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– ओम प्रकाश राय यायावर

गतांक से आगे …

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काव्या लखनऊ से जा चुकी थी। देवल में रहते हुए काव्या को काफी दिन हो गये थे। काव्या ने देवल को पहली बार इतने पास से देखा। इससे पहले वह बहुत ज्यादा दिनों तक देवल में कभी नहीं रही थी। देवल अपने सुरम्य गंगा तट और प्राचीन मंदिरों से और भी आकर्षक जान पड़ता था। यहाँ की एक-एक गलियाँ उसे धार्मिकता की आबो-हवा में घुली प्रतीत होतीं। जो मानसिक शांति उसे देवल में प्राप्त होती, उसे वह कभी लखनऊ में नहीं पा सकी थी। देवल में गंगा तट पर कई घाट थे, इनमें चंद्रघाट बहुत प्रसिद्ध था। शाम को चंद्रघाट पर वह प्राय: जाया करती थी। गंगा के समीप सीढ़ियों पर बैठ वह अपने आप को प्रकृति के समीप पाती। यह स्थान उसके चिंतन के लिए बेहद अनुकूल था। शहर का कोलाहल चन्द्रघाट तक पहुँचते-पहुँचते दम तोड़ देता था। यहाँ के एक-एक वृक्ष और पत्थर उसके लिए अपनापन का भाव जताते थे।

चन्द्रघाट ने उसके छोटे से हृदय में चिर शांति का संदेश दिया था। गंगा की अविरल धारा पास से कलकल करते गुजरती और उसके जीवन में संगीत का मिठास घोल देती। उसके प्रकृति-प्रेमी हृदय ने गंगा के रम्य तट का खुले दिल से स्वागत किया था। काव्या का रूटीन देवल आते ही गति पकड़ चुका था। देवल में एक बहुत ही प्रसिद्ध विश्वविद्यालय था। हजारों-हजार विद्यार्थी देश के कोने-कोने से यहाँ पढ़ने आते थे। काव्या  ने  भी देवल  सेन्ट्रल यूनिवर्सिटी में   एडमिशन   ले  लिया था।   वह एम.एस.डब्ल्यू.(मास्टर  इन  सोशल  वर्क)  करने  लगी  थी।  चूँकि  विश्वविद्यालय  में

क्लास नियमित रूप से नहीं चलते थे, ऐसे में खाली समय का भरपूर उपयोग काव्या अपने अनुसार करती थी। विद्या ग्रहण और अधिक से अधिक जानने की भूख ने काव्या को बेचैन कर दिया था। उसने कुछ अच्छे पुस्तकालयों की सदस्यता ग्रहण की, इसके अलावा उसके पास  पए-पैसे की कोई समस्या तो थी नहीं, सो हर रोज कोई न कोई नयी किताब उसके कमरे में पड़ा रहता था। उसने इस दरम्यिान असंख्य किताबों का अध्ययन किया। लगातार पढ़ने की क्षमता उसके पास अद्वितीय थी। शाम चार बजे के आस-पास वह अपने कमरे से बाहर निकलती और कहीं एकांत और प्रकृति से

परिपूर्ण वातावरण में कुछ घंटे चिंतन-मनन में लगाती। उसकी शिक्षा स्मृति स्तर तक ही सीमित न थी, वह पढ़े हुए पर बहुत तर्क-वितर्क करती। उसे अपनी संस्कृति और

परंपरा पर कई बार बहुत रश्क भी होता, पर अगर कहीं रूढ़िवादिता नजर आती, तो वह इसका जोरदार खंडन भी करती। कई-कई घंटे वह हर रोज घूमने और चिंतन करने

में व्यतीत करती। वह डिग्री नहीं, ज्ञान चाहती थी। उसने पढ़ाई को कभी बोझ न समझा। उसने स्वतंत्रता के साथ आनन्द लेते हुए विद्या-अध्ययन को जारी रखा।

काव्या के देवल आ जाने से जायसवाल परिवार भी बहुत खुश था। परिवार के सभी सदस्यों से वह हँसती-बोलती और सबके लिए समय निकालती। परिवार के  छोटे बच्चों

को नियमित रूप से पठन-पाठन के लिए प्रेरित करती।  छोटी बहन सुजाता काव्या का संग पा खुशी से भाव-विभोर हो जाती। काव्या इस घर के लिए संजीवनी बन चुकी

थी। उसका कमरा सबसे ऊपर के तल्ले पर था।  छत पर खड़े हो, वह देवल और गंगा को घंटों निहारती। उसे इस बात का बहुत मलाल था कि उसके पिता जी परिवार के लिए बहुत कम समय दे पाते थे। वही क्या, इस घर के तमाम पुरुष समय के मामले में बेहद कृपण थे। वह अवसर मिलने पर सबसे बात करती, पर यह बहुत मुश्किल था कि अपने से बड़ों को सलाह या उपदेश दिया जाये। इस घर में भ्रमण के लिए कोई रोकटोक न था। ड्राइवरों से कहना भर था, जहाँ दिल आये, घूमा करें। पहले तो काव्या ने देवल को ही अच्छे से घूमा, उसके बाद आस-पास जितने रमणीक जगह थे, उसे

भी घूमा। किसलय ने खुद को fb से ज्यादा जोड़ लिया था। यह उसके जिंदगी का अभिन्न हिस्सा बन चुका था। मंद होती जीवन धारा में fb ने नये प्राण का संचार किया था। पूजा ने बहुत चालाकी से किसलय के नब्ज को टटोला था, जहाँ जितने खुराक की  जरूरत  होती,  वह  उतना  अवश्य  प्रदान  करती  थी।  रिश्ते  में  गर्मजोशी  और उतावलापन दोनों बरकरार थे। पर एकाएक जब किसलय ने खुद को तन्हा पाया, तो डिफेंस मैकेनिज्म का सहारा लिया। दिल को हजार बार समझाया कि ये उसके संबंधों की अग्नि परीक्षा है। वह निराश जरूर था, पर एक आशा की किरण भी थी। हर वक्त

यह उम्मीद लगी रहती थी कि शायद अब काव्या ऑनलाइन हो। वह इसी उम्मीद में हर रोज एक नया मैसेज छोड़ता था, एक दिन भी उसने नागा न किया। वह निरंतर

प्रयत्नशील रहा, संदेशों की झंडी लगा दी, पर जवाब न आया। जवाब आता भी कैसे क्योंकि वह सारे मैसेज पढ़े भी तो नहीं गये थे। समय सब कुछ सिखा देता है। इससे

बढ़कर कोई गुरु नहीं। हजार गुरु का ज्ञान एक विपत्ति प्रदान करती है। वह सब कुछ सहता रहा, पर दिल ने कभी हार न माना। किसलय की इसी जिजीविषा और जीवटता को जो समझते थे, उससे दूर न हो पाते थे। वह अक्खड़ स्वभाव का, जल्दी पीछे मुड़ने का इरादा न रखने वाला इन्सान था और एक दिन असफलताओं की बदली के ऊपर चाँद का दीदार हुआ। धैर्य की परीक्षा समाप्त हुई और सब कुछ  सहजता से आगे बढ़ चला। काव्या से उसके संवाद पहले जैसे सामान्य हो चले। संबंध ने समयरूपी अग्निपरीक्षा को झेला था, सो अब कुछ  प्रगाढ़ संबंध हो चले। लेकिन किसलय अब

तक इस बात को नहीं जान पाया कि उसके साथ इस तरह का मजाक किया गया है,

जिससे पाठक भलीभाँति परिचित हो चुके हैं।

काव्या ने देवल प्रवास के कई महीने बाद खुद को fb से जोड़ा। वह इन्टरनेट के सहारे अपने ज्ञान-विज्ञान का और ज्यादा उत्थान करने में पूरी तरह से जुटी हुई थी।

लखनऊ के जो संगी-साथी उससे कट चुके थे, उन्हें fb के सहारे अपने परिधि में

लपेट लिया। उसने fb की शुरुआत तो बस किसलय को अपने से दूर करने के लिए किया था, लेकिन हुआ कुछ अलग। लखनऊ छोड़ने के लम्बे दिनों बाद जब उसने

पहली बार fb खोला, तो पाया कि उसके मैसेज बॉक्स में असंख्य मैसेज एक साथ पड़े थे, उनमें से अधिकांश तो किसलय के ही थे। खैर, उस वक्त वह तय नहीं कर

पायी कि क्या रेस्पॉन्स दे। आज पुन: काव्या ने किसलय को जब ऑनलाइन देखा, तो उसे ऐसा लगा मानो किसलय वर्षों से fb पर चिर साधना में विराजमान हो। उसका

नारी हृदय करूण से भर गया। किसलय ने सच में धैर्य की अद्भुत मिसाल पेश की थी, जबकि ऐसा माना जाता है कि प्रेम में धैर्य नहीं होता।

काव्या को आज बहुत क्लेश हुआ, उसने मृदु भाव से टूटे रिश्ते को पुन: जोड़ने का प्रयास किया। किसलय बातों ही बातों में उखड़ता प्रतीत हो रहा था। काव्या ने अवसर को पहचान कोमल बातों से क्षमा-याचना कर किसलय को सम्भाल लिया।

कोमलता ने कठोरता पर विजय पायी। काव्या ने बेहद संजीदगी से बातचीत को वापस पटरी पर लाया और इस बात का जरा-भी शक न होने दिया कि वह किसी और से

बात कर रहा है। अगर कोई विश्लेषक उनके सारे वार्तालाप को पढ़ता, तो ये जरूर कहता  कि बातचीत में विषयात्मक  भिन्नता  प्रलक्षित  हो  रही  है। काव्या ने अद्भुत सूझबूझ का प्रदर्शन किया था। जहाँ से पूजा ने सबकुछ  छोड़ दिया था, शुरुआत वहीं से  हुई –  कुछ चुलबुलापन,  थोड़ा  मसखरापन  और  रोमांस से होते  हुए  बात  को जीवन-दर्शन पर ला पटका था।

पूजा ने अपने आप को किसलय से कुछ ज्यादा अंतरंग कर लिया था। किसलय, पूजा से बात  करते-करते  बहुत  खुल  गया  था।  और  तो  और,  कभी-कभार उनका संबोधन प्रेमी-प्रेमिका जैसा होता। दोनों तुम में ज्यादा सहज होते। हम अतिशय प्रेम में भाषा के साथ सम्मान प्रकट करना भूल जाते हैं।

काव्या ने उसको पुन: एक नया रास्ता दिखाया था। वह बड़े आदर-सूचक लहजे में किसलय के साथ एक गंभीरता का चादर ओढ़े बात करती। पहले जब पूजा होती थी,

तो बातचीत में अल्हड़पन और मस्ती ज्यादा हावी होता था, अब तो दोनों अपने ज्ञान के पिटारे का भरपूर प्रयोग करते। दर्शन और साहित्य ने बातचीत के बीच में अपना जबरदस्त प्रभुत्व दिखाया था। दोनों थे तो विद्वान, इसमें कोई दो राय नहीं। एक-एक शब्दों और विचारों पर एक लंबी बहस होती। दोनों एक-दूसरे को पछाड़ने की सोचते, पर कोई किसी से कम नहीं था।

काव्या के लिए किसलय हमेशा से आदरणीय और मार्गदर्शक था। पर अब वह काव्या न थी, यहाँ भी ज्ञानरूपी विपुल संपदा थी, जिसे किसलय ने धीरे-धीरे समझ लिया था। यह तो नदी का वह हिस्सा था, जहाँ ऊपर तेज धाराएं और नीचे गहराई दोनों साथ  में  थे।  इधर  कई  दिनों  से  जो  बातचीत  हुई  थी,  उसमें  एक भिन्न प्रकार  की उदासीनता थी। विद्वता लोगों को असामाजिक बना देती है। व्यक्ति विद्वता को नहीं पकड़ता, विद्वता व्यक्ति को बाँध लेती है। वह आदर्शों के चक्कर में हँसी-मजाक, और तो और झूठे शान के खातिर जिंदगी जीना भूल जाता है। ज्ञान अहं की चिंता में

व्यग्र रहता है, वह आत्म-सम्मान का ख्याल सबसे ज्यादा करता है।

हालांकि काव्या बहुत कम अवसरों पर ही ऑनलाइन होती थी, पर किसलय तो चाहता था कि हर रोज बात हो। कभी-कभी काव्या को लगता कि किसलय के साथ वह नाइंसाफी कर रही है। उसे अपने मनोभावों को स्पष्ट कर देना चाहिए। सब कु साफ-साफ बता देना चाहिए। कई बार वह किसलय की बातों से असहज और परेशान

भी  हो जाती थी। उस दिन ऐसी ही तमाम बातों को सोचकर fb चलाने बैठी थी। उसने मन-ही-मन बहुत कुछ  तय कर लिया था। कुछ घंटे के इंतजार के बाद किसलय भी ऑनलाइन दिखा। ‘हाय-हेल्लो’ के बाद बात आगे बढ़ी।

किसलय : एक बात बताना, आप तो लखनऊ में रहती हैं। वहाँ का मिजाज बड़ा आशिकाना और दिलफेंक माना जाता है। शेरो-शायरी और लखनवी तहजीब तो बहुत

प्रसिद्ध  है।  आपने  किसी  को  पसंद  किया  कि  अकेले-अकेले  दिन  गुजर  रहे।  कहीं आपको तन्हाई का रोग तो नहीं?’’

काव्या  इस  वक्त  आध्यात्मिक  ज्ञान  में  डूबी  हुई  थी।  उसे  माया-मोह से धीरे-धीरे विरक्ति होने लगी थी, लेकिन प्यार को लेकर अब भी संशय में थी। किसलय के इस सवाल ने काव्या को पानी-पानी कर दिया।

काव्या : मैं समझती हूँ, अगर इन्सान की जगह खुदा में दिल लगाया जाये, तो मुक्ति का मार्ग प्रशस्त होगा।

किसलय : पर खुदा तो हर इन्सान में व्याप्त है, सो हम इतना दूर क्यों, पास के खुदा को भी तो खुश कर सकते हैं।

काव्या : इस लिहाज से ईश्वर का वास तो प्रत्येक शरीर में भी होता है, तो क्यों नहीं हम अपने आपसे प्यार करें ? आनंद का स्रोत तो प्रत्येक शरीर के अंदर विद्यमान है।

 

किसलय : ऐसे में इन्सान आत्ममुग्धता का शिकार हो जाता है। उसे स्वयं के अलावा कुछ    दिखता ही नहीं और अति आत्ममुग्धता तो मीठे जहर के समान होती है।

कुछ देर तक दोनों अपनी-अपनी भावनाओं में डूबते-उतराते रहे, उसके बाद पुन: किसलय ने शब्द जाल फेंका।

किसलय : मान लीजिए कि मुझे आपसे प्यार हो जाए, तो आप क्या रेस्पॉस देंगी ?

काव्या : पहले तो आपको फासला दिखाऊँगी कि आप सर्वगुणसम्पन्न मुझ नाचीज तुच्छ पर क्यों फिदा हो रहे  ? किसलय : फिर भी मैं न मानूँ तब ?

काव्या : परत-दर-परत सच्चाई खोलती जाऊँगी ताकि आपकी आसक्ति विरक्ति में बदल जाये।

किसलय : आप तो प्यार की दुश्मन हो गयीं, ऐसा कैसे हुआ ?

काव्या : आप अंदाजा लगाकर देखें ?

किसलय  :  हो  सकता  है,  किसी  से  आप  बेपनाह  प्यार  करती हो,  तो दूसरी तरफ उदासीनता तो दिखानी ही पड़ेगी।

काव्या : आप गलत सोच रहे। संसार में प्यार के लिए आपसे उपयुक्त और कुछ भी नहीं हो सकता।

किसलय  यह  सुनकर  इतना  खुश  हुआ  कि  चैटिंग  छोड़  कुछ मिनट  के  लिए  वहीं नाचने लगा।

किसलय : फिर भी इतनी दूर क्यों हैं?

काव्या : इस प्रश्न का उत्तर जब आपसे मुलाकात होगी, तभी मिलेगा।

किसलय : एक बार तो मिलने का वादा कर धोखा दे ही दिया है।

काव्या : वो कैसे ? मैं समझी नहीं।

किसलय : इतनी जल्दी भूल गयीं, वो सारा प्लान, जो कभी हमने और आपने मिल के बनाया था। आपकी तबीयत खराब हो गयी और सारा प्लान चौपट हो गया।’’ काव्या कुछ   देर तक सोचती रही, उसे लगा कुछ ऐसी बात है, जो पूजा ने मुझसे छुपा लिया है। उसने अंधेरे में तीर चलाया।

काव्या : पर उसमें मेरा क्या दोष ?

किसलय : दोष तो मेरा था, जो मैं इतना व्यग्र था आपसे मिलने के लिए और पागलों की तरह पूरे कम्पार्टमेंट में ढूँढ़ता रहा आपको।

काव्या : वैसे आप बहुत अच्छे इन्सान है। जहाँ तक मैं सोचती हूँ, आपसे मिलने में किसी को ऐतराज नहीं हो सकता।

किसलय : मैं आपसे एक बार पुन: मिलना चाहता हूँ, मेरी आँखें आपको देखने के लिए तरस गयी हैं।

काव्या : ऐसा क्या है मुझमें ?

किसलय : शब्दों में बयां करना बहुत मुश्किल है।

काव्या : तो अक्षरों में बयां कर दीजिए।

किसलय : आप भी क्या खूब मजाक करती हैं।

काव्या : सच तो ये है कि मैं भी आपसे मिलना चाहती हूँ। बहुत सी बातें हैं जिन्हें लेकर बेचैन हूँ, कभी मौका लगे तो देवल आइए, मुझे अच्छा लगेगा।

किसलय मन ही मन सोचता रहा कि कह दे कल ही आ रहा, पर दूसरी तरफ से दिमाग कह  रहा  था  ऐसा  मत  कहना,  वरना  वह  तुम्हारे  बारे  में  कुछ   और  धारणा  भी  बना सकती है।

किसलय : आप ही बताएं, कब आऊँ, जब आप फुरसत में हो ? आपका देवल कब आना हुआ ?

काव्या : हाँ, मैं देखती हूँ जैसे ही वक्त मिलेगा, मैं आपको सूचित करूँगी। देवल आए कुछ  दिन हो गये।

अब काव्या हँसी के मूड में थी, वह किसलय को  छेड़ना चाहती थी।

काव्या : मेरा तो पूछ लिया, अब आप बताइए इतने दिनों में कोई लड़की पसंद आयी ?

किसलय : बहुत मुश्किल से एक आयी।

काव्या : तो क्या आपका इरादा दर्जन भर लड़कियों को पसंद करने का था ?

किसलय : नहीं, ऐसा तो नहीं है।

काव्या : मुझसे कब मिलवा रहे ?

किसलय : आप जब कहें, मैं तो तैयार हूँ।

काव्या : सच ! लेकिन उसे पाकर आप कहीं मुझे भूल गये तो ?

किसलय : इस जन्म में आपको भूलना तो मेरे इन्द्रियों से परे की बात है।

काव्या : तो फिर एक ही हृदय में दो चेहरे कैसे रहेंगे ?

किसलय : दोनों हमशक्ल भी तो हो सकते हैं ?

काव्या  ने  किसलय  के  इस  उत्तर  पर  ठीक  से  ध्यान  नहीं  दिया,  उसने  बातचीत जारी रखा।

काव्या : मुझमें आपने ऐसा क्या देखा, जो fb पर इतने लम्बे समय तक मेरा इंतजार करते रहे और फिर किस आशा से ?’’

किसलय :  जिंदगी इक नींद है टूटेगी मरने के बाद।

और सब कुछ ख्वाब है जिसे जीऊँगा मैं उम्र भर।

कुछ और मिलने की चाह नहीं, बस आपका सामिप्य बना रहे,  दिन महीने और साल तो क्या मैं जिंदगी गुजार दूँगा।

काव्या :  कुछ और इरादा तो नहीं ? खैर, आपने बहुत अच्छी शायरी की।

किसलय : जो भी इरादे होंगे नेक ही होंगे।

काव्या : अब आपसे विदा चाहूँगी, रात बहुत हो चुकी।

 

किसलय : विदा और अलविदा नहीं, बल्कि ये कहिए, फिर मिलेंगे।

काव्या : क्यों, मुझे खोने का डर है ?

किसलय : आपको मुझसे कोई जुदा नहीं कर सकता, क्योंकि आप तो मेरे हृदय में बस चुकी हैं, फिर खोने का डर कैसा ?

काव्या : कहीं आपको सच में प्यार तो नहीं हो गया, ठीक से विचार कीजिएगा। इसके बाद काफी दिनों तक वह काव्या के मैसेज का इंतजार करता रहा। ऐसे में एक

दोपहर काव्या ने मैसेज किया कि अभी मेरे पास खाली समय है, आप जब चाहे आ सकते हैं। उसने यह भी बताया कि वह देवल में ही है।

 

12

पहले भी किसलय अनगिनत बार देवल जा चुका था, पर इस बार का जाना कुछ अलग था। कोई उसे रिसीव करने स्टेशन पर आएगा, ये सोच उसकी बांछे  खिल उठीं।

तीन घंटे के सफर में किसलय एक पल के लिए भी अपनी कल्पनामयी दुनिया से बाहर न  निकल  पाया।  सैकड़ों  यात्री  उतरते-चढ़ते,  चायवाले,  फलवाले  और  भिन्न-भिन्न सामान बेचने वाले आते-जाते रहे, पर वह चुपचाप ऊपर की सीट पर एक कोने में सिमटा रहा। आज उसे न दुनिया की सुध थी, न भूख और प्यास की चिंता। ट्रेन बहुत

तेजी से भागे जा रही थी, पर उसे लग रहा था ये भी कोई स्पीड है। उत्सुकता, व्यग्रता और काव्या को देखने की लालसा चरमोत्कर्ष पर थी। काश कि पलक झपकते ट्रेन देवल पहुँच जाती, ऐसा कुछ उसके दिमाग में चल रहा था। आज वह अपने ख्वाबों की मलिका, सपनों की शहजादी, दिले-अंजुमन की नूर और सौंदर्य की देवी काव्या से मिलने जा रहा था। घड़ी भर के लिए भी मस्तिष्क एकाग्र नहीं हो पा रहा था। विचारों की शृंखला आरा से देवल तक के सफर में गतिशील रही। ऐसे मौके पर ट्रेन का विलंब होना क्रोधाग्नि में घी डालने जैसा होता है। आखिर भारतीय रेल अपनी परंपरा को कैसे

तोड़ती? सब कुछ ठीक – ठाक था कि एकाएक करीब घंटे भर तक ट्रेन एक छोटे स्टेशन पर खड़ी रही। देवल पहुँचने तक ट्रेन दो घंटा विलंब हो चुकी थी। इधर काव्या कम

परेशान न थी, उसके सिर पर एक भारी बोझ था। वह जल्द से जल्द इस परेशानी से निजात पाना चाहती थी। वह इस संबंध को गंगाजल की तरह स्वच्छ   और पवित्र करना

चाहती थी। वह अकेली कई घंटे से स्टेशन पर बैठ ट्रेन का इंतजार कर रही थी। प्रत्येक उद्घोषणा को वह ध्यान से सुनती और मन मसोस कर रह जाती। उसने प्लेटफार्म टिकट

पहले ही खरीद लिया था, फिर भी स्टेशन के बाहरी परिसर में ही बैठकर ट्रेन का इंतजार कर रही थी। जब उद्घोषणा हुई कि ट्रेन प्लेट फार्म न. चार पर आने ही वाली है, तो वह फौरन प्लेटफार्म की तरफ बढ़ी। कुछ  ही देर में ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफार्म पर रेंगने लगी। उसे कुछ  भी मालूम न था कि किसलय किस कम्पार्टमेन्ट में है, बस वह सधी हुई नजरों से चलती हुई ट्रेन का दरवाजा और दरवाजे पर खड़े लोगों को देख रही थी। उसके  पास  मोबाइल  था,  पर  किसलय  का  नम्बर  नहीं  था।  उसने  अपना  नम्बर  तो किसलय को दिया था, लेकिन जल्दबाजी में उसका नम्बर लेना वह भूल गयी थी।

प्लेटफार्म के एक छोर से दूसरे  छोर तक वह कई बार आ-जा चुकी थी, पर किसलय कहीं नजर न आया। उसने इस उद्देश्य से कि शायद वह ऑनलाइन हो fb चेक किया,

पर वह ऑनलाइन न था। वह निराश हो स्टेशन से बाहर निकलने लगी। जैसे ही प्लेट- फार्म न.-एक के दरवाजे से वह बाहर निकलने वाली थी, तभी सामने बुकस्टॉल पर वह  कुछ    जल्दबाजी  में  किताबें  पलटता  नजर  आया।  अचानक  से  नैराश्य  काव्या प्रफुल्लित हो उठी। वह वहीं खड़ी हो किसलय की गतिविधियों को लक्ष्य करती रही। किसलय ने एक किताब पसंद की और पेमेंट कर, जैसे ही पलटा सामने काव्या हिरण – नजर से उसे घूर रही थी। एक पल को किसलय चेतनाशून्य प्राणहीन पुतले की तरह जड़वत खड़ा रहा। काव्या ने मुस्कुराकर ‘नमस्ते’ किया। प्रत्युत्तर में किसलय के कंठ से शब्द ही प्रस्फुटित न हुए, वह चाहकर भी कुछ  बोल न पाया। अपने आपको सहज करने में कुछ वक्त लगा। तब तक चेतना भी सामान्य हो चली। दोनों दरवाजे से बाहर आये।  काव्या  किसलय  को  सबसे  पहले  एक  रेस्तरां  में  ले  गयी।  हल्का-फुल्का रिफ्रेशमेंट के बाद ये विचार हुआ कि अब क्या करना चाहिए ? किसलय ने जोर देकर कहा कि जरा एक मंदिर का दर्शन कर लिया जाए।’’

‘किधर ?’

‘मेरे साथ चलिए तो सही।’

दोनों एक धर्मशाला के अन्दर आ चुके थे, सामने राधेकृष्ण  का मंदिर था। दोनों प्रणाम कर मंदिर के अंदर प्रवेश कर गये। करीब बीस मिनट तक दोनों मंदिर के अंदर ही बैठे रहे। काव्या के लिए यह विचित्र अनुभव था। वह इस धर्मशाला को जानती थी, पर इस मंदिर से अपरिचित थी। मंदिर के भक्तिमय वातावरण ने जादू-सा असर किया। दोनों के थकान तत्क्षण दूर हो गये।

किसलय ने उसके बाद उस धर्मशाला के बारे में बताया। वह प्राय: यहाँ ठहरा करता था। धर्मशाला सचमुच विशाल और प्राकृतिक सुषमा से परिर्पूण था। नानाप्रकार के वृक्ष इसकी सुंदरता कई गुणा बढ़ा रहे थे। उसने इस धर्मशाला से बहुत अच्छे तरीके से काव्या को परिचित कराया। साथ चलते-चलते वह काव्या को चोर नजरों से देखने का प्रयत्न करता। उसने कोशिश की कि एक बार खूब अच्छे से काव्या का नख-शिख दर्शन किया जाए, पर ऐसा इस वक्त मुश्किल था। वह मन-ही-मन तुलना करने लगा कि आज की काव्या और उस काव्या में क्या अंतर है ? बहुत देर तक अंतर्मन में तर्क – वितर्क चलता रहा, पर निष्कर्ष यही निकल सका कि पहले की अपेक्षा काव्या और आकर्षक और खूबसूरत हो चली है। पहले की काव्या कुछ  दुबली-पतली थी, पर अब शरीर भरा-पूरा और संतुलित हो चला था। सुबह से दिमाग में हजार बातें उठ रही थी काव्या से शेयर करने के लिए, पर साथ मिलते ही सबकुछ   भूल गया। उनका सामीप्य जैसे सारे प्रश्नों का उत्तर देने के लिए पर्याप्त था। दोनों धर्मशाला से बाहर निकले।

दरवाजे पर किसलय बोला, ‘‘मैं जरा यहीं रहने का प्रबन्ध कर लूँ और सामान रख दूँ, तब आपकी जैसी मर्जी हो किया जाए।’’

‘‘क्यूँ ? कसम खाया है जो यहीं टीकना है, आपको मेरे घर चलना होगा।’’

‘‘आपके घरवाले क्या सोचेंगे ? मुझे ये उचित नहीं जान पड़ता।’’

‘‘घरवालों के पास सोचने के लिए इतना वक्त नहीं, उचित और अनुचित का थोड़ा – बहुत ज्ञान मुझे भी है।’’

किसलय ने बहुत प्रयास किया, पर काव्या ने उसे बाध्य कर दिया। वह किसी का एहसानमंद नहीं होना चाहता था। काव्या को यह बात पसंद न थी कि यहीं मेरा घर है और आप धर्मशाला में ठहरें, तो फिर लानत है ऐसी दोस्ती पर।

नारी के जिद के सामने किसकी चली है, जो किसलय की चलती। वह चुपचाप निरुत्तर हो काव्या के साथ ऑटो में बैठ गया। कुछ ही देर में ऑटो देवल की तंग

गलियों से गुजर रहा था। काव्या ने ड्राइवर को इशारा किया और खुद बाहर निकल किराया देने लगी। सामने एक पुराना कोठीनुमा घर दिखा।

सदर दरवाजे से प्रवेश कर अंदर जाने पर विशाल फर्श था। एक बहुत बड़ा परिसर जिसमें कई अलग-अलग सफेद बंगले जैसे घर दिख रहे थे। घर के बेहद पास से गंगा

नदी गुजर रही थी। दो नौकर दौड़े-दौड़े आये, काव्या ने गेस्ट हाउस खोलने को कहा।

बाहर से गेस्ट हाउस कुछ  पुराना दिख रहा था, पर अंदर एक से बढ़कर एक परिर्पूण सुविधा संपन्न बेहतरीन कमरे थे। उन्हीं में से एक खास कमरे में काव्या ने उसे बैग रखने के लिए कहा। सामने आराम कुर्सी पर काव्या बैठ गयी और दीवान पर किसलय पसर गया। कमरा स्थापत्य के लिहाज से बेजोड़ था,   छत पर खूबसूरत नक्काशी और

कारीगरी दिख रही थी। सामान्य प्रयोग की सारी वस्तुएं बहुत करीने से रखी हुई थीं। काव्या ने नौकर को पुकारा और कॉफी लाने के लिए कहा, दूसरे नौकर से ताजा पानी के लिए कहा।

‘‘आप चाहें तो कपड़े बदल सकते हैं, मैं बस अभी गयी और अभी आयी।’’ नये घर में किसलय का गर्मजोशी से स्वागत हुआ। किसी चीज की कोई कमी न थी, नौकर

बस आदेश के भूखे थे। खूब डटकर भोजन के बाद अखबार पढ़ते-पढ़ते किसलय को नींद आ गयी। एक बार काव्या कमरे में आयी, पर किसलय को गहरी नींद में देख चुपचाप वापस चली गयी।

शाम चार बजे दोनों तैयार हो घूमने के लिए निकले। पहले से कोई तय प्लान न था कि किस जगह घूमा जाये, इसलिए किसलय चुप हो काव्या को फॉलो करता रहा।

मुख्य सड़क पर आते ही काव्या ने रिक्शा ले लिया। काव्या रिक्शे के सवारी की खूब शौकीन थी। घर में कई लग्जरी गाड़ियाँ थीं, पर उसे रिक्शे की सवारी में मजा आता

था। किसलय ने मन-ही-मन सोचा, ‘‘कमाल है, रिक्शेवाले ने भी ये नहीं पूछा कि कहाँ जाना है ?’’

‘‘हम लोग कहाँ चल रहे हैं?’’ किसलय ने उत्सुकता से पूछा ।

‘‘चंद्रघाट।’’ काव्या ने संयत हो जवाब दिया।

चंद्रघाट का नाम सुन किसलय अंदर ही अंदर मचल उठा, मानो चंद्रघाट की बजाय चंद्रलोक पर जा रहा हो।

‘‘तो आपने रिक्शावान को बताया क्यों नहीं ?’’

‘‘इन्हें मालूम है, अक्सर मैं वहाँ जाती रहती हूँ।’’

दो मिनट तक कोई कुछ    नहीं बोला। रिक्शा टुन-टुन-टुन करता हुआ तंग गली से गुजरता रहा।

‘‘मुझे भी चंद्रघाट बहुत पसंद है।’’ किसलय ने कहा।

‘‘सच या मेरी पसंद जानकर आप…?’’ काव्या ने आँखों को नचाकर जब बात अधूरी  छोड़ दिया, तो ऐसा लगा मानो पलकों के खुलने और बंद होने के बीच ही वह काव्या के अंर्तमन को  छूकर वापस हो लिया हो।

काव्या के बदन से रह-रहकर बहुत अच्छी  सुवास निकलती और किसलय के मन को तरोताजा कर देती। इतना तेज परफ्यूम होने के बावजूद किसलय अपने घ्राणशक्ति से परफ्यूम और उसके बदन की खुशबू को विलग कर सकता था। वह कुछ  सोचता हुआ, यह याद करने की कोशिश करने लगा कि इससे पहले वह कब किसी लड़की के साथ रिक्शे की सवारी कर चुका है? उसने भरसक भरपूर कोशिश की, लेकिन सफल न हो सका… शायद यह पहली बार था।

‘‘मुझे नहीं लगता था कि हम कभी दोबारा से मिल पाएंगे। लेकिन fb भी क्या कमाल की चीज है! अगर मैं नोबेल प्राइज के सेलेक्शन कमिटी में होता, तो जुकरबर्ग को नोबेल दे देता।’’ किसलय ने अतिशय खुशी में कहा।

काव्या ने धीरे से प्रतिक्रिया दी- ‘‘और कितने लोगों की जिंदगी इससे खराब हो रही, जीवन का कितना बहुमूल्य समय हमसब फालतू के मृगतृष्णा  में बर्बाद कर रहे।

न जाने कितने युवा fb को लेकर पागलपन की हद तक चले गये हैं, वे घंटाभर भी बगैर fb  चलाये  नहीं  रह  पा  रहे।  शायद  इस  पर  कभी  आपने  ध्यान  नहीं  दिया।’’ किसलय ने मन ही मन कहा, ‘पूरे समाज का ठेका जो ले रखा है तुमने’ पर प्रत्यक्ष

में कुछ नहीं बोला। वह इस वक्त बहस में नहीं उलझना चाहता था, इसलिए चुपचाप सुनता रहा। रिक्शे का टायर जब गड्ढ़े में पड़ता, तो काव्या का शरीर किसलय को  छू जाता। दो-एक बार किसलय ने जानबूझकर अपने हाथों से काव्या की अंगुलियों को छुआ । उसने अचानक से हिम्मत करके काव्या से कहा, ‘‘जरा आपकी हथेली तो देखें……।’’ काव्या के हाथों को अपने हाथ में लेकर किसलय ने गौर से हाथ की

लकीरों को देखा। सच तो यह था कि वह देख कम रहा था, बल्कि उस मुलायम स्पर्श को महसूस ज्यादा कर रहा था। उसने एक बार सोचा, अगर इस हाथ को थामे कोई

मुझे कुतुबमीनार से भी  छलांग लगाने को कहे, तो मैं ऐसा कर सकता हूँ।

‘‘आपको हस्तरेखाओं की समझ भी है क्या?’’

‘‘थोड़ी-बहुत।’’ ऐसा कहते हुए किसलय उदास हो गया।

‘‘मैं इसीलिए कभी किसी को अपना हाथ नहीं दिखाती। अब आप भी परेशान हो गये न?’’ किसलय सोच नहीं पा रहा था, वह क्या बोले और वह कहना क्या चाहती है? इसलिए बस मासूम निगाहों से ऐसे देखा मानो ‘हाँ’ कह रहा हो।

‘‘जितने लोगों ने हाथ देखा है, सबने एक ही बात कही है कि तुम्हारी उम्र बहुत कम है, ज्यादा से ज्यादा तीस साल। पर मुझे कोई अफसोस नहीं। मुझे लार्जर दैन

लाइफ में यकीन है और फिर ईश्वर ने मुझे इतना क्षमता दी है कि मैं एक साथ ढेरों काम सहजता से कर लेती हूँ। तो कुछ  न कुछ  राज है तभी तो। फिर कुल मिलाकर

आप मेरी उम्र जोड़ेंगे, तो औरो से ज्यादा हो जाएगी।’’ ‘‘वो कैसे- मैं समझा नहीं ?’’

‘‘मान लीजिए किसी की उम्र सौ साल है और वह पूरी जिंदगी सिर्फ एक ही काम करता रहा और फिर मान लीजिए किसी की उम्र 30 साल ही है, पर वह एक साथ कई काम रहा हो, कई क्षेत्रों में, तो इस हिसाब से…।’’ वह अपना उल्टा-सीधा तर्क देती रही, पर किसलय तो जैसे काठ की मूर्ति हो गया  बस तीस साल। हाय रे, ऊपर वाले, तू भी कमाल करता है। काश कि तू मेरे उम्र में से कु   काटकर उसके उम्र में जोड़ देता और ऐसा होता कि हम दोनों के उम्र बराबर हो जाते, तो कितना अच्छा होता,

उसने अपने आप से कहा।

‘‘तो क्या आप इन झूठी रेखाओं पर भरोसा करती हैं ?’’

‘‘क्यूँ, आप भरोसा नहीं करते ? तो फिर देखने की जरूरत क्या थी? मुझे मालूम है आप सच बोल के मुझे दु:खी नहीं करना चाहते।’’

‘‘आप साइंस की स्टूडेंट हैं, आपको तो मालूम ही होगा पैदा होने के समय शिशु की मुट्ठी बंद रहती है और वह बहुत लम्बे समय से बंद रहती है इस कारा हाथ पर सिलवटें पड़ जाती हैं।’’

‘‘ये विज्ञान के अपने तर्क हो सकते हैं। और ये मुझे तर्क कम, उपमा जैसा ज्यादा जान पड़ता है।’’

रिक्शा जब कहीं जाम में कुछ  देर के लिए ठहर जाता, तो लोगों की निगाह रिक्शे पर  ठहर  जाती।  जब  लोग  उधर  देखते,  तो  किसलय  को  बहुत अच्छा  लगता।  वह कल्पना करने लगता कि वह ठहरा राजकुमार और काव्या जैसी देवल की राजकुमारी हो। मानो, वह स्वयंवर से उसे जीतकर ले जा रहा हो। रिक्शे पर बैठे नाना-विचार किसलय के मन में आते रहे। कभी लगता, जैसे जिंदगी की बजाय कोई फिल्म चल रही हो और वह बेमन से अभिनय करने के लिए बाध्य हो। एक सुदूर गाँव के रहने वाले लड़के के साथ ऐसी धनाढ्य परिवार की गुणी और रूपवती कन्या इस तरह चले,

ये कभी हकीकत नहीं हो सकता।

ऐसा लग रहा था, मानो सब कुछ यंत्रवत चल रहा। दोनों चंद्रघाट की सीढ़ियों पर आराम की मुद्रा में बैठ गये। किसलय थोड़ा-सा बायें तरफ झुककर ऐसे बैठा कि काव्या को नजर भर देखता रहे।

यही वह जगह थी, जहाँ किसलय दस-एक बार अकेला उदास बैठा गंगा को निहार चुका था। देवल से उसका आत्मीय रिश्ता था। वह अक्सर कम्पटीशन की परीक्षा देने आने पर यहाँ जरूर आता था। पर आज की शाम वक्त ने क्या करवट बदला था। इस हसीन शाम को किसलय जैसे सदा के लिए आँखों में बसा लेना चाहता था। वह काव्या को वहीं पर बैठे रहने के लिए कह पास की दुकान से कुछ खाने-पीने का समान लेने लगा। दुकान पर खड़े-खड़े किसलय ने एक बार पूरे घाट का मुआयना किया और अंतत: यह तय किया कि इस वक्त यहाँ ऐसा कोई नहीं, जो काव्या की सुंदरता का सामना कर सके। उसने जगह बदल  छुप – छुप कर कई एंगल से देखा। दूर से काव्या को देखना, कितना दिलचस्प लग रहा था। वह विश्वविजेता की तरह सधे और गंभीर कदमों से काव्या की तरफा बढ़ा। काव्या इस बात से नाराज हो गयी कि फालतू में आपने पैसा खर्च किया। वह नहीं चाहती थी कि किसलय का एक भी  रुपया जाया हो, वह सिर्फ अपना पैसा खर्च करना चाहती थी। अगर इस वक्त उदारता की प्रतिस्पद्र्धा होती, तो बहुत मुश्किल होता, दोनों में से एक को विजेता चुनना। फर्क बस इतना था कि एक उदार तो था, पर उसके पास हृदय के अलावा कुछ  और नहीं था दूसरे के पास संयोग से दोनों था। उसने अचानक से गंगा में चलती हुई नावों की तरफ देखकर

किसलय से पूछा, ‘‘आपको बोटिंग करना कैसा लगता है?’’

किसलय कहना चाहता था, ‘‘कि हम ठहरे गाँव के नहर में कूद-कूदकर नहाने वाले। ये बोटिंग तो शहरी लोगों के लिए बना है, जो पानी में उतरने से डरते हैं। जो पानी को सिर्फ़  छूना और देखना चाहते हैं। हम लोग तो नदी में उतरना चाहते हैं, लहरों संग अठखेलियाँ करना चाहते हैं।’’

‘‘अच्छा लगता है।’’ किसलय ने मनोभावों को जब्त कर कहा।

‘‘पहले मुझे बहुत डर लगता था, लेकिन धीरे-धीरे मुझे बहुत मजा आने लगा।’’ उसने कुछ  सोचकर कहा, ‘‘क्या आप नदी और नाव के संबंध को लेकर कोई कविता लिख सकते हैं?’’

उसने सोचा, वह नदी और नाव के संबंध को लेकर कविता ही क्या खंडकाव्य रच दे, पर तुम अगर हर पल सामने रहो तो। तुम तो साक्षात् कविता हो- तुक,   छंद, भाव, राग-रागिनी, बंदिश, सुर-ताल, बहर, कता, शेरो-शायरी, गज़ल, नज्म, रूबाई, मस्नवी सब कु  तो तुम्हारे अंदर भरा पड़ा है। मुझे तो बस तुझमें डूबकर इन्हें आत्मसात करने

की देर भर है। वह यही सब सोचने में जवाब देना भूल गया।

‘‘क्या हुआ? कहाँ खो गये? लगता है आप अभी ही कल्पना कर लिखने लगे हा हा    ।’’ वह खिल-खिलाकर हँसती रही। दुधिया दाँत चंद्रकिरन-सा चमकता रहा।

‘‘नहीं, मैं सोच रहा था, ये बड़ा दिलचस्प विषय है कविता के लिए, दोनों का साथ तो सदियों से रहा है। काश ऐसा ही साथ इन्सानों को भी मयस्सर होता।’’

 

13

अगली सुबह दोनों बगैर नाश्ता किये तड़के, मंदिर दर्शन को निकले। दरअसल रात में बात करते-करते काव्या ने एक प्राचीन शिव मंदिर का जिक्र किया, जिससे किसलय बिल्कुल अनभिज्ञ था। किसलय बहुत उत्सुकता के साथ मंदिर के बारे में भिन्न-भिन्न बातें पूछता रहा। उसके लिए यह एकदम नयी बात थी, उसने देवल तो कई बार घूमा था, फिर भी इस मंदिर के बारे में कोई खबर न थी। किसलय की जिज्ञासा को देखकर काव्या ने रात में ही यह प्रोग्राम सेट किया कि कल सुबह-सुबह मंदिर देखने चला जाये। काव्या का कहना था कि खाली पेट ‘दर्शन’ करने से फल ज्यादा मिलता है।

देवल से बाहर गंगा नदी के दूसरी तरफ, नदी से कुछ दूरी पर यह प्राचीन शिव मंदिर था। रास्ता बहुत अच्छा नहीं था, इसलिए मंदिर तक पहुँचने में काफी समय लगा। एकदम सुनसान इलाका था। वृक्षों का अनन्त सागर फैला था। पक्षियों के कलरव से दूर-दूर तक का हिस्सा गुंजित हो रहा था। मंदिर तक जाने के लिए मुख्य मार्ग से एक कि.मी. तक एक कच्ची सड़क जाती थी। मंदिर के ठीक सामने एक विशाल सरोवर

था। तालाब के चारों कोने पर चार बुर्ज बने थे। मंदिर का शिखर वृक्षों से बाहर झाँक रहा था। दूर से शिखर को देखते ही मंदिर की भव्यता का अंदाजा लगाया जा सकता

था। किसलय का मन कौतूहल से भर उठा। वह आश्चर्यचकित दूर से ही शिखर को एकटक देखता रहा।

दोनों तालाब में पैर धोकर मंदिर के अहाते में पहुँचे। वहाँ के दृश्यों और मनोरम वि को देखकर किसलय तो जैसे दूसरी दुनिया में पहुँच गया।

मंदिर नागर शैली में बना था। मंदिर का पूरा परिसर मिट्टीनुमा और बहुत साफ- सुथरा था। अशोक, बरगद और चीड़ के कई पेड़ थे। मंदिर को देखने से ऐसा लगता था, मानो किसी राजा ने अपनी सम्पन्नता, भव्यता और

कलाप्रेम का नुमाईश किया हो। मंदिर के दीवारों पर बड़ी खूबसूरत नक्काशी की गयी थी। और सबसे आश्चर्यजनक बात तो ये थी कि सिर्फ देखकर, बगैर स्पर्श के यह बताना मुश्किल था, ये नक्काशी पत्थर पर है या लकड़ी पर? किसलय मन-ही-मन ‘अद्भुत-अद्भुत’ कहता रहा।

बेशक स्थापत्य का एक अद्भुत नमूना था यह प्राचीन मंदिर, लेकिन वर्तमान में जीर्ण – शीर्ण हो चला था। उसका यह हश्र देख किसलय का हृदय द्रवित हो गया। वह अपने दर्द को   छुपा नहीं पाया और काव्या के सामने बोल पड़ा, ‘‘इस मंदिर को तो राष्ट्रीय धरोहर में शामिल करना चाहिए था। कितना झोल है हमारे सिस्टम में, किसी

को इसकी चिंता-परवाह नहीं, आधुनिक इंजीनियरिंग के इतना डेवलप हो जाने पर भी क्या देवल में एक भी ऐसा मंदिर अथवा इमारत है, जो इसकी टक्कर दे सके ? दो चार

लोग ही बस थे दर्शनार्थियों के रूप में, इसलिए बड़ी गहरी शान्ति पसरी हुई थी। मंदिर में एक पुजारी अवश्य थे। काव्या ने उन्हें दक्षिणा के रूप में सौ  रुपये का एक नोट दिया, तो वह बहुत खुश हो गये। किसलय पुजारी से बात करना चाहता था। इसके लिए उसे थोड़ा इंतजार करना पड़ा। जब इन दोनों के अलावा कोई नहीं बचा, तो

किसलय अधीर हो पुजारी की तरफ बढ़ा और पास जाके पूछा , ‘‘बाबा, इस मंदिर के  बारे में जानना चाहता हूँ। आपको वेतन कौन देता है ? इसका रख-रखाव किसके जिम्मे है?  क्या  यह  सरकारी  देख-रेख  में  है?  यह  मंदिर  कितना  पुराना  है?  इसे  किसने बनवाया था?’’

बाबा तब तक मंदिर के बारे में सारी बातें बताते रहे, जब तक दो-चार नये लोग दर्शन के लिए न आ गये। उनका कहना था कि जिस राज-परिवार का यह मंदिर है, उस परिवार का अब कोई सदस्य यहाँ नहीं रहता। मेरे परिवार के लोग कई पीढ़ियों से इस मंदिर में पुजारी होते रहे हैं, इसलिए मुझे यह सब संभालना पड़ा। हमें कोई बाहरी

मदद नहीं मिलती कि हम मंदिर के टूटे हिस्से की मरम्मत भी करा सकें। चढ़ावे के पैसे से परिवार चलाना बहुत मुश्किल है। पर हम क्या करें, अब इस हाल में प्रभु को कैसे छोड़ सकते हैं ? कभी-कभी तो इतना भी चढ़ावा नहीं हो पाता कि संध्या आरती के लिए घी और दिनभर के लिए प्रसाद की व्यवस्था भी कर सकें। किसी तरह निर्वाह किया जा रहा। यह मंदिर चार-पाँच सौ साल पुराना था।

काव्या ने आगे बढ़कर कुछ  और  रुपये बाबा को दिये और बोली, ‘‘मैं हमेशा यहाँ आती रहती हूँ, आप नि:संकोच जो हो सके, मुझसे मदद ले लीजिए।’’ बाबा ने दोनों के माथे पर तिलक लगाया… सर थपथपा के आर्शीवाद दिया और हाथों में प्रसाद रख दिया। भगवान भोलेनाथ का दर्शन कर दोनों नन्दी के दर्शन के लिए दूसरी तरफ गये। वहाँ लोग नन्दीश्वर के कान में अपनी मन्नत माँग रहे थे। ऐसा माना जाता था कि ऐसा करने से अधिकांश को माँगी मुराद मिल जाती है। सबसे पहले काव्या ने ऐसा किया और किसलय से भी कुछ   माँगने को कहा। किसलय प्रणाम कर एक तरफ खड़ा था,

उसे ऐसी बातों पर विश्वास न था।

‘‘चलिए, आप भी कुछ   माँग लीजिए।’’ काव्या ने जोर देकर कहा।

‘‘इस मामले में तो मैं बहुत स्वाभिमानी हूँ। माँगना मुझे पसंद नहीं, चाहे ईश्वर हो या इन्सान।’’

‘‘पर आज एक बार तो माँग कर देखिए। माँगने में भी उतनी ही खुशी मिलती है, जितनी दाता बनने में।’’

‘‘जो मेरा कभी हो नहीं सकता, उसे माँगने से क्या फायदा और जो मेरे किस्मत में है, वो मेरा होगा, तो फिर माँगने का क्या औचित्य ?’’

काव्या के हठ करने पर किसलय भी वैसा ही करने के लिए आगे बढ़ा। किसलय ने मन ही मन सोचा, क्या माँगू ? पहले से तो कुछ तय था नहीं, लेकिन अचानक कुछ

याद आ गया। काव्या से बढ़कर किसलय के लिए कोई नायाब तोहफा हो नहीं सकता था। उसने कहा, ‘‘हे प्रभो! सब कह रहे काव्या की उम्र बहुत कम है, इसलिए मेरी उम्र भी काव्या को लग जाए…।’’

दोनों ने प्रसाद खाया और चापाकल पर पानी पीने के लिए गये। सामने एक बरगद का विशाल पेड़ था, उसके नीचे एक बड़ा-सा पत्थर रखकर बैठने लायक चबुतरा

बनाया गया था। किसलय उस जगह को देखते ही बैठने के लालच से उधर चल पड़ा। दोनों के माथे पर चंदन का तिलक लगा हुआ था, जो बड़ा शोभायमान लग रहा था। किसलय पाँव लटकाकर उस पत्थर पर बैठ गया। काव्या पालथी मार इस तरीके से बैठ गयी, जैसे कोई संन्यासिन तपस्या के लिए आसन जमा रही हो। पाँव में थोड़ा-बहुत धूल लगा था, पर काव्या को इसकी रतीभर भी परवाह न था। थोड़ा-सा इत्मीनान होते ही काव्या ने पूछा, ‘‘आप तो कुछ   माँगने वाले नहीं थे, पर मेरे कहने से ही सही, लेकिन आपने क्या माँगा?’’

‘‘हमने सुना है कि इसे बताना नहीं चाहिए अन्यथा माँगी मुराद पूरी नहीं होती।’’ किसलय ने संजीदगी के साथ मुस्कुराते हुए कहा।

‘‘ये जगह मुझे बहुत पसंद हैं, मैं यहाँ बार-बार आती हूँ।’’

‘‘हाँ, मुझे भी बहुत अच्छा लगा। और फिर अच्छे  लोगों के साथ रहने पर अच्छी जगह ज्यादा मिलती है।’’

एकाएक किसलय खड़ा हो गया और सिर को  छूते बरगद के डाल से एक पता तोड़ा और सूँघने लगा, पर निगाहें काव्या की तरफ लगी रही। वह यह देखना चाहता था कि

माथे पर तिलक के साथ काव्या कैसी लग रही। उसने अनमने भाव से टहलते हुए थोड़ा दूर से देखा। वह दोनों हाथों की उंगलियो को आपस में फँसाए, कोहनी को पैर से टिकाए, ऐसे निश्चित भाव से बैठी थी, मानो कोई चिंता-फिक्र का अवशेष नहीं। चेहरा खिला हुआ था दो-चार मनचले बाल दोनों तरफ से झूलते हुए यह दर्शाते रहे कि उन्हें बंधन बिल्कुल पसंद नहीं। बहुत गौर से देखने पर ऐसा लगता था, जैसे कोई परी अचानक से उतरकर इस पत्थर पर बैठ गयी हो और उसे यह मालूम नहीं कि कोई उसे देख रहा।

किसलय के लिए यह पल कितना अमूल्य था, वह अंदाजा कर सकता था। इसलिए वह एक-एक क्षण को भरपूर जी रहा था। जीवन की गहराई में डूबकर जी रहा था। जब काव्या अपने विचारों से बाहर निकली, तो किसलय दूर खड़ा उसे घूर रहा था। आँखें चार होते ही किसलय शरमा गया। ऐसा लगा मानों चोरी पकड़ी गयी हो। वह गंभीरता से मुस्कुराते हुए पास आया और बोला, ‘‘एक बात तो आज एकदम कन्फर्म हो गयी?’’

‘‘वह क्या?’’ काव्या ने संकुचित भाव से पूछा।

‘‘मैंने पिछले दिनों कहीं पढ़ा था। एक व्यक्ति ने कई सालों तक रिसर्च करने के बाद पुर्नजन्म के बारे में बड़ी अच्छी  जानकारी दी थी।’’ ‘‘अच्छा ! वो क्या?’’ उसने खूब एकाग्र हो पूछा ।

‘‘उनका कहना था कि हम कभी-भी अपने संर्पूण जीवन काल में वैसे ही लोगों से मिलते हैं, जिनसे पहले भी मिल चुके होते हैं।’’

‘‘मतलब? मैं समझी नहीं।’’

‘‘यही कि हम नये लोगों से कभी नहीं मिलते। हम जिनसे पहली बार भी मिलते हैं, उनसे पूर्वजन्म में मिल चुके होते हैं। यहाँ तक कि हम वहीं पैदा होते हैं, जहाँ हमारे पूर्व परिचित लोग रहते हैं।

‘‘ये तो बहुत कमाल की बात है।’’

और मेरा तो मानना है कि हम कभी नये जगह पर नहीं जाते। हम उसी जगह पर जाते हैं, जहाँ पहले किसी जन्म में जा चुके होते हैं। अन्यथा एक बार में कोई जगह इतना मन कैसे मोह सकता है? कुछ  न कुछ  जन्म-जन्मांतर का साथ होता है।’’

‘‘बहुत संशय वाली बात है। भरोसा नहीं होता।’’

‘‘अच्छा, आप मेरे एक प्रश्न का जवाब दीजिए- कभी आपने किसी ऐसे व्यक्ति को देखा है, जिसे आप पहली बार देख रही हों, फिर भी न जाने क्यों अंदर से गुस्सा आता है, उसे देखकर। जबकि उसने आपका कुछ  नहीं बिगाड़ा होता है। यहाँ तक कि आपने उससे कभी बात भी नहीं किया होता है।

‘‘हाँ, कई बार।’’

‘‘और कभी-कभी कुछ   ऐसे लोग दिख जाते हैं, जिन्हें देखते ही मन खुश हो जाता है। दिल करता है कि बात करें, जबकि उसने आपके लिए कुछ  भी अच्छा नहीं किया होता है। यह बाद में पता चलता है कि वह तो निहायत ही घटिया और एक नंबर का लूच्चा-लफंगा आदमी है।’’

‘‘हाँ, हाँ, ऐसा भी होता है, लेकिन इससे क्या साबित होता है?’’ उसने किसलय को विस्फारित नेत्रों से देखा।

‘‘मतलब ये कि ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि कहीं न कहीं पूर्वजन्म में उस व्यक्ति के साथ आपका कार्य-व्यापार रहा है।’’

काव्या कुछ देर बात की गंभीरता में उलझी रही। उसके बाद बोली, ‘‘लेकिन जो व्यक्ति सबसे पहली बार पृथ्वी पर आया होगा, वह तो इस पृथ्वी से अपरिचित होगा?’’ ‘‘अब सबसे पहले कौन आया?’’ कैसे आया? इसका तो सिर्फ अनुमान ही लगाया जा सकता है। सच्चाई क्या है? यह तो कोई नहीं जानता।’’

‘‘तो आप जो कह रहे, वह सत्य है, इसके क्या प्रमाण ?’’

‘‘मैं सत्य का दावा थोड़े ही कर रहा। मैं तो सिर्फ इतना कह रहा कि ये भी सोचने वाली बात है। मैं ट्रेन में आपसे पहली बार ही मिला था, पर मुझे उस वक्त ऐसा लग

रहा था, जैसे कोई बहुत प्रिय वस्तु खोकर आज पुन: मिल गयी हो।’’

‘‘तो क्या आपको लगता है हम एक-दूसरे को कई जन्मों से जानते हैं?’’ ‘‘शायद!’’

‘‘मुझे तो कोरी कल्पना के सिवा कुछ  नहीं लगता।’’

कुछ देर तक दोनों अन्यमनस्क हो अपने आप में डूबे रहे, फिर किसलय ने पूछा, ‘‘लखनऊ और देवल में आप किसे तरजीह देंगी?

‘‘किस मामले में?’’

‘‘समग्र रूप से, किसे अव्वल मानेंगी?’’

‘‘ये तो कहना बहुत मुश्किल है, पर देवल से बढ़कर कोई रसीला शहर नहीं हो सकता।’’

‘‘सच या मुझे खुश करने के लिए?’’

वह कई बार काव्या से पूर्व में देवल की तारीफ कर चुका था।

‘‘मैंने देवल को पहले इतने पास से नहीं देखा था, बस दो-चार रोज के लिए आती थी और घर में कैद होकर रह जाती थी।’’

‘‘तो क्या इस बार आपने देवल को अच्छे से देखा?’’

‘‘जी, बहुत अच्छे -से हमने एक-एक गली, चौक-चौराहे, भवनों, मंदिरों, ऐतिहासिक और धार्मिक इमारतों को देखा और समझा।’’

‘‘तब तो आपको यहाँ का गाइड बन जाना चाहिए।’’ ‘‘आज से मैं गाइड ही हूँ, पर आपके लिए।’’

‘‘कल तो मैं चला जाऊँगा, ऐसे में कल किसी दूसरे को ढूँढ़ना पड़ेगा।’’

‘‘ये कैसे संभव है, आप कल चले जाएंगे। मेहमान आते हैं अपने मन से, पर जाते हैं, मेजबान के मन से।’’

‘‘ये तो बहुत बुरा होगा, हमने बगैर छुट्टी लिए ऐसा किया है।’’ ‘‘ छुट्टी किस बात की?’’

 

‘‘वही  कोचिंग  की।  सभी  लड़के  परेशान  हो  जाएंगे,  अगर  कल  तक  आरा नहीं पहुँचा।’’

‘‘मैं कुछ भी सुनने वाली नहीं हूँ, पता नहीं इसके बाद फिर मुलाकात हो न हो, जिंदगी का क्या भरोसा?’’

‘‘आप ऐसा क्यों सोचती हैं? क्या आपको सच में हस्तरेखा पर इतना भरोसा है?

मुझे तो लगता था कि आप प्रगतिशील विचार की हैं।’’

‘‘नहीं, मेरे कहने का मतलब ये न था। मैंने तो बस ऐसे ही बगैर सोचे कह दिया,

पर आपने इसे कल वाली बात के साथ जोड़ दिया।’’

‘‘आपकी उम्र बहुत लम्बी है। आप सौ साल जीएंगी, ये मेरा मन कह रहा।’’ ‘‘आज  मैं  आपसे  पुन:  कहती  हूँ,  मुझे  बहुत  ज्यादा  उम्र  तक  जीने  की  लालच

बिल्कुल नहीं। मैं बहुत जल्दी-जल्दी बहुत कुछ  करना चाहती हूँ। मैं इस बहुमूल्य जीवन का एक क्षण भी गंवाना नहीं चाहती। मैं चाहती हूँ, हर पल के साथ एक नयी अनुभूति प्राप्त हो। एकरसता मुझे बहुत तकलीफ देती है। मुझे समय काटने से बेहतर मौत को अंगीकार करना लगेगा।’’

दोनों कई घंटे तक मंदिर के अहाते में भ्रमण करते रहे। इसके बाद जब जोरों की

भूख का एहसास हुआ, तो भोजन की खोज में बाहर को निकले।

 

14

वह एक खूबसूरत शाम थी, जब किसलय और काव्या बोटिंग के उद्देश्य से चंद्रघाट पहुँचे थे। देवल की हर शाम खूबसूरत होती है, पर यह किसलय के लिए बेहद खास शाम थी। दिन ढलने में अभी कई घंटे का वक्त था। चंद्रघाट से एक नाव किराये पर लिया गया और दोनों सवार हो गये। यह नाव चप्पू से चलने वाली और आकार में

छोटी थी। खैर, अब तो मोटर से चलने वाले नावों की संख्या देवल में ज्यादा हो चुकी थी। काव्या सच में नौकायन का आनंद लेना चाहती थी, इसलिए ऐसे पारंपरिक नाव

पर सवार हो गयी। नाव धीरे-धीरे घाट से दूर होने लगी। दोनों आमने-सामने बैठ चुके थे। नाव रह-रहकर हिचकोले खाती। नाविक ने पूछा, ‘‘किधर चलूँ?’’ काव्या ने इशारे

से बताया और नाविक शांतचित चप्पू चलाने में व्यस्त हो गया।

दिन भर के तपिस के बाद मौसम बेहद सुहाना हो चला था। हवा का झोंका रह- रहकर दूर क्षितिज से आता और नदी के जल के साथ अठखेलियाँ करता, जब काव्या और किसलय को स्पर्श करता, तो दोनों के तन सिहर उठते और मन पुलकित हो जाते।

एक अजीब-सी नीरवता कुछ ही मिनटों में  छा गयी। नाव पर सवार तीनों अपने आप में मग्न थे। रह-रहकर नाव से टकराकर जलधारा कल-कल, कल-कल-सा मधुर नाद उत्पन्न करती। काव्या का मुँह नदी के दूसरी तरफ था और किसलय घाट की तरफ देख रहा था। वह घाट की सुंदरता को देखता कुछ  -कुछ   सोचता रहा। उसने कल्पना की कि जब सृष्टि का प्रलय हुआ होगा, पूरी पृथ्वी जलमग्न हुई होगी, तो कुछ   ऐसा ही मंजर होगा। काव्या कुछ  सोचकर खड़ी हो गयी और स्थान परिवर्तन कर नाव के सिध में मुँहकर बैठ गयी। उसने डेक पर पालथी मार लिया और एकदम सहज और र्निविकार भाव से जलयात्रा के सुखद एहसास को संचित करने लगी।

‘‘इतना दूर क्यों बैठे हैं …..यहाँ आइए?’’ काव्या ने अपने पास जगह बनाते हुए कहा। यह बात किसलय के लिए आश्चर्यजनक थी, उसे उम्मीद न थी वह इस  छोटे से नाव पर इतना पास-पास बैठने के लिए आमंत्रित करेगी।

‘‘पहले मुझे बहुत डर लगता था, जब मैं नाव में बैठती थी, लेकिन जब से तैरना सीख लिया, तब से मुझे बोटिंग करना बड़ा ही रोमांचकारी लगता है। आप डर तो नहीं रहे….?’’ काव्या ने पूछा।

‘जब तुम मेरे साथ हो तो डर किस बात की, तुम्हें देखते हुए तो मैं इंग्लिश चैनल तैर कर पार कर दूँ।’ उसने कुछ ऐसा ही सोचा।

‘‘नहीं तैरना मुझे भी आता है इसलिए डर जैसी कोई बात नहीं। और फिर आपका सामिप्य पाकर तो कोई कायर भी शेर बन जाये।’’ उसने मुस्कुराते हुए काव्या को ऐसे देखा, मानो निगाहों का तीर काव्या के आर-पार निकल गया, कहीं आलंब न मिला हो। काव्या आज पीले रंग का सूती कमीज-सलवार पहने हुए थी। ओढ़नी को बड़े खूबसूरत अंदाज में गले लपेटा था। उसका ड्रेसिंग सेंस कमाल का था। जैसे सादगी और चकाचौंध का खूबसूरत समन्वय हो। बाल में क्लचर फँसाए वह झुककर बैठी

थी। घने बाल संर्पूण पीठ को ढँके जा रहे थे और वह मुग्ध हो नदी के अलौकिक सौंदर्य को निहार रही थी। इस वक्त उसे देखकर ऐसा लगता था, जैसे धानी रंग से रंगी कोई बसंत कन्या हो। दोनों चुप थे, पर दिमाग कहाँ ठहरने वाला था। विचारों का चक्र चलता रहा। किसलय काव्या का संग पा आज भाव विह्वल हुए जा रहा था। करीब आधे घंटे तक बोटिंग के बाद नाव दूसरे  छोर पर आकर लग गयी। दोनों रेत पर नंगे

पाँव टहलने लगे। विस्तृत रेत का कच्छार और मदमस्त पवन दोनों को आनंदित करता रहा। किसलय काव्या का सुमधुर सान्निध्य पा पुन: खिल उठा था। काव्या का चेहरा किसलय को प्रेरणा देने के लिए पर्याप्त था। कोमल नाजुक कदमों से काव्या रेत पर कदमों के चिन्ह  छोड़ती दूर निकल चुकी थी। किसलय एकटक नीचे रेत पर आँखें गड़ाये काव्या के कदमों के निशान को पहचानने की कोशिश करता रहा। दोनों रेत पर

पास-पास बैठ चुके थे। अचानक से किसलय को लगा, जैसे एक अंजाना बोझिल- सा सन्नाटा चारों तरफ छा गया हो। काफी देर से दानों में कोई संवाद न हुआ था। किसलय ने स्निग्ध नजरों से काव्या को देखते हुए बड़े मनुहार से कहा, ‘‘अगर आपकी इच्छा हो, तो हम इस शाम को और भी यादगार और हसीन बना सकते हैं।’’

‘‘वो कैसे?’’ उसने मचलते हुए पूछा ।

‘‘थोड़ी मस्ती, थोड़ा अल्हड़पन, हँसी-मजाक और प्रकृति के सान्निध्य से खुद को जोड़कर।’’

‘‘ये शाम आपके नाम, आपकी जैसी मर्जी, मुझे कोई एतराज नहीं।’’

इतना सुनते ही किसलय ने रेत को हाथों में ले काव्या पर ऐसे उछाला, मानो अबीर – गुलाल। फिर क्या था काव्या ने भी जवाबी हमले के लिए रेत हाथों में उठाया ही था, बस किसलय दौड़कर भागने लगा। काव्या भी दौड़ पड़ी। कुछ  देर दोनों दौड़ते रहे। ये मस्ती की दौड़ थी। काव्या थककर एक जगह बैठ गयी। किसलय भी हाँफते-हाँफते वापस आया और सामने बैठ गया। काव्या की मुट्ठी अब तक रेत से भरी थी, उसने किसलय पर उछाल दिया और दोनों खूब जोर से हँस पड़े। दोनों आमने-सामने रेत पर बैठ चुके थे। किसलय बचपन को याद करने लगा। वह रेत के घरौंदे बनाने लगा। दूसरी तरफ काव्या रेत पर कुछ  आड़ी – तिरछी रेखाएं अनमने भाव से खींच रही थी। कुछ  देर बाद कुछ सोच रेत पर ही तस्वीर खींचनी शुरू की।

किसलय ने जब अच्छे से एक घरौंदा तैयार कर लिया, तो आत्मसंतुष्ट हो पालथी मार बैठ गया और मासूम काव्या के कपोलों के बदलते भाव देखता रहा। वह सोचता रहा काश कि मैं चित्रकार होता और इस निर्दोष चेहरे को कैनवास पर उभारता, पर तुरंत ही उसने इस विचार का खंडन किया। चलो अच्छा  ही हुआ, जो मैं चित्रकार और फोटोग्राफर  न  हुआ,  क्योंकि  कोई  भी  कलाकार  इस  छवि  के  साथ  न्याय  नहीं  कर सकता। क्या मजाल किसी चित्रकार और मँहगे से मँहगे कैमरे कि जो वह किसी भी सूरत में काव्या की छवि चित्र हू-ब-हू वैसा बना सके, जैसा मैं देख रहा? उसने ईश्वर को शुक्रिया कहा कि इतना बढ़िया और अलौकिक बेमिसाल वरदान दिया है आपने, आँखों के रूप में।

जब तंद्रा भंग हुई तो देखने लगा, आखिर इतने देर से काव्या क्यों गंभीर है? वह

चुपचाप काव्या के पीछे जाकर खड़ा हो गया। काव्या को इसकी कुछ  भी सुध न रही। उसने देखा बालू पर क्या खूबसूरत और सजीव तस्वीर उकेरा था काव्या ने उसका। ऐसा लगता था, मानो तस्वीर में बस प्राण डालने की देर भर हो, कब बोल उठे। पहले तो बहुत खुश हुआ किसलय, पर तुरंत ही बहुत भयभीत हो गया। ऐसा लगा मानो आँखें बरस पडे़ंगी। वह सोचने लगा ‘‘काव्या ठीक ही कहती है, वह तीस साल से

ज्यादा नहीं जी सकती। जिसके अंदर इतनी प्रतिभा एक साथ हो, जो हर फन में मौला हो, वह इस पृथ्वी पर ज्यादा दिन रह ही नहीं सकता।’’

कुछ देर बाद दोनों हाथ-पैर धोने के लिए नदी के पास आ चुके थे। काव्या चेहरे पर पानी के छींटे मारने लगी। पास ही में किसलय भी चेहरा और बाल साफ कर रहा

था। तब तक काव्या के दिमाग में एक शैतानी सूझी, उसने अंजलि में पानी ले किसलय पर उछालना शुरू किया। अचानक से पानी की बूँदों से उसकी आँखें बेचैन हो उठीं। उसके कपड़े और बाल लगभग भीग चुके थे। बदले में किसलय ने काव्या के हाथों को पकड़ हल्का झटका दिया, वह संभल नहीं पायी और  छपाक की आवाज हुई। वह

पानी में गिरकर पूरी तरह भींग चुकी थी। दोनों ने जमकर गंगाजल से होली का आनंद उठाया। काव्या के भीगे वस्त्र शरीर से चिपक गये थे। उसका अंग-प्रत्यंग दर्शनीय हो

चला था। चेहरे पर पानी की बूँदें मोती-सा चमक रहे थे। भींगे लट बार-बार चेहरे पर ऐसे घेरे डालते, मानो स्वच्छ चाँद काली बदली से घिर गया हो। उसका चेहरा कितना मासूम और निर्दोष नजर आ रहा था। उसने व्यस्त कपड़ों को ठीक कर छलकते सौंदर्य मधु को  छुपाने की व्यर्थ कोशिश की। इस हाल में भीगें कपड़ों के साथ घर जाना बड़ा

मुश्किल था दोनों के लिए। दोनों ने रेत पर जा एक बार अच्छे से कपड़े को निचोड़ा और तय किया कि जब तक कपड़े सूख न जाए, तब तक यहीं विचरण किया जाए।

धीरे-धीरे शाम ढलती गयी और रात हो गयी। नीलगगन में र्पूण चंद्र अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुका था। क्या खूबसूरत शमां थी। किसलय के लिए तो जैसे एक साथ दो चाँद निकल आये थे। क्या को-इनसिडेंस था, वह काव्या से जब पहली बार मिला था उस दिन भी पूनम की रात थी और दैव संयोग से आज भी।

 

15

दोनों आज देवल का प्रसिद्ध किला को देखने आये थे। वह एक अतिप्राचीन किला था, जिसके मजबूत और अभेद प्राचीर से बाध्य हो नदी को भी रास्ता बदलना पड़ा था। संपूर्ण  किला बाहर से देखने पर नदी में तैरते हुए जहाज की तरह नजर आता था। राजा-राजवाड़ों का समय तो कब का खत्म हो चुका था, पर उनके स्थापत्य और कला

प्रेम के ये भव्य और जिंदा अवशेष थे। काव्या और किसलय कई घंटे तक किले के बरामदे  और  आंगन  में  कदम-ताल  करते  रहे।  वहाँ  बहुत  कुछ  देखने  लायक

आश्चर्यजनक चीजें थीं, जो समय के परिवर्तन की कहानी बयां कर रही थी। न जाने ऐसे जगहों पर जाने से क्यों हमारा आत्मगौरव स्वत: जागृत हो जाता है ? दोनों घूमते-

घूमते कीले के पिछले हिस्से की तरफ चल पड़े। रास्ते में बड़ा घोर अंधेरा था, ऐसा लग रहा था, मानो तहखाने से गुजर रहे हों। वहाँ पर उल्लुओं, चमगादड़ों और अनेक विहगों का भयानक जमावड़ा था, जो खूब तेज आवाज कर रहे थे। इस रास्ते को पार करते ही किला का पिछला हिस्सा शुरू हो जाता था। सामने एक छोटा-सा मंदिर था और पास ही में एक महत्वपूर्ण लोकेशन, जिसे रिवर व्यू प्वाइंट का नाम दिया गया था। वहाँ से गंगा की सर्पिल धारा के साथ-साथ देवल की खूबसूरती को निहारना बहुत आनंददायक था। किले के पीछे की दीवाल को छूती हुई गंगा निकलती थी। इस हिस्से

में एक पुराना महल था। कहा जाता था कि इस राज परिवार की राजकुमारी का वह महल था। वह इसी महल के ऊपरी मंजिल पर एक खास कमरे में संगीत और नृत्य का अभ्यास करती थी। दोनों उसे देखने के लिए सीढ़ियों से छत पर पहुँचे। यह इस किले का सबसे ऊँचा स्थान था, यहाँ से कई कोस तक नंगी आँखों से देखा जा सकता था। दोनों कभी धीरे और कभी तेज कदमों से किले के  छत पर टहलने लगे थे। जब

काव्या पास में आयी, तो किसलय ने पूछा, ‘‘ये अच्छी बात है कि आपको पढ़ना अच्छा लगता है, पर आगे क्या करने का शौक है ? अब तक तो आप भी काफी कुछ तय कर चुकी होंगी ?’’

‘‘हाँ, मैं भी आपको यही बताना चाहती थी, लेकिन इसके लिए उचित समय का इंतजार  कर  रही  थी।  खैर,  जब  अपने  पूछ  ही  लिया  तो  अभी  ही  बता  देना जायज समझूँगी।’’

‘‘हूँ…।’’ किसलय ने गहरी साँस ली।

‘‘मैंने कुछ लक्ष्य निर्धारित किया है, उनके बारे में आपसे सलाह चाहती हूँ, क्योंकि मुझे इस मामले में आपसे नजदीकी और कोई नहीं जान पड़ता।’’

अपने आपको काव्या का नजदीकी समझ, किसलय मन ही मन आह्लादित होते जा रहा था।

‘‘मेरे लिए जो आदेश होगा, मैं तैयार हूँ, मैं इतना ज्ञानी नहीं, जो आपको उचित सलाह दे सकूँ। ये तो आपका बड़प्पन है, जो आप मुझे इतना खास समझती हैं।’’ किसलय ने बहुत सहजता से अपनी बात कहा।

‘‘सलाह नहीं बल्कि आपका मार्गदर्शन मेरे लिए बहुत मायने रखता है।’’ किसलय चुप हो हवा का रूख पहचानने लगा कि आखिर ये कहना क्या चाहती है ?

‘‘मुझे इस दुनियादारी से विरक्ति हो गयी है।’’

‘‘मतलब ?’’

‘‘मैं अपना पूरा जीवन समाज-सेवा में अर्पित करना चाहती हूँ।’’ पूरे वाक्य को सुन किसलय सन्न रह गया, लगा जैसे खड़े-खड़े चक्कर आ गया। दोनों इस वक्त एक

जगह खड़े हो चुके थे, चूँकि काव्या ने बात को इतनी गंभीरता से कहा कि जैसे दोनों के कदम अपने आप थम गये। मौसम काफी शांत और सुहावना हो चला था। ऐसे में किसलय का पूरा बदन पसीने से नहा उठा। वह बहुत कुछ कहना चाहता था, पर सोच नहीं पा रहा था, बात कहाँ से पुन: शुरू करे।

‘‘मेरी जिंदगी अगर दूसरों के काम आ जाये, तो इससे बढ़कर मेरे लिए और क्या हो सकता है ? लोककल्याण से बढ़कर कोई नौकरी नहीं और सेवा से बढ़कर कोई

धर्म नहीं। मेरे पुरखों ने माँ लक्ष्मी का कुछ ज्यादा अतिक्रमण कर लिया है। मैं उस संचित धन का कुछ हिस्सा जरूरतमंदों के कदमों में अर्पण करना चाहती हूँ। शिक्षा

की जितनी जरूरत सामान्य जिंदगी के लिए थी, उतनी मैंने हासिल कर ही ली। मेरा एम. ए. भी कम्पलीट होने वाला है, सो अब मैं समय का सदुपयोग दूसरे कार्यों में करना चाहती हूँ।’’

अपने आप को संयत कर किसलय बोला, ‘‘आपने जब सब कुछ तय कर लिया है, तो फिर मेरे सलाह की क्या जरूरत ?’’

‘‘अपने कार्यक्रम को बहुत ज्यादा स्पष्ट नहीं कर पायी हूँ, इसलिए इस काम में आपका सहयोग बेहद जरूरी है।’’

‘‘एक बात बताना, आपको इन कार्यो की प्रेरणा कहाँ से मिली ?’’

‘‘कुछ अध्यात्म पढ़कर, कुछ धार्मिकता हासिल कर, बहुत कुछ   अपनी माँ और अपने  परिवार  को  देखकर  और  सबसे  ज्यादा छत्तीसगढ़,  बिहार  और  झारखंड  की फिलहाल जो यात्रा की, उसे देखकर। मैं इंटर्नशिप के लिए बस्तर गयी थी, उसके बाद गर्मियों की छुट्टी में मैं इन जगहों पर खूब घुमी।’’

‘‘और अगर किसी की जिंदगी आपके चलते खराब हो जाये, तो क्या आप अपने आपको माफ कर पाएंगी?’’

‘‘पर एक के लिए बहुतों की जिंदगी खराब करना ये भी तो न्यायसंगत नहीं है?’’ ‘‘आपकी बहन और माँ का क्या होगा?’’

‘‘सबकी अपनी जिंदगी और जीने का तरीका है। आर्थिक विपन्नता तो है नहीं, सो इस मामले में बहुत ज्यादा चिंतित नहीं हूँ। वैसे भी चिराग तले अंधेरा तो होना ही है। जो समाज की भलाई के लिए चल पड़े, वह अपने घर का भला कैसे कर पाएगा।’’ कुछ  देर के लिए दोनों चुप रहे, फिर किसलय ने प्रश्न किया, ‘‘लेकिन आप करना

क्या चाहती हैं, मैं जरा डिटेल्स में जानना चाहता हूँ, मैं भी तो जानूँ क्या-क्या सोच रखा है आपने?’’

‘‘मुझे लगता है इस बात को यही खत्म कर थोड़ा प्रकृति का रसपान करना चाहिए। हो सकता है, इन बातों का मर्म जल्दी में समझ न आये। अब आज रहने दीजिए,

प्लीज मेरा मूड नहीं हो रहा, कल बता दूँगी। मुझे अब एहसास हो रहा है कि यह ठीक समय नहीं था इस बात को बताने का।’’

कुछ देर बाद काव्या बोली, ‘‘एक बात तो मैं भी जानना चाहती थी आपसे ?’’ ‘‘वह क्या?’’

‘‘आपकी पसंद को मैं देखना चाहती हूँ।’’ ‘‘कौन-सी पसंद ?’’

‘‘वही, जो आपने किसी रोज कहा था किसी को आप बहुत पसंद करते हैं।’’ ‘‘मैं भी आपको उससे कल ही मिलवाऊँगा।’’

‘‘पक्का! वादा कीजिए। क्या आज संभव नहीं?’’

‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं। आज मेरा मूड भी ठीक नहीं, कल ही ज्यादा ठीक रहेगा।’’ उसने गंभीरता से काव्या का नकल करते हुए कहा।

इसके बाद दोनों हल्के मूड में नजर आये, मगर ऊपर से, अंदर से कुछ    न कुछ उलझा हुआ था।

16

देर रात तक दोनों आपस में बातें करते रहे, क्योंकि ये आखिरी रात थी। किसलय ने बता दिया था, वह कल की रात चला जाएगा। बस और एक दिन का यहाँ मेहमान रह

गया था किसलय। दोनों भोजन के बाद एक साथ बैठ गये थे। दोनों ने स्वेच्छा से अपनी छोटी-सी जिंदगी के तमाम पहलुओं और अच्छे तथा बुरे वक्त की आपबीती एक दूसरे को कह सुनाया। काव्या और किसलय दोनों आज प्रसन्न थे। अगले दिन के बारे में  कार्यक्रम तय हुआ, देवल यूनिवर्सिटी घूमने का। किसलय के आग्रह पर दोनों एक साथ बैठ एक पुरानी फिल्म देखने लगे। फिल्म में करूण दृश्यों को देख दोनों कई बार भावुक हो उठे, अंतत: फिल्म खत्म होने पर ही सोने के लिए दोनों अपने-अपने कमरे में गये।

अगले  दिन  सुबह  आठ  बजे  ही  दोनों  नाश्ता  कर  घूमने  के  लिए  निकले। विश्वविद्यालय  परिसर  में  प्रवेश  के  साथ  ही  किसलय  बहुत  गंभीर  हो  उठा।  उसकी

बचपन से तमन्ना थी कि काश कभी यहाँ पढ़ने का मौका मिलता, पर पारिवारिक और आर्थिक समस्या ने इस कल्पना से महरूम ही रखा। एक-एक वृक्ष और फूल-पत्रों को

गौर से देखता, मंदिर सरीखे भवनों को निहारता, वह आगे बढ़ता जा रहा था। देवल यूनिवर्सिटी के स्थापत्य और वस्तु का दोनों मन ही मन रसपान किये जा रहे थे। विभिन्न संकायों और विभागों की इमारतों को देख, ऐसा लगता था, मानो सरस्वती यहाँ साक्षात विराजमान  हों।  परिसर  की  आबोहवा  और  प्राकृतिक-  छटा  अनुपम  थी। संपूर्ण  विश्वविद्यालय  एक  बागीचा  जैसा  लग  रहा  था।  सब कुछ कितना  व्यवस्थित  और समायोजित नजर आ रहा था। ऐसा लगता था, मानो किसी कलाकार की रचनात्मकता

यहाँ आकर खुद-ब-खुद जवां हो गयी हो। दोनों पैदल मार्च करते रहे। काव्या एक – एक भवन, संकाय और चौक-चौराहों से किसलय का परिचय कराती रही। उसके बाद

दोनों ने रिक्शे की सवारी की। घूमते-घूमते जब बहुत समय बीत गये, तो दोनों एक ग्राउंड में साफ-सुथरी जगह देख बैठ गये और सुस्ताने लगे। काव्या ने लम्बी खामोशी तोड़ते  हुए  कहा,  ‘‘मैं  आपको  एक  सच  बताना  चाहती  हूँ,  पर  सोच  नहीं  पा  रही, कैसे बताऊँ?’’

‘‘ऐसी कौन-सी बात है, जिसे बताने में आपको झिझक हो रही?’’

‘‘है कुछ ऐसी बात, लेकिन एक शर्त मानेंगे आप, तो मैं बता सकूँगी।’’

‘‘इसमें शर्त जैसी क्या बात है? फिर भी मैं आपकी शर्त मानने को तैयार हूँ। अब जल्दी से बता दीजिए कि आपकी शर्त क्या है?’’

‘‘शर्त ये है कि आप माफी के हकदार न होने के बावजूद किसी को माफ करेंगे।’’

‘‘मतलब?’’

‘‘दोस्ती और मानवता के नाते    छोटी-सी मानवीय भूल को माफ कर देंगे। मैं कुछ समझ नहीं पा रहा। आप जरा खुल के बताइए। वैसे भी मैं किसी का क्या बिगाड़ सकता और किसी का सुख-चैन तो मैं हरगिज नहीं छीन सकता। गम और दर्द के साथ तो मुझे जीने की आदत सी पड़ गयी है। वह तो आपका साथ है, जो मैं अपने आपको बहुत भाग्यशाली समझने लगा।’’

‘‘आपके साथ एक बहुत बुरा मजाक हुआ है, पर आप इससे वाकिफ नहीं। लेकिन मुझे लगता है आपको सच जानना चाहिए।’’

किसलय चुपचाप मूर्तिवत काव्या को देखता रहा। इसके बाद काव्या ने बेहद कोमल और मुलायम लफ्जों में वो सारा वाकया कह सुनाया, जो पूजा और किसलय के बीच हुआ था। एक मधुर फरेब को स्पष्ट लहजे में काव्या ने बहुत साफगोई से प्रस्तुत किया और फिर किसलय को fb पर उपस्थित उन तमाम बातचीत को दिखाया, जगह-जगह उनसे संबंधित संदर्भों को भी प्रकट किया। यह भी बताया कि कौन-कौन- सा मैसेज उसका है और कौन-कौन पूजा का। सबकुछ सुन किसलय के आँखों तले अंधेरा छा गया। हतबुद्धि हुआ, वह मूढ़ दृष्टि से काव्या को देखता रहा। उसका सर चकराने लगा, धरती घूमती नजर आने लगी। उसे ऐसा लगा, मानो दूर कहीं बवंडर उठा हो और उसके यहाँ पहुँचने का आभास हो रहा हो। उसकी आँखें लाल हो चली थीं, होंठ सूख चुके थे और शरीर पसीना से लथपथ हो चुका था। दोनों एक सघन वृक्ष के नीचे हरे-भरे घास पर बैठे थे। पूरवा हवा रह-रहकर ललकार रही थी। दूर-दूर तक इस वक्त कोई नजर नहीं आ रहा था। ऐसे में काव्या ने गौर से किसलय को निहारा। उसकी आँखें लला गयी थीं, संभालते-संभालते आँसुओं की कुछ बूँदें टपक पड़ी

थीं। सबसे बुरा हाल तो काव्या का था, वह किंकर्तव्यविमूढ़ हो बस किसलय को देखे जा रही थी। किसलय का सुहाना भ्रम पलभर में टूट चुका था। वह इस वक्त खुलकर रोना चाहता था। उसे पूजा पर गुस्सा जरूर था, पर सबसे ज्यादा गम अपनी किस्मत का था।

काव्या ने अपने फूल से कोमल हाथों के स्पर्श से किसलय के आँसू पोछ दिये और भर्रायी आवाज में बोली, ‘‘किस बाबू! जब आपके जैसा चतुर सुजान इस अवस्था को प्राप्त हो जाये, तो फिर दुनिया को रसातल जाने में बहुत कम वक्त लगेगा। आप तो सब कुछ जानते हैं प्रेम, माया, मोह, आकर्षण  दुनियादारी। आपके ज्ञान के सामने तो मैं निरीह मेमने के समान हूँ। मुझे इतना ज्ञान तो है नहीं जो आपको समझा सकूँ, पर हिम्मत करके इतना तो जरूर कहूँगी कि आपको दु:खी होना शोभा नहीं देता। काव्या तब भी आपके साथ थी, अब भी आपके साथ है। हमारी और आपकी दोस्ती

तब तक कायम रहेगी, जब तक इसकी परिधि में मित्रता के अलावा और कु    न रहेगी। हम  दोनों  अच्छे दोस्त  तो  हो  ही  सकते  हैं,  जिनकी  डोर  सारे  रिश्तों  से  परे  और

नि:स्वार्थ हो।’’

किसलय गले को साफ कर बोला, ‘‘मैं तो कुछ और समझ बैठा था।’’

‘‘हर युवा हृदय यही समझ पाता, इसमें आपकी गलती कुछ भी नहीं।’’ ‘‘पल भर में मैं अर्श से फर्श पर आ गिरा।’’

‘‘ऐसा क्यों सोचते हैं? प्यार शब्द से अगर ‘प’ को निकाल देते हैं, तो ‘यार’ बच जाता है और आप जैसे यार जिसके साथ हों, उसे प्यार की प्यास कभी न रहेगी।’’

किसलय टुकुर-टुकुर आँखें फाड़े बस काव्या को देखता रहा।

‘‘काश कि मैं एक सामान्य नारी की तरह सोचती तो आप विश्वास मानिए, मैं आपसे उम्र भर इश्क फरमाती। मेरी नजरों में आप अप्रतिम हैं, आपके कद के आगे मेरे लिए पूरी दुनिया फीकी है।’’

किसलय की नजरों में काव्या दो-चार सीढ़ी और ऊपर चढ़ चुकी थी। वह काव्या को किसी देवी से तिलभर भी कम नहीं आंक सका। पूजा के प्रति किसलय के मन

में घोर घृणा का भाव भर गया था, यह जान काव्या ने पूजा के बारे में कई बातें किसलय को बतायी, ताकि पूजा के प्रति किसलय का मन साफ हो सके।

कुछ वक़्त तक बातें करते-करते जब दोनों सामान्य हो गये, तो काव्या को कुछ शरारत सूझी।

‘‘आपने अपना वादा तो पूरा नहीं किया।’’ ‘‘वह क्या?’’

‘‘किसी  से  मिलवाने  वाले  थे  या  यूँ  कहिए  तस्वीर  भी  दिखला  देते,  तो  काम चल जाता।’’

कुछ सोचकर हड़बड़ाहट में किसलय बोला, ‘‘हाँ-हाँ मुझे याद है, रात तक उनसे आपका परिचय हो जाएगा, पर आप भी अपने वादे को मत भूलिए कल आपने कहा था आप भी अपने लक्ष्यों को स्पष्ट करेंगी।’’

‘‘हाँ, मुझे भी याद है, लेकिन उसके पहले मैं आपके लक्ष्य के बारे में जानना चाहती हूँ। जिंदगी में आगे आपकी क्या योजना है?’’

काव्या अचानक खड़ी हो गयी और परेड मास्टर की तरह उछ  ल-कूद करते हुए कमर सीधी करने लगी। किसलय मन ही मन सोचता रहा, ‘‘आज काव्या के साथ हूँ तो  कितनी  खुशी  है।  कल  ठीक  इसी  वक्त  कितनी  उदासी  होगी।  वक्त  कितना परिवर्तनशील है। हम सब बस प्रकृति की बिसात पर बेजान मोहरे हैं, जिन्हें अपनी अगली चाल खुद मालूम नहीं।’’

‘‘आपने अपना लक्ष्य तो बताया नहीं, आगे के संबंध में क्या योजना है? कुछ सीक्रेट तो नहीं?’’ काव्या ने मुस्कुराते हुए पूछा ।

‘‘बहुत कुछ तो सोचा नहीं। हम इन्सान जिंदगी के लक्ष्यरूपी खाका तो खींच सकते हैं मेहनत के द्वारा, पर असली रंग तो ऊपर वाला ही डालता है किस्मत के रूप में।’’ किसलय यह कहते-कहते गंभीर हो चुका था।

मतलब निरुद्देश्य भटकते रहने का इरादा है, जो शिक्षा अब तक आपने प्राप्त की, उसके ऋा से मुक्ति के लिए क्या मार्ग ढूँढ़ा या बस रोटी, कपड़ा और मकान तक ही अपने आपको सीमित करने का इरादा है। आपके जैसे विद्वान के लिए परिवार चलाना कोई बड़ी बात नहीं, पर खुद को कैसे चलाएंगे और इस समाज को आप क्या देंगे?

इस नैतिकता पर भी विचार करना चाहिए।’’

‘‘देवी जी!  रुपये-पैसे कमाना और परिवार चलाना आज के जमाने में हम भोले- भाले लोगों के लिए बहुत कष्टसाध्य है, पर आपने मेरी आँखें जरूर खोल दी। इन बातों पर भी मैं अब विचार करूँगा।’’

‘‘शादी कब कर रहे हैं?’’ दूर क्षीतिज की तरफ देखते हुए काव्या ने ऐसे पूछा, मानो सामने देखकर पूछ ने में शर्म आती हो।

‘‘जब कोई ऐसा मिल जाए।’’ ‘‘कैसा?’’

‘‘आपकी तरह।’’ लेकिन अंदर कुछ और चल रहा था, बस ये नहीं कह सका कि आप जब तैयार हो जाएं।

काव्या यह सुन हैरत में पड़ गयी। उसे इस तरह उहापोह में पड़े देख किसलय ने बात पलटने के गरज से कहा, ‘‘आप अपने उद्देश्यों के बारे में कुछ और बताने वाली थीं।’’

‘‘मैं बहुत जल्द देवल छोड़ने वाली हूँ। मैंने कई राज्यों को टारगेट किया है। शुरुआत इन्हीं में से कहीं से करूँगी। हो सकता है आपके बिहार या छत्तीसगढ़ से ही करूँ और फिर समस्त भारतवर्ष में इसको मूर्तरूप दूँगी। एक विस्तृत रूपरेखा पहले तो तैयार करनी होगी। बहुत कुछ कर भी चुकी हूँ और ढेर सारी सूचनाएं और ज़मीनी ह़की़कत से रू-ब-रू होना बाकी है। बस एक बोझ था दिल पर, आज उससे भी

मुक्त हो चुकी।’’

‘‘वो क्या?’’

‘‘आपको मैं अंधेरे में नहीं रखना चाहती थी। सच्चाई से अवगत कराना मेरे लिए अपरिहार्य था।’’

‘‘लेकिन आप करना क्या चाहती हैं,  ये तो मैं समझ ही नहीं पाया और फिर किस क्षेत्र में?’’

‘‘शिक्षा, स्वास्थ्य, स्वच्छता और नैतिक जागरूकता जैसे कई मुद्दे हैं, जिन पर मुझे काम करना है।’’

‘‘तब तो आप देवल से और हम सबसे कट ही जाएंगी?’’

‘‘बिल्कुल तो नहीं कट जाऊँगी, हाँ सम्पर्क जरूर कम कर दूँगी, ताकि चित बार- बार इधर-उधर न भटके। मैं इस दुनिया से अलग एक अपनी दुनिया में रम जाना चाहूँगी। मैं चुपचाप समाजसेवी की तरह अपने कार्य में उन्मत रहना चाहती हूँ। मीडिया और ग्लैमर की दुनिया से मुझे सख्त नफरत है। कुछ लोग करते कम हैं और क्रेडिट ज्यादा लेना चाहते हैं, जिंदगी का ये फलसफा मुझे दारूण दु:ख देता है। दान और सेवा

तो गुप्त होनी चाहिए।’’

‘‘कभी मेरी जरूरत पड़े, तो मुझे याद करना मैं अपना सौभाग्य समझूँगा।’’ ‘‘शायद आप ये बात औपचारिकतावश कह रहे हैं।’’

किसलय इस बात पर खामोश रहा उसकी खामोशी को काव्या ने ताड़ लिया। ‘‘वैसे आप एक बार अपने भूत, भविष्य और वर्तमान का अवलोकन कर लक्ष्यों को निर्धारित करने की कोशिश कीजिएगा। आपका साथ मिल जाता, तो मैं अपने

मंजिल को पाने में बेशक सफल हो जाती। खैर, आप बहुत इत्मिनान से आत्ममंथन कीजिएगा, जो उचित और स्वाभाविक जान पड़े, वही कीजिएगा।’’

किसलय के अंदर से आवाज आयी, ‘मेरी मंजिल तो तुम हो।’

‘‘और हमारी दोस्ती …….।’’ वह कुछ कहना चाहता था, पर काव्या ने बात काट कर कहा, ‘‘हमारी दोस्ती तब तक अटूट रहेगी, जब तक इसमें वासना और स्वार्थ के लिए जगह न बन पाये।’’

‘‘मैं एक बार जरूर आपकी बातों पर विचार करूँगा पर समाज सेवा भी आजकल प्रोफेशनल  हो  चला  है,  अर्थ  की  आवश्यकता  यहाँ  भी  होगी।  ऐसे  में  आप क्या करेंगी?’’

‘‘कोई अगर नि:स्वार्थ भाव से आगे निकल पड़े तो साथ देने वाले हजार मिलेंगे।

बस एक सच्चे मन से शुरुआत की जरूरत भर है। और मैंने बताया तो था कि वैसे भी मेरे  नाम  से  बहुत  संपति  है।  मैं  उनका  उपयोग  इस  काम  में  खुले  दिल  से  करना

चाहती हूँ।’’

बहुत देर तक बातों का सिलसिला यूँ ही चलता रहा, फिर दोनों घर की तरफ चल पड़े। रास्ते में एक जगह किसलय ने काव्या से अनुमति ली कि वह घंटे भर में अपना काम निपटा आ जाएगा, आप तब तक घर चलिए।

‘‘आपने खाना भी तो नहीं खाया है?’’ काव्या ने कहा।

‘‘कोई बात नहीं, बस मैं यूँ गया और यूँ आया।’’ दोनों अपने-अपने रास्ते बढ़ गये। शाम को दोनों एक साथ कॉफी पी रहे थे। कुछ  ही देर पहले दोनों सोकर जगे थे और कुछ ही घंटे बाद किसलय जाने वाला था। अक्सर सोकर जगने पर दिमाग बेहद शांत और दार्शनिकता से ओत-प्रोत होता है। दुनिया कई दफा निरर्थक और प्रयोजनहीन प्रतीत होती है। प्रकृति प्रेमी इन्सान ऐसे में प्रकृति की अबूझ पहेलियों को सुलझाने की कोशिश करता है। कुछ देर खामोश रहने के बाद काव्या ने बात की शुरुआत की।

‘‘आप कुछ ज्यादा थक गये थे, नहीं?’’ ‘‘मुझे दिन में सोने की पुरानी आदत है।’’ ‘‘आपने मेरी लाइब्रेरी तो देखी नहीं?’’ ‘‘आपने दिखाया कहाँ?’’

‘‘चलिए, इसी बात पर आपको दिखा दूँ।’’

इसी कमरे में काव्या अध्ययन करती थी। काफी कम समय में काव्या ने इस कमरे को एक पुस्तकालय का शक्ल दे दिया था। कम से कम हजार किताबें तो जरूर उस कमरे में करीने से रखी हुई थीं।

‘‘आपने रात को कुछ दिखाने का वादा किया था, कहीं भूल तो नहीं गये।’’ एक मासूम मुस्कान के साथ इस बात को काव्या ने कहा।

‘‘नहीं, बिल्कुल नहीं, आपको दिखाने लायक वह चीज मेरे बैग में पड़ी है, कहें तो चलकर दें हम आपको?’’

दोनों वापस गेस्ट रूम में आ गये। काव्या कुछ  विस्मित और आश्चर्यचकित निगाहों से कभी किसलय, तो कभी उसके बैग को घूर रही थी।

‘‘लेकिन एक शर्त है।’’ बैग खोलते हुए किसलय ने कहा।

‘‘वह क्या ? अब आप भी शर्त देने लगे।’’ ‘‘ये तो आप ही से सीखा।’’

‘‘कहिए, शर्त क्या है?’’

‘‘आप इस तस्वीर को यहाँ नहीं, बल्कि अपने कमरे में जाकर इत्मिनान से देखेंगी

और वह भी मेरे चले जाने के बाद।’’ ‘‘जैसी आपकी मर्जी।’’

कुछ घंटे बाद किसलय जा चुका था और काव्या एक बड़े से फोटोफ्रेम को, जो मोटे कागजों और रैपर से अनगिनत बार लपेटा हुआ था। ऊपर से जगह-जगह टेप मारा गया

था, बाहर भी बहुत अच्छी पैकिंग थी, को हाथों में लिए अपने कमरे की तरफ सरपट दौड़ी। उसे कुछ  भी अंदाजा न हो रहा था कि ये क्या है?

अपने कमरे में पहुँच उसने अंदर से दरवाजा बंद किया और फिर इत्मीनान से अपने बिस्तर पर बैठ तस्वीर के बंधनों को ढीला करने लगी। उस तस्वीर के ऊपर असंख्य

परत जिल्द लिपटे थे, वह खोलते-खोलते परेशान हो उठी। उसे द्रौपदी और साड़ी वाली बात स्मरण हो रही थी। दिल उत्सुकता से व्यग्र था और सबसे आखिर में वह फ्रेम नग्न हो चुका था। उसमें कोई तस्वीर न थी, वह एक आइना था बड़ा-सा खूबसूरत फ्रेमदार शीशे का और उस आइने में काव्या का अक्श उभर रहा था- माथे पर शिकन, बेचैन आँखें और सूर्ख चेहरा। वह अपना चेहरा देख खुद झेंप गयी।

क्रमश :

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