अलमारी खोल समाई नाप – जोख लें ? तीन अलग – अलग कोने – किनारों में रूपये चांप रखे हैं उन्होंने . एक तो कोट की अन्दुरुनी जेब में . दूसरे … अंss हां अलमारी के बीच वाले खाने के ऊपर बिछे अखबार की तह में . तीसरे, विनू की चिठ्ठियों के बीच एक बंद लिफाफे में पांच – पांच सौ के छ : नोट रखे हैं . यह सावधानी जरूरी लगती है उन्हें . चार – पांच महीने की घटना होगी . सैर को निकले तो अलमारी की चाबी कमरे पर ही भूल गए . लौटे तो मनीपर्स निकालकर टोहा – तकरीबन सात सौ रूपये पर्स से एकमुश्त नदारद मिले .
उठे, सिरहाने रखी चाभी टटोली . पूरी सावधानी के साथ बेआवाज चाबी घुमाई और अलमारी के पल्ले खोले . बाथरूम की रोशनी की हल्की उजास में ही तीनों ठिकाने टोहे . संपत्ति सुरक्षित मिली .
अलमारी बंद कर, शांत भाव से बिस्तर पर करवट लेट गए . बिल्लू की नन्हीं गंदली कनपटी थपथपाने लगी . आंखें मुंदने लगीं .
नींद खुली तो पाया, प्रकृति के विपरीत, उन्हें सुबह नौ तक सोता हुआ पाकर कपूर चिंतित हो रहा है .
उठकर बैठते ही सवाल गोली – सा छूटा, “आप तकलीफ में तो नहीं हैं ?”
सवाल के जवाब में उन्होंने सवाल दागा, “एक बात बताओ कपूर, आदमी देर तक कब सोता है ?”
“जब वह किसी मीठे सपने की गिरफ्त में होता है .”
“तो मैं भला – चंगा हूं, समझे !”
क्षण भर को कपूर अबूझ हो उठा . फिर अगले ही पल सहज हो बोला, “आप देर से उठे हो, फटाफट फारिग हो चाय – नाश्ते से निपट लो . मैं कर चुका हूं .”
“क्यों ?”
“सावित्री बहन जी का आदेश है .”
“कोई मिनिस्टर आने वाला है आश्रम में ?”
“नई, भाई जी !”
“फिर कैसी हड़बड़ी ?”
“हड़बड़ी है .”
“माने …” वे जिदियाए .
“चटर्जी दी …” कपूर का स्वर भर्राया .
“ओह !”
उनकी करुणा ‘ओह’ खुले होंठों में स्तब्ध – सी टंग गई और बड़ी देर तक उनके दरमियान बच्चे – खोई बिल्ली – सी नि : शब्द किरुदन करती, मंडराती रही .
कपूर ने अपने सहारे उन्हें भी बाहर निकलने में मद्द की . सावित्री बहन जी ने चटर्जी के बेटे श्यामल से चंडीगढ़ बात कर की है . बेटे ने स्पष्ट कह दिया, जो होना है – आश्रम में ही होगा . उन्हें चंडीगढ़ ले जाने का प्रश्न ही नहीं उठता . तबादले की नौकरी ने उनकी कोई स्थाई देहरी रहने दी हो – तभी न वह माँ को घर ले जाए . बाहर – एक के बीच वह आश्रम पहुँच जाएगा . दाह – संस्कार का समय निश्चित हो गया है . दोपहर अढाई बजे होगा . सावित्री बहन जी ने सख्ती से ऐलान किया है . कोई बुजुर्ग भूखा नहीं रहेगा . बारह – एक के मध्य सभी भोजन से निपट लें, अपनी दवा – दारु खा लें . एक घंटा आराम कर लें .
कपूर ने बताया, रसोइये का मुंह फूला हुआ है . भुनभुना रहा था कि अजीब हैं सावित्री बहन जी . कभी किसी ने ऐसी अनहोनी सुनी ? घर पर मुर्दा पड़ा हो और घर का चुल्हा जले ? सूतक में भोजन ! करेगा कौन ? सावित्री बहन जी ने उसे धर डपटा, “सभी करेंगे ! चाय, नाश्ता, खाना सब बनेगा सामान्य दिनों की भांति . जिसे न खाना हो, न खाए बुजुर्गी को भूखा रखकर वे अपने लिए कोई अन्य मुसीबत खड़ी नहीं कर सकतीं .
“घंटी बजाऊं नाश्ते के लिए ?” कपूर के स्वर में मनौवल था, “जब तक आएगा…”
“नहीं .” उन्होंने कपूर को झटकते हुए आगे नहीं बोलने दिया . रसोइये की बात गलत नहीं लग रही थी . कपूर ने कैसे नाश्ता कर लिया ? पांच – छ : घंटे पानी पीकर भी तो गुजारे जा सकते हैं . फिर आज का दिन सामान्य दिन की तरह तो है नहीं . सावित्री बहन जी के कहने से क्या होता है ! चटर्जी दी की मौत उनके लिए निष्ठुर परिवार वालों के द्वारा सामान्य बना देने मात्र से तो सामान्य नहीं बन जाती .
उनकी बिरादरी को एक जीवंत हिस्सा गुजर गया है, जो कल तक जीता – जागता उनके साथ था . उनके सुख – दुःख का सहभागी . उसे अंतिम बिदाई दिए बिना कौर दिया जा सकता है मुंह में ? कितना अभिन्न मित्र है कपूर उनका . बांह पर मच्छर बैठ जाए तो चिंता में दुबला होने वाला . कल आंख मुंद जाए उनकी तो इसी प्रकार खा – पीकर उनकी मृत्यु का शोक मनाएगा ?
अखबार खोले बैठे कपूर की ओर उन्होंने विराग – भाव से देखा . फिर मेज पर रखे जग से गिलास – भर पानी पीने लगे . उठते ही दो गिलास पानी न पिएं तो काम आगे नहीं बढ़ता . पुरानी आदत है .
उन्हें पानी पीते देख कपूर ने साभिप्राय तहाया, “कीर्तन शुरू होने में आधा घंटा बचा है .”
फारिग होकर वे कपूर के संग कीर्तन – कक्ष में आए .
फूलों से लदी चटर्जी दी को बर्फ पर लिटाने की जरूरत नहीं थी . कहीं चटर्जी दी रात को ही नहीं चल बसीं ?
भजन – मंडली नीचे बैठी हुई थी, कुछ बुजुर्ग भी, मगर अधिकांश कुर्सियों पर बैठे हुए थे . नीचे बैठकर उठ पाना उनके लिए संभव नहीं था उनके शोकातुर सहमे चेहरे गर्दनों पर झूलते हुए मौत की दस्तक की प्रतीक्षा में लग रहे थे .
भजन बंगाली में चल रहा था . उनके हाथ सिर्फ ताल दे रहे थे . ढाई बजे दाह – संस्कार का मतलब है, श्मशान से लौटकर नहाते – धोते सांझ हो जाएगी . सैर के लिए आज गुंजाइश निकाल पाना मुश्किल है . बिल्लू खोखे पर चढ़कर, फेंसिंग से उचक – उचक उनकी राह देखेगा … दादाजी आ क्यों नहीं रहे हैं .
कपूर ने बताया था कमरे में, “आश्रम की एंबुलेंस में ले जाया जाएगा चटर्जी दी को . जो लोग शवयात्रा में जाना चाहेंगे, उनके लिए बस मंगवाई गई है ‘समरविला’ स्कूल से, जो ठीक दो बजे लगेगी आश्रम के भीतर . अंतिम विदाई देने जाने की प्रबल इच्छा हो रही उसकी . समझ नहीं पा रहा कि वह बस की सीढ़ियां चढ़ भी पाएगा या नहीं .
चटर्जी दी उसे हमेशा डांटा करती थीं, “कपूर भाई, बुढ़ापे का मोटापा साक्षात् मौत की दावत होता है . दोनों बेला लंबा टहलिए . सांझ को टहलने भर से बात नहीं बनने की . कमजोर टांगे कब तक संभालेंगी देह का बोझ .”
कपूर ने आत्मालाप किया, “कोई चटर्जी दी से पूछे कि उम्र में सात बरस छोटी होकर और काया से छटांक – क्यों चल दीं हमसे पहले ? विचित्र बहीखाते हैं …
कमरे में आकर सचदेवा जी बिस्तर पर पसर गए . उचाट गमन किसी ठिकाने नहीं टिक रहा .
कपूर खिचड़ी खा रहा है . केवल मूंग की खिचड़ी बनी है . खाना आज खाने के कमरे के बजाए कमरे में ही परोसकर दे गया है रामेश्वर . वैसे भी बिस्तर पर गिरे बुजुर्गों को कमरे में ही पहुंचाया जाता है . रामेश्वर लगभग उनके पीछे ही पड़ गया . खाना न खाए उचित ही है, मगर कप – भर दूध के साथ अपनी दवाइयां तो ले लें . दूध – पानी एक ही ठहरी . उनसे तमीज से ही पेश आता है रामेश्वर . दीवाली में उपहार में दिए गए खादी के दो नए कुर्ती का खता अब तक नहीं खुला हुआ है . चचेरी बहन आई थीं दीवाली पर खील – बताशे लेकर . उनके मैले कुर्ते ने उन्हें द्रवित कर दिया . अगले हफ्ते दो कुर्ते पहुंचा गई . चार जोड़ी से अधिक कपड़े अब उनसे संभलते नहीं . राजो ने उन्हें निकम्मा ही बनाया .
आंखें लगी – भर थीं कि श्मेश्वर की हांक ने जगाया, “बस आ गई है, आश्रम के मुहारे .”
विस्मित हुए . कमरे से बाहर न निकलने वाले बुजुर्गों को बाहर निकलते देखा, जिन्हें पहले ज्यादा – से – ज्यादा उन्होंने कमरे की चौखट के बाहर कुर्सी पर बैठे भर देखा है .
चटर्जी दी को एंबुलेंस में के जाने से पहले आश्रम के प्रांगण में रखा गया . दो टोकरी गुलाब की पंखुड़ियां बाहर से मंगाई गई हैं . आश्रम के प्रांगण के पेड़ – पौधों ने भी उनके अंतिम श्रृंगार में मदद की . सहायक विष्णु बुजुर्गी की अपनी आत्मीय साथिन को अश्रु – भीगी पुष्पांजलि अर्पित करने में सहायता कर रहा था . सचदेवा जी चटर्जी दी के पुत्र श्यामल को उनके सिरहाने खड़े लोगों में ढूंढने की चेष्टा करते रहे . बंगाली समाज के बहुत – से अजनबी चेहरों के बीच श्यामल का चेहरा उनकी पहुंच से बाहर हो रहा था . श्मशान में दाह – संस्कार के समय ही उसे पहचान सकेंगे . कपूर उनके कंधे से लगा बेतरह हिलता हुआ सुबक रहा था .
उन्होंने देखा . गौर किया . कपूर के गले में पड़ा मफलर वही नहीं है जो गंगासागर की तीर्थयात्रा से लौटते हुए चटर्जी दी उसके लिए लाई थीं .
कपूर के हठ के आगे उन्हें झुकना पड़ा .विष्णु और उन्होंने मिलकर उसे बस की सीढ़ियों पर चढ़ाया . ऊपर से खींचने में कुछ अन्य लोगों ने मदद की .
कपूर की बगल में ही बैठे सचदेवा जी . बूढ़ों की बारात थी . बीस मिनट से ऊपर लग गए बैठा – बैठी में . एंबुलेंस को रोक रखा गया था . बस घुरघुराए तो एंबुलेंस आगे चले . बस घुरघुराई . एंबुलेंस बस के आगे हो ली . कमलेश बहन जी ने उच्चारा, “बोलो राम नाम सत्य है ….”
अवरुद्ध कंठ उसी धुन में राम – नाम उच्चारने लगे . आश्रम के बाहर होते ही बस एंबुलेंस के पीछे बाई ओर को मुड़ने लगी कि अचानक सचदेवा जी भड़भड़ाए – से अपनी सीट से उठ खड़े हुए . हाथ उठा ड्राइवर को पुकारते हुए कहने लगे, “ड्राइवर साहब, जरा गाड़ी रोकना, भैया ! रोकना तो …”
आगे बैठे लोगों ने उनके स्वर मिलाया . उनके सीट से बाहर होते न होते कपूर ने उनका कुर्ता पकड़ लिया .
“आप भाई जी गाड़ी क्यों रुकवा रहे हैं ?”
“उतरना है मुझे .”
“कुछ भूल गये ?”
“नहीं, याद आ गया … मुझे तो अट्टा मार्केट जाना है .”
“अ – टू – टा ss… किस वास्ते, भाई जी .”
मगर सचदेवा जी उन्हें जवाब देने के लिए रुके नहीं . लपकते हुए रुकी बस के दरवाजे से नीचे उतर गए .
उनके उतरते ही ड्राइवर ने बस बाई ओर मोड़ दी .