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– ओम प्रकाश राय यायावर

गतांक से आगे …

6

हफ्तों बाद काव्या ने एक रोज किसलय कोई पर पुन: मैसेज लिखा था- ‘‘माफ करना तब कुछ जल्दबाजी में थी, आपके प्रयासों की सही तरीके से सराहना भी न कर सकी। आपने सच में बेहद अच्छी और भावप्रवण शायरी लिखी थी। काश कि मैं भी कभी आपकी तरह लिख पाती। वैसे कई दिनों से मैं सोच रही थी कि आपसे इत्मीनान से बात करती, अगर आपकी व्यस्तता न हो तो, मैं आज रात फुर्सत में हूँ दस बजे के बाद चैटिंग हो सकती है।’’ किसलय को मैसेज पढ़ बहुत सुकून मिला और उतावला तो इतना हुआ कि कल्पना करने लगा, काश अभी रात हो जाती, तो कितनी जल्दी मुलाकात हो जाती। दिल ने खूब समझाया, अब तेरी नाव निकल पड़ी है बस थोड़ा- सा और इंतजार कर। एक-एक पल काटना मुश्किल हुए जा रहा था। मन अधीर और हृदय गंभीर हो चला था। वह समझ नहीं पा रहा था कि शेष दस घंटे कैसे कटेंगे ? दैव संयोग से तब तक दोस्तों की मंडली किसलय के कमरे पर आ गयी, देखते ही देखते महफिल जम गयी। आज किसलय बहुत बदला-सा लग रहा था। आत्मविश्वास और जोश देखने लायक था। बात-बात पर जुबा से शायरी टपक रही थी, उसने दोस्तों को संबोधित कर कहा, ज़रा गौर फ़रमाइएगा-

‘‘ये माना देखने में तेरे-मेरे घर बराबर हैं,

मगर किसने कहा नींव के पत्थर बराबर हैं।

लगाया हाथ पत्थर को बनाकर आइना छोड़ा,

चमकता है मगर अब टूटने का डर बराबर है।’’

वाह, वाह । दोस्तों ने जब शाबासी दी, तो फिर दूसरी शायरी सुनाया-

‘‘क्या अंधेरा है क्या उजाला है ?

ये नजरिए का बस हवाला है।

रंग बस एक ही है दुनिया में,

इश्क ने हुस्न पे जो डाला है।

कौन खोलेगा दिल का वो कमरा

तेरे नाम का जिसपे ताला है।’’

दोस्त ताली बजा, जय ध्वनि करने लगे और फिर सब बारी-बारी से उधार की शायरी सुनाने लगे। कुछ इधर की, कुछ   उधर की, लेकिन जोश में कोई कमी न थी। एक खत्म, तो दूसरा शुरू। दोस्तों को भी आज खुशी थी, कई दिनों बाद तो किसलय आज इतना प्रसन्न था। किसलय ने समोसे और जलेबी मँगवा सबको भरपेट खिलाया। वहाँ का माहौल खुद-ब-खुद पार्टी जैसा हो गया। घंटों यह कार्यक्रम चलता रहा और रात होने पर ही सभी वहाँ से खिसके। जब रात के आठ बज गये, तो किसलय ने विचार किया, क्यों न आज होटल का खाना खाया जाए ? स्टेशन के दूसरी ओर ढेर सारे होटल

थे। वह स्टेशन पार कर होटल पहुँचा, खाना खाया, फिर अनमने भाव से जैन कॉलेज के फिल्ड में टहलने लगा। तन्हाई भी कितनी खूबसूरत होती है, ये आज किसलय से

बढ़कर कोई समझ न सकता था। उसने धीमी आवाज में मोबाइल पर एक गाना बजाया

गाने के बोल थे- ना कजरे की धार ना मोतियों के हार… पर आवाज पंकज उधास

की जगह मुकेश की थी, कुछ ही दिन पहले किसलय को जब यह बात मालूम हुई थी कि इस गाने को सबसे पहले मुकेश ने गाया था, पर किसी कारणवश फिल्म रिलीज

न हो पायी थी, तो वह बहुत आश्चर्य में पड़ गया था। और तब से वह कई दिनों तक इस गाने को लगातार सुनता रहा था। आस-पास के फिजा में घुला संगीत और भी कर्णप्रिय लगा। मुकेश की मीठी और दर्द भरी आवाज भीतर तक उतर रही थी। वह घास पर बैठ चुका था, दूर तक कोई नजर नहीं आ रहा था। कुछ पल के लिए वह फिर से उसी ट्रेन के सफर में जा पहुँचा था। उसे रह-रहकर ऐसा आभास हो रहा था

गोया बगल में काव्या बैठी हो और वह सजल नेत्रों से उस रूपसी को हृदयंगम कर रहा है।

खैर, घंटे भर तक इस कल्पनामयी दुनिया में विचरने के बाद वह स्टेशन परिसर में चक्कर लगाने लगा। आज उसे आरा शहर बहुत खूबसूरत जान पड़ा। स्टेशन परिसर

में लाइटिंग की उचित और पर्याप्त व्यवस्था थी। आज हर तरफ फर्श भी बहुत साफ नजर आ रहा था। ऐसा लगा मानो कोई रेलवे का बड़ा अधिकारी आने वाला हो और उसी की तैयारी चल रही हो। प्लेटफार्म न.- 3 पर पहुँचते-पहुँचते दस बज गये थे। उसने झटपट फेसबुक खोला, काव्या ऑनलाइन दिख रही थी। किसलस ने हाय-हैलो किया, उधर से भी रिप्लाई में अभिवादन किया गया। वह अब अपने रूम की तरफ

चल पड़ा। सामने वाली गली में अंधेरा था, फूलों की कई क्यारियाँ थीं, जिसे रस्सी से घेरा गया था। वह एक बार मोबाइल के स्क्रीन पर देखता, तो दूसरी बार सामने रास्ते

पर। अचानक से पाँव रस्सी में लगा और वह गिरते-गिरते बचा। उसने मन ही मन सोचा अगर दूसरा कोई इस हालत में देखता, तो पक्का शराबी कहता, उसे हँसी आ गयी।

 

काव्या : ‘‘कैसे हैं ?’’

किसलय: अच्छे हैं, और आप?

काव्या: बस ठीक-ठाक हूँ, आपकी दुआ से।

किसलय : हूँ मैं आपकी कविता पढ़ना चाहता हूँ, कैसे संभव होगा ?

काव्या : मेरी कविताओं में क्या रखा है, आप मुझसे अच्छा  लिखते है। किसलय : हम्मम।

काव्या : आपसे मैं बहुत प्रभावित हूँ।

किसलय : वाह! ऐसा क्या कर डाला मैंने, मुझे तो लगा आप भूल ही गयीं।

काव्या : आपको भूलना क्या इतना आसान है, कोई चाहकर भी आपको भूल नहीं सकता, आपकी बातें ।

किसलय : कुछ गलत तो नहीं कह गया था ?

काव्या: बिल्कुल नहीं, आपने तो हमें बहुत प्रेरित किया है। किसलय : वो कैसे ?

काव्या : आपको देखकर, अब इरादा आपके जैसा होने को करता है।

किसलय : अच्छा ऐसा क्या देख लिया आपने, जो अब तक किसी ने मुझे नहीं बताया… पर मैं आपसे मिलने के बाद से ही कुछ बदल-सा गया हूँ।

काव्या : अच्छा ! वो कैसे ?

किसलय : जबसे आपसे मिला मैं…

वह ठीक से सोच न पाया कि आगे क्या लिखे और जल्दबाजी में मैसेज सेन्ड का बटन दब गया।

काव्या : क्या हुआ अधूरा क्यों छोड़ दिया ?

किसलय : कुछ नहीं, भावों में कुछ ज्यादा बह गया।

काव्या : ऐसे ही बहते रहे तो किसी दिन…

किसलय : क्या किसी दिन…

काव्या   किसी दिन कहीं कैद होकर रह जाइएगा।

किसलय : ओ हो, हम इतने भी खुशनसीब नहीं जी।

काव्या :  और बताइए घर पर सब लोग ठीक-ठाक ?

किसलय : हाँ सभी ठीक हैं, बस एक को छोड़कर   ।

काव्या : किसको छोड़कर ?

किसलय : मुझे।

काव्या : आपको क्या हुआ?

किसलय : मुझे खुद नहीं मालूम कि मुझे क्या हुआ किसी काम में मन नहीं लगता।

काव्या : लेकिन मुझे मालूम है, आपको क्या हुआ…

किसलय : कमाल है आप तो दिव्य चक्षु रखती हैं।

काव्या  :  नहीं  ऐसा  तो  नहीं,  पर  थोड़ी-बहुत  इस  तरह  की बीमारी का अनुभव मुझे भी है।

किसलय : लेकिन आपको हमने ढूँढ़ ही लिया।

काव्या : हाँ, ये तो मानना पड़ेगा दाद देती हूँ आपकी स्मृति को।

किसलय : मुझे नहीं विश्वास हो रहा था कि मैं कभी आपको दुबारा से ढूँढ़ पाऊँगा, न जाने कितने प्रयासों के बाद आप मिल सकीं।

काव्या : आज हमने आपका पूरा प्रोफाइल अच्छे से देखा। किसलय : हम्मम।

काव्या : ये आप ही का लिखा हुआ है न-

हसरत है इक दिन मैं गुंचा हो जाऊँ आँधियों से लड़ू या कि फना हो जाऊँ ।

किसलय : क्या हुआ, आप ऐसा क्यों पूछ रही हैं ?

काव्या : मुझे ये शायरी बहुत पसंद आयी।

किसलय  :  शुक्रिया !  यह  जानकर अच्छा लगा  कि  कुछ तो  हमारा  आपको  भी अच्छा लगा।

काव्या : ऐसा नहीं लगता आपको कि आप कविता में कुछ ज्यादा ही दर्द पिरोते हैं और दूसरी तरफ जब किसी की तारीफ करते हैं, तो कुछ    ज्यादा ही तारीफ कर देते हैं।

किसलय : दर्द मैं जानबूझकर नहीं पिरोता, बल्कि मौन भावों को शब्दो में उतारने के चक्कर में ऐसा हो जाता है।

काव्या : और तारीफ ?

किसलय : क्यों आपको तारीफ से डर लगता है ?

काव्या : थोड़ा-बहुत।

किसलय : और तारीफ करने वालों से ?

काव्या : थोड़ा-थोड़ा।

किसलय : तब तो मुझे बहुत संभलकर आपकी तारीफ़ भी करनी पड़ेगी। :

काव्या : आपकी कई ग़ज़ल मुझे बहुत अव्च्छी लगी हाँ, कहीं-कहीं अतिशयोक्ति से मैं थोड़ा बहुत घबरा जरूर गयी, फिर भी आप बहुत अच्छा लिखते हैं। आपकी लेखनी में बहुत दम है।

किसलय : संतुलन बनाना तो कोई आपसे सीखे।

काव्या : हमें तो अभी आपसे बहुत कुछ सीखना है।

किसलय : अरे, ऐसा नहीं, खामखाह आप मुझे चढ़ा रहीं, सीखना तो मुझे बहुत कुछ आपसे है।

काव्या : मैं इतनी भी काबिल नहीं कि आपको कुछ सिखा सकूँ। मैं तो आपको भावशास्त्री मान चुकी हूँ। भावनाओं की चाशनी में शब्दों को डूबाकर मुकम्मल गज़ल कैसे लिखी जाती है, ये कोई आपसे सीख सकता है।

 

किसलय : भावनाएं बड़ी बुरी चीज होती हैं, यह इन्सान को बहुत कमजोर बनाती है।

काव्या : सच है कि भावनाएं इन्सान को कमजोर बनाती हैं, पर सच्चाई तो ये भी है कि भावनाएं न हों, तो इन्सान भी इन्सान कहाँ है?

किसलय : सहमत।

दोनों तरफ से कुछ मिनट तक कोई मैसेज नहीं हुआ। पुन: काव्या ने बात जारी रखा।

काव्या : आपकी उम्र को देखते हुए आपकी गज़लों को पढ़कर कोई भी हैरत में पड़ सकता है। संदेह भी किया जा सकता है।

किसलय : ऐसा क्यों ?

काव्या  :  कहीं-कहीं बहुत गहरी  समझ  और  गजब  की  रचनात्मक  परिपक्वता दिखती है।

किसलय : मतलब आपको शक है कि ये रचनाएं मैंने नहीं लिखी, कॉपी पेस्ट की है… नहीं ?

काव्या : नहीं, ऐसा तो मैंने नहीं कहा और वैसे भी शक की बीमारी पुरुषों में ज्यादा होती है, महिलाएं तो एक इशारे पर एक प्यार भरे लावे पर अपना सबकुछ अर्पण कर जाती हैं।

किसलय : और मैं ऐसी ही बात, अगर पुरुषों के समर्थन में कहूँ तो ?

काव्या : कह सकते हैं, बात सच भी हो सकती है, पर प्रायिकता के मामले में आप पिछड़ जाएंगे।

किसलय कुछ देर सोचता रहा- गजब की लड़की है, कहाँ की बात को कहाँ मोड़ देती है। दो मिनट बाद काव्या ने मैसेज किया।

काव्या : अब एक सवाल पूछना चाहती हूँ आपसे।

किसलय : पूछिए – पूछिए । स्वागत है।

काव्या : रिश्तों के संबंध में क्या सोचते हैं आप ? रिश्ते का आधार और रिश्ते का नाम,  इनका जिंदगी से क्या और कितना वास्ता है?

किसलय : मुझे तो आपने दार्शनिक समझ लिया है। खैर, मेरी जितनी समझ, उसके अनुसार  रिश्ते  वही  मजबूत  होते  हैं,  जिसकी  डोर  स्वार्थ  से  बुनी  गयी  हो  क्योंकि नि:स्वार्थ रिश्ते बहुत कठोर होते हैं, जो मुड़ना नहीं, टूटना जानते हैं। और अब वो ज़माना भी न रहा, यहाँ तो हर रिश्ते के पीछे  स्वार्थ छुपा रहता है। कुछ रिश्ते नाम से

परे होते हैं, जहाँ पवित्रता और विश्वास होता है और ऐसे ही रिश्ते जन्म-जन्मांतर से संबंधित होते हैं। हर वो रिश्ते जायज हैं, जहाँ दो लोगों के संबंध जोर-जबरदस्ती पर आधारित  न  हों,  पर  हाँ  समाज  की  मान्यता  भी  बहुत  मायने  रखती  है  और  सबसे महत्वर्पूण तो अंत:करण की शुद्धता है।

इस तरह की तमाम बातें और चर्चे देर रात तक चलते रहे और अंत में ‘शुभ रात्रि’ के साथ दोनों ने विदा लिया।

 

7

दूसरे दिन पुन: रात में काव्या को ढूँढ़ा गया, पर वह उस दिन ऑनलाइन न हुई। लेकिन उसके ठीक अगले दिन ऑनलाइन नजर आयी और अभिवादन के साथ बात की, शुरुआत भी उसी ने की।

काव्या : नमस्ते! किसलय : नमस्ते!

काव्या : कल के लिए माफ़ करना, शायद आप परेशान हुए होंगे। किसलय : ये आपने कैसे जाना ?

काव्या : आपके साथ रहकर इतना अंदाजा तो मैं भी लगा सकती हूँ।

किसलय : आप ज्योतिष भी जानती हैं, ऐसा जान पड़ता है।

काव्या : दोस्त किसी जादूगर, ज्योतिष, भविष्यवक्ता और मनोवैज्ञानिक से कम नहीं होता, वह तो दोस्त की हर नब्ज को ठीक से समझ जाता है।

किसलय : क्या आप मुझे दोस्त मानती हैं?

काव्या : ये तो मेरे लिए गर्व की बात होगी, जो आप मेरे दोस्त हों। किसलय : धन्यवाद! जो आपने कम से कम दोस्त तो माना।

काव्या : मुझे नहीं लगता, आपको दोस्त बनाने में किसी को आपत्ति हो सकती है। किसलय : हम्मम।

काव्या  :  जबसे  मैंने  आपकी  रचनाओं  को  पढ़ा,  मैं  एक  बात  को  लेकर  बहुत

पसोपेश में हूँ। किसलय : वह क्या?

काव्या : अक्सर लेखक और कवि तो वही बनते हैं, जो प्यार में बहुत चोट खाये होते हैं और फिर कुछ रचनाओं में इस कदर दर्द की अभिव्यक्ति देख मेरा मन कुछ और कहता है।

किसलय : आपका मन क्या कहता है, जरा हमें भी तो बताएं। काव्या : यही कि कहीं न कहीं आपका दिल बहुत चोट खाया है।

किसलय : आपके फार्मुले के अनुसार अक्सर चोट खाए लोग ही कवि, शायर और लेखक बनते हैं, तो फिर आप भी तो कविता लिखती हैं।

किसलय ने वाक्य के पीछे एक स्माइली लगा दिया।

काव्या : लेकिन मेरे और आप में बहुत फर्क है। आप प्योर कवि हैं, मैं तो अभी तुकान्त भर कर लेती हूँ यानी की जोड़-तोड़ करने वाली मिलावटी कवि।

किसलय : खैर, छोड़िए इन बातों को- कोई दूसरी बात हो। लखनऊ के बारे में कुछ बताएं, मैं वहाँ कई बार जा चुका हूँ।

काव्या : तब तो आप मेरे से ज्यादा अच्छे से लखनऊ के बारे में जानते होंगे, क्योंकि एक कवि के पास दृष्टि, दृष्टिकोण और दर्शन बहुत उच्चकोटि का होता है।

किसलय : देखिए मैं पुन: आपसे विनती करता हूँ, आप ये भ्रम न पालिए कि मैं कोई कवि वगैरह हूँ। प्यार और इश्क की दो-चार बातें लिख देने से कोई कवि थोड़े-ही बन जाता है।

काव्या : चलिए दो-चार बातें ही सही, पर ये तो बताइए आप के नजरिए में प्यार क्या है ? आप प्यार को कैसे परिभाषित करेंगे?

किसलय : मेरे नजरिए में आजकल प्यार महज एक व्यापार है। कुछ अपवाद को छोड़ अब यहाँ प्यार कौन करता है? सबके-सब दिखावा और ढोंग करते हैं प्यार का। जब जाति, धर्म, व्यवसाय, सुंदरता, अर्थ, कामनीयता आदि… आदि प्यार के कारा हों, तो भला वह प्यार कैसे हो सकता है। जहाँ कारा हो, वहाँ भला प्यार कैसा, प्यार तो अकारा होता है- प्यार तो अकाल और असमय होता है, असंस्कृत होता है, अभय होता है- अलक्ष्य, असीम, अनन्त, अधीर, अदृश्य, अजर, नि:शब्द, निर्बन्ध,  निर्वाध, निराकार, युग सृष्टा और लज्जा रहित होता है। दुनिया के सारे वेद-शास्त्र और साहित्य बस प्यार को बयां करते रहे, पर आज भी यह अपरिभाष्य और नवीन है, फिर मेरा इस बारे में कुछ    कहना तो छोटा मुँह बड़ी बात होगी।

काव्या : वाह ! अद्भुत ! क्या बात कही मजा आ गया।

किसलय : कुछ दिन हुए मेरे एक मित्र मुझसे मिलने आये थे। उनका प्रेम संबंध किसी युवती से था, पर अचानक कुछ   उल्टा हुआ और दोनों के बीच ब्रेक-अप हो गया। वो कह रहे थे- ललिता को तब मालूम होगा मेरा महत्व, जब वह कष्ट में पड़ेगी, भगवान करे, जैसे उसने मुझे कहीं का न छोड़ा, वैसे वह भी कहीं की न रहे। हालांकि मेरे मित्र सच्चे व्यक्ति थे, पर ये मुझे अच्छा नहीं लगा। मैंने कहा- दोस्त कहीं आपका प्यार

बस स्वांग भर तो नहीं, क्योंकि जो आप कामना कर रहे हैं कि ललिता कष्ट में पड़े ये प्यार नहीं जान पड़ता। प्रेम तो भलाई का दूसरा नाम है। आपको ऐसा सोचना चाहिए

था कि मुझसे न सही, ललिता किसी दूसरे के साथ सुखी तो रहे। किसी की बुराई की कामना और बदले की भावना, ये तो कदापि प्यार नहीं हो सकता। प्यार तो खुदा को

पाने का जरिया है, प्यार में हिंसा और नफरत के लिए कोई जगह नहीं। आप उम्र भर नफरत करते रहें और मैं ताउम्र प्यार लुटाता रहूँ, ये है सच्चा प्यार। आपने गौर किया है,

प्यार के लगभग सभी समानार्थी शब्दों का कोई न कोई अक्षर आधा है। यानी उसने शब्द की सार्थकता के लिए अपना त्याग किया है। वह शब्द चाहे प्यार हो या इश्क या

मुहब्बत, प्रेम अथवा उल्फत हो। और फिर प्यार का तो पहला अक्षर ही अधूरा है, सो भूला इसके पूरा होने की कल्पना ही बेमानी है, पर मेरी नजर में यह सांसारिक धारण और पैमाना, निराधार और अतार्किक है। प्यार में अर्पूणता जैसी कोई बात ही नहीं होती।

यह तो हर रूप, दिक्, परिस्थिति, काल और अवस्था में संर्पूण होता है, उत्कर्ष होता है, चरम होता है। इसकी कोई मंजिल नहीं, क्षण भर का प्यार उम्र भर के रिश्ते पर भारी है। प्यार का अर्थ है त्याग और समर्पण। एक अदृश्य शक्ति की जद में इतना बेखबर, बेसुध और लीन होना कि खुद के अस्तित्व का ख्याल न रहे। सम्मुख के अस्तित्व में खुद को समर्पित कर एकाकार हो जाना, अपना और पराया का भेद मिट जाना। काव्या : प्यार करना चाहिए अथवा नहीं ?

किसलय : इसमें करने जैसी कोई बात नहीं। यह तो अलौकिक तत्व है, जो अपने आप प्रकट हो जाता है। तभी तो वर्षों का रिश्ता जो एक पिता का पुत्री से होता है, उसे

पलभर के प्यार में कोई छोड़ने को तैयार हो जाता है।

‘‘किसी भी पाये पे थोड़े टिका हुआ है फलक इसे तो इश्क ने सर पर चढ़ा रखा है।’’

काव्या : वॉव, बहुत खूब। आप तो प्यार के बहुत बड़े हिमायती हैं।

किसलय : बहुत बड़ा हिमायती तो नहीं, बस प्यार का एक मामूली-सा पुजारी कह सकती हैं।

काव्या : आप प्यार के पुजारी जो ठहरे, तो ये पूजा किसके लिए की थी ?

किसलय : आप कुछ ज्यादा अतिक्रमण नहीं कर रहीं ? मेरे संबंध में जानने की इतनी इच्छा रखती हैं आप, पर अपने बारे में कुछ तो नहीं बताया।

काव्या : आपने पूछा ही कब ? वैसे भी मेरे बारे में बहुत कु छ तो आप जान ही चुके है, अब ऐसा कुछ खास नहीं, जो बताने लायक हो।

किसलय : तो फिर आप कविता क्यों लिखती हैं ? आपके दिल में कैसा दर्द है ? कहीं प्यार का मामला तो नहीं था ?

काव्या : मुझसे कौन प्यार करेगा ? मैं इस काबिल कहाँ हूँ ? ना ही सूरत और ना ही सीरत, भला ऐसी गंवारिन से कोई नेह क्यों कर लगाएगा ?

किसलय : मैंने अपनी आँखों से आपसे ज्यादा खूबसूरत लड़की कभी नहीं देखी। आप यकीन मानेंगी।

काव्या : इसका मतलब आपके लिए भी चेहरे की खूबसूरती खास महत्व रखती है प्यार में।

किसलय : नहीं, नहीं, ऐसा मैंने कब कहा?

काव्या : एक पल को मान लीजिए मैं आपकी काव्या न सही कोई और हूँ, तो क्या आप मुझे…

किसलय : क्या मजाक करती हैं।

काव्या : मानने में बुराई क्या है, कल्पना ही सही जरा सोच के तो देखिए।

किसलय : ये आप कैसी बेसिर-पैर की बातें कर रही हैं, ऐसा मजाक मुझे अच्छा नहीं लगता।

काव्या : आपको क्या अच्छा लगता है और क्या बुरा, इसकी परवाह दुनिया को कहाँ और आपने अपनी पसंद-नापसंद का विज्ञापन भी तो कभी नहीं निकाला।

किसलय : आप भी खूब बातें बनाने लगी हैं। काव्या : ये तो संगत का असर है।

किसलय : मतलब आप बहाना बना के निकलना चाहती हैं? काव्या : बहाना किसलिए ?

किसलय : तो फिर आप अपने दर्द का कारा क्यों नहीं बताना चाहती, कुछ तो बात है, जो आप मुझसे  छुपा रहीं। मैं आपकी कहानी सुनना चाहता हूँ।

काव्या : आप कवियों का क्या भरोसा, कल को मेरी निजी कहानी पर भी कुछ लिख देंगे तो ?

किसलय : अब इतना तो आपको भरोसा करना ही होगा। क्योंकि आपने मुझे मित्र जो मान लिया है।

काव्या : लेकिन आज से पहले मैंने अपनी ये कहानी किसी को नहीं सुनाया, इसलिए प्लीज मजाक मत बनाइएगा।

किसलय : भावनाओं के साथ खेलना मुझे बिल्कुल पसंद नहीं और ऐसे लोगों को मैं कभी माफ नहीं करता, इसलिए आप निश्चित हो बताइए। मुझे आपकी कहानी से बहुत हमदर्दी है।

काव्या : और मुझसे…?

किसलय : आपसे तो और भी ज्यादा।

काव्या : लेकिन मैं ये नहीं कह सकती कि वो प्यार था, आकर्षण या कु   छ और… किसलय : इसकी चिंता आप न करें, मैं निष्कर्ष निकाल लूँगा बस आप सुनाइए।

काव्या : आप तो बहुत बेचैन होने लगे।

किसलय : हाँ, इन सब मामलों में मैं अधीर हो जाता हूँ, दिल का मामला है इसलिए दिमाग बंद हो जाता है।

 

दोनों fb पर बात करते-करते टाइपिंग में एक्सपर्ट हो गये थे।

‘‘बात तब की है, जब मैं दसवीं में पढ़ती थी। हर रोज कोचिंग के लिए घर से दूर साइकिल से जाती थी। एक दिन जल्दबाजी में बैग  छोड़, बस दो-चार कॉपी-किताब कैरियर में दबाये चली जा रही थी। कुछ  दूर आगे बढ़ने पर ऐसा लगा, जैसे कोई पीछे से पुकार रहा हो। पलटकर देखा, तो वह एक हमउम्र लड़का था, जो हाथ में मेरी किताब लिए कुछ  इशारा कर रहा था। मैंने साइकिल रोक दी और उसके पास आने का इंतजार करने लगी। वह दौड़ता हुआ पास आया और बोला- ‘‘मेमसाहब, आपकी किताब वहाँ गिर गयी थी, उसी के लिए चिल्ला रहा था।’’

मैंने वापस अपनी किताब ली और धन्यवाद कहा। उसने मुस्कुराकर अपनी बड़ी – बड़ी गोल आँखों को झपकाया, मानों आँखों से प्रत्युत्तर दे रहा हो। कई दिनों बाद एक रोज फिर वही लड़का उसी जगह दिख गया। मैंने देखा फटे-पुराने कपड़ों में भी उसका मुखमंडल दैदीप्यमान हो रहा था। वह घूम-घूमकर नारियल बेच रहा था। सच कहती हूँ मैंने अनगिनत पुरुषों को देखा, पर ऐसी आकर्षक और गहरी आँखें मैंने कभी नहीं देखी। एक बार उसकी आँखों में आँखें डाल देने का मतलब था मंत्रमुग्ध होना। मुझे उससे डर लगने लगा था। लगता था जैसे वह कोई जादूगर हो। पर कभी कुछ  कहता नहीं, बस एकटक देखता रहता और मुस्कुरा भर देता। वह अब प्राय: दिखने लगा था।

मुझे लगा, मानों वह जानबूझकर इस टाइम पर वहीं बैठ जाता है। पर ये बात साधारण न थी, क्योंकि वह घूम-घूमकर नारियल बेचा करता था। और इसके लिए दूर-दूर तक जाना होता था। कभी इस मुहल्ला, तो कभी दूसरा मुहल्ला। इसके बावजूद हर दिन एक खास वक्त पर वह वहाँ बैठा रहने लगा। कहीं न कहीं कुछ  राज तो था इसमें, पर ईमानदारी से कहूँ, तो मुझे उसका घूरना अच्छा लगता था। मैं तो अब उससे बात भी करना चाहती थी, पर क्या बताऊँ हमारे और उसके बीच एक बहुत बड़ा फासला था- सामाजिक हैसियत का। खैर, अनायास ही उसका मेरे जीवन में आना आनंद का स्त्रोत हो गया था। जब कभी अकेली और उदास होती, तो बस उसकी आँखें याद आती और उदासी दूर हो जाती।

एक दिन मुझे उसे गौर से निहारने का मौका मिला। संयोग की बात थी, वह मेरे घर के बाहर खड़ा नारियल बेच रहा था। मैंने दूर से उसे देखा और झटपट उसके पास दौड़ी

चली आयी, उस वक्त वहाँ कोई नहीं था।’ मैंने पूछा – ‘तुम्हारा नाम क्या है?’

–   ‘‘मेम साहब, मेरा नाम निलो है।’’

–   ‘‘धत तेरे की! ये कैसा नाम है? पता ही नहीं चलता लड़के का नाम है या लड़की का’’ मैंने कहा।

वह चुपचाप मंद-मंद मुस्कुराता रहा। मैंने नारियल के मोलभाव किये और थोड़ा – बहुत खरीदा। देखा गोरा-चिटा मासूम चेहरे का लड़का, पाँव में चप्पल नहीं थे, पैंट बहुत पुराना और पीले रंग का चेकदार शर्ट- जिसमें कई बटन टूटे हुए थे, पहने हुआ

था। बाल में कंघी नहीं की थी, पर पसीने से भीगा बाल लाल चेहरे पर लटकता बहुत मनोहारी लग रहा था। मेरे पास पैसे तो उस वक्त थे नहीं, मैंने कहा- रूको मैं पैसे लेकर आती हूँ। पास ही में तो घर था। जब मैं घर की तरफ जाने लगी तो उसने कहा- ‘‘एक मिनट मेमसाहब, क्या मैं ये जान सकता हूँ…’’ और वह चुप हो गया। ‘‘क्या, क्या पूछो ?’’ मैं उतावली हो गयी।

‘‘आपका आपका नाम क्या है?’’

‘‘मेरा नाम… मेरा नाम ! तुम मुझे मेम साहब ही कहना, मुझे सुनकर बहुत अच्छा लगता है।’’ और फिर पैसा लाने चली गयी, जब लौटकर आयी, तो देखा बगैर पैसा लिए वह कहीं गायब हो चुका था। मैंने नारियल खा लिया था, वो भी मुफ्त का। सोचा रास्ते में इस बार मिलेगा, तो पैसे दे दूँगी और कुछ   ज्यादा दूँगी और कहूँगी कि एक अच्छा – सा कपड़ा और चप्पल खरीद ले। मुझे बहुत दु:ख हुआ उसके बारे में  सोचकर।

कई दिनों बाद जब एक रोज उसी रास्ते कोचिंग जा रही थी, तो देखा उसी जगह पर जहाँ वह बैठा रहता था, भीड़ लगी हुई थी। कुछ  लड़कियाँ भी खड़ी थी। पता चला कोई एक्सीडेन्ट हुआ है। पास जाके देखा तो आँखें फटी की फटी रह गयी। वह निलो था- ‘‘उसकी आँखें पथरा गयी थीं, चेहरे पर खून के दाग लगे थे, शरीर ठंडा हो चुका था। लोगों ने बताया, मर चुका है।’’ एक आदमी कह रहा था, हर रोज वह यहीं इसी वक्त किसी का इंतजार करता था, पता नहीं किसका ? आज भी सड़क के किनारे खड़ा इधर-उधर देख कुछ  सोच रहा था, तब तक एक अनियंत्रित बोलेरो ने सामने से धक्का मारा। बेचारा नीलो ! मैं वहाँ से झटपट साइकिल लिए वापस घर आ गयी। मेरी आँखों से आँसू थमने का नाम ही नहीं ले रहे थे। अकेले में खूब रोयी। मैं कई रोज तक उसे भूला नहीं पायी। उसके आँखों के झपकाने और मेम साहब कहने के भाव को मैं अपने से अलग नहीं कर पायी। कई दिनों तक मैं कोचिंग नहीं गयी। बाद में वह रास्ता और वो कोचिंग दोनों मैंने  छोड़ दिया। उसकी यादें महीनों तक रोने पर मजबूर कर देती थीं।’’

ये मेरी कहानी हुई। अब आप कल अपनी कहानी बताइएगा, क्योंकि रात बहुत ज्यादा हो चुकी। शुभरात्रि।

-धन्यवाद। अपने बारे में इतना कुछ बताने के लिए, आप तो बचपन से ही भावुक हैं, कल फिर मिलेंगे। बाय।

 

8

अगले दिन जब काव्या फेसबुक पर थी, तो किसलय का कोई पता-ठिकाना नहीं था।

आज काव्या व्यग्र थी, किसलय की कहानी को सुनने के लिए, जो कल बाकी रह गयी थी। पर उस दिन देर रात तक किसलय ऑनलाइन न हुआ। तीन रोज बाद एक रात पुन: दोनों एक साथ ऑनलाइन हुए और फिर बातचीत का सिलसिला आगे बढ़ा। काव्या : आप तो ऐसे न थे, वादा करके और फिर छुप जाना, मुझे तो जान पड़ा आप अपनी कहानी सुनाना नहीं चाहते।

किसलय : ‘वादा तो बात करने की अदा बन गयी है।

गम की गठरी मेरे बोझ से कहीं ज्यादा बँध गयी है।’

काव्या : कविता नहीं, कहानी सुनाइए। किसलय : रोमांटिक या एडवेंचरस ?

काव्या : वास्तविक और वह भी अपनी। किसलय : हम्मम।

काव्या : मैं तो बहुत बेचैन हूँ आज, आपकी कहानी सुनने के लिए। किसलय : ऐसी कोई कहानी नहीं है मेरी, आप खामखाह परेशान हो रहीं।

काव्या : अब इतनी भी बच्ची नहीं हूँ मैं, जो मान लूँ कि आपकी कोई कहानी नहीं, कुछ न कुछ  बात है, तभी आपकी कविताओं में इतना दर्द झलकता है।

किसलय : आज मुझे अफसोस हो रहा कि क्यों झूठ-मूठ का मैं कवि बन गया?

लेकिन आप विश्वास मानिए ऐसा कुछ नहीं, मेरी कविताएं सब झूठी हैं, उनका कोई मतलब नहीं।

काव्या : मुझे तो लग रहा कि आप सुनाना नहीं चाहते। ऐसा थोड़े ही होता है कि कोईकालेज की पढ़ाई कर ले और उसकी कोई कहानी न हो। किसलय : हम्म।

काव्या : आपकी कहानी एक तरफा प्रेम कहानी तो नहीं? किसलय : ये तो आप तय करेंगी…।

काव्या : क्या…?

किसलय : मेरे कहने का मतलब, कहानी के बाद इसका फैसला आप करेंगी। पर अब आख़िरी बार मुहब्बत करना चाहता हूँ, इसके बाद मैं प्यार कभी नहीं करूँगा। बहुत पीड़ा होती है। दिल तार-तार हो जाता है और दिमाग लाचार, सौ बिच्छुओ का डंक एक बार में प्रकट होता है, न आदमी जी पाता है और ना ही मर पाता है।’’

काव्या  :  आपकी जैसी मर्जी  आप  करना,  लेकिन  इस  वक्त तो अपनी  राम कहानी सुनाइए।

किसलय : राम कहानी नहीं, प्रेम कहानी और वह भी एक तुच्   इन्सान की। काव्या : हम्मम।

किसलय : बात उन दिनों की है, जब मैं इंटरमीडिएट का  छात्र हुआ करता था। मैं अपने गाँव में ही रहकर पढ़ाई किया करता था। चूँकि मैं विज्ञान का  छात्र था, इसलिए ट्यूशन पढ़ना लाजिमी था। विद्यालय में पढ़ाई बिल्कुल न होती थी, ऐसे में सारा का सारा मामला ट्यूशन पर जा अटकता था। मेरी नायिका तब दसवीं में पढ़ती थी। हालांकि उम्र में बराबर की थी, पर पढ़ाई देर से शुरू होने के चलते मुझसे दो साल पीछे थी।

मुझे याद नहीं आता, कभी मैंने उसकी तरफ गौर से देखा था अथवा प्यार भरी निगाहों से। वह बचपन से साथ ही एक ही विद्यालय में पढ़ी थी। हमारा प्रारंभिक विद्यालय वर्ग सात तक ही था, उसके बाद अपने गाँव से दूर एक छोटे से बाजार में उच्च विद्यालय की शिक्षा के लिए जाना पड़ता था। यह ब्वायज हाईस्कूल था,  इसी बाजार में एक गर्ल्स हाईस्कूल भी था। ईमानदारी से कहूँ, तो नवीं वर्ग तक तो मैं प्यार और लड़कियों के मामले में लल्लू ही था। इस तरह का कोई विचार और ख्याल आया ही नहीं।

लड़कियों के प्रति कोई दिलचस्पी न थी। हम सब अपनी मित्रमंडली में ही खोये रहते थे। जब दसवीं में पहुँचा, तो अनायास मेरा खिंचाव लड़कियों की तरफ हुआ। मैं अब रास्ते की हर बला को देखता और निहारता, कभी-कभी आहें भी भरता, पर इस दृष्टि में सौंदर्य-पिपासा के अलावा कु   और नहीं था। शाम को जब हम खेल के मैदान में खेलने जाते, तो वहाँ ढेर सारे दोस्त और सीनियर होते। गाँव के माहौल में गाली-गलौज और भद्दा हँसी-मजाक सामान्य बात है। मुझसे उम्र में काफी बड़े लड़के, जो साथ में क्रिकेट खेला करते थे, बहुत बेहूदी बातें किया करते थे। लड़कियों की बातें तो खूब होती थी। वो जब भी लड़कियों की बात करते, तो पारूल का नाम हर बात इस चर्चा का केन्द्र बिन्दु होता, वही पारूल जो मेरी नायिका थी।

मैं बड़ा ताज्जुब करता इनको पारूल में ऐसा क्या दिखता है, जो इतनी रुचि लेते हैं।

 

मुझे तो वह सामान्य से भी नीचे की चीज मालूम होती थी। खैर, ये लोग उसकी जितनी तारीफ करते, मैं उसके प्रति उतना ही ज्यादा घृणा करने लगा। मुझे तो वह बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी। जब वह सातवीं में पढ़ती थी, तो मुझे याद आता है, कितनी असभ्या और श्रीहीना थी, न व्यवहार, न शृंगार, बेहद फूहड़ जान पड़ती थी। उसकी तारीफ और सुन्दरता के गुणगान सुनते-सुनते मेरे कान पक गये थे। इसी बीच वह कहीं शहर में किसी रिश्तेदार के यहाँ रहने चली गयी, मैंने बिल्कुल इस तरफ ध्यान न दिया।

लेकिन जब वह बोर्ड की परीक्षा के लिए वापस आयी, तो उसका कायाकल्प हो चुका था, पर मैं अब भी उसके नाम से घृणा करता था। एक दिन मैं उसके पड़ोसी के यहाँ अख़बार पढ़ रहा था। तभी वह झटके से आयी और पास ही के खाट पर बैठ अपनी दोस्त रीमा को पुकारने लगी। ये रीमा का ही घर था, तब मैं गाँव में बेहद हँस-मुख और सरल स्वभाव का समझा जाता था। सारी लड़कियाँ बगैर हिचक मुझसे बात किया करती थीं। पारूल ने उस दिन अरसे बाद मुझसे बात की थी।

-‘अखबार में कुछ खास निकला है क्या?’ उसने पूछा ।

-‘खास मतलब ?’

-‘बोर्ड की परीक्षा के संबंध में?’

-‘नहीं तो। क्या बोर्ड की परीक्षा है तुम्हारी ?’

-‘हाँ और आपका ?’

-‘मेरा तो बारहवीं का।’

उसके बाद पास ही में रखा ‘रंगोली’ नामक अखबार का सप्लीमेंट पढ़ने लगी, जो फिल्मों पर केंद्रित था।

-‘आप ट्यूशन के लिए कहाँ जाते हैं ? मैं भी ट्यूशन करना चाहती हूँ।’

मैंने उसकी तरफ देखा और अपलक देखता रहा। वह कितनी बदली हुई-सी लग रही थी। उसने अपने आप को एकदम से बदल लिया था। बालों को करीने से बाँधा था। चेहरे  पर  कहीं  दाग-धब्बे  न  थे।  वह  गोरी  तो  थी  ही,  जब  हँसती,  तो  उसके खूबसूरत दाँतों का सेट चमक उठता, मानों जल में चंद्रमा का प्रतिबिम्ब और गालों पर डिम्पल उभर आते। आवाज में बहुत मधुरता थी और सबसे आकर्षक तो उसकी भौंहें थीं। मैंने अब तक सिर्फ सुना था, पर आज देखा। उसके होंठ जैसे गुलाब की कोमल पंखुड़ियों की प्रतिमूर्ति थी। उसके नयन मानो शराब। रह-रहकर वह मुझे देख लेती, जबकि मैंने अपने आप को अखबार में व्यस्त रखने की निरर्थक कोशिश कर रहा था। वह मुझसे खुलकर बातें करना चाहती थी, ऐसा जान पड़ा। मैंने कहा, ‘‘सर से बात कर तुम्हें ट्यूशन पकड़ा दूँगा।’’ रीमा घर पर नहीं थी, उसकी माँ वहीं आकर बैठ गयी, लेकिन हम दोनों रह-रहकर एक-दूसरे को देख लेते थे। नजरें जब चार होतीं, तो दिलों में झंकार होती और हम दोनों झेंप जाते। ये सिलसिला उस दिन कुछ देर तक चलता रहा। फिर मैंने अखबार को मोड़ कर रख दिया और वहाँ से चल पड़ा।

 

मैं प्रतिदिन वहाँ अखबार पढ़ने जाता था। और रीमा प्राय: पारूल के साथ उस वक्त दिख जाती। कई बार दोनों साथ आकर वहीं पास में बैठ जातीं, पर मैं शरमा के भाग जाता। मैंने पारूल को ट्यूशन के संबंध में सब कुछ  बता दिया और एक दिन साथ में चलकर समय भी तय करवा दिया। पारूल के साथ गाँव की ही उसकी तीन सहेलियाँ

और भी जाने लगी थीं। कुछ दिन बाद सर ने मुझे भी उसी बैच में कर दिया। बस हम पाँच लोग ही उस बैच में थे, वो चारों और मैं। आमने-सामने बेंच लगे होते थे। एक

बेंच पर तीन और दूसरे पर दो- प्राय: रीमा और पारूल एक साथ ही बैठती थीं और मैं उनके विपरीत बेंच पर। बीच में एक बड़ा-सा लकड़ी का टेबल था। हमारे पैर टेबल के नीचे होते थे, जाने-अनजाने में जब हमारे पाँव उनके पाँव से टकराता, तो रगों में सिहरन-सी होती। वह एक  छोटा-सा आयताकार कमरा था। हमलोग चप्पल बाहर ही खोलकर अंदर बैठते थे। कमरा बहुत साफ रहता था। कई बार ऐसा लगता, मानो वह जानबूझकर अपने पाँव मेरे पाँव पर रख रही हो, उसके पाँव की स्पर्श आह…। वहाँ ये चारों आपस में बातें करतीं, तो मुझे चुपचाप श्रोता बनकर सुनना पड़ता। वहाँ शहर वाली बात न थी कि हम आपस में फ्रेंड्स थे और हँसी मजाक करते। बहुत कम ऐसा होता, जब मैं पारूल से बात कर पाता। जो भी हो, इतना तो तय था कि मैं पहले जितना अधिक उससे घृणा करता था, वो भाव अब  छंट चुके थे। उसके विपरीत अब मैं उतना ही ज्यादा उसे पसंद करने लगा था।

काव्या – ‘‘आपने कभी प्रपोज नहीं किया ?’’

किसलय – मैडम, वह लखनऊ नहीं, गाँव था। वहाँ लड़कियों से बात करने के लिए भी हिम्मत जुटानी पड़ती थी। और नये उम्र के लड़के-लड़कियों का आपस में बातें करना अच्छा नहीं माना जाता था। वक्त पंख लगाये उड़ता रहा, मैं पारूल के सपनों में खोया रहा। अवसर मिलता, तो बातें भी होतीं, पर अक्सर रीमा उसके साथ होती थी। पारूल को पसंद करने वाला बस एक मैं ही नहीं था, अनगिनत थे। एक दिन अखबार पढ़ने के क्रम में कुछ   मिनटों के लिए उन्हें अकेला पा मैंने पूछा- ‘‘आपको फिल्मों में बहुत रुचि है, है न ? आपकी फेवरीट एक्ट्रैस कौन-सी है ?’’

-‘‘ये मैं नहीं बताऊँगी।’ और नखरे के साथ अपनी हिरन-सी आँखों को मटकाया और फिर, ‘‘हौले से कहा- पहले आप बताइए ?’’

‘‘आप भी तो देखने में किसी-से कम नहीं।’’ -मैंने कहा।

बहरहाल, उसने अपने पसंदीदा नायक-नायिकाओं का नाम बताया और मैंने भी।

-‘‘मैं आपसे खूब बातें करना चाहता हूँ, पर आपको देखकर सब भूल जाता हूँ।’’ मैंने हँसते-हँसते कह दिया।

प्रत्युतर में वह खामोश मुस्कुराती रही और कुछ  देर बाद कोयल-सी सुरीली आवाज में कहा- ‘‘आपको रोकता कौन है ? आप तो हमें देख खुद डर से भागे रहते हैं।’’ उसकी बात सही थी। मैं उन चारों के साथ कभी ट्यूशन नहीं जाता था। जबकि एक ही रास्ते से हम जाते थे। हरे-भरे खेतों के बीच से होते हुए हम ट्यूशन पैदल ही जाते थे। इधर कुछ दिनों से हम आपस में कुछ  ज्यादा घुल-मिल गये थे। जब भी मौका मिलता पारूल से बातें होतीं। शाम को अब मैं खेलने भी नहीं जाता था और ज्यादा से ज्यादा समय उसके घर के इर्द-गिर्द चक्कर लगाता रहता था। उसकी एक झलक के लिए मैं अपना घंटों बर्बाद करता। उसे दिनभर में कई-कई बार देखता, पर दिल हर बार कहता, एक बार और देख लो। वह मेरी दोस्त थी, पर दोस्ती का इजहार करना बड़ा दुरूह कार्य था। मैं उससे प्रेम भी करता था, पर कुछ  कह पाना दुसाध्य था। हम अक्सर रीमा के घर फिजूल की ढेर सारी बातें करते, पर जुबां पर यह लाना कि मैं आपसे प्यार करता हूँ, उतना ही मुश्किल था, जितना तैरकर नदी पार करना। यहाँ गाँव की अपनी एक अलग संस्कृति और मर्यादा थी। कहते हैं, सुख के दिन कब गुजर जाते हैं, पता ही नहीं चलता और देखते ही देखते हम दोनों की बोर्ड परीक्षा समीप आ गयी। जब परीक्षा में मुश्किल से पंद्रह दिन बचे होंगे, तो हमारा ट्यूशन बंद हो गया।

मैं अख़बार पढ़ने अब भी जाता था, पर वो घर से बाहर बहुत कम निकलती थी। पढ़ाई पर बहुत ध्यान दिया था उसने और फिर परीक्षा के एक रोज वो मिल गयी। हाथों में प्रश्नपत्र लिए रीमा के साथ चली आ रही थी। मैंने उसे देखा और पास जा प्रश्नपत्र ले लिया। प्रश्नपत्र को देखने लगा और अंत में पूछा- ‘‘परीक्षा कैसी रही ?’’

-‘‘बढ़िया।’’ उसने जवाब दिया। साथ में कुछ दूर तक मैं भी चलता रहा। आँखें प्रश्नपत्र पर थीं, पर दिमाग में तूफान था। आज मैं बहुत कुछ   कहना चाहता था। मैं ये सोच ही रहा था कि बात कहाँ से शुरू करूँ और कैसे कहूँ, तब तक गाँव की ढेर सारी लड़कियाँ उसके साथ हो गयीं, मैंने प्रश्नपत्र दे दिया और वहीं पास में एक वृक्ष के नीचे धम्म से बैठ गया। वे सब रास्ते से जाती रहीं, मैं निगाहों से उनका पीछा करता रहा। सब की सब बहुत खुश थीं, बस एक मैं ही दु:खी था, पर किसी से कह भी तो नहीं सकता था। वह परीक्षा खत्म होने के कुछ   दिन बाद ही फिर से कहीं चली गयी। कोई कहता मामा के पास, तो कोई कहता मौसा के पास। कुछ दिन बाद मैं भी दो

महीने के लिए अपने मामा के पास धनबाद चला गया। एक रोज शाम के समय मैं वापस  गाँव  आया।  बस स्टैंड से  पैदल  ही  गाँव  के  लिए  चल  पड़ा।  रास्ते  में  मेरी

मुलाकात मनोज से हुई। हम दोनों एक पुलिया पर बैठ गये और कुशलक्षेम होने लगा। इतने दिनों गाँव में क्या नया-पुराना हुआ, वह बताता रहा। इसी दरम्यिान उसने पूछा – ‘‘क्या तुम्हे मालूम है, पारूल के बारे में ?’’

पारूल का नाम सुनते ही, पता नहीं क्यों मन में एक अनजाना भय-सा भर गया। उसे चुप देख मन किया कि जोर से चिल्लाएं और पूछे कि अब बता क्यों नहीं रहे,

पर अपने को संयत कर कहा, ‘‘क्या हुआ उसे ?’’ वह उदास होकर रोनी आवाज में बोला,  ‘‘बेचारी अब इस दुनिया में नहीं रही।’’ वह बहुत देर तक पारूल के बारे में बताता रहा। मैं कुछ भी सुनने के हाल में न था। एक बार तो सोचा, अब घर जाने से क्या फायदा वापस चलते हैं, उसी दुनिया में जहाँ वह चली गयी।

मनोज ने बताया कि घर वाले उसकी शादी उसकी मर्जी के बगैर कहीं ठीक कर चुके थे। आज ही तो उसकी बारात आने वाली थी। वह किसी से प्रेम करती थी। उसने अपने प्रेमी के नाम एक पत्र लिखा था। उसने उसे पीहू करके संबोधित किया था। सबसे आश्चर्य की बात ये थी कि यह उसका पहला ही प्रेमपत्र था, जो आखिरी भी साबित हुआ। उसकी मौत का कारण वही प्रेमपत्र बना। वह इसे रीमा के हाथों तक

पहुँचाना चाहती थी। गलती से यह पत्र दूसरों के हाथ लग गया। घरवालों ने उसे मारा-पीटा भी था। उसने अपने प्रेम के खातिर प्राणों का उत्सर्ग दे दिया। बस एक ही दिन

बाद तो उसने जहर खा लिया। उसकी माँ रो-रोकर सबको बताती रही, लेकिन यह कोई न जान सका कि वह पीहू कौन था। शायद रीमा जानती थी, पर उसने नहीं बताया।

काव्या : क्या उसने आपको बताया था कि ये पीहू कौन था, जिसकी खातिर उसने ऐसा आत्मघाती कदम उठाया ?

किसलय : वह अभागा मैं ही था। उसने चिढ़ाने के लिए मेरा नाम पीहू रखा था। वह कहती थी, आपकी आवाज बहुत मीठी है लड़कियों की तरह। और आप शर्माते भी हैं लड़कियों की तरह। इसलिए आपका नाम लड़कियों वाला ही होना चाहिए- पीहू। काश, उस वक्त मैं यहाँ होता, तो उसे कितना सम्बल मिलता। वह कितनी अकेली हो गयी होगी। शादी कर लेने से प्यार थोड़े ही मर जाता है। आज अगर वह होती, तो इतना दिलासा खुद को जरूर दिलाता कि वह मुझे भी उतना ही याद करती होगी, जितना उसे मैं याद करता हूँ। वह जहाँ भी रहती, जिस हाल में भी रहती, एक बहाना तो होता जीने के लिए, झूठ ही सही। जिंदगी में सच क्या और झूठ क्या, हकीकत क्या और फसाना क्या, ये कोई नहीं जानता। बस समय हमें इन्हें महसूस करने को विवश कर देता है।

उसने मुझे याद कर कितना आँसू बहाया होगा ? वह बहुत मजबूर रही होगी, तभी तो ऐसा  कदम  उठाया  होगा।  मैंने  कितना  बड़ा  गुनाह  कर  दिया  था,  उसे  अकेला छोड़कर    आह। लेकिन उसने मुझे कभी नहीं बताया कि वह मुझे लेकर इतना गंभीर है। कई बार ऐसा लगता था, जैसे कोई और भी है उसकी जिंदगी में, जिसके बारे में वह बताना नहीं चाहती।

मैं भी नहीं जानना चाहता था कि वह कौन है और वह किसे प्यार करती है ? वह मुझे दोस्त मानती थी, यही मेरे लिए किस्मत की बात थी। मैं बहुत खुश रहता था, उसे दोस्त की तरह जानकर।

काव्या : आपने कभी इजहार क्यों नहीं किया ?

किसलय : जब आँखों ने आँखों को सब कुछ बता दिया, तो शब्दों का प्रयोग निरर्थक जान पड़ा और फिर पहल तो वह भी कर सकती थी। प्यार जताने की चीज नहीं, एहसास करने की चीज है। होठों की खामोशी भी सब कुछ कह जाती है।

 

9

फेसबुक ने काव्या और किसलय को काफी घनिष्ट बना दिया था। वे आपस में हर बात को शेयर करते, पर इस वक्त बताना मुश्किल था कि ये परिधि दोस्ती तक ही थी

या  जाने-अनजाने  प्यार  का  खुशनुमा  एहसास  भी  जद  में  आ  चुका  था।  एक  रोज किसलय को काव्या का संदेश मिला, ‘‘मैं इस महीने की 20 तारीख को कुंभ एक्सप्रेस से कलकत्ता जा रही हूँ। मैंने नेट पर सर्च किया, तो पाया इसका ठहराव आरा में नहीं है। मैं सोच रही थी आपसे मुलाकात हो जाती, तो हमें अच्छा लगता। आपसे मिले एक अरसा हो गया। वैसे आप अपनी व्यस्तता के हिसाब से जो उचित जान पड़े वही कीजिएगा। मैं ये भी नहीं चाहती कि आप मेरी वजह से फालतू में परेशान हों।’’ किसलय संदेश पढ़ बहुत खुश हुआ। यह तो मानो उसके मन की आवाज थी।

वह तो यही चाहता था कि किसी तरह जल्दी से मुलाकात हो। उसने आगे जवाब लिखा- ‘‘ये तो मेरे लिए असीम आनंद की बात होगी, जो फिर से आपका दीदार हो। आपका टिकट और सीट सुनिश्चित हो जाए, तो इस संबंध में सूचना दे दीजिएगा।’’

काव्या : मेरा रिजर्वेशन कन्फर्म हो चुका है, २-4 बर्थ न.-40, आगे आपकी जो योजना हो, आप जैसा उचित समझें, करें।

किसलय : मैं तो इरादा रखता हूँ कि लखनऊ ही आ जाऊँ और वहीं से रिसीव कर हावड़ा तक साथ  दूँ,  लेकिन  आपके  लिए यह कितना सुखद होगा,  मैं इससे अनभिज्ञ हूँ।

काव्या : मेरे साथ फूफा जी भी होंगे। उनसे आपका कोई परिचय नहीं, लिहाजा परिचय भी करा दूँगी। वैसे भी हमारा परिवार आधुनिक विचारों और ख्यालों का पोषक है, सो मिलने में कोई परेशानी न होगी। मुझे लगता है, हमारी घंटे भर की मुलाकात भी कुछ  कम न होगी।

किसलय : मेरे पास एक अच्छा विचार है। मैं बक्सर में आपके साथ हो जाऊँगा और पटना तक साथ चलूँगा, इस दरम्यान दो-ढाई घंटे वार्तालाप के लिए कम न होंगे। दोनों आज काफी खुश थे। सोने की बार-बार चेष्टा करते, पर सो नहीं पाते।

एक तरफ किसलय को काव्या से पुन: मिलने का अवसर मिल रहा था, तो दूसरी तरफ उस बालिका के खुराफाती मन में घी के लड्डू फूट रहे थे। अक्सर खुशी और प्रतिभा

की अधिकता लोगों को पागल बना देती है।

इन दोनों के साथ भी कुछ  ऐसा ही हुआ था। दिल तो अथाह दरिया है और मन बेलगाम घोड़ा। दिल से भावनाओं के जल निकालते रहो और मन को ख्यालों की दुनिया में उड़ाते रहो। दोनों की विशालता के कोई पैमाने नहीं। ख्वाबों के झालर बुनते- बुनते कब निद्रा ने बाहुपाश में जकड़ा, पता नहीं चला। सब कुछ  वैसा ही घट रहा था, जैसा इन्होंने तय किया था, पर ट्रेन अचानक से घंटे भर लेट हो गयी। उद्घोषाण सुन किसलय विकल हो उठा। एक तो किसलय दो घंटा पहले ही बक्सर पहुँच चुका था और कुम्भ एक्सप्रेस का बेसब्री से इंतजार कर रहा था। ऐसे में ट्रेन का घंटे भर के लिए विलंब होना दारूण दु:ख पहुँचा रहा था। एक-एक पल बहुत मुश्किल से गुजर रहे थे।

रह-रहकर मिलने की उम्मीद धुँधली हो रही थी। पिछले दो घंटे में किसलय ने कम से कम पाँच कप चाय पीया था और नजरें दस बार घड़ी की तरफ गयी थीं। बहरहाल, ट्रेन आयी, किसलय पहले से ही वहीं खड़ा था, जहाँ २- 4 आकर लगी। वह झटपट चलती टे्रन में प्रवेश कर गया। दूसरे लोग जब तक चढ़ते-उतरते वह क्षणभर में बर्थ न.-40 तक पहुँच गया। वहाँ खड़ा हो कुछ  सोचने लगा। बर्थ न.-40 खाली थी, बाकी सभी सीटों पर लोग थे। उसे ख्याल आया, कहीं मैंने बर्थ नम्बर पढ़ने में तो गलती नहीं की, पर ऐसा कैसे हो सकता था ? २- 4 बर्थ न.-40 यही तो मैसेज किया था, तब

तक ट्रेन चल पड़ी। वह वहीं बैठा fb का मैसेज बॉक्स पुन: खंगालने लगा। सब कुछ ठीक था, पर काव्या न थी। उसने एक बार पूरे कम्पार्टमेन्ट को छान मारा। काव्या कहीं

नजर न आयी। वह वापस निराश हो बर्थ न.-40 पर ही आ बैठा। सामने काव्या न सही, पर एक युवती जरूर बैठी थी। उसका पूरा चेहरा नकाब से ढँका हुआ था। काले रंग के स्टॉल के बीच उसकी आँखें सफेद तारों की तरह चमक रही थी। थोड़ा-बहुत उसके बाह्य परिधान से उसके मुस्लिम होने का आभास हो रहा था। उसके हाथों में ‘परिणीता’ नामक उपन्यास था, जिसे वह अनमने भाव से पलट रही थी। किसलय को

व्यग्र देख नकाब के भीतर उसके होंठ और गाल सुर्ख हुए जा रहे थे। उसकी नजरें बार-बार किताब से टिका किसलय पर आ ठहरती। किसलय ने देखा काव्या अभी तक ऑफलाइन थी। उसे एक बार बहुत अफसोस हुआ काश कि हमने उनका मोबाइल न. ले लिया होता, तो इस वक्त सम्पर्क करना आसान होता। पर किसी लड़की से नम्बर माँगना किसलय के स्वाभिमान के खिलाफ था। उसे कब से ये आशा थी कि एक दिन वह अपना न. खुद से देगी। कुछ    देर बाद किसलय ने सामने मुखातिब हो उस युवती से बर्थ न.-40 के यात्री के बारे में इंक्वायरी की। पता चला इसका पैसेंजर तो मुगलसराय में ही उतर गया।

‘‘देखने में कैसा था, स्त्री थी या पुरुष ?’’ किसलय ने अधीरता से प्रश्न किया।

‘‘एक उम्रदराज व्यक्ति थे।’’ जवाब उस सुकन्या ने दिया। ‘‘आप कहाँ तक जाएंगी ?’’

‘‘मैं…….मैं…..मैं तो हावड़ा तक जाऊँगी।’’ घबराए हुए स्वर में उसने किसी तरह वाक्य पूरा किया।

दोनों तरफ खिड़की खुली थी और पंखा भी ढेर सारा हवा उड़ेल रहा था। बावजूद किसलय पसीना से तर-बतर हो रहा था।

उस कन्या ने पानी की बोतल किसलय की तरफ बढ़ाया और सहजता से पूछा -‘‘आप पसीने से नहा उठे हैं, शायद प्यास लगी हो, पानी पीजिएगा?’’

किसलय ने दो बूँद पानी गले से नीचे उतारा और खिड़की से बाहर देखने लगा। कुछ देर बाद ट्रेन बिहियाँ स्टेशन क्रॉस करने लगी। असफलता और थकान एक दूसरे के सहगामी हैं। किसलय के लिए अब एक-एक मिनट असह्य कष्टकारी हो रहे थे। ऊपर से थकान और मानसिक विपर्यय ने उसके वजन में कई गुणा वृद्धि कर दी। उसने एक बार गंभीरता के साथ उस कन्या को देखा। कोई और मौका होता, तो इस कन्या से वह जरूर बातें करता और इस उपन्यास पर कम से कम आधा घंटा लेक्चर देता।

लेकिन इस वक्त वह बोलने के मूड में बिल्कुल न था। युवती के चेहरे से ऐसे भाव झलक रहे थे, मानो किसलय से वह कुछ   कहना चाहती हो, लेकिन किसलय का गंभीर और उदास चेहरा देख कुछ  कहना बड़ा विकट था।

अब एक दूसरी समस्या उसके दिमाग में घर कर रही थी। पटना जाकर फिर वापस आरा आना, बड़ा निरर्थक प्रतीत हो रहा था। ट्रेन अब आरा में प्रवेश कर रही थी। किसलय ने मन-ही-मन भगवान से प्रार्थना की, कि ट्रेन किसी तरह धीरे हो जाए। हालांकि वह ये भी जानता था कि लगभग वे सारी ट्रेनें  जिनका ठहराव आरा में नहीं हैं, उन्हें भी यहाँ रूकना होता है। कारण आरा के वीर नौजवान हैं, जो वैक्यूम और चेन पुलिंग को अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझते हैं। उन्हें ये झेलना बड़ा मुश्किल लगता है कि कोई ट्रेन आरा से होकर जाये और यहाँ न ठहरे, तो फिर लानत है कुँवर सिंह की धरती को और यहाँ के वीर सपूतों को। एक बार आरा का ही एक लड़का

किसी  छोटे से पद के लिए इन्टरव्यू देने गया था। जब उससे प्रश्न पूछा गया कि बिहार में कितने जिले हैं, तो उसने तपाक से जवाब दिया- ‘‘सर वैसे तो कहने को 38 जिले हैं, पर सच्चाई ये है कि बिहार में जिला बस एक ही है- आरा।’’

इन्टरव्यूअर ने पूछा, ‘और बाकी सब ?’’ ‘सर, बाकी सब तो जिली हैं।’’ सभी ठहाके लगाने लगे, एक महाशय तो हँसते-हँसते लोट-पोट हो गये।

 

लेकिन आज ट्रेन ने स्टेशन देख अपनी गति और बढ़ा दी थी। यह देख किसलय के मुँह से निकला- उफ़। अभी ट्रेन ज्यादा दूर नहीं गयी थी, पूर्वी गुमटी को क्रॉस कर रही

थी कि अचानक से वही हुआ, जो यहाँ होता रहा है। किसी ने चेन पुलिंग की, ट्रेन एकदम से धीरे हो गयी। कई लोग जल्दबाजी में उतरने लगे। किसलय ने आव देखा न ताव और सरपट गेट की तरफ भागा। पल भर में वह नीचे उतर गया। ट्रेन ने कम ही समय में पुन: रफ़्तार पकड़ ली। किसलय ने अचानक से पलट कर देखा तो दरवाजे पर वही युवती खड़ी थी। उसने किसलय को अपनी तरफ देखते हुए देखा, तो हाथ से टाटा-बाय-बाय का इशारा करने लगी। मारे आश्चर्य के उसकी सिटी-पिटी गुम हो गयी। कुछ विस्मित और आश्चर्य चकित किसलय वहीं खड़ा हो ट्रेन को गुजरते देखता रहा।

रूम तक पहुँचने में जितना वक्त लगा, उतनी देर वह बस यही गुत्थी सुलझाने में लगा रहा कि आखिर वह कौन थी ? यह उसके लिए दुनिया का आठवाँ आश्चर्य था। कमरे में प्रवेश करते ही fb का मैसेज बॉक्स नये मैसेज का इंडिकेट दिखने लगा। यह काव्या का ही मैसेज था, लिखा था- ‘‘माफ करना, मेरे कारण आज आपको बहुत परेशानी

हुई होगी। पर मजबूर थी, कल से मेरी तबीयत बहुत खराब है और आज तो मैं इतना बीमार थी कि सुबह से अर्धचेतन की अवस्था में सोयी रही। शरीर में दर्द और अकड़न

बहुत ज्यादा थी। तेज बुखार से नीम बेहोशी जैसी हालत हो रही थी। ऐसे में इस बात की सुध ही न रही कि आज का कुछ  वादा था। लैपटॉप भी सुबह से डिस्चार्ज था। अभी जरा-सा बुखार कम हुआ, तो मुझे आपका ख्याल आया कि कहीं आप नाहक में परेशान न हो जाएं। ऐसी विषम परिस्थिति में फूफाजी ने यात्रा का कार्यक्रम रद्द करना जायज समझा।

दोनों अब एक साथ ऑनलाइन हो चुके थे। किसलय अब तक बहुत गुस्से में था, पर रह-रहकर अनहोनी की शंका से अंदर ही अंदर भयभीत भी था। जब इस संदेश

को पढ़ा तो गुस्सा पल भर में गुबार हो गया। जैसे उफनते दूध में चंद पानी के छींटे उफान को शांत करने के लिए पर्याप्त होते हैं, वैसे ही इस मैसेज ने किसलय के मन के मैल को धो दिया। उसे तो अब काव्या के स्वास्थ्य की चिंता सताये जा रही थी।

किसलय : हाय, अब आप कैसी हैं?

काव्या : थोड़ी-बहुत ठीक हूँ। आप अभी कहाँ और कैसे हैं?

किसलय : मैं तो कमरे पर आ चुका हूँ और आपको सामने पा खुश हूँ।

‘सामने पा…’ पढ़कर तो वह कुछ  शंकित हुई, मन में विचारों की शृंखला निकल पड़ी कि कहीं…।

काव्या : सामने पाने का मतलब…? किसलय : मतलब ऑनलाइन।

काव्या : हमें लगा कहीं हमारे भ्रम में कोई और ……

किसलय इस वक्त उन बातों को याद करना नहीं चाहता था, जो कुछ घंटे पहले उसके साथ हुआ था।

किसलय :  आप अभी कहाँ हैं?

काव्या : मैं अपने बेडरूम में लैपटॉप के सामने मुखातिब हूँ। किसलय : आपके लिए इस वक्त आराम ज्यादा श्रेयस्कर होगा।

काव्या : हाँ, वो तो है, पर आपसे बातें करना भी किसी दर्द की दवा से कम नहीं। मैं शर्मिन्दा हूँ, मेरे चलते आपको बहुत परेशानी हुई होगी।

किसलय : ये परेशानियाँ हमारी यादों में मिठास घोल देती हैं।

काव्या :  आप कितने अच्छे हैं, ये मैं तय नहीं कर पा रही। सोने की निखार तो अग्नि में तपन के बाद ही दिखती है। किसलय : किस मायने में ?

काव्या : मेरे कारण आज आपको कितना कष्ट उठाना पड़ा, पर इसकी पीड़ा आपने एक बार भी प्रकट नहीं की।

किसलय : बीती ताही बिसार दे, मैं उन पलों को क्यूँ याद करूँ, जो हमें कष्ट दें।

काव्या : इस वक्त अगर आप न होते, तो मैं भी कितना उदास और बीमार जान पड़ती ? पर आपसे दो बातें कर ऐसा लगता है जैसे मैं भली-चंगी हूँ।

किसलय : ये तो आपकी महानता है, जो आप मुझे इतना महत्वर्पूण मानती हैं। वैसे मैं एक तुच्छ   प्राणी किसी को क्या दे सकता हूँ ?

काव्या : खैर, आपसे अलग होने को इरादा तो नहीं करता। पर अभी मैंने दवा ली है और इस कारण निद्रा कुछ  ज्यादा हावी हो रही है।

किसलय : बेहतर यही होगा, आप सोने की चेष्टा करें। कल फिर मिलेंगे, गुडनाइट।

 

 

10

रविवार का दिन था। आकाश में बादल छाये थे। मौसम बेहद खुशगवार हो चला था। रह-रहकर हवा के झोंके मधुर संगीत सरीखे नाद करते। काव्या घर का सब काम निपटा

कुर्सी पर शांतचित बैठ प्रकृति को निहार रही थी। खुली खिड़की से बदलीनुमा नील गगन अजीब शोभायमान दिख रहा था। ऐसे में काव्या को किसलय याद आया, पर क्षणभर में पूजा की यादों ने किसलय को स्मृति पट से बाहर खींच फेंका। इधर कई दिनों  से  दोनों  का  मिलना  न  हो  सका  था।  मौसम  की  हमारे  मस्तिष्क  से  कितनी तारतम्यता होती है, अच्छे और बुरे दोनों मौसमों में हमारी यादें अपनों की ओर खींच जाती है। काव्या ने झट स्कूटी निकाला और पूजा से मिलने चल पड़ी। पूजा घर पर अकेली थी। वह फिल्म देखने में मशगूल थी, तब तक कॉल बेल बजा।

‘‘कौन है?’’ पूजा ने उत्तर की प्रतीक्षा किये बगैर आकर दरवाजा खोला।

‘‘अरे वाह! बहुत अच्छा हुआ, जो तुम आ गयी।’’ काव्या को देखते ही पूजा का चेहरा दीप्तिमान हो गया।

‘‘ऐसा क्यों?’’ काव्या का चेहरा भी चमक उठा।

‘‘घर पर कोई है नहीं, सभी लोग एक शादी समारोह में गये हैं और मैं अकेली उब रही थी।’’

‘‘तुम क्यों नहीं गयी?’’ ‘‘तुम्हारे लिए।’’

‘‘क्या तुम्हें पता था कि मैं आने वाली हूँ?’’ ‘‘तभी तो जाने से मना कर दिया।’’

‘‘तुम तो अंतर्यामी हो गयी हो।’’ काव्या ने कहा।

पूजा ने काव्या के दोनों कंधों पर हाथ रख दिल्लगी की।

‘‘ओ मेरी जान! ये सब तुम्हारी दोस्ती का असर है। ये बताओ आज दोपहर में तुम्हारा आना कैसे संभव हुआ?’’

‘‘दिल ने कहा आज मिल लेते हैं, बहुत दिन हो गये थे तुम्हें देखे हुए।’’

‘‘और कुछ खास तो नहीं?’’

‘‘कुछ खास तो है, पर क्या यहाँ खड़े-खड़े सब कुछ जान लोगी। लेकिन तुम इन दिनों क्यों भूमिगत हो ?’’

पूजा को अपनी भूल का एहसास हुआ। वह काव्या को सोफे पर बिठा ढेर सारा ड्राइफ्रूट, बिस्कुट और नमकीन प्लेट में सजा नाश्ते के लिए लायी। दोनों नाश्ते के साथ बातें करने लगीं।

‘‘मैं अब लखनऊ छोड़ने वाली हूँ।’’ काव्या ने सहजता से पूजा की आँखों में झाँकते हुए कहा, जैसे वह उसके मनोभावों को थाहना चाहती हो। यह सुनकर पूजा अवाक रह गयी। उसने इस तरह देखा, मानो पूछ रही हो, ‘‘ऐसा क्यों ?’’

‘‘मैं अब आगे की पढ़ाई के लिए देवल जा रही हूँ। पी.जी. वहीं से करूँगी।’’

‘‘ऐसा क्यूँ?’’ पूजा ने पूछ ही लिया।

‘‘मामाजी का कहना है, अगर पढ़ाई विद्वता के लिए करनी है तो देवल से बढ़कर कोई और जगह नहीं और इसी बहाने कुछ   दिन माँ के साथ भी समय गुजारूँगी।’’

‘‘मैं तुम्हें बहुत मिस करूँगी यार।’’ उसकी आँखें लला गयी थीं, वह बहुत कुछ कहना चाहती थी, उसके होंठ थर्राने लगे थे।

‘‘अब कुछ    मत कहो।’’ काव्या ने पूजा के मुँह पर हाथ रख दिया, दोनों फफक पड़ीं। दोनों एक-दूसरे को किस हद तक चाहती थीं, कहना मुश्किल होगा, पर उनके आँसू इस बात की मौन गवाही दे रहे थे।

‘‘ये तुम्हारा फैसला है या मामा जी का ?’’

‘‘मामा जी नहीं चाहते कि मैं उनका साथ छोड़ूँ। मैं उनके दु:ख को भलीभांति जानती हूँ। बचपन से आज तक उनकी क्षत्र- छाया में रही, कभी एक पल को भान नहीं हुआ कि  वह  मेरे  पिता  नहीं,  मामा हैं।  इतना  प्यार  और  स्नेह  तो  सगे  माँ-बाप  भी  नहीं दे सकते।’’

‘‘तो फिर ऐसा क्या हासिल करना चाहती हो, जो लखनऊ में संभव नहीं?’’

मेरे जीवन का उद्देश्य बहुत व्यापक है और इसके लिए देवल इस मंजिल का पहला पड़ाव होगा। मैं अब अपने आपको किसी सरकारी नौकरी के लिए सीमित नहीं करना चाहती। वैसे भी मैंने अब तक कभी दु:ख नहीं देखा, किसी चीज के लिए कभी रोयी नहीं, जो चाहा सो पाया।

‘‘तुम तो दार्शनिक लहजे में बात कर रही हो। ये तो कोई दूसरी काव्या आज सामने नजर आ रही। मुझे साफ शब्दों में बताओ कि तेरा इरादा क्या है और तुम करना क्या चाहती हो?’’

‘‘ज्यादा तो इस वक्त नहीं बता सकती, पर इतना जरूर कहूँगी कि मैं समाज-सेवा करना चाहती हूँ। और इससे पहले ज्ञान हासिल करना चाहती हूँ ताकि अपने ज्ञान का भरपूर प्रयोग लोक-कल्याण के लिए कर सकूँ।’’

‘‘एक साथ इतना सबकुछ तुम कैसे कर पाओगी ? तुम प्रकृति-प्रेमी भी हो, कविता का भी शौक रखती हो, यायावरी का शौक भी पुराने दिनों से है। अब विद्वता का शौक रखती हो और आगे समाज-सेवा भी करना चाहती हो, अपनी निजी जिंदगी भी तो है। कल को शादी के बंधन में बंधना होगा, बच्चे और परिवार होंगे, तो क्या ये सब कुछ संभव होगा ?’’

‘‘इन सवालों का जवाब लखनऊ में देना बेहतर नहीं होगा। क्योंकि मैं तो अल्पबुद्धि ठहरी, कल को ज्ञान हासिल करने के बाद अगर जिंदगी के मायने और उद्देश्य बदल गये, तो तुम मुझे फेंकू समझोगी और कहोगी बातफ़रोश कहीं की।’’

‘‘मेरे  लिए  भी  कुछ  हो  सके  तो  कहना,  मैं  तुम्हारा  साथ पा अपने आपको धन्य समझूँगी।’’

बातों का दौर जो चला, तो घंटों बातें होती रहीं। भिन्न-भिन्न मुद्दे थे, दोनों की बातों से कुछ ऐसा जान पड़ता था, मानो ये आखिरी मुलाकात हो और दोनों मन ही मन विदा ले रही हों। कोई कुछ    भी छिपाना नहीं चाहता था, बस सब कुछ आज ही कर देने का इरादा था। जो बातें आज वर्षों साथ रहकर भी न हुई थी, वो अब घंटों में पूर्ण हुए जा रही थीं। दोनों ने अपने शौक, अरमान, उद्देश्य और सिद्धातों की व्याख्या भरपेट  की।  दिल  में  अगर  पुराने  दिनों  की  जरा-भी  कसक  थी,  तो  आज  उसे  दूर कर दिया।

‘‘कब जाना होगा?’’

‘‘जब मामा जी को छुट्टी मिल जाये।’’

‘‘यहाँ लखनऊ तो आती रहोगी या हमें हमेशा के लिए भूल जाओगी?’’

‘‘हम जीवन जीना  छोड़ दें,  मछली पानी, छोड़ दे और चाँदनी शीतलता    छोड़ दे, क्या ये संभव है?’’

‘‘उम्मीद तो यही है कि हम दोनों का साथ बना रहेगा।’’ ‘‘तुम भी तो देवल आ ही सकती हो, अपना घर जो ठहरा?’’

‘‘तुम बुलाओ, तो सही देवल क्या चीज? मैं तो तुम्हारे लिए जहन्नुम तक जा सकती हूँ।’’

‘‘तो मैं अब आज्ञा चाहूँगी, बहुत देर हुई मामा जी परेशान हो जाएंगे।’’

‘‘क्यों, क्या बताया नहीं कि कहाँ जा रही हो?’’

‘‘बताया तो है फिर भी गार्जियन जो ठहरे!’’ ‘‘मैं एक बात तुमसे कहना भूल गई।’

‘‘क्या?’’

‘‘यह मैं इस शर्त पर कहूँगी, अगर तुम मुझे सच्चे मन से माफ कर दो, बस ऐसा मैंने शरारत में की थी।’’

‘‘क्या ?’’ काव्या ने अधीरता से प्रश्न किया। ‘‘पहले गुस्सा न करने का वादा करो।’’

‘‘क्या कभी मैंने तुम पर गुस्सा किया है, जो अब करूँगी?’’ ‘‘किसलय को तो तुम जानती ही हो?’’

‘‘कौन, जो ट्रेन में मिले थे वहीं ?’’

‘‘हाँ, मैंने तुम्हारे नाम का सहारा ले उनसे कुछ ज्यादा शरारत कर दी है।’’

‘‘वो कैसे, तुम उनसे कब मिली ?’’ ‘‘मिली नहीं, पर रोज मिलती रही।’’

‘‘इसका मतलब?’’

और इसके बाद पूजा ने शुरू से लेकर अब तक की सारी बातों को कह सुनाया कि कैसे उसने काव्या के नाम से एक fb  एकाउंट खोला था, फिर अचानक एक दिन किसलय  का  फ्रेंड  रिक्वेस्ट  आया,  तो  स्वीकार  किया  और  फिर  हर  रोज  बातों का सिलसिला चल पड़ा।

पूजा ने बहुत कुछ  किसलय के संबंध में काव्या से ही जानकारी प्राप्त की और ये शरारत जारी रखा। उसके बाद पूजा लैपटाप ला, वो एकाउंट और मैसेज दिखाने लगी। काव्या अब तक fb से दूर थी। पर उसके नाम पर उसी का प्रोफाइल पिक्चर और सारा डिटेल्स पूजा ने तैयार कर दिया था। काव्या कई बार सोचती थी कि मुझे भी fb पर आना  चाहिए,  पर  साहित्यिक  हृदय  इलेक्ट्रॉनिक्स की  दुनिया में भला रुचि  कब रखते हैं।

एक तरफ प्रकृति की अथाह दुनिया, तो दूसरी तरफ टाइमपास के लिए भौतिक चीजों का सहारा। काव्या को जंगलों और पहाड़ों से अलग कुछ  सोचने का विचार होता, तो

सामाजिक विद्रूपता पर आ ठहरती। उसे लोगों की चरम भौतिकतावादी, आभाषी जीवन पर तरस आता।

पूजा ने एक-एक मैसेज को अच्छे से दिखाया, पर कुछ   मैसेजों को चालाकी से डिलीट भी कर दिया था। उसने कलकत्ते की यात्रा और किसलय को देखने वाली बात छुपा ली। काव्या एक-एक संदेशों को पढ़ती रही और मतलब निकालती रही। आज पहली बार उसे बहुत गुस्सा आ रहा था। मैसेज पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें लाल हो चली थीं। अनायास ही मुँह से निकल गया कि ‘‘किसी के दिल से खेलना और भावनाओं से मजाक करना बहुत बुरी बात है, इसे भगवान भी माफ नहीं कर सकता।’’

‘‘मुझे माफ कर दो काव्या, मेरा इरादा बस हँसी-मजाक का था।’’

‘‘मैं तो माफ ही कर दूँगी, लेकिन ये बात अगर किसलय तक पहुँच जाए तो बहुत मुश्किल होगा।’’

‘‘अब मैं इस एकाउंट को तुम्हें सौंपती हूँ, इसका पासवर्ड भी लिख लो।’’

 

काव्या ने अच्छे से सब कुछ चेक किया, पासवर्ड का प्रयोग कर देखा। संयोग से पासवर्ड का अंतिम तीन अंक 4, 2, 0 था।

‘‘तुम एकदम चार सौ बीस हो गयी हो।’’ यह कहते हुए काव्या ने मुस्कुरा दिया। इस हँसी ने माहौल को थोड़ा-बहुत हल्का किया।

‘‘मेरा ये प्रयास रहेगा कि किसी तरह किसलय सच्चाई को समझ जायें, fb  और काव्या से मोह भंग हो जाए उनका।’’

‘‘आगे जो करना हो करो, मेरे माथे से ये कलंक मिट जाये। मुझे घोर आत्मग्लानि हो रही कि मैंने ऐसा क्यों किया ?’’

‘‘चलो अच्छा किया, जो समय रहते सच्चाई बता दिया। बहरहाल एक खुशी की बात ये है कि तुम्हारे और नीलो की प्रेम कहानी मैं जान पायी। तुम तो ऐसे में कभी नहीं बताती।’’

‘‘हाँ, चिढ़ाने के लिए तुम्हें मसाला भी तो मिल गया।’’

‘‘मुझे अब अच्छे से विचार करना होगा कि इस प्रकरण का उचित समाधान क्या होगा ? क्योंकि इन्सान की भावनाओं और जज्बातों से खेलना आग से खेलने से भी ज्यादा खतरनाक होता है। वहाँ तो सिर्फ जलन मिलती है या फिर मौत। वहाँ सिर्फ इन्सान मरता है, पर यहाँ जिंदगी मरती है। और मरने से पहले जिंदगी का पहिया  कुंठा, हताशा,  अवसाद और पागलपन से सने कीचड़ से होकर हर क्षण गुजरता है। पूजा अपने आपको बहुत दीन-हीन समझने लगी। उसकी उदासी चेहरे से साफ झलक रही थी। हमारा चेहरा हमारी आंतरिक भावनाओं का मुकुर होता है। हम चाहकर भी अपने

आप को छुपा नहीं पाते।

‘‘कहीं सच में तुम्हें किसलय से कुछ हो तो नहीं गया?’’ ‘‘मुझे शरारत के अलावा कुछ सुझता ही नहीं।’’

‘‘और अगर शरारत में मुहब्बत हो जाए तब ?’’

‘‘तब की तब सोची जाएगी, इस वक्त तो तुम हो मेरी संकटमोचक।’’ दोनों एक दूसरे के गले लगी और फिर काव्या अपने घर को चल पड़ी।

पूजा ने शरारत में सब कुछ किया था। ये उसके लिए महज नाटक भर था, पर हकीकत का पता उसे भी नहीं था। इस वक्त बस वह सिर्फ उस परेशानी से मुक्त होना चाहती थी, जो उसने स्वयं उत्पन्न किया था। काव्या ने अभी तक कभी दिल से किसलय के बारे में विचार नहीं किया था, लेकिन आज वह रास्ते भर बस किसलय के बारे में सोचती रही। चैटिंग के एक-एक शब्द उसे याद आ रहे थे। काव्या का मन अजीब रंग से सराबोर हो रहा था। एक पल को किसलय को यादकर आनंदित हो जाती, तो दूसरे ही पल बीते दिनों की घटनाओं को सोच रुआँसी हो जाती। उसे पूजा की दुष्टता पर बहुत गुस्सा आ रहा था। उसे किसलय की यह पंक्ति जब स्मृत हो उठी कि अब आखिरी बार मुहब्बत करना चाहता हूँ, तो अनहोनी के भय से काँप उठी।

 

क्रमश :

 

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