अतिथि संपादक
डॉ. दिनेश पाठक ‘शशि’
संपादकीय
वर्ष-2020 के प्रारम्भिक महीनों में अप्रत्याशित रूप से प्रकट हुई महामारी कोविड-19 ने पूरे विश्व के परिदृश्य को बदल कर रख दिया।
लाखों लोगों को असमय ही काल कवलित होना पड़ा। व्यापार,शिक्षा, नौकरी आदि सभी कुछ ठप्प हो गया। कहते हैं कि आवश्यकता
आविष्कार की जननी है। विषम परिस्थितियों ने ऑन लाइन शिक्षा और वेबिनार के माध्यम से साहित्य,संगीत एवं कला के प्रचार-प्रसार
का रास्ता खोला तो कुछ अन्य कार्य भी लाइन ऑन के माध्यम से सहज हुए। साथ ही ई-पत्रिकाओं का भी प्रचलन बढ़ा। ऐसे समय में
हम दीपावली जैसे पर्व को भी लगभग ऑन लाइन ही मना रहे हैं। साहित्यप्रीत डॉट काम का यह दीपावली विशेषांक भी इसी ऑन
लाइन प्रक्रिया का एक हिस्सा है।
इस बार 14 नवम्बर को दीपावली का पर्व है। चैदह वर्ष का वनवास पूर्ण कर लौटने पर अयोध्यावासियों ने राम-लक्षमण और सीता जी
के स्वागत में पूरी अयोध्या को रोशनी से सजा दिया, यहीं से भारत वर्ष मे दीपावली का त्यौहार शुरू हुआ। एक अन्य मतानुसार
लक्ष्मी जी ने इस दिन विष्णु भगवान का
वरण कर उनसे विवाह किया था इसलिए दीपावली मनाई जाती है।
जो भी हो, भारतीय संस्कृति की एक विशेषता है कि प्रत्येक तीज, त्यौहारों और उत्सवों के पीछे वैज्ञानिक दृष्टिकोण रहता है।
दीपावली का भी वैज्ञानिक पक्ष यही है कि ऋतु परिवर्तन के साथ ही अनेक मक्खी-मच्छर, कीट पतंगे और जरा सी असावधानी होते
ही बीमारियों का दौर प्रारम्भ हो जाता है अतः दीपावली के बहाने घरों की साफ-सफाई और रंग-रोगन होने से इन मक्खी-मच्छर
आदि से सहज ही मुक्ति मिल जाती है।
संयोग से इस वर्ष दीपावली के दिन ही बाल दिवस भी है। 14 नवम्बर को जवाहर लाल नेहरू जी के जन्म दिन को प्रतिवर्ष
बाल दिवस के रूप में मनाया जाता है। इसी दिन 14 नवम्बर 1957 को भारतीय डाक-तार विभाग ने बाल दिवस के उपलक्ष में अपने
तीन डाक टिकट भी जारी किए थे। तब से प्रति वर्ष 14 नवम्बर को बाल दिवस सम्बन्धी डाक टिकट जारी किया जाता है। अलग-अलग
विषयों पर जारी ये बाल दिवस के डाक टिकट अपना एक उद्देश्य और इतिहास रखते हैं। जिनके बारे में पत्रिका के इस अंक में दो
अलग-अलग आलेख समाहित किए गये हैं।
साहित्यप्रीत डॉट कॉम की अध्यक्षा सुश्री नीतू सुदीप्ति नित्या एक वरिष्ठ साहित्यकार हैं जिनकी रचनाएँ अनेक पत्र-पत्रिकाओं में
प्रकाशित होती रही हैं। पूर्ण स्वस्थ न होते हुए भी नीतू जी का साहित्यप्रीत डॉट कॉम वेवसाइट और पत्रिका का यह श्रमसाध्य कार्य
करना उनकी जीवटता का प्रमाण है।
साहित्यप्रीत डॉट कॉम के इस अंक में देशभर के साहित्यकारों की रचनाओं को समाहित किया गय है साथ ही कुछ नवांकुरों
की रचनाओं को भी शामिल किया गया है जो उन्हें भविष्य में और उत्कृष्ट लेखन के लिए प्रोत्साहित करेगी।
नीतू सुदीप्ति नित्या ने इस अंक के अतिथि सम्पादन हेतु मुझे चुना इसके लिए मैं उनका हार्दिक आभार व्यक्त करता हूँ। सभी पाठको
एवं रचनाकारों को दीपावली एवं बाल दिवस की हार्दिक शुभकामनाएँ।
आपका ही
डॉ. दिनेश पाठक‘शशि’
28, सारंग विहार, मथुरा-281006
माबाइल-9870631805
ईमेल[email protected]
रचनाकार
संतोष कुमार सिंह
डॉ . राकेश चक्र
संगीता सेठी
गौरी शंकर वैश्य विनम्र
पवित्रा अग्रवाल
भगवती प्रसाद द्विवेदी
डॉ . दिनेश पाठक शशि
त्रिलोक सिह ठकुरेला
डॉ . शोभा अग्रवाल चिलबिल
बाबू राम सिंह कवि
आचार्य नीरज शास्त्री
देवी नागरानी
डॉ . शील कौशिक
सुशीला जोशी विधोतमा
ओम प्रकाश क्षत्रिय प्रकाश
डॉ . अवधेश तिवारी भावुक
सविता मिश्र अक्षजा
स्नेह लता
रघुराज सिंह कर्मयोगी
निर्मला जोशी निर्मल
मोहम्मद मुमताज हसन
मीना शर्मा
कुश्लेंद्र श्रीवास्तव
हर प्रसाद रोशन
राजकुमार जैन राजन
अलका प्रमोद
चक्रधर शुक्ल
महावीर रवांल्टा
आशा शैली
इंजी. अरुण कुमार जैन
डॉ . इबरार खान
रावेन्द्र कुमार रवि
कीर्ति जायसवाल
सुमन कुमार
डॉ . विनीता राहुरीकर
राजेन्द्र श्रीवास्तव
महेंद्र कुमार वर्मा
रमेश प्रसून
डॉ . वेद मित्र शुक्ल
डॉ . अन्न्पुरान्ना श्रीवास्तव
आशीष आनन्द आर्य इच्छित
सुनील कुमार सुयश
नीलम राकेश
डॉ. सुधा गुप्ता ‘अमृता
शिव अवतार रस्तोगी सरस
डॉ . अशोक अश्रु
किरण सिंह
अस्मिता प्रशांत पुष्पांजली
नूरेनिशाँ
अमरजीत कुमार “फरहाद”
अर्पणा दुबे
नवांकुर
आदर्श शुक्ला
जसराज सिंह ओबराय
आर्जव जैन
तनिशी शर्मा
चिन्मय दीपांकर
अर्पणा सुप्रिया
अद्रिका कुमार
दीपराज
आरिव अरविंद
माही कुमारी
अनुज चतुर्वेदी अनुभव
अयाना गुप्ता
शब्धा ऋषि
अदिति सुप्रिया
अनुज पाण्डेय
खुशबू कुमारी
प्रियांशु गुप्ता
प्रिंस कुमार
गरिमा जोशी
आदित्य शर्मा
मुस्कान गुप्ता
संतोष कुमार सिंह
रामकथा का ज्ञान
सुन रामायण में करता हूँ,
रामकथा का ज्ञान।
आओ बैठो तुम्हें सुनाऊँ,
अभी लिया जो ज्ञान ।।
पापा ऑफिस जाया करते,
दादा करते पाठ ।
मैं तो हरदम घर में रहता,
दादा जी के साथ ।।
दशरथ जी के पुत्र चार थे,
बड़े राम श्रीमान ।
होना था अभिषेक राम का,
किंतु मिला बनवास।
सिया लखन ने भी पाया था,
वन में सँग संत्रास।।
जान गया हूँ रामचंद्र के,
बड़े भक्त हनुमान ।
लंका के राजा रावण ने,
सीता हरण किया ।
गए उन्हें हनुमंत खोजने,
लंका दहन किया ।।
श्रीहरि के अवतार राम थे,
किंतु न था अभिमान
बड़ा अधर्मी दसमुख वाला,
गया राम से हार ।
हुई सत्य की जीत अधर्मी,
का करके संहार ।
सीता लेकर लौट अयोध्या,
आए फिर भगवान ।
सुन रामायण में करता हूँ,
राम कथा का ज्ञान ।।
– चित्रनिकेतन’ बी 45,
मोतीकुंज एक्सटेंशन, मथुरा
वाट्स एप्प – 9456882131
डॉ . राकेश चक्र
दीया जलाना है
एक दीया जलाना है
प्यारमयी प्रकाश का
एक दीया जलाना है
अंधकार के विनाश का
एक दीया जलाना है
उपकार का विश्वास का
एक दीया जलाना है
सत्कार रास हास का
एक दीया जलाना है
अपने वीर जवानों का
एक दीया जलाना है
सच्चे प्रिय इंसानों का
एक दीया जलाना है
नफरत भेद मिटाने का
एक दीया जलाना है
मित्रों में प्रेम बढ़ाने का
एक दीया जलाना है
मन के शत्रु हटाने का
एक दीया जलाना है
मन को गीत सुनाने का
एक दीया जलाना है
उपवन बाग लगाने का
एक दीया जलाना है
धरती को स्वर्ग बनाने का
एक दीया जलाना है
सपनों में खो जाने का
एक दीया जलाना है
आलस को राह दिखाने का
एक दीया जलाना है
अच्छी सोच बनाने का
दीपों से दीवाली जगमग
मौसम भी खुशहाल हुआ है
आओ मिलकर दीप जलाएँ।
लौटे हैं श्रीराम वनों से
उनकी आरति मंगल गाएँ।।
दीपों से दीवाली जगमग
हर मन में उल्लास भरा है।
धवल चाँदनी छुट्टी पर है
तारों का रोशन गजरा है।।
चंदा मामा खुश धरती पर
उनको हम पकवान खिलाएँ।।
मौसम भी खुशहाल हुआ है
आओ मिलकर दीप जलाएँ।।
दीपू, मीनू, धारा सब ही
दीपों की लौ में हैं दमके।
नए- नए वस्त्रों में सजकर
परियों जैसा सुंदर चमके।।
अपने पर विश्वास अटल है
फुलझड़ियों से निशा जगाएँ।।
मौसम भी खुशहाल हुआ है
आओ मिलकर दीप जलाएँ।।
भोज बने हैं सबके घर-घर
रसगुल्ला औ’ खीर कचौड़ी।
चमचम, लड्डू बड़े स्वाद हैं
मूंग दाल की दही पकौड़ी।।
जमकर खाएँ स्वाद-स्वाद में
अपने मन को रोक न पाएँ।।
मौसम भी खुशहाल हुआ है
आओ मिलकर दीप जलाएँ।।
बम-पटाखे छोड़ न दीपू
इससे गगन, धरा डर जाएँ
सोती चिड़ियाँ हैं जग जातीं
घोर प्रदूषण जहर बढ़ाएँ।।
देखें सोभित दृश्य अनोखे
अपने मन को दीप बनाएँ।।
मौसम भी खुशहाल हुआ है
आओ मिलकर दीप जलाएँ।।
– 90 बी,शिवपुरी
मुरादाबाद 244001,उ.प्र .
9456201857
—————————
संगीता सेठी
अनोखी दीपावली
मिट्टी की सौंधी-सौंधी खुशबू आ रही थी | स्पंदन ने अपने कंधे से गिरते स्कूल बैग को कंधे
उचका कर फिर से कंधों पर लिया | एक जोरदार खुशबू नाक में धँस गई थी | उसे ये खुशबू
बहुत पसंद आ रही थी | उसने गली के दूर छोर तक नज़र घुमाई | उसे महसूस हुआ की बाएँ
तरफ के घर से खुशबू आ रही है | ओह ! तो ये रामू काका का घर है | उसने दीवार से बनी
छोटी सी बिना चौखट की खिड़की से झाँका | रामू काका मिट्टी को पैरों से लौंद रहे थे | शांति
काकी मिट्टी को चाक पर ले जाने की तैयारी में तगारी उठा रही थी | स्पंदन से रहा ना गया |
अपने मुँह भर के आकार की खिड़की से ही पूछा –“ काकी ! आप क्या कर रहे हो ? ”
“ अरे सप्पू ! दीपावली नज़दीक आ रही है न ! सो तेरे काका दीपक बना रहे हैं | कुछ गुल्लक
और कुछ लालटेन भी बनाएँगे इस बार | ”
“ अरे वाह ! काकी ! मैं ज़रूर आऊँगा आपसे लेने | ” स्पंदन ने कहा और फिर पूछा –“ राजन आ
रहा है ना स्कूल ? ”
“ हाँ ! हाँ ! ” शांति काकी ने राजन को आवाज़ दी और वो अपना बस्ता कंधों पर डालता स्पंदन
के साथ हो लिया | यूं राजन चौथी कक्षा में पढता है और स्पंदन पाँचवी में |
स्पंदन ने राजन को पूछा –“ तुम्हारे पापा और क्या-क्या बनाते हैं मिट्टी से ? ”
“ घड़े बनाते हैं, गमले बनाते हैं, हँडिया बनाते हैं , और दीपावली पर दीपक तो बनते ही हैं | ”
राजन स्कूल की तरफ बढ़ते हुए स्पंदन को बताता जा रहा था |
अब स्पंदन को मिट्टी की चीजों में रुचि होने लगी थी | वो रोज़ राजन के घर रुककर उसके
साथ स्कूल चलने के लिए इंतज़ार करता |
आज राजन ने बताया कि उसके पापा-मम्मी दीपक लालटेन और हटड़ी को सुखाएंगे |
“ ये हटड़ी क्या होती है राजन ? ” स्पंदन ने पूछा }
“ अरे स्पंदन तू हटड़ी नहीं जानता ? हटड़ी मे चार छोटे-छोटे पात्र एक साथ जुड़े होते हैं | उसे
एक हैंडल से जोड़ा जाता है | हैंडल से उठाने में बहुत मजा आता है | इन चार पात्रों मे खील
बताशे, मिश्री ,मिठाई का प्रसाद भर कर लक्ष्मी जी के सामने रख पूजा की जाती है | ”
“अरे वाह ! इस बार मैं अपनी माँ को कहूँगा कि मुझे भी हटड़ी लेकर दो ” स्पंदन चहक उठा |
आज स्कूल मे भी स्पंदन बहुत खुश था | इस बार उसे दीपावली पर हटड़ी जो लेनी थी | घर
पर आकर उसने माँ को भी बताया कि राजन के माँ-बाबा हटड़ी बना रहे हैं | माँ स्पंदन की बात
पर मुस्कुरा दी थी |
अब स्पन्दन को राजन के साथ स्कूल जाना अच्छा लगने लगा था | वो अच्छे दोस्त बन चुके थे
| आज राजन ने बताया कि उसके दीपक हटड़ी गुल्लक और लालटेन सूख चुके हैं और आज माँ-
बाबा भट्टी मे तपाएंगे |
“भट्टी में क्यों ??” स्पंदन ने हैरानी से पूछा |
“ अरे दोस्त ! भट्टी मे रखने से मिट्टी पक जाती है और बर्तन पक्के हो जाते हैं | ” राजन बड़ा
बन कर स्पंदन को समझा रहा था |
“ अच्छा ! ! ” स्पंदन इस बार दीपावली के लिए उत्साहित लगा रहा था | उसे इस बार राजन के
माँ-बाबा के हाथ के बने दीपक और हटड़ी जो खरीदनी थी | वो माँ से कहेगा कि उसे गुल्लक
और लालटेन भी ले दे | वो उस गुल्लक में पैसों की बचत करके दिखाएगा | और जब बिजली
गुल होगी तो लालटेन मे पढ़ कर भी दिखाएगा | आज स्पंदन ने राजन को स्कूल के लिए
आवाज़ दी तो राजन बिना बस्ते के बाहर आ गया था | स्पंदन ने पूछा –“ क्या हुआ भई ?”
राजन बोला –“ आज सभी दीपकों और अन्य सामान को रंगने की बारी है | उन पर कुछ चित्र
भी उकेरने है | बाबा की तबियत भी ठीक नहीं है और दीपावली भी नज़दीक है | मैं आज माँ
के साथ दीपक रंगने में मदद करवाऊँगा | ”
“ ओह ! ”स्पंदन मायूस होकर चला गया | अगले दिन से दीपावली की छुट्टियां थी | स्पंदन को
बेसब्री से इंतज़ार था | वो धनतेरस के दिन ही माँ के साथ राजन के घर गया | उसके आँगन
में लाल नीले पीले हरे दीपक सजे हुए थे | लालटेनों पर सफ़ेद चित्र उकेरे थे | हटड़ी पर फूल-
पत्ती उकेरे थे | स्पंदन ने एक हटड़ी ,एक लैम्प और बहुत सारे रंग-बिरंगे दीपक खरीदे |
दीपावली के दिन माँ ने थाली में दीपक सजाए | हटड़ी में खील-बताशे भरे और स्पंदन के साथ
मंदिर चल दी | आज स्पंदन के पापा भी साथ थे | रास्ते में राजन का घर था | उसने उस
छोटी सी खिड़की से झांका-“ ये कैसा अन्धकार ? ” स्पंदन ने सोचा | वो अपनी माँ से पूछने
लगा-“ माँ ! राजन और उसके माँ-बाबा आज दीपावली के दिन कहाँ गए ? ”
“ वो दीपक बेचने बाज़ार गए हैं | आज दीपावली पर ही तो दीपक बिकते हैं | ”
“ तब वो कब दीपावली मनाएंगे ” स्पंदन रुआंसा हो गया |
“ आ जाएंगे स्पंदन !” माँ ने उसे तसल्ली दी |
“ पर वो कितने थके होंगे ना माँ ! चलो हम उनके घर को रोशन करते हैं | ” वो माँ का हाथ
खींच कर अंदर ले गया | स्पंदन की माँ-पापा उसकी इच्छा को समझ गए |
स्पंदन राजन के आँगन में पड़े दीपकों को ले आया | माँ ने पास पड़ी हटड़ी में अपनी थाली से
खील-बताशे सजा दिए | पापा ने रुई से बाती बनाई | आले में पडी तेल की शीशी से दीपकों ने
तेल भर दिया | माँ दीपक जलाने लगी | पापा दीवारों पर सजाने लगे | लो जी ! राजन का घर
रोशन होता चला गया | स्पंदन खुश हो रहा था |
सामने से राजन माँ-पापा खाली बोरी लिए आ रहे थे | सारे दीपक बिक चुके थे | राजन घर के
नजदीक आया तो राजन ने पूछा-“ अरे ये दीपक किसने जलाए ? ”
“ लक्ष्मी जी ने ! ” स्पंदन की माँ बोली |
“शुभ दीपावली राजन ! ” स्पंदन राजन के गले मिला रहा था | स्पंदन के लिए आज अनोखी दीपावली थी |
प्रशासनिक अधिकारी
भारतीय जीवन बीमा निगम
मुंबई, 533
—————-
-गौरीशंकर वैश्य विनम्र
बाल पहेलियाँ
1-प्रथम उन्हें ही पूजा जाता
शुभ दीवाली मंगलदाता
मुँह हाथी की सूंड़ समान
लेकर नाम, लगाओ ध्यान
2- दीप जलाकर कर लो पूजा
माँ का ध्यान धरो, हो मौन
साफ-सफाई से खुश होतीं
धन समृद्धि की देवी कौन
3- पर्व है जगमग दीपों वाला
कार्तिक मावस को है आता
हम सब करते धूम धड़ाका
जलते हैं फुलझड़ी पटाखा
4-चार अक्षर का मेरा नाम
जलूँ तो जगमग कर दूँ धाम
शादी, दीवाली, त्योहार
मेरे बिन लगते बेकार
5-जलूँ तो सुर सुर भरता तान
झरते सुंदर फूल समान
मुझे जलाकर हट जाएँ
नाम से फल, न खा पाएँ
6-जलें तो दगते भट भट भट
आग लगाकर जाना हट
गांठ बाँध लो बात हमारी
मुझसे बढ़े प्रदूषण भारी
7-मिट्टी से बना हूँ
कुम्हार ने बनाया
बाती रखी, तेल भरा
दीवाली में जलाया
8-दीवाली पर होते कितने धूम धड़ाके
जलते फुलझड़ियाँ ,अनार,दग रहे पटाखे
जरा बताओ, हरा रंग है किस पदार्थ से मिलता
लाल चटक रंग बतलाओ किस पदार्थ से खिलता
उत्तर – 1 गणेश 2 लक्ष्मी 3 दीपावली 4 फुलझड़ी 5 अनार 6 पटाखा 7 दीपक
8 हरा रंग – बेरियम से, लाल रंग – स्ट्रांशियम से
सुरक्षित दीपावली मनाएँ, हरित पटाखे जलाएँ
===========================
दीपावली हर्षोल्लास, उत्साह, उमंग, प्रेम, एकता और प्रकाश का पर्व है। यह सर्व विदित है कि दीपावली के दिन भगवान श्रीरामचंद्र जी लंका विजय के उपरांत वनवास की अवधि पूर्ण करके माता सीता और भ्राता लक्ष्मण के साथ अयोध्या वापस आए थे। उनके लौटने की प्रसन्नता में अयोध्यावासियों ने दीप जलाकर उनका स्वागत किया था। इसी दिन को हम लोग दीपावली के रूप में मनाते चले आ रहे हैं।
दीपावली को प्रकाश का त्योहार कहा जाता है। यह प्रेम और संवेदना की दीप्ति का प्रदर्शन है। यह त्योहार प्रियजन के साथ मिलकर आनंदोत्सव मनाने का अवसर प्रदान करता है। उपहारों, मिठाइयों और शुभकामनाओं का आदान प्रदान सभी चेहरों पर मुस्कान ला देता है।
दीपावली में आतिशबाजी क्यों
————————–
दीप पर्व का उल्लेख अपने ग्रन्थों में मिलता है किंतु इससे आतिशबाजी कब जुड़ गयी, इसका कोई प्रमाण इतिहास में उपलब्ध नहीं है। वर्तमान में दीपावली और आतिशबाजी एक दूसरे के पर्याय बन चुके हैं। दीपावली पर आतिशबाजी का चलन दशकों पुराना अवश्य है। तीन दशक पहले न तो प्रदूषण फैलाने वाले पटाखे प्रचलन में थे और न पर्यावरण के लिए इतनी जागरूकता थी। दीपावली में बढ़ती आतिशबाजी ने उपभोक्तावादी प्रवृत्ति के चलते प्रदर्शन की होड़ लग रही है। विशेषतः युवा उत्साह में त्योहार का वास्तविक उद्देश्य नहीं समझते हैं और वे दीपावली को आतिशबाजी का त्योहार मान बैठे हैं।
हानिप्रद है पटाखा संस्कृति
————————
दीपावली के अवसर पर तो पूरे देश में कई दिनों तक आतिशबाजी होती है। इस आवेश में हम यह भूल जाते हैं कि पटाखों से खुशी व्यक्त करना हमारे स्वास्थ्य और पर्यावरण के लिए कितना हानिप्रद है। पटाखों की बारूद हमारी श्वास नली में जम जाती है और श्वांस, खांसी जैसी गंभीर बीमारियों को जन्म देती है। पशु – पक्षियों के स्वास्थ्य को प्रभावित करती है।
सामान्य पटाखों से होने वाले नुकसान
—————————–
आतिशबाजी में फुलझड़ी, अनार, राकेट, चकरी, बम, पटाखे आदि बनाए जाते हैं जिसमें अनेक हानिकारक रसायनों का प्रयोग किया जाता है जैसे बैरियम, लेड, मैग्नीशियम, सोडियम, जिंक, नाइट्रेट, नाइट्राइट आदि। ये सभी स्वास्थ्य के लिए बहुत हानिकारक हैं।
पटाखों की ध्वनि 125 डेसीबल से अधिक होती है जो किसी व्यक्ति को आसानी से बहरा बना सकती है। इनसे निकलने वाली चिंगारी से आँखें और चेहरा जल सकते हैं। इसका विषैला धुआँ, तेज रोशनी और आवाज गंभीर रोगी, बच्चे, गर्भवती महिलाओं और वृद्ध व्यक्ति के प्राणों के लिए घातक है।
बिना शोर और धुएँ वाले पटाखों का प्रयोग करें
———————-
सुप्रीम कोर्ट के आदेश से अब केवल हरित (ग्रीन) पटाखे ही जलाए जा सकते हैं। इस प्रावधान से आतिशबाजी से पर्यावरण को होने वाले नुकसान के कारण ईको फ्रैंडली दीपावली मनाने पर जोर दिया जा रहा है। ग्रीन पटाखों के जलने से पारंपरिक पटाखों की अपेक्षा पर्यावरण को 50 प्रतिशत कम नुकसान होता है। विशेष बात यह है कि इसके जलने पर सुगंध फैलती है। ये पटाखे आसमान पर सतरंगी आभा विखेरते हैं। इस प्रकार दीपावली पर बिना प्रदूषण किए भी आतिशबाजी का शौक पूरा कर सकते हैं।
पटाखे जलाते समय सावधानियाँ
——————-
–बाजार से लाए गए पटाखों को घर के किसी सुरक्षित स्थान पर रखें।
-अग्नि दुर्घटना से बचने के लिए दो बाल्टी पानी भर कर रख लें।
—दीया और मोमबत्ती पटाखों से दूर सुरक्षित रखें।
-आतिशबाजी करते समय कपड़े मोटे और चुस्त पहनें, ढीले, लहरदार और सिंथेटिक कपड़ों को न पहनें।
—पटाखे खुली जगह पर जलाएँ
-पटाखे जेब में न रखें और हाथ पर रखकर न जलाएँ।
-ग्रीन पटाखों की पैकिंग के ऊपर होलोग्राम या लेबल अवश्य देख लें तथा उस पर लिखें निर्देशों को अवश्य पढ़ लें।
-फुस्स पटाखे को दोबारा आग न लगाएँ, भले ही उसका पलीता पूरा न जला हो।
–अनार कभी हाथ में पकड़ कर नहीं चलाने चाहिए क्योंकि वे फट सकते हैं
-धातु या किसी शीशी में रखकर पटाखे या राकेट न जलाएँ।
-डॉक्टर का फोन नंबर अपने पास रखें जिससे आवश्यकता पड़ने पर उन्हें शीघ्र बुला सकें।
दीपावली पर कई दिनों तक अंधाधुंध आतिशबाजी करने से रोकने के लिए लोगों को इससे होने वाली हानियों से अवगत कराया जाए। सोशल मीडिया के माध्यम से और विद्यालयों में जाकर बच्चों के साथ बड़ों को भी पटाखे न प्रयोग करने के लिए जागरूक किया जाए। पटाखे तय आवाज के और तय समय तक ही जलाए जाएँ। नियम का उल्लंघन करने पर कार्रवाई की जाए।
हमें यह समझने की आवश्यकता है कि दीपावली पटाखों या मिठाइयों मात्र का त्योहार नहीं है अपितु हमें आपस में प्रेम व्यवहार, एकता, प्रसन्नता और शुभकामना व्यक्त करना चाहिए। दीपावली पर्व का निहितार्थ लेकर हमें इस पावन धार्मिक त्योहार पर भगवान की स्तुति, वंदन, आराधन, अर्चन करनी चाहिए। शिष्ट, शालीन और सादगी से मन में सात्विक और सकारात्मक ऊर्जा अर्जित करें तथा प्राणघातक बारूद से न खेलें। आगामी पीढ़ी यद्यपि आतिशबाजी के प्रति उत्साहित नहीं है, फिर भी हम बच्चों और युवाओं को प्रेम – शाँति से इसके दुष्प्रभावों को समझाएँ जिससे वे पर्वों का महत्व समझें और उनसे सुसंस्कार ले सकें।
– 117 आदिलनगर, विकासनगर
लखनऊ 226022
दूरभाष 09956087585
पवित्रा अग्रवाल
गलती का सच
उदय के घर में प्रवेश करते ही माँ ने कहा —
‘उदय आज की डाक से तुम्हारे नाम एक बाल पत्रिका आई है .उसमे तुम्हारी एक बाल कविता छपी है .तुम कविता लिखते हो यह बात तुमने कभी बताई नहीं …वैसे अच्छी कविता है …कब लिखी ?’
‘अभी कुछ दिन पहले ही लिखी थी माँ ‘
‘तुम ने हमें बताया नहीं ?’
‘यही सोच कर नहीं बताया माँ कि आप कहीं गुस्सा न करें कि पढाई लिखाई में मन नहीं लगता ,इन फालतू कामों में समय बरबाद करते हो ‘
‘ लिखना पढ़ना तो अच्छा शौक है …पर यह कविता मैं ने कहीं पहले भी पढ़ी है .’
‘आपने कहाँ से पढ़ली मैं ने तो आपको पढाई ही नहीं थी ‘.
‘हाँ यही तो मैं याद करने की कोशिश कर रही हूँ कि कब और कहाँ पढ़ी है ‘
उदय के चहरे पर आते जाते भावों को देख कर माँ को कुछ शक तो हो रहा था पर उन्होंने सीधे तौर पर कुछ नहीं कहा और चुप हो गई .
पर उदय परेशान हो गया .वह सोचने लगा जब मम्मी को ही यह कविता कही पढ़ी हुई लग रही है तो दूसरे पाठकों को तो हो सकता है असली लेखक का नाम भी पता हो .अब उसे पछतावा होने लगा .दोस्तों पर इम्प्रेशन मारने के लिए उसने एक बड़ी गलती करदी है .पत्रिका वालों को भी पता चला तो ?…वह बहुत बेचैनी महसूस कर रहा था , सोचने लगा कि अपनी गलती की बात किस से शेयर करूं . आखिर माँ को अपनी गल्ती का सच बताने का निश्चय कर उसने कहा – ‘ माँ आप से कुछ कहना है.’
‘हाँ बोलो उदय ’
‘मम्मी पत्रिका में जो कविता छपी है वह मेरी लिखी नहीं है .’
‘तो किस की है ?’
‘यह तो मुझे भी नहीं पता कुछ समय पहले यह कविता मैं ने कहीं पढ़ी थी… मुझे इतनी अच्छी लगी कि उसे मैं ने अपनी एक नोट बुक में लिख लिया था …और भी कुछ लिख कर रखी हैं . उसे मैं ने पेपर पर लिख कर अपने नाम से छपने भेज दिया था …और यह छप कर भी आगई है .’
‘पर उदय यह तो चोरी है .’
‘चोरी क्यों है माँ ?’
‘किसी की कविता अपने नाम से छपवा लेना भी चोरी है ‘
‘ओ माँ अनजाने में गलती तो मुझ से हो गई है ,अब क्या करू ?
‘पत्रिका के संपादक जी को पत्र लिख कर अपनी गलती स्वीकार कर के माफ़ी मांग लो .यही एक रास्ता है .यदि पत्रिका का कोई ईमेल हो तो उस के द्वारा भी पत्र मेल कर सकते हो .’
‘देखता हूँ माँ उनका ईमेल है या नहीं… यदि होगा तो अभी मेल है कर के अपनी गलती मान लेता हूँ वरना पत्र लिख देता हूँ …थैंक्स माँ मुझे सही रास्ता दिखाने के लिए. ‘
4-7-126 इसामियां बाजार ,हैदराबाद – 500027
(तेलंगाना )
mobile – 09393385447 .
— email — [email protected]
————–
भगवती प्रसाद द्विवेदी
उलटा-पुलटा
चलते-चलते निचली छत से
गिरती जब छिपकली छपाक,
तुरत सँभल जाती उस क्षण ही
उठ चल देती अपने आप ।
ऊपर की डाली से बंदर
जब आ गिरता है नीचे,
झटपट पकड़ दूसरी डाली
हँसता है आँखें मींचे ।
तिलचट्टे, चींटे जब चलते
एकाएक पलट जाते हैं,
झटक हाथ-पैरों को अपने
फिर सीधे हो चल पाते हैं ।
चींटी गिरती, मकड़े गिरते
गिरगिट गिरते और सँभलते,
गिरने पर वे साहस खोकर
कभी न अपनी आँखें मलते ।
गिरने और पिछड़ने पर
जो हिम्मत खोते, पछताते हैं,
धूल झाड़ जो तुरत सँभलते
वे जीवन में सुख पाते हैं ।
जोकरजी
जरा सँभलकर जोकरजी,
लग जाए न ठोकर जी,
हो बौने-से,मृगछौने-से
खाओ चने भिगोकर जी!
सर्कस वाले जोकरजी,
टोपी डाले जोकरजी,
कद-काठी, करतब से भरते
गम के छाले जोकरजी!
खोल पिटारी जोकरजी,
मुसकाते हो रोकर भी,
अंतर्धान कहाँ हो जाते
बीज हँसी के बोकर जी?
बड़े अजूबे जोकरजी,
क्या मंसूबे जोकरजी,
बच्चे देख तुम्हें रह जाते
सिर्फ तुम्हारे होकर जी!
– शकुन्तला भवन सीताशरण लेन, मीठापुर, पोस्ट बाक्स 115,
पटना-800 001(बिहार)
दूरभाष:0612-2214967,9304693031
डॉ . दिनेश पाठक शशि
बाल दिवस और भारतीय डाक टिकट
भारतीय डाक तार विभाग ने भारतीय विभूतियों को सम्मान देने के लिए , समय-समय पर उन पर आधारित डाक टिकट जारी किए हैं। देश स्वतंत्र हो जाने के बाद 21 नवम्बर 1947 ई. को भारत देश का पहला डाक टिकट जारी किया गया था जिस पर भारत का तिरंगा राष्ट्रध्वज अंकित किया गया था। उसके बाद समय-समय पर अन्य डाक टिकट भी जारी किए गये किन्तु इस आलेख को लिखने का मेरा उद्देश्य , मात्र बाल दिवस पर जारी कुछ डाक टिकटों के बारे में जानकारी देना है।
श्री जवाहर लाल नेहरू के जन्म दिन के उपलक्ष में भारतीय डाक तार विभाग ने 14 नवम्बर 1957 ई. को पहले तीन डाक टिकट जारी किए थे। इन तीन डाक टिकटों में से एक डाक टिकट पर बच्चों को पुष्ट आहार की आवश्यकता को प्रदर्शित किया गया है तो दूसरे पर बच्चों की शिक्षण के प्रति जागरूकता पैदा करने को प्रदर्शित किया है और तीसरे डाक टिकट पर जो चित्र अंकित किया गया है उसमें बच्चों को खेल-खेल में शिक्षा ग्रहण करने को प्रेरित किया गया है। सन् 1958 में बाल दिवस पर जो डाक टिकट जारी किया गया उसमें पोलियो उन्मूलन की ओर इशारा किया गया था। 1959 को जारी डाक टिकट में दो बच्चे विद्वाा अध्ययन के लिए आतुर विद्यालय के द्वार पर खड़े दिखाये गये हैं । वर्ष 1960 में बाल दिवस पर जारी डाक टिकट में खेल-खेल में शिक्षा देने की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया गया है।
वर्ष 1961 में जो डाक टिकट जारी किया गया उसमें एक बच्चा लेथ मशीन पर कार्य करते हुए दिखाया गया है जो शिक्षा को रोजगारोन्मुख करने की प्रेरणा देता है। वर्ष 1962 में बाल दिवस पर जारीडाक टिकट का आशय बच्चों को भविष्य के प्रति उनके उत्तरदायित्वों की जानकारी देना है तो वर्ष 1963 में जारी डाक टिकट का उद्देश्य बच्चों के सर्वांगीण विकास के लिए पौष्टिक आहार की आवश्यकता पर बल दिया गया है। वर्ष 1964 में नेहरू जी का पिचहत्तरवां जन्मदिन होने के कारण भारत सरकार ने एक रुपये का क्शिेष सिक्का जारी किया था इस वर्ष बाल दिवस पर उसी सिक्के को डाक टिकट पर अंकित किया किया गया था।
वर्ष 1966 में जारी डाक टिकट में एक छोटा बच्चा प्रसन्न मुद्रा में एक उड़ते हुए कबूतर की ओर देख रहा है। चूंकि कबूतर शान्ति का प्रतीक होता है इससे यह भाव प्रकट होता है कि बचपन से ही शान्ति के प्रति बच्चों में आस्था उत्पन्न की जानी चाहिए।
सन् 1967 से 1970 के बीच किन्ही कारणों से बाल दिवस पर डाक टिकट जारी नहीं हुए थे। वर्ष 1971 में बाल दिवस पर जो डाक टिकट जारी किया गया था वह पुरुष प्रधान देश में महिलाओं की हर क्षेत्र में भागीदारी को प्रकट करता है। इस डाक टिकट में महिलाओं को कार्य करते हुए दिखाया गया है।
वास्तव में यह डाक टिकट कुमारी गीता गुप्त द्वारा बनाया गया चित्र है जिसको शंकर्स वीकली द्वारा आयोजित आशु बाल चित्र प्रतियोगिता में नेहरू स्वर्णपदक प्राप्त हुआ था।
इस वर्ष से डाक तार विभाग ने बाल दिवस पर बच्चों की कला कृतियों को डाक टिकटों पर चित्रित करना प्रारम्भ किया था। निश्चित ही बच्चों के उत्साह वर्द्धन के लिए यह एक क्रान्तिकारी कदम था।
मेरे द्वारा सम्पादित पुस्तक ‘बाल दिन के रंग: डाक टिकटों के संग’ में 1957 से सन् 2003 तक बाल दिवस पर जारी डाक टिकटों का वर्णन समाहित किया गया है जिनकी विचित्र-विचित्र बातें हैं। यह आलेख अधिक बड़ा न हो इसलिए यहीं समाप्त करता हूँ।
आकांक्षा
दीपावली पर दीप घर में
दीप कुछ इस तरह जलाओ
विश्व आलोकित हो उठे
दीप कुछ इस तरह जलाओ
मेरा है यह, तेरा है यह
मेरा है, तेरा नहीं
क्षुद्र बातों से परे हों
दीप कुछ इस तरह जलाओ
बदल रहा क्यों आज मानव
दानवों की भीड़ में
त्यागंे मद, पशुवृत्तियों को
दीप कुछ इस तरह जलाओ
आपका ही
डा.दिनेश पाठक‘शशि’
28, सारंग विहार, मथुरा-281006
माबाइल-9870631805
ईमेल[email protected]
त्रिलोक सिंह ठकुरेला
हम प॔क्षी हैं प्यार के
नभ को भी छू लेने वाले,
हम पंक्षी हैं प्यार के ।
हमें न विचलित कर पायेंगे
संकट इस संसार के ।।
हम हैं अटल इरादे वाले,
बढ़ते जाते शान से ।
जब मिल गाते गूंजे यह जग
अपनेपन के गान से ।
हमने सीखे मंत्र जीत के,
शब्द न भाये हार के ।
हमें न विचलित कर पायेंगे
संकट इस संसार के ।।
हमें न मन में थोड़ा भी भय ,
मन में अति उल्लास है ।
बाधाएं आयें तो आयें ,
अपनी मंजिल पास है ।।
हम न यहीं रुक जाने वाले,
हम उत्सुक उस पार के ।
हमें न विचलित कर पायेंगे
संकट इस संसार के ।।
तेरा- मेरा , निजी-पराया
हुआ न हमसे भूल से ।
भेद मिटाकर प्यार लुटाया
उपवन के हर फूल से ।
हम प्रेमी जूही ,चम्पा ,
गेंदा, गुड़हल, कचनार के ।
हमें न विचलित कर पायेंगे
संकट इस संसार के ।।
भला कौन है सिरजनहार
हर दिन सूरज को प्राची से ,
बड़े सबेरे लाता कौन ?
ओस-कणों के मोहक मोती
धरती पर बिखराता कौन ?
कौन बताता सुबह हो गयी,
कलिकाओ मुस्काओ तुम ।
अलि तुम प्रेम-गीत दुहराओ ,
पुष्प सुगंध लुटाओ तुम ।।
बहो झूमकर ओ पुरवाई
झूम उठें जन जन के तन ।
किसके कहने पर गा गा कर
खग सुखमय करते जीवन ।।
इस लुभावने सुन्दर जग का
भला कौन है सिरजनहार ।
उस अनाम को शत शत वंदन,
उसका बार बार आभार ।।
बंगला संख्या- 99 ,
रेलवे चिकित्सालय के सामने,
आबू रोड -307026
जिला – सिरोही ( राजस्थान )
चल-वार्ता — 09460714267
डॉ. शोभा अग्रवाल‘चिलबिल
चिराग रोशन कर दो
विद्यालय में अध्यापक ने बताया कि दीपावली पर पटाखे जलाने से ध्वनि–प्रदूषण, बारूद से वायु–प्रदूषण होता है और स्वयं जलने व आग लगने का खतरा रहता है ।
रिंकी ने घर आकर अपनी बड़ी बहन पिंकी को सब बातें बतायीं । शाम को जब वह लोग पार्क में खेलने गईं तब अन्य बच्चों को भी बताया । सबने तय किया कि इस वर्ष पटाखे नहीं जलाएँगे, केवल दीए जलाएँगे ।
पीयूष बोला– ‘लेकिन पटाखे छुड़ाने में जो आनन्द आता है, वह कैसे आएगा?’
शुभी ने कहा– ‘मैं एक आइडिया बताती हूँ, पटाखों के लिए पापा जो पैसे देते हैं, उनको हम लोग इकट्ठा करके रमा आँटी (काम वाली बाई) की बेटी प्रीति दीदी की पढ़ाई के लिए दे देंगे । तुम लोगों को तो पता ही होगा कि उनका एडमीशन एम. बी. बी. एस. में हो गया है ।’
‘हाँ, ठीक है! कल रमा आँटी परेशान हो रही थीं, माँ से कह रही थीं कि वह अपनी बेटी की डॉक्टरी की पढ़ाई कैसे करवा पाएँगी ? किसी तरह एडमीशन करवाने का पैसा तो दे देंगी लेकिन आगे पढ़ाई तथा हॉस्टल का खर्च भेजना मुश्किल हो जाएगा ।’ शुभी ने कहा ।
आनन्द जो अब तक शान्त बैठा था, बोला– ‘सही बात है, पटाखे छुड़ाने में जो आनन्द आएगा, उससे कहीं अधिक आनन्द प्रीति दीदी की पढ़ाई के लिए पैसे देने में आएगा ।’
‘हाँ, आनन्द जी! आनन्द तो आएगा ही ।’ सब बच्चे एक साथ हँसते हुए बोले।
सभी परिवारों के बढ़े लोगों ने सहयोग दिया। और – – – बच्चों के प्रयास से व बड़ों के सहयोग से प्रीति की पढ़ाई के लिए इतना धन एकत्र हो गया कि उसकी पढ़ाई और हॉस्टल के वर्ष भर के खर्च का इन्तजाम हो गया । पटाखे न जलाने के संकल्प से पटाखों से होने वाली विविध प्रकार की हानियों से बचत भी हुई ।
मोहल्ले के सभी परिवारों ने दीपावली के दिन पार्क में एकत्र हो कर एक दूसरे को शुभकामनाएँ दीं । सभी के घरों से लाई गई मिठाइयाँ एक जगह एकत्र करके सामूहिक रूप से खाई गईं । सबने एकमत से निर्णय लिया कि भविष्य में अनावश्यक खर्चों में बचत करके जरूरतमंदों की मदद करेंगे ताकि कोई चिराग रोशन हो सके ।
मोबाइल नं– 8882161295, 9654135918
ई मेल–[email protected]
बाबू राम सिंह कवि
शुभ सीख देती यहीं दिवाली
अगणित दीपों से ज्योतित कर ,
तम से करती घर-आंगन खाली।
निज अन्तः उजियार करो नर ,
शुभ सीख देती यही दिवाली।
नियत समयसे प्रतिवर्ष शुचि आलोक फैलाती।
शान से जलती जबतक रहता है तेल – बाती ।
तेल खत्म होते ही खुद आपोआप बुझ जाती ।
जैसे छोड़ देता मानव जीवन से स्वांस संघाती ।
कहाँ भरोस जीवन का पल भर ,
विश्व-बाग का बन जा माली।
निज अन्तः उजियार करो नर,
शुभ सीख देती यही दिवाली।
त्याग कर सत्य पथ तम -हम भरना नहीं ।
सदा परस्पर प्यार हो परव्देष करना नहीं।
सत्कर्म यदि न बन पडे़ विकर्म कभी करना नहीं।
दृढ़ अटल हो सत्य में मिथ्या में पग धरना नहीं।
मन,कर्म,वचन की जागृत हो ,
करना है हरदम रखवाली ।
निज अन्तः उजियार करो नर,
शुभ सीख देती यहीं दिवाली।
झूठ ,बुराई, दानवता तज मानवता सिखलाती।
अवगुणछोड़ रहसदगुण संग उत्तम भाव जगाती।
रहोअभयअविनाशी के संग सबको सजग बनाती।
अमूल्य मानव जीवन की यहीं अमिट है थाती।
बनो राम रम सदभावों बिच ,
फैलाओ शुभता की लाली।
निज अन्तः उजियार करो नर,
शुभ सीख देती यहीं दिवाली।
शुभ सीख ले दिवालीसे सबकुछ हम पा सकते है।
गतगौरव भारत का पुनः प्यार से ला सकते है।
जन्म-जीवन नर का सचमुच धन्य बना सकते है।
नर से नारायण की पदवी को भी पा सकते है।
छवि आलोक का “बाबूराम कवि”
पीटो नहीं कभी पर पै ताली ।
निज अन्तः उजियार करो नर ,
शुभ सीख देती यहीं दिवाली ।
सबक
कौआ बोला कोयलसे यह देश छोड़कर जाता हूँ।
जिस घर के उपर बैठुं मै मार उडा़या जाता हूँ।
कोयलबोली पृथ्वी तलपर जहाँ कहीभी जाओगे।
कर्कश वाणी जबतकहै तिरस्कार सदाही पाओगे।
रहोयही आराम चैन से छोड़ कटु वचन का खोल।
यहीआबरु सर्वोतम सत्य मधुर वचन नित बोल।
कुत्ता बोला हाथी से जूठन खा जीवन बिताता हूँ ।
पर क्यों मै हाथी भैया दुत्कार सभी से पाता हूँ ।
हाथी हँसकर कहने लगा निज ओछापन कर दूर ।
निज स्वार्थ ,छल, कपट ,भाव है तुझ में मशहूर ।
इन्हें छोड़ रह चैन से प्यारे पोंछ नयन का नीर।
सबक यही रह सबके सुख में शान्त चित्त गम्भीर।
बगुला बोला हंस से आकर बना लो अपना मीत ।
नीर क्षीर विवेक सत्य का सिखा दो मुझको रीत ।।
कहा हंस मन कर्मकर निर्मल तेवर,तर्कहटाओगे ।
नीर क्षीर विवेक सत्य स्यवं में बगुला पा जाओगे ।
दृढ़प्रतिज्ञ हो”कवि “छोड़दो अपनी नियत बुरी ।
सबकअनुप त्यागदे बगुला मुख मेंरामबगलमेंछुरी।
ग्राम -बड़का खुटहाँ ,पोस्ट -विजयीपुर (भरपुरवा )
जिला -गोपालगंज (बिहार )
पिन-८४१५०८
मो०नं०-९५७२१०५०३२
आचार्य नीरज शास्त्री
दीपावली का महापर्व
ब्रजेश बाबू ने बी.ए. करने के बाद शहर के सबसे अच्छे कोचिंग इंस्टीट्यूट में प्रवेश लिया। वे आई.ए.एस. करके अधिकारी बनना चाहते थे। बचपन से उनकी आँखों में यही सपना था। लक्ष्य पर निरंतर दृष्टि होने के कारण ब्रजेश बाबू सदा प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण हुए। मैट्रिक, इंटरमीडिएट व
बी.ए. में भी उन्होंने मेरिट में स्थान प्राप्त कर गजानन बाबू का नाम रोशन किया। गजानन बाबू ब्रजेश बाबू के पिता हैं। जब कोई उनसे ब्रजेश बाबू के विषय में बात करता तो वे प्रसन्नता के साथ कहते – ‘भई! लक्ष्मी जी कृपा है। दिवाली के दिन जन्मा है, माता लक्ष्मी का प्रसाद है, इसीलिए संस्कारी है। ब्रजेश बाबू सच में ही बहुत संस्कारी हैं। वे अपने से बड़ों का सम्मान पूरे मन से करते हैं। छोटों से उनका व्यवहार सदा स्नेहिल रहता है। प्रत्येक कार्य को पूरी जिम्मेदारी के साथ करते हैं।
ब्रजेश बाबू भी अपने पूरे परिवार के समान दिवाली को बहुत महत्व देते हैं। दें भी क्येां न! दिवाली का दिन उनका जन्मदिन भी है तथा उनके परिवार मं मनाया जाने वाला सर्वाधिक महत्वपूर्ण पर्व। दिवाली का उत्सव मनाने के लिए उनका परिवार लाखों रुपये तक खर्च करने की इच्छा रखता है, करता भी है।
ब्रजेश बाबू पर लक्ष्मी जी की कृपा हुई और वे आई.ए.एस. तो नहीं परन्तु आई. एफ. एस. हो गए। फाॅरेस्ट आॅफीसर के रूप में उनकी नियुक्ति राजस्थान के रावतभाटा अभ्यारण्य में हो गई। उन्हें अपना शहर बनारस और परिवार छोड़कर जाना था। सारी तैयारी पूरी हो गई। जाने से पहले पिताजी (गजानन बाबू) ने उन्हें बुलाया और अपने पास बिठाकर बोले- ‘बेटा! तुम मेरे आदर्श बेटे हो इसलिए ध्यान से सुनो। आज तुम्हारे जीवन की एक नई शुरूआत हो रही है। बेटा! नौकरी पूरे मन से करना लक्ष्मी जी की कृपा तुम पर बनी रहे, इसलिए सुविधाशुल्क लेकर लोगों के काम करना। प्रयास करना कि मिठाई के डिब्बे में भी नोटों की गड्डियाँ हों। कोई तुम्हें उपहार देने आए तो वह उपहार केवल सजावट का सामान न हो, उसकी कीमत करोड़ों में हो। ज़मीन, जायदाद, नकदी कुछ भी हो लेने से पीछे मत हटना; क्योंकि यह सब लक्ष्मी जी का प्रसाद है।
तुम सौभाग्यशाली हो फाॅरेस्ट आॅफीसर बनकर समाज-सेवा करने जा रहे हो। हम तो केवल पुलिस विभाग में थानेदार तक ही सीमित रहे फिर भी यह तीन मंजिला बँगला बनाया। तुम्हारी बहन और तुम्हारी ठाठ से शादी की यहाँ तक कि तुम्हारी शादी पूर्व विधायक की बेटी से हुई। यह बड़ी बात है; बरना आज-कल कौन नेता-मंत्री अपनी बेटी की शादी किसी थानेदार के बेटे से करेगा?
ब्रजेश बाबू को पिता की बातें अनुचित लग रही थीं फिर भी वे आदर्श बेटे बने सुनते रहे। गजानन बाबू ने आगे कहा- ‘‘बेटा! दिवाली पैसे से मनती है और पैसा कमाने से आता है। तुम मेरी बात समझ रहे हो न! तुम्हें पैसा कमाना है, किसी भी तरह, जिससे इस घर में सदा दिवाली मनती रहे।’’
कुछ रूककर वे पुनः बोले- ‘‘देखो! एक बात याद आ गई। जब तुम छोटे थे, हमारे बंगले के बाहर सड़क पर एक झुग्गी थी। …..तुम्हें शायद याद नहीं होगा। दिवाली का दिन था। हमारे घर में दिवाली का शानदार उत्सव हो रहा था। लोगों का आना-जाना जारी था। मुझे किसी ने बताया कि बाहर झुग्गी से रोने-पीटने की आवाजें आ रही हैं जो कि उत्सव के समय अच्छी नहीं लग रही थीं। मैं तुरन्त वहाँ पहुँचा। उनसे चुप होने के लिए कहा। वे चुप नहीं हुए क्योंकि उनके इकलौते बेटे की उस दिन तीव्र बुखार से मौत हो गई थी।
मैंने उन्हें हिदायत दी परन्तु जब उन्होंने मेरी बात को अनसुना किया तो मैंने उस झुग्गी में आग लगा दी। ……लेकिन दिवाली का उत्सव मनाया। उस उत्सव में विघ्न नहीं आने दिया। …..बेटा! यही कारण है कि हमारे परिवार पर माँ लक्ष्मी की कृपा सदा बनी रही है। …..और क्या कहूँ, तुम समझदार हो उचित निर्णय लेना।’’
ब्रजेश बाबू का मन पिता की बातों से खिन्न हो चुका था। वे विरोध करना चाहते थे पर शान्त रहे। पिताजी की जगह कोई और होता तो शायद वे उसे इसका दण्ड देते। चुपचाप अपना सूटकेश उठाया और चल दिये। मन ही मन पिता के कुकृत्यों पर जितनी घ्रणा हो रही थी, सही और न्यायपूर्ण कार्यों में उतनी ही निष्ठा भी जाग्रत हो चुकी थी। मन ही मन दृढ़ निश्चय किया- ‘‘मैं वहीं करूँगा जो समाज, देश और मानवता के हित में होगा, मैं उचित निर्णय लूँगा। अपना कत्र्तव्य पूर्ण निष्ठा से निभाऊँगा।’’
यही सोचते विचारते वे रावतभाटा पहुँचे। जंगल में पहाड़ी के किनारे फाॅरेस्ट आॅफीसर का कार्यालय था। कुछ ही दूरी पर फाॅरेस्ट अधिकारी के निवास हेतु वन विभाग ने बँगला भी बनाया था। यहीं जाकर ब्रजेश बाबू ने अपना आश्रय बनाया। पूरा दिन कार्यालय में काम करते रहे। शाम के पाँच बजते ही अपने आश्रय स्थल पर पहुँचे।
भोजन करने के पश्चात संध्या की और फिर विश्राम किया। कुछ दिन यही क्रम चलता रहा।
अक्टूबर का महीना था। आकाश में घने बादल छाये हुए थे। धीेमे-धीमे हल्की फुहारें आ रही थीं। पूरा जंगल जैसे सुनसान हो चुका था। ब्रजेश बाबू ने चैकीदार को खिड़की दरवाजे बंद करने का आदेश दिया और शयनकक्ष में चले गए। उन्हें लेटे हुए लगभग एक ही घंटा हुआ था कि अचानक जंगल से कुछ उठा-पटक और आदमियों के जोर लगाने की आवाज सुनाई दी। ब्रजेश बाबू को लगा कि वे स्वप्न देख रहे हैं परन्तु तभी गाड़ी के स्टार्ट होने की आवाज सुनी तो वे चैकन्ना हो गए। तुरन्त अपने बिस्तर से उठे; कपड़े पहने और चैकीदार को साथ लेकर बंगले की चारदीवारी के पार सड़क पर पहुँचे। देखा कि एक ट्रक वहाँ से गुजर रहा था। ब्रजेश बाबू ने ट्रक को रोका, पीछे झाँककर देखा। ट्रक में कटे हुए पेड़ों के प्ररोह थे। ब्रजेश बाबू को समझते देर न लगी। जंगलमें पेड़ों के अवैध कटान एवं तस्करी का गंदा खेल चल रहा था। उन्होंने ट्रक का नं0 नोट किया फिर ड्राइवर से पूछा – ‘‘किसकी गाड़ी है?’’ ड्राइवर ने निडरता के साथ उत्तर दिया- बी.डी. आर. रोडलाइन्स के मालिक भगवानदास राजपूत की।’’
ब्रजेश बाबू ने ड्राइवर से ट्रक साइड से लगाने को कहा परन्तु वह उनकी आँखों में धूल झोंककर रफू चक्कर हो गया। रात में ही वे चैकीदार को साथ लेकर पुलिस चैकी पर पहुँचे और चैकी प्रभारी को जगाकर एफ.आई.आर. दर्ज करने के लिए कहा। चैकी प्रभारी एफ.आई.आर. दर्ज करने के स्थान पर उनको समझाने लगा- ‘‘सर! बुरा न मानें, वे लोग अच्छे नहीं हैं। यहाँ जंगल में रहकर उनसे दुश्मनी लेना अच्छी बात नहीं है। सही अर्थों में इस जंगल के राजा हैं वे लोग।’’
ब्रजेश बाबू ने क्रोध से कहा- ऐसे चोर उचक्कों को जंगल का राजा आप जैसे लोग ही बनाते हैं। मैं कहता हूँ, एफ.आई.आर. दर्ज करो; नहीं तो मुझे कप्तान साहब से बात करनी पड़ेगी।’’
ब्रजेश बाबू की यह धमकी सुनकर उसने उस समय एफ.आई.आर. दर्ज कर ली। ….परन्तु अगली सुबह 11.00 बजे वही चैकी प्रभारी भगवान दास राजपूत के साथ ब्रजेश बाबू के कार्यालय में उपस्थित हुआ। उसने उनकी मध्यस्थता का प्रयास किया।
चैकी प्रभारी बोला- ‘‘देखिए साहब! आजकल हर व्यक्ति अपना-अपना सोचता है। आपकी ड्यूटी एफ.आई.आर. कराने के बाद पूरी हो गई और अब मैं बी.डी.आर. को साथ लेकर आया हूँ। समझौता कर लीजिए।’’
बी.डी.आर. मुस्कराते हुए बोला- ‘‘साहब जी! आप नए-नए हैं। व्यर्थ के झंझट में क्यों पड़ते हैं? कुछ दिन यहाँ रहना है, फिर ट्रान्सफर होकर कहीं और चले जाओगे। आपको क्या मतलब, जंगल में कहाँ क्या हो रहा है? हम अपना काम कर रहे हैं। आप अपना काम करिए और आँखें बंद रखिए। इसके लिए मैं आपको इसी समय दस लाख देने को तैयार हूँ।’’
फाॅरेस्ट आॅफीसर ब्रजेश बाबू ने कहा- ‘‘मेरे जैसे लोग रिश्वत नहीं लेते।’’
बी.डी.आर. – ‘‘पन्द्रह लाख में सौदा तय रहा।’’
फाॅरेस्ट आॅफीसर- ‘‘मैं अपना फर्ज पूरा कर रहा हूँ बी.डी.आर।’’
बी.डी.आर. – ‘‘मैं बीस लाख देने को तैयार हूँ बस आप चुप रहिए।’’
फाॅरेस्ट आॅफीसर- ‘‘बी.डी.आर. सत्य की आवाज दबा नहीं करती।’’
बी.डी.आर. – ‘‘सत्य की आवाज को शान्त भी हो जाती है साहब! आप 25 लाख लीजिए।’’
चैकी प्रभारी – ‘‘पच्चीस लाख कम नहीं है साहब! आपसे पहले तो बी.डी.आर. साहब पाँच-पाँच लाख रुपये में ही डील करते थे।’’
बी.डी.आर- ‘‘कोई बात नहीं! हम पैंतीस लाख देने को तैयार हैं।’’
फाॅरेस्ट आॅफीसर – ‘‘35 लाख तो क्या आप मुझे 35 करोड़ में भी नहीं खरीद सकते। जब तक मैं यहाँ हूँ तस्करी नहीं होगी।’’
बी.डी.आर.- ‘‘तो जैसी आपकी इच्छा।’’
इतना कहकर बी.डी.आर. तथा चैकी प्रभारी चलने लगे। फाॅरेस्ट आॅफीसर ने चैकी प्रभारी से कहा- ‘‘एस.आई. साहब! बेहतर है कि आप दलाली छोड़कर अपनी ड्यूटी करें। बी.डी.आर. को अरेस्ट करके हिरासत में लिया जाए और फिर मुकद्मा चलाया जाए।’’
यह सुनकर चैकी प्रभारी और बी.डी.आर. मुस्कराते हुए निकल गए। अगले दिन शाम 6.00 बजे ब्रजेश बाबू अपने घर पहुँचे ही थे कि चैकी प्रभारी दो सिपाहियों के साथ उनके आश्रय पर पहुँचे तथा वारन्ट दिखाकर उनको ही अरेस्ट कर लिया।
ब्रजेश बाबू पर मुकद्मा चलाया गया। उन पर बी.डी.आर. को धमकाने और उनसे 50 लाख रुपये रिश्वत माँगने का आरोप लगाया। चैकी प्रभारी तथा बी.डी.आर. अदालत में ही उपस्थित थे।
चैकी प्रभारी ने ब्रजेश बाबू के विरूद्ध गवाही दी। तमाम कोशिशों के बाद भी वे स्वयं को निर्दोष सिद्ध न कर सके। चैकी प्रभारी तथा सिपाहियों की गवाही की रोशनी में अदालत ने ब्रजेश बाबू को अभियुक्त मानकर तीन महीने सश्रम कारावास की सजा सुनाई। वे निराश मन कत्र्तव्य एवं निष्ठा की पराजय देखकर दुुखी थे। उन्हें पद से पदच्युत कर दिया गया। जेल की सलाखों के पीछे वे स्वयं को असहाय एवं भाग्यहीन अनुभव कर रहे थे।
दो दिन बाद दिवाली थी। उनकी दिवाली कारागार में हुई। दुखी मन से उन्होंने माता लक्ष्मी से प्रार्थना की- ‘‘हे माँ महालक्ष्मी। यदि मैंने जीवन में कभी गलत किया हो तो ही मैं यहाँ रहूँ अन्यथा मेरी कत्र्तव्यनिष्ठा एवं ईमानदारी मेरी सहायता करें।’’
दिवाली पर बेटा घर नहीं आया तो गजानन बाबू चिंतित हुए। दिवाली के बाद उन्होंने किसी भी प्रकार पता कर ही लिया कि ईमानदारी तथा कत्र्तव्यनिष्ठा के कारण ब्रजेश बाबू सलाखों के पीछे हैं।
जमानत देकर, उन्होेंने बेटे को मुक्त तो करा लिया लेकिन जी खोलकर कोसा- ‘‘तुमसे यह उम्मीद नहीं थी। बुढ़ापे में मेरे नाम पर कलंक लगा दिया। बहुत ईमानदार बनने का शौक है, अब जीवन भर घर बैठकर रोटियाँ तोड़ना। कितना समझाया था ……लेकिन तुमको समझ कहाँ है? हमने जीवन भर नौकरी की। पुलिस विभाग में रहकर भी…… किसी से झगड़ा मोल नहीं लिया। सभी का काम निकाला और अपना घर भरा…… पर तुम तो मूर्ख ठहरे न। तुम्हें यह सब बताने का क्या लाभ?’’
घर आने पर माँ और पत्नि ने भी आँखें उठाकर नहीं देखा। ब्रजेश बाबू अकेेले थे; कोई साथी के रूप में था तो उनका धैर्य एवं सत्य पर विश्वास था। पराशक्ति माँ महालक्ष्मी पर विश्वास रखते हुए उनका समय व्यतीत हो रहा था। कुछ दिन यूँ ही गुजर गए। इस बीच ब्रजेश बाबू समाज सेवा से इस तरह जुड़े कि प्रत्येक सेवा कार्य में अपना योगदान देने लगे। नौकरी से पदच्युत हुए ग्यारह महीने बीत चुके थे।
सितम्बर का आखिरी सप्ताह था। सुबह के 9.00 बजे ही थे कि ब्रजेश बाबू को एक ट्रेन दुर्घटना की सूचना मिली। बनारस के निकट ही ट्रेन पटरी से उतर जाने के कारण गंभीर हादसा हुआ था। यह सुनते ही वे दौड़कर घटनास्थल पर पहुँचे। दूसरे स्वयंसेवकों के साथ गंभीर रूप से घायलों को अस्पताल पहुँचाने का प्रबंध करने लगे। घायलों का परीक्षण करते समय वे अवाक् रह गए। एक घायल को देखकर उन्हें लगा कि बी डी आर रोडलायन्स का मालिक भगवान दास राजपूत उनके सामने है। उन्होंने अपने सिर को झटका और यह सोचकर आगे बढ़े कि यह उसका हमशक्ल है। तभी घायल ने उनका हाथ पकड़ कर कहा- ‘‘मेरी बात सुनिए साहब!’’
ब्रजेश बाबू ने उसकी ओर गौर से देखा तो वह बोला – ‘‘मैं बी.डी.आर. हूँ साहब! अब मौत ने मुझे अपने पंजे में दबोच लिया है। आप मुझे बचा नहीं सकते। …..इसलिए मुझे अस्पताल मत पहुँचाइए। ….बस मेरी बात सुन लीजिए।’’ मुझे अस्पताल मत पहुँचाइए साहब मेरी बात सुनि लीजिए।’’
ब्रजेश बाबू उसकी बात सुनने लगे-
‘‘मैं बहुत ही दुष्ट व्यक्ति हूँ साहब। मैंने सदा तस्करी का धंधा किया है। …..मैंने केवल वृक्षों का अवैध कटान ही नहीं किया अपितु जंगली जानवरों को मारकर उनकी खाल की भी तस्करी की है।….. अब मरने से पहले…. अपने गुनाह कुबूल कर रहा हूँ; साहब! ….हो सके तो मुझे माफ कर देना।
इतना कहकर उसने दम तोड़ दिया। पास ही खड़े पत्रकारों ने बी. डी. आर. के बयान को अपने कैमरों में कैद कर लिया। टी.वी. चैनलों ने यह रिपोर्ट टी.आर.पी. के लिए बढ़ चढ़ कर दिखाई। पूरे देश में ब्रजेश बाबू के बेगुनाह होने की खबर फैल गई। सरकार द्वारा उन्हें पाँच लाख रुपये का आदर्श नागरिक सम्मान प्रदान किया गया। जिस दिन ब्रजेश बाबू को यह सम्मान मिला उस दिन भी दिवाली ही थी।
उन्हें पुरस्कार प्राप्त करते देख गजानन बाबू कह रहे थे- ‘‘वाह! वाह बेटा वाह! मैं जीवनभर अपने अहंकार के साथ नकारात्मक दिवाली मनाता रहा। असली दिवाली का उत्सव तो तुमने मनाया है। धन्य हो तुम! धन्य हैं माता महालक्ष्मी और धन्य है दीपावली का यह महापर्व।’’
– ‘गायत्री निवास’
34/2, लाजपत नगर, एन.एच-2,
मथुरा-281004
मो0 09259146669, 9758593044
म्ण्ब्
ई मेल- [email protected]
– देवी नागरानी
ग़ज़ल
२१ १२१ १२१ १२२
उठो सपूतो देश के आओ
देश का गौरव आप बढ़ाओ
देश की बेटी अपनी बेटी
उसकी मौत का शोक मनाओ
ख़ूब हो सोए अब तो जागो
ममता का अब कर्ज़ चुकाओ
नारी की है मांग सुरक्षा
नारों से अब मत भरमाओ
नारों से क्या होगा लोगो
नारी को सम्मान दिलाओ
माँ वो, बहन है बेटी ‘देवी’
मान उसे दो खुद भी पाओ
डॉ शील कौशिक
दीप निर्माता
हे दीप बनाने वाले
तुम्हारी जय हो!
घड़ते हो तुम
मिट्टी से नित नए ज्योतिपुंज
जैसे घड़ता है
सृष्टि विनायक
नित्य नया सूरज।
दीये की लौ में समाई है
तुम्हारी निष्ठा, नेह,
आस्था और विश्वास
तभी तो ये दीये
कर देते हैं रौशन संसार
पीकर तमाम अंधकार
भर देते हैं जन जन के मन में
एक नई ऊर्जा
और जगा देते हैं
श्रम का महत्व।
तुम्हारी उंगलियों की छाप से
अस्तित्व पाते ही ये दीप
अमर हो उठते हैं
दिवाली की रात में।
फिर भी सदियों से
करता आया है इंतजार
यह सृष्टि विनायक
अपने जीवन में आलोक का।
अगले दिन की दीवाली
यह एक धक्का बस्ती हैI इसका नाम हैं जे. जे. कॉलोनीI इसमें लगभग सौ झोंपड़ियाँ तथा एक-दो पक्के मकान हैंI यहाँ चारों ओर कचरे के ढेर हैंI इस बस्ती के बच्चे स्कूल जाने के बजाय कचरा बीनते हैंI कंधे पर जूट का लम्बा झोला लटकाए, दिन भर गली-गली घूम कर ये कचरा बीन कर घर ले जाते हैंI इनके माँ-बाप इस कचरे से छाँट कर सामान अलग-अलग बैग में भर कर रखते हैं और इसे कबाड़ी को बेच कर गुजारा करते हैंI
दीवली की रात में भी इनकी धक्का बस्ती में आज दीयों का नाम मात्र को प्रकाश हैI छगन, कलुआ और मुरली तीनों हमउम्र व पक्के दोस्त हैं तथा इकट्ठे कचरा बीनने जाते हैंI दीवाली से अगले दिन की सुबह इनके लिए विशेष होती हैं क्योंकि धनी लोगों द्वारा दीवली की रात की बची हुई मिठाई, चलाए पटाखों के कचरे में बहुत सारी अधजली मोमबतियां व फुलझड़ियाँ, तरह-तरह के फुस्स हुए पटाखे मिल जाते हैंI उनकी असली दीवाली तो हमेशा दीवली के अगले दिन ही मनती हैI तब वे बची हुई मिठाइयाँ खाते हैं और कुछ साबुत बचे और कुछ अधजले पटाखे जला कर खुश हो लेते हैI इसलिए हर बार की भांति तीनों पप्पू के ग्रुप से पहले सुबह जल्दी उठ कर जाने की योजना बनाने लगेI
रात सपने में छगन को मोहन सेठ का घर रंग-बिरंगी रोशनी में नहाया नजर आयाI उनके घर उसकी माँ काम करती हैI उनका घर सुंदर-सुदर फूलों और कीमती सामान से सजा हुआ है… फलों और भिन्न-भिन्न प्रकार की मिठाइयों से भरा हैI उनके बच्चे आँगन में छुड़ाने के लिए थैला भर कर पटाखे लाए हैंI उन्होंने थैला फर्श पर उलट दियाI ये क्या? पटाखे तो उछल-कूद करने और आपस में झगड़ने लगेI लम्बी पतली डंडी पर लटका रॉकेट बम्ब इतराने लगा,
“देखो-देखो! मेरी शानI मेरी गति सबसे तेज है… मैं कैसे शूं की आवाज करता हुआ आकाश में तेज गति से जाता हूँ और ऊंचाई पर पहुँच कर जोरदार धमाका करता हूँI सब बच्चे ऊपर टकटकी लगाए आसमान की ओर मुझे देखते रहते हैंI”
तभी कोन के आकार वाला अनार अपनी शान बघारता हुआ आगे आया, “ऊँह! बड़ा आया डींगे मारने, मुझे देखो! मेरे अंदर से कितने रंग-बिरंगे चमकीले तारे निकल कर नृत्य करते हैंI एक साथ रंग-बिरंगी रोशनी का झरना बहने लगता हैI सभी घर वाले जोर-जोर से तालियाँ बजा कर अपनी ख़ुशी प्रकट करते हैंI मैं बच्चों-बड़ों-बूढों सबकी पहली पसंद हूँI”
अब चकरी की बोलने की बारी आईI “देखो जरा! मेरा आकार गोल है और मै तेज गति से फर्श पर गोल-गोल घूमती हूँI घूमते-घूमते रंगीन चिंगारियाँ छोड़ती हूँI बच्चे मेरे इर्दगिर्द घूमते हुए रोमांचित हो मेरी चिंगारियों पर कूदते हैंI” छगन भी तालियाँ बजाता हैI तभी वह चौंक कर उठ बैठता है –‘अरे सवेरा होने को है और मैं अभी भी सपने में खोया हूँI’
छगन ने इधर-उधर झाँक कर देखाI चारों ओर अभी अँधेरा थाI उसने शीघ्रता से कल्लू की झोंपड़ी के पास जाकर आवाज लगाईI आँखे मलते कल्लू छगन के साथ हो लियाI पास में पप्पू की झोंपड़ी है, कहीं वह न उठ जाए और हमसे पहले सारा सामान न बटोर लें, इसलिए अब वे मुरली की झोंपड़ी के बाहर धीमी आवाज में मुरली…मुरली फुसफुसाने लगेI तीनों ने अपने-अपने झोले बगल में लटकाए और चल पड़े कूड़ा बीननेI सबसे पहले वे सीधे मोहन सेठ के घर के सामने पहुंचेI वहाँ किसी प्रकार का कचरा न पाकर उनकी हैरानी की सीमा न रहीI “ये लोग तो दीवाली पर जम कर आतिशबाजी करते थे, अबकी बार इन्हें क्या हुआ?” छगन की उम्मीद को झटका लगाI दूसरे पल यह ख्याल आया कि कहीं पप्पू की टोली तो पहले आकर हाथ साफ तो नहीं कर गईI वे मायूस हो वापस चलने की तैयारी मुड़े ही थे, तभी मोहन सेठ का बेटा मुकेश बाहर आया और छगन को पुकाराI छगन की आँखों में प्रश्न उभरा देख, वह वापिस घर के अंदर चला गयाI थोड़ी देर बाद छोटे सेठ हाथ में कुछ पैकेट्स उठा कर लाएI उन्होंने एक-एक पैकेट तीनों को थमा दिया और कहा, “तुम यही पूछना चाहते हो न कि अबकी हमने पटाखे क्यों नहीं छुड़ाए? तुम्हें पता नहीं, पटाखे चलाने से हवा में जहर घुलता हैI हवा साँस लेने योग्य नहीं रहतीI पिछले साल दीवाली की रात को मेरे दादा जी की साँस की तकलीफ अत्यधिक बढ़ गई थी, उन्हें तुरंत हस्पताल ले जाना पड़ा थाI डॉक्टर ने तब कहा था कि इनकी हालत पटाखों के धुंए से बिगड़ी हैI हम सभी ने तभी फैसला कर लिया था कि आईन्दा पटाखों को ना…और बिलकुल नाI आगे से हम ‘हरित दीवाली’ मनाएंगेI
“इसका क्या मतलब भैया?” तीनों एक साथ बोलेI
हमने इस बार दीवाली पर गली के नुक्कड़ वाले पार्क में और अपने घर के सामने बहुत सारे पौधे लगायें हैं, “आओ मेरे साथ, ये देखो जामुन का, नीम का….पार्क में भिन्न-भिन्न फलों वाले पौधे निम्बू, आम, अनार, शहतूत, बेर….के ” कुछ ही वर्षों में ये फल देने लगेंगेI एक बात और बताता हूँ पटाखों के शोर से पशु-पक्षियों को बहुत तकलीफ होती हैI वे बेचारे तो डर के मारे पूरी रात दुबके रहते हैं और सो भी नहीं पातेI
“हम तो सोचते थे पटाखों से केवल मनोरंजन होता है और आप लोग बहुत भाग्यशाली हो जो इतने सारे पटाखे छुड़ाते होI” तीनों एक साथ बोलेI
छगन एकाएक बोला, “भैया जब भी हम यहाँ कचरा बीनने आएँ तो क्या हम भी इन पौधों को पानी दे दिया करें ?” “अरे! नेकी और पूछ-पूछ, अवश्यI ये पेड़ सांझी जगह पर हैं और इनके फलों पर भी सबका हक होगाI”
छगन और उसके साथी उपहार पाकर उत्सुक थेI उन्होंने जल्दी से पैकेट खोलाI उसमें उनके लिए एक-एक स्वेटर और मिठाइयाँ थीI धन्यवाद! कह कर वे नाचते-कूदते वहाँ से चले दिएI
रास्ते में प्रतिदिन की भांति उन्होंने कचरा बीनाI अब उनकी दिलचस्पी पटाखों में न थीI फिर भी दूसरी जगह से कुछ अधजले पटाखे उन्होंने थैले में डाल लिए थेI शाम को तीनों थके मांदे घर पहुँचेI भोजन करने के तुरंत बाद वे गहरी निद्रा में सो गयेI
रात को अधजले पटाखे थैले से बाहर निकल कूदने लगे, “आओ छगन! लगाओ तीलीI तुम्हें दिखाएँ हम अपना करतबI” “ना बाबा ना! अब मैं तुम्हारी बातों में न आऊंगाI तुम तो बड़े खतरनाक हो यार! मुकेश भैया ने मुझे अच्छी तरह समझा दिया हैI अब तो हम भी तुम्हें छोड़ कर हरित दीवाली मनाया करेंगेI भैया से पौधे लाकर अपनी इस बस्ती को भी हरा-भरा बनायेंगेI” सब अधजले पटाखे वापस बैग में चुपचाप बंद हो गयेI
– मेजर हॉउस-17,सेक्टर-20,सिरसा -125055(हरियाणा)
मो.न.-9416847107 ईमेल –[email protected]
————————————-
सुशीला जोशी “विद्योत्तमा”
तब दीवाली आएगी
घर – घर जब आलोकित होगा
गाँव – गाँव जब विकसित होगा
हर बच्चा जब शिक्षित होगा
हर किसान जब प्रमुदित होगा
तब दीवाली आएगी ।।
आँगन में जब खीर पकेगी
भ्रष्टाचार की लूट रुकेगी
हर नारी जब सक्षम होगी
सारी नदिया निर्मल होगी
तब दीवाली आएगी ।।
घर – घर आँगन दीप जलेंगे
घर घर मे गो वंश पलेंगे
सैनिक निश्चिंत हो सोयेंगे
पस्त हौसले दुश्मन होंगे
तब दीवाली आएगी ।।
निडर तिरंगा जब फहरेगा
मुक्त प्रदूषण भारत होगा
आतंकवाद अंत जब होगा
जनता में सुख चैन भी होगा
तब दीवाली आएगी ।।
क्या आप जानते है कि बाल – दिवस नेहरू के जन्म दिवस के दिन ही क्यों मनाया जाता है ?
भारत की आजादी के बाद 14 नवम्बर 1954 को पंडित जवाहर लाल नेहरू द्वारा यू. एन. ओ. में बच्चों के अधिकार व उनकी सुरक्षा की बात उठायी गई जिसे यू.एन.ओ. ने स्वीकार किया और 20 नवम्बर 1954 में पूरे विश्व मे बाल दिवस मनाया गया । 1959 में यह दिवस अक्टूबर में मनाया गया और तब से पूरे विश्व मे अलग – अलग तारीखों को यह दिवस मनाया जाने लगा लेकिन भारत में यह दिन 20 नवम्बर को हो मनाया जाता था ।
नेहरू के निधन के बाद भारत ने नेहरू के प्रयास का जब विश्लेषण किया तो बच्चों की सुरक्षा व अधिकार की मांग रखने वाला दिन नेहरू का जन्मदिन प्रमाणित हुआ । तब से बाल दिवस 20 नवम्बर के स्थान पर 14 नवम्बर को मनाया जाने लगा ।
मुजफ्फरनगर 251002
मो.न. 9719260777
– ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
चाबी वाला भूत
बेक्टो सुबह जल्दी उठा. आज फिर उसे ताले में चाबी लगी मिलीं. उसे आश्चर्य हुआ. ताले में चाबी कहां से आती है ?
वह सुबह चार बजे से पढ़ रहा था. घर में कोई व्यक्ति नहीं आया था. कोई व्यक्ति बाहर नहीं गया था. वह अपना ध्यान
इसी ओर लगाए हुए था. गत दिनों से उस के घर में अजीब घटना हो रही थी. कोई आहट नहीं होती. लाईट नहीं जलती.
चुपचाप चाबी चैनलगेट के ताले पर लग जाती.
‘‘ हो न हो, यह चाबी वाला भूत है,’’ बेक्टो के दिमाग में यह ख्याल आया. वह डर गया. उस ने यह बात अपने दोस्त
जैक्सन को बताई. तब जैक्सन ने कहा, ‘‘ यार ! भूतवूत कुछ नहीं होते है. यह सब मन का वहम है,’’
बेक्टो कुछ नहीं बोला तो जैक्सन ने कहा, ‘‘ तू यूं ही डर रहा होगा.’’
‘‘ नहीं यार ! मैं सच कह रहा हूं. मैं रोज चार बजे पढ़ने उठता हूं.’’
‘‘ फिर !’’
‘‘ जब मैं 5 बजे बाहर निकलता हूं तो मुझे चैनलगेट के ताले में चाबी लगी हुई मिलती है.’’
‘‘ यह नहीं हो सकता है,’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ भूत को तालेचाबी से क्या मतलब है ?’’
‘‘ कुछ भी हो. यह चाबी वाला भूत हो सकता है. ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ यदि तुझे यकिन नहीं होता है तो तू मेरे घर पर सो
कर देख है. मैं ने बड़ वाला और पीपल वाले भूत की कहानी सुनी है.’’
जैक्सन को बेक्टो की बात का यकीन नहीं हो रहा था. वह उस की बात मान गया. दूसरे दिन से घर आने लगा. वह बेक्टो
के घर पढ़ता. वही पर सो जाता. फिर दोनो सुबह चार बजे उठ जाते. दोनों अलगअलग पढ़ने बैठ जाते. इस दौरान वे
ताला अच्छी तरह बंद कर देते.
आज भी उन्हों ने ताला अच्छी तरह बंद कर लिया. ताले को दो बार खींच कर देखा था. ताला लगा कि नहीं ? फिर उस ने
चाबी अपने पास रख ली.
ठीक चार बजे दोनों उठे. कमरे से बाहर निकले. चेनलगेट के ताले पर ताला लगा हुआ था.
दोनों पढ़ने बैठ गए. फिर पाचं बजे उठ कर चेनलगेट के पास गए. वहां पर ताले में चाबी लगी हुई थी.
‘‘ देख !’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ मैं कहता था कि यहां पर चाबी वाला भूत रहता है. वह रोज चेनल का ताला चाबी से खोल
देता है, ’’ यह कहते हुए बेक्टो कमरे के अंदर आया. उस ने वहां रखी. चाबी दिखाई.
‘‘ देख ! अपनी चाबी यह रखी है,’’ बेक्टो ने कहा तो जैक्सन बोला, ‘‘ चाहे जो हो. मैं भूतवूत को नहीं मानता.’’
‘‘ फिर, यहां चाबी कहां से आई ?’’ बेक्टो ने पूछा तो जैक्सन कोई जवाब नहीं दे सकता.
दोपहर को वह बेक्टो को घर आया. उस वक्त बेक्टो के दादाजी दालान में बैठे हुए थे.
जैक्सन ने उन को देखा. वे एक खूटी को एकटक देख रहे थे. उन की आंखों से आंसू झर रहे थे.
‘‘ यार बेक्टो ! ’’ जैक्सन ने यह देख कर बेक्टो से पूछा, ‘‘ तेरे दादाजी ये क्या कर रहे है ?’’ उसे कुछ समझ में नहीं आया
था. इसलिए उस ने बेक्टो से पूछा.
‘‘ मुझे नहीं मालुम है, ’’ बेक्टो ने जवाब दिया, ‘‘ कभीकभी मेरे दादाजी आलतीपालती मार कर बैठ जाते हैं. अपने हाथ
से आंख, मुंह और नाक बंद कर लेते हैं. फिर जोरजोर से सीटी बजाते हैं. वे ऐसा क्यों करते हैं ? मुझे पता नहीं है ?’’
‘‘ वाकई !’’
‘‘ हां यार. समझ में नहीं आता है कि इस उम्र में वे ऐसा क्यो करते हैं.’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ कभीकभी बैठ जाते हैं. फिर
अपना पेट पिचकाते हैं. फूलाते है. फिर पिचकाते हैं. फिर फूलाते हैं. ऐसा कई बार करते हैं. ’’
‘‘ अच्छा !’’ जैक्सन ने कहा, ‘‘ तुम ने कभी अपने दादाजी से इस बारे में बातं की है ?.’’
‘‘ नहीं यार, ’’ बेक्टो ने अपने मोटे शरीर पर हाथ फेरते हुए कहा, ‘‘ दादाजी से बात करूं तो वे कहते हैं कि मेरे साथ घुमने
चलो तो मैं बताता हूं. मगर, वे जब घुमने जाते हैं तो तीनचार किलोमीटर चले जाते हैं. इसलिए मैं उन से ज्यादा बात
नहीं करता हूं.’’
यह सुनते ही जैक्सन ने बेक्टा के दादाजी की आरे देखा. वह एक अखबार पढ़ रहे थे.
‘‘ तेरे दादाजी तो बिना चश्में के अखबार पढ़ते हैं ?’’
‘‘ हां. उन्हें चश्मा नहीं लगता है.’’ बेक्टो ने कहा.
जैक्सन को कुछ काम याद आ गया था. वह घर चला गया. फिर रात को वापस बेक्टो के घर आया. दोनों साथ पढ़े और
सो गए. सुबह चार बजे उठ कर जैक्सन न कहा, ‘‘ आज चाहे जो हो जाए. मैं चाबी वाले भूल को पकड़़ कर रहूंगा. तू भी
तैयार हो जा. हम दोनों मिल कर उसे पकड़ेंगे ?’’
‘‘ नहीं भाई ! मुझे भूत से डर लगता है, ’’ बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू अकेला ही उसे पकडना.’’
जैक्सन ने उसे बहुत समझाया, ‘‘ भूतवूत कुछ नहीं होते हैं. यह हमारा वहम है. इन से डरना नहीं चाहिए.’’ मगर, बेक्टो
नहीं माना. उस ने स्पष्ट मना कर दिया, ‘‘ भूत से मुझे डर लगता है. मैं पहले उसे नहीं पकडूंगा.’’
‘‘ ठीक है. मैं पकडूगा.’’ जैक्सन बोला तो बेक्टो ने कहा, ‘‘ तू आगे रहना, जैसे ही तू पहले पकड़ लेगा. वैसे ही मैं मदद
करने आ जाऊंगा,’’
दोनों तैयार बैठे थे. उन का ध्यान पढ़ाई में कम ओर भूत पकड़ने में ज्यादा था.
जैक्सन बड़े ध्यान से चेनलगेट की ओर कान लगाए हुए बैठा था. बेक्टो के डर लग रहा था. इसलिए उस ने दरवाजा बंद
कर लिया था.
ठीक पांच बजे थे. अचानक धीरे से चेनलगेट की आवाज हुई. यदि उसे ध्यान से नहीं सुनते, तो वह भी नहीं आती.
‘‘ चल ! भूत आ गया ,’’ कहते हुए जैक्सन उठा. तुरंत दरवाजा खोल कर चेनलगेट की ओर भागा.
चेनलगेट के पास एक साया था. वह सफेदसफेद नजर आ रहा था. जैक्सन फूर्ति से दौड़ा. चेनलगेट के पास पहुंचा. उस ने
उस साए को जोर से पकड़ लिया. फिर चिल्लाया, ‘‘ अरे ! भूत पकड़ लिया.’’
‘‘ चाबी वाला भूत !’’ कहते हुए बेक्टो ने भी उस साए को जम कर जकड़ लिया.
चिल्लाहट सुन कर उस के मम्मीपापा जाग गए. वे तुरंत बाहर आ गए.
‘‘ अरे ! क्या हुआ ? सवेरेसवेरे क्यों चिल्ला रहे हो ?’’ कहते हुए पापाजी ने आ कर बरामदे की लाईट जला दी.
‘‘ पापाजी ! चाबी वाला भूत !’’ बेक्टो साये को पकड़े हुए चिल्लाया.
‘‘ कहां ?’’
‘‘ ये रहा ?’’
तभी उस भूत ने कहा, ‘‘ भाई ! मुझे क्यो पकड़ा है ? मैं ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ? ’’ उस चाबी वाले भूत ने पलट
कर पूछा.
‘‘ दादाजी आप !’’ उस भूत का चेहरा देख कर बेक्टो के मुंह से निकल गया, ‘‘ हम तो समझे थे कि यहां रोज कोई चाबी
वाला भूत आता है,’’ कह कर बेक्टो ने सारी बात बता दी.
यह सुन कर सभी हंसने लगे. फिर पापाजी ने कहा, ‘‘ बेटा ! तेरे दादाजी को रोज घुमने की आदत है. किसी की नींद खराब
न हो इसलिए चुपचाप उठते हैं. धीरे से चेनलगेट खोलते हैं. फिर अकेले घुमने निकल जाते हैं. ’’
‘‘ क्या ?’’
‘‘ हां !’’ पापाजी ने कहा, ‘‘ चुंकि तेरे दादाजी टीवी नहीं देखते हैं. मोबाइल नहीं चलाते हैं. इसलिए इन की आंखें बहुत
अच्छी है. ये व्यायाम करते हैं. इसलिए अधेरे में भी इन्हें दिखाई दे जाता है. इसलिए चेनलगेट का ताला खोलने के लिए
इन्हें लाइट की जरूरत नहीं पड़ती है..’’
यह सुन कर बेक्टो शरमिंदा हो गया,. वह अपने दादाजी से बोला, ‘‘ दादाजी ! मुझे माफ करना. मैं समझा था कि कोई
चाबी वाला भूत है जो यहां रोज ताला खोल कर रख देता है.’’
‘‘ यानी चाबी वाला जिंदा भूत मैं ही हूं, ’’ कहते हुए दादाजी हंसने लगे.
बेक्टो के सामने भूत का राज खुल चुका था. तब से उस ने भूत से डरना छोड़ दिया.
रतनगढ-485226 जिला-नीमच (मप्र)
मोबाइल नंबर–9424079675
– डॉ.अवधेश तिवारी “भावुक”
बाल दिवस
कितने अनुपम , कितने प्यारे,
कितनी मृदु मुस्कान,
बच्चों के मन में बसते हैं,
सदा स्वयं भगवान।
एक बार भी अगर प्यार से
बच्चों को दुलरायें,
उनके अपने बनकर उनसे
हँसें और मुस्काएं
बच्चे निश्छल गंगा जैसे
निश्छल उनकी मुस्कान,
बच्चों के मन में बसते हैं,
सदा स्वयं भगवान।
नेहरू जी बच्चों को प्यारे
बच्चों को चाचा से प्यार,
चाचा नेहरू बच्चों के संग
बन कर बच्चे करें दुलार,
बच्चों की प्रतिभा से बढ़ता
भारत का सम्मान,
कितने अनुपम , कितने प्यारे,
कितनी मृदु मुस्कान।
अच्छे संस्कार पा करके
देश सबल कर देंगे,
निज विद्या , प्रज्ञा के द्वारा
मुश्किल प्रश्न सरल कर देंगे,
“भावुक” बच्चों में दिखता
उज्ज्वल स्वर्ण विहान,
कितने अनुपम , कितने प्यारे,
कितनी मृदु मुस्कान।
बच्चों के मन में बसते हैं,
सदा स्वयं भगवान…
सविता मिश्रा ‘अक्षजा’
परछाई
सड़क किनारे एक कोने में, छोटे से बच्चे को दीपक बेचते देख रमेश ठिठका |
उसके रुकते ही पॉलीथिन के नीचे किताब दबाते हुए बच्चा बोला – “अंकल कित्ते दे दूँ?”
“दीपक तो बड़े सुन्दर हैं, बिल्कुल तुम्हारी तरह | सारे ले लूँ तो?”
“सारे ! लोग तो एक दर्जन भी नहीं ले रहें | महँगा कहकर, सामने वाली दुकान से चायनीज लड़ियाँ और लाइटें खरीदने चले जाते हैं
|झिलमिल करती वो लड़ियाँ, दीपक की जगह ले सकती हैं क्या भला !”
उसकी बातें सुन, उसमें अपना अतीत पाकर रमेश मुस्कुरा पड़ा |
“बेटा ! सारे दीपक गाड़ी में रख दोंगे?”
“क्यों नहीं अंकल!” मन में लड्डू फूट पड़ा | पांच सौ की दो नोट पाकर सोचने लगा, ‘आज दादी खुश हो जाएगी | उनकी दवा के साथ-साथ
मैं एक छड़ी भी खरीदूँगा | छड़ी के बिना चलने में दादी को कितनी परेशानी होती है |’
“क्या सोच रहा है, कम हैं?”
“नहीं अंकल ! इतने में तो मैं सारे सपने पूरे कर लूँगा |
कहकर वह अपना सामान समेटने लगा | अचानक गाड़ी की तरफ पलटा, फिर थोड़ा अचरज से पूछा – “अंकल, लोग मुझपर दया दिखाते तो हैं,
पर दीपक नहीं लेते हैं | आप सारे ही ले लिए !” कहते हुए प्रश्नवाचक दृष्टि टिका दी ड्राइविंग सीट पे बैठे रमेश पर |
रमेश मुस्करा कर बोला-
“हाँ बेटा, क्योंकि तुम्हारी ही जगह, कभी मैं था |”
मोबाईल नंबर: 09411418621
[email protected]
स्नेह लता
तारे नभ से आते
दीवाली की रात धरा पर , तारे नभ से आते
जगमग जगमग करते नन्हें दीपक बन मुस्काते
खील पटाखे ,फुलझड़ियाँ बन ,खिल खिल , खिल खिल गाते
लक्ष्मी गणपति बन ,धन ,वैभव ,सुख समृद्धि लाते
चकई जैसा नाच दिखाते , बन अनार चहकाते
धूम धड़ाका करके , वापस राकेट में उड़ जाते
दीवाली
आज अमावस की रात है। आकाश मंे चारों ओर स्याह अंधेरा फैला हुआ है, चाँद भी कहीं छुप गया है, कुछ तारे टिम-टिमा रहे हैं। जाड़ा पड़ना शुरू हो चुका है, दिन में भले ही तेज धूप हो मगर रात को हल्की ठंड पड़ने लगी है। कम्बल या हल्की रजाई ओढ़ने के दिन आ गए हैं। आज कार्तिक माह की अमावस तिथि है। चारों ओर अंधेरा ही अंधेरा है और इस अंधेरे को मिटाने के लिए धरती पर सैकड़ों दिए टिमटिमा रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे आकाश के तारे ज़मीन पर उतर आए हों। आज दीवाली की रात है। दीवाली हमारे देश मंे मनाया जाने वाला एक प्रमुख त्यौहार है। यूँ तो यह विशेष रूप से हिन्दुओं का पर्व है परन्तु इसे सभी धर्मो के मानने वाले मिल जुल कर, प्यार से मनाते हैं। दीवाली को दीपावली, दिवाली, दीप-आवली, दीप मालिका भी कहते हैं। यह पाँच दिनों तक चलने वाला त्यौहार है। यह त्यौहार अक्टूबर के आखिरी सप्ताह या नवम्बर के पहले सप्ताह में मनाया जाता है। पाँच दिन के त्यौहार में सबसे पहले दिन धनतेरस, दूसरे दिन नरक चर्तुदर्शी, तीसरे दिन दीवाली, चैथे दिन गोबर्धन पूजा और पाँचवे दिन भैया दूज मनाई जाती है।
हमारे देश मंे त्यौहारों का फसलों और ऋतुओं से गहरा संबंध है। दीवाली के समय बरसात की ऋतु समाप्त होती है और जाडे़ की ऋतु प्रारम्भ होती है। इसी प्रकार खरीफ की फसल जैसे उडद, तिल,, सरसों पककर तैयार होती है तथा रबी की फसल जैसे गेहूँ, आलू, जौ, चना, मटर की फसल की बुआई होती है। इस प्रकार पर्व मनाने से नई फसल का स्वागत भी करते हैं।
दीपावली के उत्सव से हमारे स्वास्थ्य के नियम भी जुड़े हैं। वर्षा ऋतु से घरों में सीलन आ जाती है, चारों तरफ गंदगी फैल जाती है जिससे मक्खी-मच्छर और अन्य कीडे़-मकोडे़ भी पैदा हो जाते हैं। बरसात समाप्त होने के बाद दीवाली के स्वागत में सफाई करते हैं, पुताई कराते हैं, घर को सजाते हैं तथा रात में दिये जलाते हैं। इतने अधिक दिये जलने से अनेक छोटे-छोटे कीड़े मर जाते हैं। बीमारियों से बचाव हो जाता है।
हमारे ऋषियों-मनीषियों ने सामाजिक ढाँचे की रचना इस प्रकार की थी कि जिसमें समाज का ऊँचा-नीचा हर वर्ग खुशहाल रह सके, हर वर्ग को रोटी, हर हाथ को काम मिले। दीवाली पर दिए तथा तरह-तरह के खिलौने बनाए जाते हैं जिससे हमारे मूर्तिकारांे, शिल्पकारों, दस्तकारों को काम मिलता है। घरेलू कुटीर उद्योग धन्धे जीवित रहते हैं।
त्यौहार के इसी भाई चारे के कारण हमारी कला और संस्कृति, तथा सांस्कृत्रिक विरासत सुरक्षित रहती है। धनतेरस-दीवाली का पहला दिन धनतेरस का होता है। धनतेरस के दिन धनवंतरी वैद्य का जन्म हुआ था। डाक्टर लोग इसे अपने व्यवसाय के लिए शुभ मानते हैं। आज के दिन बर्तन, सोना-चाँदी खरीदने का प्रचलन है। दूसरा दिन नरक चर्तुदर्शी या छोटी दीवाली मनाई जाती है। कहा जाता है, कि नरक चर्तुदर्शी के दिन श्री कृष्ण ने नरकासुर का वध किया था। नरकासुर एक दुष्ट राक्षस था, जो लोगों को कष्ट देता था। इस दिन घर की पूरी तरह से सफाई की जाती है। शाम को घर की स्त्रियाँ पूजा करती हैं तथा देहरी पर दिया जलाती हैं।
दीवाली-दीपावली के पाँच दिनों तक मनाए जाने वाले त्यौहार का सबसे प्रमुख दिन होता है। दीवाली मनाने के संबंध में अनेक कथाएँ भी प्रचलित हैं। कहा जाता है (1) इसी दिन समुद्र मंथन से देवी लक्ष्मी प्रकट हुई थीं। (2) इसी दिन राजा बलि कोे पाताल का राजा बनाकर वामन भगवान ने उसकी ड्योढी पर रहना स्वीकार किया। (3) इसी दिन रामचन्द्र जी रावण को मारकर चैदह वर्ष का वनवास पूर्ण करके राम, लक्ष्मण, सीता सहित अयोध्या वापस आए थे। उनके स्वागत की खुशी में अयोध्यावासियांे ने दिये जलाए थे।
(4) इसी दिन राजा वीर विक्रमादित्य ने सिंहासन पर बैठकर नवीन संवत की घोषणा की थी। दीवाली की रात मंे लक्ष्मी, गणेश की मूर्तियों का दीपक जलाकर, खील-खिलौने,मिठाइयों और बताशों से पजन किया जाता है। घर में तरह-तरह के पकवान तथा मिठाइयाँ बनती हैं। लोग एक दूसरे को शुभकामनाएं देते हैं। लोगों की ऐसी मान्यता है कि दीवाली की रात लक्ष्मी जी का आगमन होता है। लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए व्यापारी वर्ग अपने वही-खातों आदि की भी पूजा करते हैं। बच्चे पटाखे छुड़ाते हैं, मोमबत्ती आदि जलाते हैं। घरों मेें बिजली की रंगबिरंगी झालर-बल्ब आदि भी जलाते हैं। रात के समय पूरा शहर रौशनी से जगमगाता है, उस समय का दृश्य अनुपम लगता है।
गोबर्धन पूजा- दीवाली के अगले दिन गोबर्धन पूजा की जाती है। इस संबंध में एक कथा प्रचलित है। कहा जाता है कि दीपावली के दूसरे दिन ब्रज मण्डल में इन्द्र की पूजा हुआ करती थी। श्री कृष्ण ने कहा कि कार्तिक में इन्द्र की पूजा का कोई लाभ नहीं इसलिए हमें गाय के वंश की उन्नति के लिए पर्वत,वृक्षों की पूजा करते हुए,न केवल उनकी रक्षा करनी चाहिए बल्कि पर्वतों और भूमि पर घास-पौधे लगाकर वनमहोत्सव भी मनाना चाहिए। गाय का गोबर उपयोगी होता है, क्योंकि उसकी खाद से खेतांे की उपजाऊ शक्ति बढ़ती है। हमें खेतों में गोबर ड़ालकर उस पर हल चलाते हुए अन्न तथा जड़ी-बूटियाँ, वन औषद्यियाँ उत्पन्न करनी चाहिए जिससे हमारे गाँवों की उन्नति हो सके। भगवान के उपदेशों से लोगों ने पर्वत वन और गोबर की पूजा आरम्भ कर दी। इससे इन्द्र देवता रूष्ट हो गए और पानी की झड़ी लगा दी। भगवान ने अपनी उंगली पर गोबर्धन पर्वत को उठा कर सम्पूर्ण ब्रज वासियों की रक्षा की। इन्द्र को अपने किये पर माँफी माँगनी पड़ी। इसीलिए गोबर्धन की पूजा की जाती है। आधुनिक संदर्भ में हम यह कह सकते हैं कि यह त्यौहार हमें अपने जीव-जन्तुओं, पशु-पक्षियों, तथा पर्यावरण के प्रति सजग रहने की याद दिलाता है।
भैया दूज- पाँच दिनांे तक चलने वाले त्यौहारों की श्रंखला में आखिरी दिन भैया दूज मनाई जाती है। बहनें अपने भइयों को टीका लगाकर उनके लिए मंगलकामना करती हैं। कहा जाता है कि आज के दिन सूर्य की पुत्री यमुना ने अपने भाई यमराज को राखी बांधी थी इसलिए इस त्यौहार को यम द्वितीया भी कहा जाता है।
इस प्रकार पाँच दिनों तक चलने वाले दीपावली के त्यौहार को लोग बड़े हर्ष तथा उल्लास के साथ न केवल देश में बल्कि हमारे देश से बाहर जाकर बसे हुए प्रवासी भारतीय भी बड़ी धूम-धूाम से मनाते हैं।
आज विज्ञान की प्रगति का चारों ओर प्रभाव दिखाई देता है। इसमें कोई शक नहीं आज सभी त्यौहार पहले से भी अधिक धूम-धाम से मनाए जाते हैं परन्तु इनमें जहाँ एक ओर प्राचीन पारम्परिक उद्धेश्य कम होते जा रहे हैं तथा उनकी जगह नए-नए वैज्ञानिक आविष्कार ग्रहण करते जा रहे हैं जो कई बार हानिकारक सिद्ध होते हैं। खील खिलौने की शुद्धता ठीक थी परन्तु बाज़ार में बिकने वाली मिलावटी मिठाइयाँ हानिकारक होती हैं। दिए की टिमटिमाती लौं बिजली की चकाचैंध में फीकी पड़ती जा रही है। पटाखों, आतिशबाजी से फैली सल्फरडाई आक्साइड वर्ष भर में फैले प्रदूषण से अधिक हो जाती है। कई बार पटाखों से आग लग जाती है, जान माल का नुकसान हो जाता है। कुछ बुरी परम्पराएं जैसे जुआ खेलना, घर के विनाश का कारण बन जाती हैं। ऐसी परम्परा का त्याग करना चाहिए। पटाखों में आग लगाकर पैसा बरबाद करने के स्थान पर यदि उसी पैसे को किसी अच्छे कार्य में लगाया जाए तो निश्चय ही मन प्रसन्न होगा। समाज की उन्नति होगी।
दीपावली पर हमें यदि यह याद रहे-
‘जलाओ दिए पर रहे ध्यान इतना, अंधेरा धरा पर कहीं रह न जाए‘
हर किसी के जीवन में आशा की रौशनी, हो स्वस्थ तन के साथ स्वस्थ मन जोड़े तो धन स्वतः आएगा। लक्ष्मी की कृपा अवश्य होगी। तभी दीपावली का पूजन सार्थक होगा। दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं।
1/309, विकास नगर,
लखनऊ
मो०नं०-9450639976
रघुराज सिंह कर्मयोगी
दिवाली आई रे
दिवाली आई रे आई रे आई रे।
खुशियों की सौगात लाई रे।
घर-घर जोत जलाई रे।
पुरवा मंद मंद मुस्काई रे।…….. दिवाली
रंग बिरंगी लड़ी द्वार पर।
झिलमिल बंदनवार सजाए।
चकरी चली पटाखे फूटे।
अनार और फुलझड़ी चलाए।
रॉकेट बोला बत्ती सुलगा।
चिटपटिया इठलाई रे।……. दिवाली
भैया आए भौजी आई ।
जीजा और बढ़ दीदी आई ।
भाई दूज पर मौज करेंगे।
भावों की बरसात करेंगे।
मात पिता के चेहरे चमके।
राम की महिमा गाई रे…… दिवाली
दे रही संदेश जग को,
स्वच्छता,पर्यावरण का।
हजारों दीप बैठे हैं ,
दहन देखा है रावण का।
आ रही भीनी सी खुशबू,
बर्फी,दूध,मलाई रे।…. दिवाली
—————–
निर्मला जोशी ‘निर्मल’
दयालु मिन्नी
सुबह सवेरे माँ ने मिन्नी को जगाया, मिन्नी
उठो ,स्कूल नहीं जाना क्या ?मिन्नी अलसाई सी बोली माँ थोड़ी देर और सोने दो ना । माँ ने कहा तुम्हारी स्कूल बस निकल जायेगी ।मिन्नी का मन नहीं था उठने का पर उसे उठना ही पड़ा । मिन्नी पांचवी कक्षा की छात्रा थी ।आज उसके स्कूल में बालदिवस के कार्यक्रम का रिहर्सल भी होना था।मिन्नी की खिड़की के पास नन्ही चिड़िया भी चींचीं कर शोर मचाने लगी थी।मिन्नी रोज सुबह उठकर उसे चुग्गा डालती थी।जब तक उसे चुग्गा न डाला वो शोर मचा कर आफत काटती रहती थी ।मिन्नी उठी दाना लेकरआई और चिड़िया को डांटने लगी क्या है चिनमिनिया तू थोड़ी देर सोने भी नहीं देती। चिंनमिनिया उसकी प्यारी दोस्त थी जो माँ की ही तरह उसे रोज सुबह जगाती थी।चिड़िया को दाना डाल कर वो तैयार होने चली।मिन्नी जल्दी जल्दी तैयार हो गई, उसे याद आ गया कि आज बाल दिवस में होने वाले कार्यक्रम का अभ्यास भी कराया जाएगा।माँ ने उसकी पसंद के आलू के परांठे बनाये थे। उसकी बस आ गई थी वह अपना लंचबॉक्स लेकर सबको नमस्ते कर स्कूल चली गई।
शाम को जब मिन्नी स्कूल से वापस आई तो मिन्नी बहुत उदास लग रही थी।
माँ ने पूछा – क्या हुआ मिन्नी ,क्या किसी से लड़ाई हुई है ?मिन्नी की आँखों में आँसू आ गये ।मिन्नी बहुत संवेदनशील थी।मिन्नी बोली माँ हमारे स्कूल में जो सफाई कर्मचारी है वो बहुत बीमार है।उसकी बेटी भी हमारे स्कूल में पढ़ती है। कल वो बहुत परेशान थी।कह रही थी पापा की दवाई के भी पैसे नहीं है। आज वो स्कूल भी नहीं आई थी।उसकी मम्मी भी नहीं हैं। उसके पापा ज्यादा बीमार तो नहीं हो गए ?तभी मिन्नी के दादाजी वहां आगये उन्होंने मिन्नी की बात सुनी तो बोले हमारी मिन्नी बिटिया किसी का दुख नहीं देख सकती।उन्होंने मिन्नी से कहा मिन्नी तू फिक्र न कर आज शाम को ही हम उस कर्मचारी के घर चलते हैं और देखते हैं हम क्या कर सकते हैं ।मिन्नी की आँखों मे चमक आ गई एकदम बोली सच दादा जी? आप बहुत अच्छे हो।मिन्नी खुश हो गई।शाम को मिन्नी अपने दादा जी के साथ अपनी सहेली प्रिया के घर पहुंची तो प्रिया अचानक मिन्नी को देख कर रो पड़ी।।वहां जाकर देखा उसके पापा बिस्तर पर पड़े बुखार से कराह रहे थे ।दादा जी ने प्रिया के सिर पर हाथ रख कर कहा बेटा तू चिंता मत कर हम आ गए हैं। मिन्नी के दादा जी के एक दोस्त डॉक्टर थे।दादा जी ने उनको फोन कर बुला लिया।डॉक्टर साहब ने आकर प्रिया के पापा को देखा और बोले मामूली बुखार है चिंता की कोई बात नहीं।मैं दवा लिख देता हूँ दो तीन दिन में ठीक हो जाएंगे।मिन्नी के दादाजी दवा और थोड़े फल भी ले आये।प्रिया की आँखों से झर झर आंसू बह रहे थे।मिन्नी बोली रो मत अब सब ठीक हो जाएगा।प्रिया बार बार मिन्नी और दादा जी का धन्यवाद कर रही थी।मिन्नी ने कहा धन्यवाद मत बोल मैं तेरी दोस्त हूं ना ! अब दोस्त ही तो दोस्त के काम आते हैं।चलते हुए दादाजी ने कहा कोई भी परेशानी हो बेझिजक हमे बता देना। मिन्नी और प्रिया दोनो खुश हो गईं।
—————–
मोहम्मद मुमताज हसन
“आओ दिवाली मनाएं”
आज न घर कोई वीरान हो,
सबके मुख पर मुस्कान हो!
मिटाकर सारे भेदभाव चलो
फिर से हम दीपक जलाएं,
आओ दीवाली पर्व मनाएं!
देख के सारे हो जाए दंग,
हो आपस का ऐसा सत्संग!
जल जाएं वायरस दीयों से
घर-घर में उजियारा हो जाए,
आओ दीवाली पर्व मनाएं!
मिट जाए जीवन का अंधेरा,
खुशियों का बस रहे बसेरा!
दीपों का प्रकाश फैला कर
भारत में खुशहाली ले आएं,
आओ दीवाली पर्व मनाएं!
-मोहम्मद मुमताज़ हसन
बचपन
नटखट रंग -रंगीला बचपन,
छमछम,छैल छबीला बचपन!
आपस में सारे हमजोली,
करें मिलके में हंसी ठिठोली!
मौजमस्ती और धमाचौकड़ी,
करती है खूब इनकी टोली!
रेत पे कभी बनाएं घरौंदा,
छपछप पानी में गीला बचपन!
कोयल सी कुक सुनाते,
तितलियां पकड़ के लाते!
हो जाता है फूलों जैसा,
हरा,गुलाबी,पीला बचपन!
नटखट, रंग-रंगीला बचपन,
छमछम,छैल छबीला बचपन!
रिकाबगंज, टिकारी, गया
बिहार -824236
मोबा. -7004884370
———————–
मीना शर्मा
दीवाली आई
जग जग मग दीवाली आई |
हुआ उजाला खुशियाँ लाई ||
खूब सजा है गली मुहल्ला ,
मिलकर सभी मचाये हल्ला ||
रौनक खूब. हुई. है भाई ,
रानी नए फटाके लाई ||
रंगोली हर द्वार सजा ओ,
दीदी ! मंगल. गीत सुनाओ ||
नुक्कड़ पर है खूब मिठाई ,
बना रहा सुक्खी हलवाई ||
आज रोशनी की बहार है ,
फुलझड़ियाँ,चकरी, अनार है ||
सबको शुभकामना मिली है ,
रंगत सबकी खिली -खिली है ||
धनतेरस ! फिर छोटी वाली ,
अब. आई है बड़ी दिवाली ||
खील – बताशा बड़ा स्वाद है |
पहले पूजा फिर प्रसाद है ||
———————
– कुशलेन्द्र श्रीवास्तव
राजू की व्यथा
मुन्नी बार बार उसे खंींच रहा थी ‘‘भैया चलो न देखो बाहर पटाखे फूटने लगे हैं…….चलों हम भी देखेगें….चलो न भैया’’ । राजू अपना होमवर्क कर रहा था ‘‘अभी रूको मुन्नी……मुझे पहिले पढ़ लेने दो फिर हम चलेगें’’
‘‘नहीं…….अभी चलो……….अभी तो स्कूल की छुट्टी है न तो फिर कल पढ़ लेना……’’
‘‘छुट्टी है तो क्या हुआ…….हमें तो पढ़ते रहना चाहिये……….’’
राजू ने देखा कि मुन्नी ने अपनी किताबें तो सम्हाल कर रख दीं हैं पर कचरे को नहीं समेटा है उसके चेहरे पर नाराजी के भाव दिखाई दिए
‘‘देखो मुन्नी हमें कभी भी कचरा नहीं फेंकना चाहिए मैंने तुम्हें समझाया भी था न फिर भी…….’’ कहते हुए राजू ने सारे कचरे को उठकार कचरे वाली बाल्टी में डाल दिया ।
मुन्नी कुछ नहीं बोली । पर उसके चेहरे पर उदासी के भाव साफ दिखाई देने लगे । उसे उदास देखकर राजू ने अपनी किताबों को सम्हाल कर अपने बेग में रखा और फिर माॅ के पास गया
‘‘माॅ मैं मुन्नी के साथ बाहर हूूं कोई काम हो तो आवाज दे देना’’
माॅ कुछ नहीं बोलीं । वे बीमार हैं…….तेज बुखार है……इस कारण से दो दिन से काम पर भी नहीं गईं । आज त्यौहार के दिन उनके घर चूल्हा तक नहीं जला था । राजू ने कहीं से दो रोटी लाकर मुन्नी को तो खिला दी थीं पर स्वंय ने कुछ भी नहीं खाया था । मुन्नी छोटी है छैः साल की और राजू ग्यारह साल का । राजू अपनी बहिन का बहुत ध्यान रखता । उसे नहलाता और साथ में स्कूल ले जाता, साथ में ही स्कूल से लेकर आता । उसका होम वर्क कराता ‘‘देखो मुन्नी तुम अच्छे से पढ़ा करो……पढ़ाई करना बहुत जरूरी है….हम जब खूब पढ़ लेगें न तो माॅ को काम नहीं करना पड़ेगा’’ ।
वह खुद भी बहुत पढ़ता । उसे पढ़ने का बहुत शौक था । क्लास में भी वह सबसे होशियार था । इस कारण से उसके शिक्षक भी उससे बहुत खुश रहते थे । किताबें तो स्कूल से मिल ही जाया करतीं और दोपहर का भोजन भी मिल जाता । दोनो दोपहर का भोजन करके ही दिन और रात काट लेते । राजू अपने भोजन में से एक रोटी बचा कर लाता जिसे माॅ को दे देता ।
राजू मुन्नी का हाथ पकड़ कर बाहर ले आया था । सामने बड़े सेठ की बल्डिंग थी जिस पर छोटी-छोटी लाइटें लगाई गई थीं । सारा भवन जगमग हो रहा था । अंदर से संगीत सुनाई दे रहा था । बड़े सेठ का बेटा पारितोष बहुत सुन्दर कपड़े पहने नाच रहा था । वह राजू की उम्र का ही था । वह किसी बड़े पा्रइवेट स्कूल में पढ़ता था । कार से स्कूल जाता और कार से लौटता । कभी कभी वह राजू के पास भी आ जाता और उसे परेशान करता ‘‘फटी चडढी…….आ खेलेगा मेरे साथ’’ । राजू कुछ नहीं बोलता । चुपचाप उसके साथ खेलने लगता । उसे केवल गेंद उठाकर लानी होतीं सारे समय बेटिंग वह ही करता रहता । मुन्नी राजू पर नाराज भी होती ‘‘भैया ये आपको पदा रहा है…इसके साथ क्यों खेलते हो…’’ । राजू कुछ नहीं बोलता ।
‘‘तुम्हारी कोई पुरानी कापी हो तो मुझे देना…….मेरी कापी पूरी भरा गई है…..’’ राजू उससे निवेदन करता ।
‘‘हाॅ है तो……अच्छा पहिले मेरी गेंद उठाकर ला….’’ । पारितोष जानबूझकर गेंद को नाली में फेंक देता । राजू चुपचाप नाली में से गेंद निकाल कर उसे दे देता । इसके
बदले में कभी कभी उसे एकाध पुरानी कापी मिल जाती जिसमें कुछ कोरे पेज होते । राजू उन पेजों को निकाल कर सुई से सिल लेता और अपना होमवर्क करता । ऐसे ही वह कभी कभी रद्दी बेचने वाले की दुकान में चला जाता और रद्दी में से छांटकर कापी के पेज ले आता । रद्दी बेचने वाला उसे कभी मना नहीं करता था । राजू मुन्नी के लिये भी ऐसे ही कापी बनाता और उसे पढ़ाता भी । मुन्नी उसकी हर बात मानती और ध्यान से पढ़ती भी ।
बड़े सेठ के घर की लाईटिंग दोनो देख रहे थे ‘‘भैया ये पटाखे कब फोड़ेगें’’ । मुन्नी को पटाखों को लेकर बहुत उत्सुकता थी ।
‘‘ये लोग अभी घर में पूजन करेगें फिर पटाखें फोड़ेगें…’’ । राजू ने शांतभाव से उत्तर दिया ।
‘‘पूजन क्यों करते हैं भैया’’ । मुन्नी को पूजन के बारे में नहीं मालूम था ।
‘‘आज दीपावली है न दीपावली पर पूजन करने से लक्ष्मी जी प्रसन्न होती हैं और रूपया-पैसा देती हैं’’ राजू ने उत्साहीन ढंग से मुन्नी को समझाया ।
‘‘भैया हम पूजन क्यों नहीं करते…….पूजन करेगें तो हमारे घर भी बहुत पैसा आ जायेगा फिर हम भी नये कपड़े पहिनकर पटाखें फोड़ेगें…….चलो न भैया हम भी पूजन करें’’
‘‘पूजन करने के लिये बहुत सारा सामान चाहिये होता है हमारे पास नहीं है न इसलिये हम पूजन नहीं करते…….तुम चुपचाप बैठी रहो …..मुझे परेशान मत करो’’ । राजू और दुखी नहीं होना चाह रहा था ।
बड़े सेठ के घर पूजन समाप्त हो चुकी थी । पारितोष बाहर निकल आया था उसके पीछे नौकर बड़ी सी टोकरी में ढेर सारे पटाखे लेकर आ रहा था । पारितोष ने घमंड भरी निगाहों से राजू को देखा । राजू ने सिर नीचा कर लिया । मुन्नी के चेहरे पर प्रसन्नता के भाव उभर आये थे ।
पारितोष जानबूझकर उनकी ओर ही पटाखे चला रहा था । एक पटाखा मुन्नी के बिल्कुल पास आकर गिरा । राजू ने झटके से मुन्नी को दूर कर लिया था । पारितोष जोर से हंसा । वे दोनों कुछ ओर दूर जाकर बैठ गए । पारितोष हाथ में फुलझड़ी लेकर उनके पास आया ‘‘ले ….ले…’’ । मुन्नी ने अपना हाथ बढ़ाया तो उसने झट से अपना हाथ ऊंचा कर लिया ‘‘ले……लेना…’’ । फिर उसने जलती हुई फुलझड़ी को राजू के सिर के ऊपर से घुमाना शुरू कर दिया । मुन्नी डर गई पर राजू चुपचाप रहा आया । पारितोष पटाखे फोड़ता और राजू दौड़कर कचरे को उठाकर कचरा पेटी में डाल देता ।
पारितोष ने जिस राकेट को राजू की ओर करके छोड़ा था वह जाने कैसे उनकी पटाखों की टोकरी के ऊपर आकर गिर गया । पटाखों के ढेर में आग लगते ही सारे पटाखे फूट कर यहां वहां बिखरने लगे । एक पटाखा पारितोष के ऊपर भी आकर गिरा । वह घबरा गया जोर से चिल्लाया । राजू सारा दृश्य देख रहा था । उसने जैसे ही पारितोष को चिल्लाते हुए देखा वह उसकी ओर दौड़ा । पारितोष को गोदी में उठाकर वह उसी पेड़ के पास ले आया था जहां मुन्नी बैठी थी । पारितोष उसे कृतज्ञता भरी निगाहों से देख रहा था । पारितोष जानता था कि यदि राजू ऐसा नहीं करता तो उसे और चोट आ जाती ।
पारितोष के दोनों हाथ जल गए थे । उसे अस्पताल में भर्ती कराया गया ।
‘‘देख मुन्नी इसिलये तो हम पटाखें नहीं चलाते’’ कहते हुए राजू ने मुन्नी को अपनी गोद में सुला लिया था । मुन्नी उसकी गोद में लेटे लेटे सपने देख रही थी ।
महाराणा प्रताप वार्ड, गाडरवारा
जिला-नरसिंहपुर म.प्र.
मो. 9424365898
————————–
हर प्रसाद रोशन
बाल दिवस
सर्द हवा अब चली-चली,
ठंड गुलाबी भली-भली।
माह नवंबर आया है,
बाल दिवस है गली-गली।
जन्मदिन नेहरु जी का,
उत्सव है बहुत खुशी का।
बच्चों के मन हर्षित हैं,
शमा खुशी की जली-जली।
बाल प्रेम उनका ऐसा,
आता है याद हमेशा।
हर बच्चा उनको प्यारा,
शंकर हो या अली-अली।
बाल दिवस बच्चों का दिन,
खुशी अधूरी इसके बिन।
लेकिन बाल श्रम की बला,
नहीं अभी तक टली-टली।
-वार्ड नं 27, गांधी नगर हल्द्वानी नैनीताल। उत्तराखंड।
263139
मोबाइल नंबर
9837754963
9027866179
राजकुमार जैन राजन
फिर आई दिवाली
भाई देखो, गया दशहरा
फिर आई है दीवाली
पापा मन मैं सोच रहे हैं
हुई जेब है अब खाली।
इस कोरोना के आगे हारे
एटम बम,चकरी व अनार
आएगा फिर एक साल में
दीपों का ऐसा त्यौहार।
चलते थे राॅकेट-पटाखे
कहीं चलें थीं फुलझड़ियां
घर-घर सजी हमें मिलती थीं
नन्हे बल्बों की लड़ियाँ।
और छतों की मुंडेरों पर
देखा करते दीप- कतार
लगता जैसे आसमान में
टिम टिम चमकें तारे यार।
नन्हे – नन्हे दीपक जलते
लगते कितने हैं प्यारे
इस नन्हे दीपक के आगे
घोर अँधेरा भी हारे।
मम्मी घर में बना रही हैं
तरह-तरह के अब पकवान
हम तो छककर सब खाएंगे
किंतु न होंगे अब मेहमान।
संध्या को सब मिलजुल करके
करें लक्ष्मी की पूजा
जगमग होगा शहर हमारा
और नहीं होगा दूजा।
■
जलते दीपक
तूफ़ानों में जलते दीपक
आंधी में भी पलते दीपक
देखे गंगा की लहरों पर
पानी में है चलते दीपक
कभी कांपते ,कभी चमकते
अंधियारों को चलते दीपक
संग पतंग के कभी हवा मेंB
रहते हिलते-डुलते दीपक।
आगत के स्वागत में हरदम
देहरी पर मुस्काते दीपक
घर-घर मे उजियारा करने
मिट्टी में है ढलते दीपक
चित्रा प्रकाशन
आकोला – 312205 (चित्तौड़गढ़) राजस्थान
मोबाइल : 9828219919
ईमेल: [email protected] Com
—————–
अलका प्रमोद
हाथी का गुस्सा सक्षम आज बहुत खुश था आज उसकी टीचर ने बताया था कि अगले रविवार को उसकी कक्षा के बच्चों को पिकनिक पर ले जाया जाएगा।वह स्कूल से लौट कर घर आते ही सीधे ‘मम्मी मम्मी’पुकारता हुआ रसोई में पहुंचा, जहाँ मम्मी उसके लिये नाश्ता बना ही थीं। मम्मी ने उसे देख कर पूछा ‘‘ क्या बात है मेरा बेटा बड़ा खुश लग रहा है ’’? ‘‘मम्मी आप को पता है, टीचर ने बताया है कि रविवार को हम सब बच्चे पिकनिक पर जाएंगे’’सक्षम ने खुश हो कर कहा। ’’अच्छा तो इसीलिये इतना खुश है मेरा बेटा’’मम्मी ने उसे प्यार करते हुए कहा। ‘‘मम्मी उस दिन हम खूब सारी चाकलेट,पिट्जा और चाउमीन ले जाएंगे’’ सक्षम ने उत्साह से कहा। मम्मी ने हँस कर कहा ‘‘ ठीक है मैं अपने बेटे को ढेर सारी चीजें पिकनिक के लिये दूंगी’’। रविवार को सक्षम सुबहपाँच बजे ही उठ गया।उसने मम्मी के कमरे में जा कर कहा‘‘ मम्मी जल्दी उठो आज हमे पिकनिक जाना है आप नाश्ता नही बनाएंगी क्या?’’ मम्मी ने घड़ी देखी तो उसमें पाँच ही बजे थे उन्होने कहा ‘‘अरे अभी बहुत जल्दी है बेटा, कुछ देर बाद उठना’’। पर सक्षम को नींद कहा आती वह मम्मी को जगा कर ही माना।टीचर ने नौ बजे स्कूल पहुँचने को कहा था ।रोज तो बड़ी मुश्किल से सक्षम स्कूल के टाइम पर पहुँच पाता था, पर पिकनिक वाले दिन वहनौ बजने में पन्द्रह मिनट पर ही स्कूल पहुँच गया।जब सब बच्चे और टीचर आ गये तो,वह सब एक बस में बैठ कर ज़़ू गये। टीचर ने पहले ही कह दिया था कि कोई बच्चा जू़ के जानवरों को परेशान नही करेगा और न ही वहाँ गंदगी करेगा। जानवरों को देख कर बच्चों को तो मज़ा ही आ गया।सक्षम अपने दोस्त अंशुमान, शलभ,मयंक और ललित के साथ घूम रहा था।तभी मयंक ने कहा ‘‘ अरे वाह वो देखो कुक्कू बन्दर’’ । सब बच्चे कुक्कू बन्दर के कटघरे के सामने दौड़ कर पहुँच गये।शलभ ने जोर से कहा‘‘ हू……..’’ तो बन्दर एक जगह से दूसरी जगह कूदते हुए चिल्लाया ‘‘ हू….’’ बच्चों को तो मजा आ गया,सभी बच्चे हू हू हू कह कर कुक्कू बन्दर को छेड़ने लगे।कुछ देर तो बन्दर नकल करता रहा फिर वह गुस्सा हो कर उनके ऊपर झपटने लगा।पर वो तो जाली के कटघरे में बन्द था, बाहर नही आ सकता था।अतःअन्दर से ही अपना गुस्सा दिखाता रहा। तभी उनकी टीचर आ गई ,उन्होने जब बच्चों को कुक्कू बन्दर को परेशान करते देखा तो मना किया और समझाया कि अगर सभी लोग उन्हे इस तरह परेशान करेंगे तो वो बीमार पड़ जाएंगे। टीचर को देख कर सब बच्चे सज़ा के डर से चुप हो गये । तभीसक्षम ने अपने दोस्तों से कहा ‘‘ चलो टीचर से दूर चलो तो एक मजे़दार चीज दिखाऊं’’। उसके चारों दोस्त आगे तेज तेज चलते हुए टीचर की आँखों से दूर चले गये।सक्षम पिकनिक के लिये सबसे छिपा कर कुछ दीवाली के बचे पटाखे लाया था ।उसने शलभ को बताया तो उसे तो मज़ा ही आ गया। उन्होने एक तेज आवाज करने वाला बम जलाया। उसके तेज धमाके से पूरा ज़ू गूँज उठा ।सारे जानवर डर गये। चिड़ियां तोते डर से उड़ने लगे और चिल्लाने लगे।कुछ जानवर अपने दड़बे में दुबक गये।जानवरों को डरते देख कर बच्चों को मजा आ गया,इससे पहले कि कोई उनको रोकता उन्होने दूसरा बम जला दिया।वहीं थेाड़ा आगे एक हाथी घूम रहा था।बमों की आवाज से वह भड़क गया और गुस्से से इधर उधर दौड़ने लगा उसने कुछ पेड़ तोड़ दिये और फिर अपना बाड़ा तोड़ कर लोगों के बीच में आ गया। गुस्साए हाथी को देख कर लोगों में दहशत फैल गई सब डर के मारे भागने लगे।इस भगदड़ में छोटे बच्चे गिर गये।किसी के चोट लगी तो कुछ छोटे बच्चे अपने मम्मी पापा से अलग हो गये।सक्षम का दोस्त मयंक दौड़ते दौड़ते गिर गया । उसके पीछेही हाथी दौड़ता आ रहा था, वहउसके बिल्कुल पास आ गया।हाथी उसको अपने पैर से कुचलने जा ही रहा था कि ज़ू के कर्मचारियों नेउसे खंीच कर बचा लियाऔर किसी तरह हाथी को इंजेक्शन लगा कर वश में किया।तब भी इस खंीचातानी में मयंक गिर पड़ा, उसका सिर फट गया और वह बेहोश हो गया। उसे तुरंत सब लोग अस्पताल ले गये।सभी लोग भगवान से प्रार्थना कर रहे थे कि मयंक ठीक होजाये। जब मयंक को होश आया तो सबने चैन की साँस ली ।सक्षम डर के मारे सहमा एक कोने में दुबका खड़ा था उसने तो सोचा भी न था कि उसके इस खेल का यह परिणाम होगा। अब टीचर ने पूछा ‘‘ पटाखा कौन लाया था?’’ यह सुन कर सब बच्चे सक्षम की ओर देखने लगे।सक्षम घबरा कर सिरझुका कर ,खड़ा हो गया। टीचर ने कहा ‘‘ मैने कहा था न कि किसी जानवर को परेशान मत करना,अब देखा तुमने कि जानवरों को परेशान करने का क्या परिणाम हुआ’’? ‘‘ तुम्हे पता नही है कि हाथी शोर सुन कर गुस्सा हो जाता है और जबवह गुस्सा हो जाता है तो वह अपनी ताकत से तबाही मचा देता है।’’ शलभ ने कहा ‘‘ जीमैम वो तो आज देख लिया’’। ‘‘अगर तुम्हे ऐसे कोई परेशान करे तो तुम्हे कैसा लगेगा,आज तुम लोगों कीशरारत से तुम्हारे दोस्त की जान भी जा सकती थी’’?टीचर ने कहा। सक्षम ने कहा ‘‘ टीचर जी सॅारी, अब मैं सबकी बात मानूंगा अब किसी जानवर को परेशान नही करूँगा’’। टीचर ने कहा ‘‘तुम्हे अपनी गलती का अनुभव हो गया है इसलिये हम तुम्हे माफ कर रहे हैं पर वादा करो कि कभी ऐसी गलती नही करोगे’’। टीचर के माफ करने से सक्षम की जान में जान आई, उसनेकान पकड़ कर उठक बैठक करते हुए कहा ‘‘ कभी नही कभी नही’’। उसकी इस हरकत पर सब हँस पड़े और सब बच्चों ने वादा किया कि वो कभी किसी जानवर को परेशान नही करेंगे। 5/41 विराम खण्ड , गोमती नगर,लखनऊ-226010 मो0 सं0 09839022552
चक्रधर शुक्ल
बचपन बीत गया
लुका छिपी के खेल निराले
झूमें,नाचें,गायें गवाले
बाबा जी बस हमें पुकारें
मम्मी ढूँढ ढूँढ कर हारें
पहले हारा फिर जीत गया
पल में, बचपन बीत गया।
जामुन औ’आम न बच पाते
जब हम पेड़ों में चढ जाते
संगी-साथी जी भर खाते
रोज डॉट हम घर में पाते
गुस्से में , माली पीट गया
पल में, बचपन बीत गया।
याद आ रहे आज हमें फिर
न्यारे- प्यारे दिन बचपन के
पापा बने, बने हम दादा
थानेदार बने उस पन में
गाते रहते थे, गीत नया
पल में, बचपन बीत गया ।
दौडे खूब गिलहरी
दूर प्रदूषण हुआ धरा का
चिडियाँ छत पर आयीं
मोर नाचते बागों- बागों
तितली मन को भायीं ।
पितृपक्ष में कौवै छत पर
दौडे खूब गिलहरी
गमलों के पौधे फिर फूले
मगन हो गये शहरी ।
नदियों में आ गयी रवानी
देख कृषक हरषाये
धुले पहाड़, शेर जंगल से-
गाँव-शहर तक आये।
कोरोना मेंघर में रहकर
छत पर पेड़ लगाये
रिश्तों में अपनापन पाया
काढा पी मुस्काये ।
– एल आई जी-1
सिंगल स्टोरी
बराॅ-6 कानपुर-208027
मो-9455511337
– महावीर रवांल्टा
जिद
एक थी शिवानी। मम्मी-पापा की लाडली।वह घर की इकलौती बेटी थी इसलिए मम्मी-पापा उसे बहुत प्यार करते थे। लेकिन उनके लाड़- प्यार के कारण वह दिनों दिन जिद्दी होती जा रही थी।बात- बात पर गुस्सा,रुठना और किसी भी चीज के लिए जिद करना उसकी आदतें बनती जा रही थी।उसकी इन बुरी आदतों के कारण मम्मी-पापा चिन्तित थे।वे उसे बहुत समझाते।शिवानी कुछ दिन ठीक रहती फिर वैसी ही हरकतें करने लगती।उसका बर्ताव देख मम्मी-पापा को बहुत दुःख होता।
एक दिन उसने समोसा खाने की जिद की।घर में नाश्ता बन रहा था।मम्मी ने उसे समझाया- ‘ बेटी, नाश्ता बन चुका है।इसे खा ले।कल तुम्हारे पसंद का समोसा बनाकर खिला दूंगी।’पर शिवानी कहां मानने वाली थी।
‘ नहीं मम्मी, मैं आज ही खाऊंगी’
पापा ने भी उसे समझाया पर शिवानी टस से मस नहीं हुई।हारकर पापा उसे मम्मी के पास छोड़कर आफिस चले गए। उनके जाते ही शिवानी फिर जोर- जोर से रोने लगी।
‘ रो मत, मैं अपनी प्यारी गुड़िया के लिए समोसा ला देती हूं’ मम्मी जाकर उसकी पसंद का समोसा ले आई और एक तश्तरी में रखकर उसके सामने रख दिया।
शिवानी ने कुछ देर समोसा देखा फिर जोर- जोर से रोने लगी।मम्मी की समझ में कुछ नहीं आया।
‘ शिवानी बेटा, अब क्या हुआ?’
मम्मी ने पूछा।
‘ मम्मी मैं समोसा नहीं चाकलेट लूं गी’ शिवानी ने कहा। सुनकर मम्मी को बहुत गुस्सा आया।वह समोसा शिवानी के सामने छोड़कर भीतर चली गई।
शिवानी रो रही थी तभी कालू की नजर उस पर पड़ी।कालू एक आवारा कुत्ता था जो मोहल्ले में इधर-उधर घूमता रहता था। समोसा देखकर उसके मुंह में पानी आ गया। उसने मौका देखा और समोसा उठाकर सड़क की ओर भागा। शिवानी कुछ करती तब तक वह दूर जा चुका था।वह ठगी सी रह गई।अब मम्मी से क्या कहेगी, सोचते हुए उसे अपने आप पर गुस्सा आने लगा। उसने चुपचाप आंसू पोंछे और फिर कभी जिद न करने की ठान ली।
संभावना-महरगांव, पत्रालय-मोल्टाड़ी, पुरोला, उतरकाशी( उत्तराखंड)249185
मो-8894215441,6397234800,9458350974
ईमेल: [email protected]
आशा शैली
पेंसिल बॉक्स
फिर स्कूल में डाँट पड़ेगी रीना को। होमवर्क नहीं कर सकी थी। क्या बहाना
बनाएगी कल? टीचर सब के सामने बहुत डाँटेगी। शायद बेंच पर खड़ा भी कर दे।
कई दिन से यह हो रहा था, पर वह क्या करे। यही सब सोचते हुए वह गली के
कोने तक आ गई। अचानक ही उसकी आँखें चमक उठीं।
ये क्या है वहाँ मोड़ पर? सामने गुलाबी रंग का एक चमकदार प्लास्टिक का
डिब्बा पड़ा हुआ था। रीना ने दौड़कर उसे उठाया, शायद किसी का लंच बॉक्स गिर
गया है। इधर-उधर देखा तो गली में कोई दिखाई नहीं दिया। रीना ने डिब्बा
अपने बैग में डाल लिया और घर आ गई।
उसने अपना स्कूल बैग रखा और हाथ-मुँह धोने चली गई। उसे याद ही नहीं रहा
कि उसे गली में कुछ मिला है। तब तक माँ ने खाना निकाल दिया था।
‘‘माँ! लाया मेरा पेंसिल बॉक्स?’’ उसने पूछा।
‘‘नहीं बेटा। मालकिन ने पैसे नहीं दिए, कहा है पहली तारीक को ही लेना।’’
‘‘आज फिर टीचर बहुत गुस्सा हो रही थी। मैं कल भी काम नहीं कर सकी
और….।’’ वह रुआंसी हो रही थी, ‘‘आज भी बहुत होमवर्क मिला है। कैसे
करूँगी, बताओ?’’
‘‘लाओ मुझे दिखाओ। शायद मैं कुछ मदद कर सकूँ, बिना रबड़ और स्केल के।’’
रीना खाना खा चुकी थी। हाथ धोकर अपना स्कूल बैग उठा लाई। उसकी माँ दो
घरों में झाड़ू-पोंछा करती थी पर इतना तो पढ़ी थी कि उसकी सहायता कर सके।
बैग खोलते ही रीना को वह डिब्बा याद आ गया, ‘‘ये क्या है रीना?’’ माँ ने
पूछा तो उसने सच-सच बता दिया। अब रीना की माँ ने डिब्बा खोला तो उसका
चेहरा मारे गुस्से के भभकने लगा। रीना भी माँ को गुस्से में देखकर डर
गई। वह तो पेंसिल बॉक्स था, ‘‘अच्छा! तो अब तू चोरी करने लगी है और झूठ
भी बोलने लगी है? मैं गरीब जरूर हूँ पर चोर नहीं। सच बता किस दुकान से
उठाया है? मैं वापस करके उससे माफी माँग कर आती हूँ, अभी के अभी।’’
‘‘नहीं माँ! मैं सच कह रही हूँ, तुम्हारी कसम। यह मुझे गली के मोड़ पर पड़ा
मिला है। सच्ची माँ। मैं झूठ नहीं बोल रही।’’ रीना रोने लगी तो उसकी माँ
को विश्वास हो गया। क्योंकि इससे पहले भी रीना ने कभी चोरी नहीं की थी।
‘‘अच्छा चल अब तो काम चला ले इसी से, बस चोरी कभी मत करना।’’ माँ ने उसके
आँसू पोंछे तो उसने भी हाँ में सिर हिलाया।
दूसरे दिन उसने पिछला काम भी करके टीचर को दिखाया था, टीचर खुश हो गई।
बारी-बारी सभी बच्चे अपना होमवर्क टीचर को दिखा रहे थे। पर आज उमा सबसे
पीछे बैठी सुबक रही थी। टीचर ने आवाज़ लगाई, ‘‘उमा! तुम्हारा होमवर्क कहाँ
है? लाओ।’’
उमा आँखें पोंछते हुए उठी और अपनी कॉपी टीचर को पकड़ा दी। टीचर ने पन्ने
पलटते हुए उमा को देखा और गुस्से से बोली, ‘‘एक तो काम पूरा नहीं करके
लाई और ऊपर से रोकर दिखा रही हो। काम पूरा क्यों नहीं किया।’’
‘‘टीचर जी! मेरा पेंसिल बॉक्स कल कहीं गिर गया और मुझे ढूँढ़ने पर भी नहीं
मिला। पापा से कह दिया था, वे आज दूसरा ला देंगे। आज के लिए सॉरी।’’
उमा रीना की गली में ही रहती थी। अभी टीचर ने कुछ कहा भी नहीं था कि रीना
ने झट से अपने बैग से पेंसिल बॉक्स निकाला और आगे जाकर उमा से पूछा,
‘‘उमा, कहीं यह तो नहीं तुम्हारा बॉक्स?’’
‘‘अरे हाँ! हाँ। यही है, तुम्हें कहाँ से मिला यह?’’
‘‘कल जब मैं स्कूल से वापस जा रही थी तो यह गली में पड़ा मिला शायद
तुम्हारे बैग से गिर गया हो। लो, अपना पेंसिल बॉक्स।’’ उसने डिब्बा उमा
को देते हुए कहा।
टीचर बड़े ध्यान से उसे देख रही थी। उसे पता था कि रीना की माँ को पैसे की
तंगी है और रीना के पास कब से पेंसिल बॉक्स न होने के कारण उसे रोज क्लास
में अपमान सहना पड़ता है फिर भी उसने हाथ आई चीज़ को खुशी-खुशी वापस लौटा
दिया। टीचर ने रीना को पास बुलाकर प्यार से उसके सिर पर हाथ रखा, ‘‘शाबाश
रीना। मुझे तुम पर गर्व है। दूसरे की चीज़ लौटा देना बहुत अच्छी बात होती
है। यदि तुम इसे नहीं लौटातीं तो भी कोई अपराध नहीं था, क्योंकि तुमने
चोरी तो नहीं की। पर यह ईमानदारी भी इनाम के योग्य है। तुम्हारे लिए
पेंसिल बॉक्स कल मैं लेकर आऊँगी। अपनी माँ से कह देना।’’
– सम्पादक शैलसूत्र
इन्दिरा नगर-2, लालकुआँ
जिला नैनीताल-262402
मो 7055336168-7078394060
– इंजी. अरुण कुमार जैन
सूरज आया, आस भी लाया…..
सुबह-सुबह दुनियाँ में आते, रोज अंधेरा दूर भगाते,
तुम्हें देख सब चेतन होते, आलस निद्रा दूर भगाते।
पौधे पत्ते वृक्ष लतायें, नव जीवन नित पाते हैं,
नदिया, झरने पशु-पक्षी सब, आनंद से भर जाते हैं।
ठिठुरी, सहमी आकुल धरती, तपन से उन्माती है,
सूरज आया, आस भी लाया, धरती गान सुनाती है।
नया अंकुरण, नयीं कोपलें, तुम्हें देखकर आती हैं,
कलियाँ खिलतीं, चिड़िया गातीं, तितली रूप सजाती है।
निंदिया जाती, आलस जाता, रोम-रोम पुलकित होता,
दूर गगन में ही आते हो, सारा जग हर्षित होता,
सभी काम करते, फिर उठकर, अपनी मजिल पाते है।
जब जाते हो वापिस दादा, हम सब भी थक जाते हैं।
प्रेरक, संबल इस दुनियाँ के, इसी तरह हर दिन आओ,
नित करने, आगे बढ़ने का, पाठ सभी को सिखलाओ।।
अवरोधों में आगे…..
इठलाती बलखाती आती, दूर पहाड़ों से हो गाती,
जंगल पेड़ तुम्हारे साथी, जलचर की माँ तुम कहलाती,
जब मैदानों में आती हो, शांत, सौम्य तुम बन जाती हो,
पशु, पक्षी मानव सुख देती, वन, उपवन को जीवन देती,
हर वह प्राणी खुश होता है, जिनको साथ तेरा होता है
प्राणदायिनी, जीवन रेखा, तुमने नित जग का सुख देखा,
और अंत में सागर साथी, जिसमें तुम सागर बन जाती।
इसी तरह बस बहते जाना, सारे जग को सुख पहुचाना,
हम भी सीखें तुमसे चलना, सारी दुनियाँ को सुख देना
अवरोधों में आगे बढ़ना, मन को शांत व शीतल रखना।।
भोपाल, फरीदाबाद (हरियाणा)
डॉ. इबरार खान
किताबों की दुनिया
किताबें-किताबें बहुत सी किताबें
ये किताबों की दुनिया
ये खुशियों की दुनिया
किताबें हैं हमको सैर करातीं
कश्मीर-कन्याकुमारी बतातीं
किताबें संस्कृति क्या है बतातीं
सोचना-समझना तर्क करना सिखातीं
किताबें खाना बनाना सिखातीं
साफ रहना और काम करना
आपस में मिलजुलकर रहना सिखातीं
किताबों की संभावनाएं अनंत हैं
किताबों की उपयोगिताएं अनंत हैं
किताबों को पढना ही चाहिए हमको
किताबों को पढना ही चाहिए हमको
——————–
रावेंद्रकुमार रवि
ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
दीवाली पर दीप जले कुछ ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
मम्मी की गोदी में छोटा भइया हँसता जैसे!
दीवाली पर हँसी फुलझड़ी ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
पापा के काले चश्मे में सूरज चमके जैसे!
दीवाली पर बम छूटे कुछ ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
मन में मीठी बूँदीवाले लड्डू फूटें जैसे!
दीवाली पर रॉकेट भागा ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
बिल्ली से डर मोटा-मोटा चूहा भागे जैसे!
दीवाली पर खिली खील कुछ ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
दिल में ख़ुशबूवाला फूल ख़ुशी का फूले जैसे!
दीवाली पर मची गुदगुदी ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
लहर सरसती उठ-उठ गिर-गिर किसी नदी में जैसे!
दीवाली पर महक उड़ी कुछ ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
छुट्टी हो तो दौड़ लगाकर बच्चे भागें जैसे!
दीवाली पर चकई नाची ऐसे, ऐसे, ऐसे … … .
गुटरूँगूँकर चक्कर काट कबूतर नाचे जैसे!
राजकीय इंटर कॉलेज, चारुबेटा,
खटीमा, ऊधमसिंहनगर (उत्तराखंड) – 262308.
मेबाइल नंबर – 9897614866, 8384865558.
ई-मेल – [email protected]
कीर्ति जायसवाल
दीपक की व्यथा
‘दीया’ नाम क्यों दिया
जो कहता ‘तूने है क्या दिया?’
हाँ! जलता तब रोशन करता
पर जग से न जलता।
हाँ! कमी कहो कि ‘अंधकार से
है परहेज़ मुझको’;
हाँ! कमी कहो ‘मेरी लौ में
जीर्ण प्राण गँवाते हैं’।
हाँ! कमी कहो ‘बिन प्रेम तेल
अस्तित्व गवाँ जाता’;
वायु में अस्तित्व बनाए
जलता रहता हूँ।
हाँ! कमी कहो कि ‘तीव्र वायु में प्राण बचा न पाता’;
हाँ! कमी कहो ‘स्वतल नीचे न
रोशन कर पाता’।
इतनी कमी तो मेरा क्यों
उपयोग करते हो?
पूजा में ट्यूबलाइट जला लो;
घी की बाती उसे लगा दो
दीवाली में भी तो ट्यूबलाइट का
इस्तेमाल करते हो।
सूँड़
एक हाथी के दो थे बच्चे;
दोनो अच्छे; दोनो सच्चे;
अंग – अंग था उनको प्यारा;
सूँड पर अपनी गुस्सा आता;
उन्होंने उस पर आग लगाई;
आग लगी और आँख भर आई।
जलने लगी सूँड़ तेज- तेज;
रोने लगे वो तेज- तेज;
गए भागते मम्मी के पास;
माँ से बताई सारी बात;
माँ ने सारी आग बुझायी;
गणपति की भी बात बतायी;
‘पूजे जाते; सूँड़ है साथ’;
अब तो उनको सूँड़ ही खास;
माँ ने सूँड़ में पानी डाला;
सूँड़ में फिर कुछ ठंडक आया;
बच गई सूँड़ जलने से पहले;
बच गए वो मरने से पहले।
प्रयागराज
सुमन कुमार
गिरगिट
‘उठिए जी, उठिए। दोपहर हो चली है। बाल दिवस के कार्यक्रम में नहीं जाना क्या? जाएंगे नहीं तो फोटो कहां से खिंचवाएंगे और फोटो के बिना सोशल कम्युनिटी पे क्या डालेंगे?’ काबिल पत्नी ने बेसुध मंत्री जी को झकझोरते हुए कहा।
‘अरी भाग्यवान! थोड़ी देर और सो लेने दो।” नींद में गाफिल मंत्री जी को कुछ सुध ही नहीं थी। पत्नी फिर भुनभुनाई, ‘अरे! सोते रहोगे तो तुम्हारी नेतागीरी तेल लेने चली जाएगी।’
‘ओ हो! ये नेतागीरी भी ना…! कभी-कभी जी का जंजाल लगने लगती है। खैर, जाओ बंटी से बोलो कि झटपट गाड़ी साफ करे।’
न चाहतेे हुए भी मंत्री जी को गाड़ी में बैठकर कार्यक्रम स्थल की ओर निकल जाना पड़ा। उनका नौ साल का सेवक उदास नजरों सेे गाड़ी की और देखता रहा।
रास्ते में झुग्गी- झोपड़ी के बच्चों को खेलते देख मंत्री जी ने ड्राइवर से गाड़ी रोकने को कहा। और फिर…!
– ‘परफेक्ट सर…,ऐसे ही! वाह…क्या बढ़िया पोज है। हां…हां…हो गया।’ फोटोग्राफर की तारीफ खत्म भी नहीं हुई, उससे पहले मंत्री जी गाड़ी में समा चुके थे।
तस्वीरें अपलोड करते हुए उन्होंने लिखा, ‘सबको बाल दिवस की शुभकामनाएं! बाल श्रम के खात्मे के लिए हमेें यह संकल्प लेना चाहिए कि न खुद बाल श्रम कराएंगे और ना ही किसी को ऐसा करने देंगे।’
इधर, सेक्रेट्री ने मंत्री जी के पेज पर नजर डाली और बुदबुदाया, ‘खुद घर में बच्चा नौकर रखकर नेतागीरी कर रहा है।’ फिर देखा कि मंत्री जी उसे घूर रहे हैं तो झटपट लाइक का बटन भी क्लिक कर दिया।□□□
साइकिल की सवारी
साइकिल के दो पहिए गोल,
चलती बिन डीज़ल-पेट्रोल।
दीदी भईया सभी चलाते,
छात्र चला स्कूल हैं जाते।
कम रुपए में ही मिलती है,
प्रदूषण मुक़्त ही चलती है।
तेरी है मज़बूत कहानी,
पर्यावरण की निशानी।
बड़ी गाड़ियाँ जाम में फ़ंसती,
पर तू इधर-उधर निकलती।
साइकिल के दो पहिए गोल,
चलती बिन डीज़ल-पेट्रो।
अगर है सेहत बनानी तुझे,
पैंडिल मारो ख़ूब मुझे।
साइकिल के दो पहिए गोल,
चलती बिन डीज़ल-पेट्रोल।
●पत्राचार : द्वारा नरेश राय, देवी स्थान, मोहनपुर, पुनाईचक, पो.- शास्त्रीनगर, पटना- 800023 (बिहार)
●मोबाइल नंबर : 7488272208
●ई-मेल : [email protected]
डॉ विनीता राहुरिकर
आतिशबाजी
सौरभ सुबह से ही उदास और मुंह लटकाकर बैठा था. माँ का ध्यान अपने काम के बीच में भी उस पर था. उन्होंने जल्दी-जल्दी काम निपटाए ताकि सौरभ के पास बैठकर उसे बहला सकें. काम पूरा करके माँ सौरभ के पास आकर बैठी.
“क्या बात है बेटा इतने उदास क्यूँ हो?” माँ ने प्यार से उसके सर पर हाथ फेरते हुए पूछा.
“देखो न माँ आज दीपावली है और इस साल भी पापा ने मुझे फटाके नहीं दिलाये. मेरे सारे दोस्त दीपावली में कितने सारे फटाके छूडाते हैं. आतिशबाजी चलाते हैं, और एक मैं हूँ कि बस आस-पडौस में होने वाली आतिशबाजी को ही देखता रह जाता हूँ.” आठ वर्षीय सौरभ रुआंसा सा होकर बोला.
माँ उसकी चाहत समझ रही थी. बच्चा है, उसके मन में फटाखों के लिए ललक उठाना स्वाभाविक ही है.
“ और तो और पिताजी खुद भी दीपावली की रात तीन-चार घंटों के लिए पता नही कहाँ चले जाते हैं. न आतिशबाजी चलाने देते हैं और न कहीं घुमाने ले जाते हैं.” सौरभ मायूस होकर बोला.
माँ एक गहरी साँस लेकर रह गयी. बेटा भी अपनी जगह सही है और उसके पिताजी भी. लेकिन इतने छोटे बच्चे को समझाया भी क्या जाये. पर अब वो आठ बरस का हो गया है. समझदार भी बहुत है, अब वो सारी बातें समझ सकता है. आज इसके पिताजी से बात करुँगी.
शाम को पिताजी ने सौरभ से कहा कि तैयार हो जाये बाहर जाना है. सौरभ थोडा खुश हो गया कि चलो कम से कम शहर की रोशनी तो देखने को मिलेगी. वह जल्दी से तैयार होकर आ गया. पिताजी ने कार निकाली और उसे साथ लेकर चल दिए. सौरभ कार की खिड़की से झांककर शहर की जगर-मगर रौशनी को कौतुहल से देखने लगा. हर तरफ से बम धमाकों की आवाजें आ रही थीं. कहीं अनार छुट रहे थे तो कहीं फुलझड़ियाँ. सौरभ आँखें फैलाये देख रहा था. ऐसा लग रहा था कि जैसे रात में भी दिन हो गया हो. हर घर पर बिजली की लड़ियाँ जगमगा रहीं थीं. वह शहर की चकाचौंध देखकर आश्चर्य चकित हो गया.
तभी पिताजी ने एक होटल के आगे कार रोकी. सौरभ ने सोचा शायद आज वे दोनों होटल में खाना खायेंगे. लेकिन तभी होटल वाले ने तो ढेर सारा पैक किया हुआ खाना लाकर कार में रख दिया. सौरभ को बहुत आश्चर्य हुआ-
“ पिताजी इतना सारा खाना? इतना सारा खाना कौन खायेगा? ये सब किसके लिए है?”
“चलो तो सही. अभी पता चल जायेगा.” पिताजी बोले.
पिताजी ने दुबारा कार स्टार्ट की और आगे बढ़ गये. थोड़ी ही देर बाद गाड़ी शहर के एक सुनसान इलाके की ओर बढने लगी. शहर की जगमगाहट पीछे छूटती जा रही थी और धीरे-धीरे अँधेरा गहराता जा रहा था. सौरभ इस ओर कभी नहीं आया था. थोड़ी ही देर बाद पिताजी ने एक एकदम सुनसान बस्ती में जाकर कार खड़ी की. सौरभ डर गया कि आज के दिन पिताजी इस बस्ती में क्यों आये हैं. बस्ती के घरों में और पास बने चबूतरे पर बहुत ही मध्हम पीले रंग के बल्ब टिमटिमा रहे थे. घरों के दरवाजों पर मिट्टी के साधारण से दीये जल रहे थे. पिताजी ने कार से उतरकर उसे भी उतरने के लिए कहा. फिर उन्होंने चबूतरे पर बैठे दो लोगों को बुलाया और कार से सारा खाना निकलवाकर चबूतरे पर रखवाया. सौरभ ने देखा पूरी, सब्जी, गुझिया और तरह-तरह की मिठाइयाँ, नमकीन थे खाने में. देखते ही देखते बच्चे, बूढ़े, औरतें सब इकठ्ठा हो गये. सौरभ ने देखा वे लोग अत्यंत ही गरीब थे. दीपावली के त्यौहार पर भी उन्होंने फटे-पुराने कपड़े पहन रखे थे. उन लोगों के घर भी बांस की खपच्चियों पर तिरपाल डालकर बनाये हुए थे.
पिताजी ने सबको पेट भर खाना खिलाया. उन लोगों ने शायद ही एक साथ इतना सारा खाना और पकवान देखे होंगे कभी. पेट भर खाना खाने के बाद उन लोगों के चेहरे ख़ुशी से खिल गये. बुजुर्गों ने पिताजी को ढेर सारी दुआएं दी. बच्चों के चेहरे पर भरपेट खाने के बाद इतनी ख़ुशी भरी चमक थी कि उसके सामने शहर की आतिशबाजी भी फीकी लग रही थी. उन मासूम बच्चों के खिले हुए चेहरे सौरभ को बड़े भले लग रहे थे. उसके मन को बड़ा संतोष मिल रहा था. थोड़ी देर बाद पिताजी सब लोगों की बहुत सारी दुआएं और आशीर्वाद लेकर घर वापस लौटने लगे.
“देखा बेटा कितना खुश हो गये वे लोग पेटभर खाना खाकर. ये लोग इतने गरीब हैं कि त्योहारों पर भी इनको फटाखे और नये कपड़े तो छोडो पेट भर खाना भी नसीब नहीं होता है. दीपावली की रात में हजारों रूपये की आतिशबाजी जलाकर राख करने की बजाये भूखे और जरुरतमंदों को खाना खिलाकर उनके चेहरों पर खुशियों के दीप जलाएं जाएँ.” पिताजी ने सौरभ से कहा.
“आपने बिलकुल सही कहा पिताजी.” सौरभ ने पिताजी की बात का समर्थन किया.
“एक बात हमेशा याद रखना बेटा दुनियां में सबसे पुन्य का काम है भूखे को खाना खिलाना. दो पल की रौशनी और धमाकों में रूपये खर्च करने से अच्छा है उन पैसों से किसी की मदद की जाए.” पिताजी ने समझाया “एक और किसी का भला हो जाता है तो दूसरी ओर प्रदुषण की समस्या से भी छुटकारा मिलता है, वरना जितने धमाके उतना वायु और ध्वनी प्रदुषण.”
“मैं समझ गया पिताजी. अब मैं फालतू पैसा खर्च करने की बजाए हर साल आपके साथ यहाँ आकर इन्हें खाना खिलौन्गा.” सौरभ ने प्रसन्नता से कहा.
“शाबास बेटा. सच में तुम बहुत ही समझदार बच्चे हो मुझे तुमसे यही उम्मीद थी.” पिताजी ने उसकी प्रशंसा की.
जब वे घर पहुंचे तो माँ ने टेबल पर तरह-तरह के पकवान सजाकर रखे थे. तीनो खाना खाने लगे. आज सौरभ के लिए खाने का स्वाद कई गुना बढ़ गया था. उन बच्चों के ख़ुशी भरे चेहरे याद करके उसका मन प्रसन्नता से भर गया और पिताजी की कही बात कानों में गूंज रही थी-
“बेटा भूखे को खाना खिलाने से बढकर पुन्य का काम इस दुनिया में कोई नहीं है.”
– राजेंद्र श्रीवास्तव
दीपक एक जलाएँ
सोहन बोला अपनी माँ से बजा-बजा कर ताली
मम्मी अब आने वाली है जल्दी ही दीवाली
ऐसे-वैसे नहीं जिसे जो चाहे वही चला ले
मुझे चाहिए बड़े पटाखे तेज धमाके वाले।
छोटू बोला – दादा भैया होते बुरे पटाखे
कान सुन्न होकर रह जाते सुनकर तेज धमाके
गुड़िया बोली बम पटाखे देख बहुत डर जाती
इसीलिए मम्मी-पापा संग मैं फुलझड़ी चलाती।
सुनकर उन तीनों की बातें मम्मी भी मुस्काई
बोली पहले आओ मिलकर घर की करें सफाई
रद्दी-पेपर और कबाड़ा मैने अभी निकाले
सोहन साफ करो कोनों के तुम मकड़ी के जाले।
हम इस बार अलग हटकर यह दीपावली मनाएँ
नहीं जरूरी बड़े पटाखे या फुलझड़ी चलाएँ
जो गरीब हैं उनके घर में उजियारा फैलाएँ
कपड़े और मिठाई देकर दीपक एक जलाएँ।
विदिशा म.प्र
मोबाइल 9753748806
महेंद्र कुमार वर्मा
बचपन
आओ बचपन याद करें हम ,
थोड़ा सा फरियाद करें हम।
खुशियों वाले मस्त दिनों की ,
आओ जिन्दाबाद करें हम।
टीचर से बचने की खातिर ,
गढ़े बहाने याद करें हम।
बचपन में लड़ते थे जम के
आओ पुनः फसाद करें हम।
बचपन की सारी खुशियों का ,
आओ फिर अनुवाद करें हम।
बचपन के सब खेल याद कर ,
आओ ख़ुशी निनाद करें हम।
द्वारा ,जतिन वर्मा
E 1—1103 रोहन अभिलाषा
वाघोली ,पुणे [महाराष्ट्र]
पिन –412207 मोबाइल नंबर –9893836328
रमेश प्रसून
दीवाली है दीवाली
दीवाली है दीवाली – दीवाली है दीवाली
दीवाली है दिलवाली – आपस में हिलमिल वाली
जगमग जगमग दीप जलाएं
ख़ुशी – ख़ुशी त्यौहार मनाएं
दीवाली दीपों वाली लायी उजली उजियाली
दीवाली है दीवाली – दीवाली है दीवाली
चकरी चक्कर खूब लगाये
हमने कई अनार छुडाए
है झिलमिल लड़ियों वाली – है यह फुलझड़ियों वाली
दीवाली है दीवाली – दीवाली है दीवाली
शुद्ध हवा का ज्ञान रखें
स्वच्छ रहें यह ध्यान रखें
स्वच्छ स्वच्छ बातों वाली लाये घर – घर खुशहाली
दीवाली है दीवाली – दीवाली है दीवाली
दीवाली अपनों वाली
दीवाली सपनों वाली
बुलंदशहर
डॉ वेद मित्र शुक्ल
अंगूर खट्टे हैं..
भूखी-प्यासी एक लोमड़ी
जंगल में टहले बच्चो!
बिन खाये कुछ बड़ी देर तक
कैसे वह रह ले बच्चो!
देखा तब अंगूर लताएं
सोचा चल खाया जाए,
पर, फल ऊँचें लटक रहे थे
कैसे फिर पाया जाए?
उछली-कूदी पाने को पर
फल लटके थे दूर बहुत,
आखिर बोली हार मानकर
खट्टे हैं अंगूर बहुत।
नहीं मिले जो उसकी निंदा
खुद की कमी छिपा करते,
“खट्टे है अंगूर” कहावत
तब ही वे बच्चो! कहते।
— — —
टेढ़ी खीर
नाम नयन सुख था इनका, आँखों से था ना दिखता,
गुजर-बसर खा-पी करते, लोगों से था जो मिलता।
इक दिन मुखिया के घर से मिली खीर की दावत जब,
खीर भला क्या होती है? पूछा इक काका से तब।
काका बोले, “खाने की इक सफेद सी चीज हुई,”
उसने रंग नहीं देखा, उसको बच्चो! खीज हुई।
“कैसा है सफेद?” पूछा, काका बोले, “बगुले सा,”
अँधा क्या जाने बगुला, पूछा, “ये बगुला है क्या?”
मोड़ हाथ निज काका ने बगुले जैसा बना दिया,
छुआ नयनसुख ने, बगुला कैसा होता समझ लिया।
पर, बगुले सम टेढ़ी यदि रही खीर भी जो बच्चो!
कैसे टेढ़ी खीर भला खा पायेगा वो बच्चो!
ऐसा जो पूछा उसने, काका जी बोले हँसकर,
“खाना टेढ़ी खीर सखे! जाकर अब मुखिया के घर|”
“टेढ़ी खीर” मायने है, मुश्किल कामों को करना,
यही कहावत है प्यारे बच्चो! कहना औ सुनना।
राजधानी महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालयराजा गार्डन, नई दिल्ली-110015 मोबा- 9953458727, 9599798727
डॉ अन्नपूर्णा श्रीवास्तव
सजाओ दीप की माला
सजाओ दीप की माला,
हृदय दीपों -सा हँसता है
पिया के बाँहों में तन मन,
सजे दीपो सा रचता है!
सजन की साँवरी सूरत,
गोरी खुद को यूँ भूली,
उदधि लहरों में खोकर ज्यों,
नदी का जल विलसता है!
पिया अरु गोरी मिलकर यूँ,
सजाएँ दीप की लडियाँ,
गगन अरु चाँदनी घुलमिल,
सितारे दीप रचताहै!
बलम की आँख में दीये,
सजनि के प्राण में दीये,
हँसे दीपों- से अंग- अंग युं,
दीवाली मन में बसता है!
प्रिया के तन की अंगराई,
जले दीपों से पी का मन,
नयन में नयन तन में तन,
अधर अधरों में लसता है!
सदा यूँ ही दीवाली में,
सजाएँ दीप मिलकर हम,
पिया जब पास होते हैं,
दीवाली खूब सजता हैं!!!
ओ नई पौध
ओ नई पौध ओ नई उमंग,
ओ नव युग की संतानों!
रच दो तुम इतिहास नया,
खुद अपनी क्षमता पहचानो!
खुद हीं खुद का बन पहरेदार,
तज कुवॄत दुर्बलता सारी।
तुम बदलोगे युग बदलेगा,
बदलेगी व्यवस्था सारी!
नव युग सर्जक शक्तिमान तुम,
कम्पयूटर युग के बच्चे!
खुद हीं खुद बन पथ प्रदर्शक,
चल पड़ो प्रगति पथ सच्चे!
मात-पिता के आँख के तारे,
बनों राष्ट्र उजियारे!
माँ बहनों की लाज के रक्षक,
जन-जन के प्राण प्यारे!
पटना
– आशीष आनन्द आर्य इच्छित
चिड़िया के समझदार बच्चे !!
राधेनगर गांव के बिल्कुल पड़ोस में एक जंगल था। जंगल में छोटे-बड़े कई तरह के जानवर और पक्षी रहते थे। उन ढेर सारे जानवरों में एक चिड़िया भी थी, जो पेड़ पर घोसला बनाकर रहती थी।
रोज सुबह-सुबह वो चिड़िया अपने घोसले से उड़कर जाती थी। फ़िर सब जगह घूम-घूमकर, हर जगह से इकट्ठा करके अपने बच्चों के लिए खूब सारा खाना लेकर आती थी। उस चिड़िया के कई सारे बच्चे थे जो उसी घोसले में रहते थे। अपने प्यारे बच्चों के लिए लाया हुआ सारा खाना चिड़िया वहीं घोसले में छोड़ देती और बच्चों से बोलती कि जिसको जो पसंद आए, वो बच्चा वो चीज खा ले। बच्चों को सब समझाकर, वो फिर अपने काम के लिये घोसले से उड़कर चली जाती।
माँ जब फिर से काम पर चली जाती, तो सारे बच्चे मिलकर थोड़ा-थोड़ा करके सारा खाना खा डालते। फिर भी माँ के लाये हुए इतने सारे में से थोड़ा-बहुत खाना तो रोज ही बच जाता था। तो बच्चे फ़िर क्या करते? जो खाना बच जाता, उसको वो अपने घोंसले से नीचे बाहर फेंक देते थे।
बचा हुआ खाना जब जमीन पर गिरकर पड़ा रहता, तो उसको खाने के लिये खूब सारे छोटे-छोटे कीड़े इधर-उधर से पेड़ के नीचे आ जाते। फ़िर उन छोटे-छोटे कीड़ों को खाने के लिए जंगल के और बड़े-बड़े कीड़े और कई सारे जानवर धीरे-धीरे करके वहाँ घोसले के नीचे, पेड़ के पास इकट्ठा होने लगे।
फ़िर एक दिन जब चिड़िया रोज की तरह खाना इकट्ठा करने के लिए घोसले से उड़कर गई, घोंसले के नीचे इकट्ठा होने वाले उन खूब सारे बड़े-बड़े कीड़ों और छोटे-छोटे जानवरों में से कुछ चिड़िया के घोसले तक जा पहुंचे। उन्हें लगा था जब इतना सारा खाना, रोज़ घोसले के ऊपर से नीचे फेंका जाता है, तो खूब सारा ऐसा ही खाना घोसले के ऊपर भी होगा।
वो सब कीड़े और जानवर तो ऊपर खाना ढूंढने आये थे, पर वहाँ तो केवल चिड़िया के बच्चे रहते थे। इतने सारे छोटे-छोटे जानवरों और बड़े-बड़े कीड़ों को घोसले में आया देखते ही चिड़िया के बच्चे डर करके चीं-चीं, चीं-चीं करके चिल्लाने लगे। इतने में ही बच्चों की चिड़िया-माँ घोसले में वापस लौट आ!
माँ को सामने आया देखकर, अभी तक डरे हुए बच्चे एकदम से खूब खुश हो गए। फिर जैसे ही माँ ने डरे हुए बच्चों को समझाया, सारे बच्चों ने मिलकर घोसले में घुस आए सारे जानवरों और कीड़ों को पीट-पीटकर वहाँ से भगा दिया।
अपने बच्चों की इस बहादुरी पर माँ ने उनको खूब शाबाशी दी। उसके बाद चिड़िया माँ ने अपने उन बच्चों को समझाया, कि बच्चों, अगर तुम लोग ऐसे ही मिलकर काम करोगे, कोई भी तुम लोगों को कभी परेशान नहीं कर पायेगा। पर साथ में ये भी ध्यान रखना कि कभी खाना बर्बाद नहीं किया जाता और कभी भी कचरे वाली गन्दगी को अपने घर के इर्द-गिर्द नहीं फैलाया जाता। इससे गंदे खाने को खाने वाले गंदे जानवर कभी हमको परेशान करने हमारे पास नहीं आते। बच्चे एक बार में माँ की बात समझ गये और फ़िर उस दिन के बाद से कभी कोई कीड़ा चिड़िया के बच्चों को परेशान करने उस पेड़ के ऊपर चढ़कर नहीं आया।
———–
सुनील कुमार ‘सुयश’
मनोबल
सूरज आग बरसाए
तुम जल न जाना
बादल उद्यम मचाए
तुम डर न जाना
तूफां लाख आ जाए
तुम उड़ न जाना
ऊँची लहरें समंदर की
तुम खो न जाना।
तपती धूप में भी
तुम खिलखिलाना
यदि हो बाढ़ का मंजर
ज़रा तुम तैर लेना
पवन उनचास आ जाए
नहीं भयभीत होना
लहरें लाख ऊँची हो
दरिया पार कर लेना।
तुम हो वीरों के वंशज
विपद से क्या घबराना
छाले पाँव पड़ जाए
फिर भी मुस्कुराना
तुममें राम की शक्ति
दरिया-ए पुल बना लेना
तुममें कृष्ण की शक्ति
गोवर्ध्दन उठा लेना।
उठो तो मच जाए हलचल
जगो तो जग जाए अग-जग
समर में दहाड़ ऐसी हो
कि वैरी-वन दहल जाए।
सामने लाख संकट हो
प्रलय ही क्यों न आ जाए
घिरी हो चहुँ-ओर दुःख-बदरी
फँसे हो पाँव कीचड़ में
साहस-शौर्य ही सज्जा
कीच में कमल खिला देना
तुम हो वीरों के वंशज
कभी तुम धैर्य न खोना।
नीलम राकेश
दीप जलाएँ
दिवाली आई
आओ दीप जलाएँ।
पर ठहरो,
पहले जाले हटाएँ।
धो पोछ कर
घर चमकाएँ।
रंग रोगन कर
सुंदर बनाएँ।
फिर चलो
अनार पटाखे लाएँ।
फुलझड़ी चकरी
खूब चलाएँ।
माँ की बनाई
हलवा पूडी खाएँ।
नए कपड़े पहन
मिलने जाएँ।
गले मिल
खुशियाँ लुटाएँ।
दिवाली आई
आओ दीप जलाएँ।
610/60, केशव नगर कालोनी,, सीतापुर रोड, लखनऊ, उत्तर-प्रदेश-226020
दूरभाष नम्बर: 8400477299, [email protected]
डॉ. सुधा गुप्ता ‘अमृता
मैं नेहरू बन जाऊंगा
आओ भाई हम सब खेलें ,
एक खेल अब ऐसा l
मैं बन जाऊंगा बिल्कुल ,
चाचा नेहरू जैसा l
पहन पजामा , कुरता टोपी ,
गुलाब का फूल लगाऊंगा l
सत्य , अहिंसा और धर्म से ,
भारत भाल सजाऊंगा l
नील गगन में शांति कबूतर ,
फर – फर फुर्र उड़ाऊंगा l
बैठ वतन में अमन चैन की ,
बंशी खूब बजाऊंगा l
मैं नेहरू बन जाऊं भैया ,
मैं नेहरू बन जाऊंगा l
बुझे दीप
अमावस की तमस भरी रात जगमगाने लगी थी l उस बच्चे का मन अभी बिजली की लड़ियों में ही उलझा था l जैसे ही दीपों से सजी थालियां छतों – छज्जों और द्वार पर सजने लगीं उस बच्चे का ध्यान बिजली की चकाचौंध से हटकर दीपों की ओर आकृष्ट हो गया और वह जैसे स्वयं दीया बन गया l उसकी दृष्टि हट ही नहीं रही थी , वह दरवाजे पर देर तक खड़ा रहा l तभी उसके कानों में ध्वनि सुनाई दी , ‘ ना जाने किस नीयत से यह लड़का खड़ा है ‘ और तपाक से थप्पड़ जड़े जाने की गूँज से वह विचलित हो गया l उसे लगा ,जलता दीपक बुझ गया है l किन्तु उसने अपने गाल पर हाथ फेरा , पीड़ा को सहलाया l और कुछ दूर नजर बचाकर फिर खड़ा हो गया l
बम -पटाखे फूटे और लोग इधर – उधर हो गए l उसने देखा , जलते दीये हवा में बुझ गए थे l किन्तु तेल दीयों में अभी भी भरा था l बच्चा जल्दी – जल्दी दीयों का तेल एक शीशी में इकठ्ठा करने लगा l आज इस तेल से वह माँ के पैर की मालिश करेगा , सब्जी में छौंक लगाएगा , दो पराठे बनाएगा , एक माँ को खिलायेगा ,एक खुद खायेगा , दीवाली मनाएगा l
दुबे कालोनी, कटनी 483501 म. प्र.
मोबा : 9584415174
शिव अवतार रस्तोगी ‘सरस’
‘दीप-वर्तिका’ जैसी बिटिया
‘दीप-वर्तिका’ जैसी बिटिया ज्ञान-ज्योति घर-घर फैलाएं।
शक्ति स्वरूपा,जग कल्याणी, तीव्र-तिमिर तम दूर भगाएं।।
तितली बनकर उड़े कुंज में, पुंकेसर पराग बिखराए।
‘दीप-वर्तिका’ जैसी बिटिया ज्ञान-ज्योति घर-घर फैलाए।।
दीपशिखा बन ज्योतित कर दे, भर दे जग में तेज उजाला।
निज-संतति को करे सुशिक्षित, कहीं न हो मग में मुंह काला।।
यह देहरी पर रखे दीप-सम, घर बाहर की धुंध मिटाए।
‘दीप-वर्तिका’ जैसी बिटिया, ज्ञान-ज्योति घर-घर फैलाएं।।
दीप-श्रृखंला बनकर बिटिया,चहकायेगी घर का आंगन।
वंश-वृक्ष को विकसायेगी अपने तन से दे नवजीवन ।।
कटे न इसकी डोर गर्भमें, सृष्टि-सजन का पथ अपनाए।
‘दीप-वर्तिका’ जैसी बिटिया ज्ञान ज्योति घर-घर फैलाए।।
दीप-स्तंभ बनेगी बिटिया, दिशा-ज्ञान से यान चलेंगे।
अखिल विश्व व्यापार बढ़ेगा, जन-जन से संबंध बनेंगे।।
लिंग-भेद विद्वेष मिटेगा, विश्व-गुरु पद भारत पाए ।
‘दीप-वर्तिका’ जैसी बिटिया ज्ञान ज्योति घर-घर फैलाए।।
बेटी से है सबका कल
बेटी से ही पिछला कल था,
बेटी से है अगला कल।
अगर ना बेटी बची विश्व में,
बेटे होंगे सभी विकल।।
बेटा बनता कृषक श्रमिक तो,
बेटी होती धरती-मां ।
क्षेत्र नहीं पर छत्र भले हो,
तब क्षत्रप का स्वत्व कहां?
झूठी आन-मान के कारण,
कन्या-वध करते आये।
द्वापर या फिर सोमनाथ से,
भी कुछ सीख नहीं पाये।।
बहुपति प्रथा पुनः पनपेगी,
और बढ़ेंगे अत्याचार ।
कन्याओं का मूल्य लगेगा,
खुलेआम होगा व्यभिचार।।
रोज, मुकदमे कोर्ट-कचहरी,
जैसे होंगे दुष्परिणाम।
कन्या के हित गाय-भैंस सम,
देने होंगे ऊंचे दाम।।
भ्रूण परीक्षण गर्भपात संग,
रोको इसका आविर्भाव।
कन्या शिशु-दर के अभाव का,
दिख रहा है पूर्ण प्रभाव।।
अतः सुधारो वर्तमान को,
और सम्हालो अगला कल।
भूतकाल से शिक्षा लेकर ,
सोचो भावी की अविरल।।
मालती नगर डिप्टी गंज
मुरादाबाद 244001
मो. 94560 32671
डा.अशोक अश्रु
बच्चे प्यारे प्यारे
दीप शिखा से बलते,जन मन बच्चे प्यारे प्यारे हैं।
समदर्शी के दर्शन करने हों,तो घर घर राजदुलारे हैं।
सुननी हो झरनों की झर झर,
बस इनकी किलकारी सुनलो।
करना हो फूलो का अनुभव,
बस इनको गोदी में भरलो।
मोती माणिक से,मुट्ठी मुट्ठी आसमान के तारे हैं।
दीप शिखा से- – – – – – – – – – – – – – –
घुटुअन चलता जब जब देखें,
कविता आ अधरों से लिपटे।
ताली दे जब बिम्ब निहारें,
दुनिया उस दर्शन में सिमटे।
रंग बिरंगे गुब्बारे , सतरंगी न्यारे न्यारे हैं।
दीप शिखा से- – – – – – – – – – – – – – –
काम क्रोध लोभ त्यागना हो,
इनकी मीठी बातें सुनलो।
आपा-धापी में हंसना हो,
इन जैसा कोमल मन चुनलो।
पाप पुण्य की धरती पर, ये गंगा जल के धारे हैं।
दीप शिखा से- – – – – – – – – – – – – – –
(आगरा)
मो.9870986273
किरण सिंह
बिट्टू राजा हठ कर बैठे
बिट्टू राजा हठ कर बैठे रोनी रूप बना के।
चलो दिवाली में दिलवादो मम्मी मुझे पटाखे।
मम्मी बोलीं बिट्टू राजा समझो बात हमारी।
फोड़ोगे तुम अगर पटाखे बहुत पड़ेगा भारी।
रूठ गये फिर बिट्टू राजा खाना पीना छोड़ दिये।
जो थे उनके खेल खिलौने वो भी सारे तोड़ दिये।
पापा लाये नये खिलौने बोले बिट्टू मानो ।
बड़े हो गये बेटा तुम भी दुनियादारी जानो।
पर न माने बिट्टू राजा बोले मुंह बिचकाकर।
पहले पापा सभी पटाखे मुझे दीजिये लाकर।
तभी आ गये बिट्टू के भैया उनको समझाने ।
जला हाथ दिखलाकर अपना दर्द लगे बतलाने।
और गगन में धुआँ दिखाकर बोले देखो भाई।
नहीं पटाखे फोड़ूंगा अब मैने कसमें खाई।
मान गये फिर बिट्टू राजा खाने लगे मिठाई।
फिर घर की मम्मी पापा संग करने लगे सफाई।
मिट्टी के दीयों से बिट्टू घर को लगे सजाने।
हुआ गगन ज्यों जगमग जगमग लगा उन्हें भी भाने।
जोर जोर से सारे बच्चे लगे लगाने नारा।
हार गया अंधियारा फिर से जय जय जय उजियारा ।
अस्मिता प्रशांत “पुष्पांजली”
लघुकथा
“दीया”
रात के अंधियारे में झोपडी के बाहर बैठकर, दूर अंधेरे मे टिमटिमाते दीयो को देखते हुए बैठना, नन्हे दीपक को बहुत सुहाता था। वह अक्सर गाँव के बडे बडे घरों से जगमगाती रोशनी को देखता, और अपने आप में ही खो जाता। नन्ही जान सवाल करे भी तो कैसे? लेकिन उसके छोपडी की एक टिमटिमाती लालटेन, जिसकी रोशनी मे कोइ दस-बीस फिट भी चल नही पाता था, और उधर गाँव के हवेली नुमा घरोंकी रोशनी, गाँव के बाहर उसकी जुग्गीको भी कैसे आभा प्रदान करती है? यह उसके नन्हे दिल को कभी ना बुझने वाली पहेली थी।
“क्या देख रहा है रे, बाहर थंड मे बैठे बैठे, भीतर आ, सर्दी पकड लेगी” उसकी माँ ने आवाज लगाई, तो दीपक दौडकर माँ के आँचल मे जा दुबका।
“अच्छा, ये तो बता क्या देखते रहता है वहाँ।”
“रोशनी।”
“रोशनी??कहाँ की रे।”
“वहीं जो गाँव के बडे घरो से आती है।”
“अच्छा।”
माँ ने एक थाली मे अनाज परोसा और उसके मुँह में निवाले भरने लगी।
“माँ…”
“क्या है रे।”
“गाँव के घर कितने दूर है, फिर भी यहाँ से घरोकी रोशनी दिख रही है।”
“अरे बावले, आज त्योहार है, सौ दीये जले होंगे उनके घर, इसलिए वह रोशनी दिख रही है।”
“सौ दीये?”
“हा बेटा, दिवाली मे उनके घर घी और तेल के दीये जलते है।”
“क्यो?”
“रित है।”
“पर अपने घर तो तुम नही जलाती, बस ये घासलेट की लालटेन ही…”
माँ दीपक के गाल सहलाते हुए और बाल सवाँरते हुए,
“हमारे घर मे सब्बी बघारने के लिए तेल और घी मिले यही काफी है बेटा। मै उस तेल से और घी से अपने बच्चो के लिए व्यंजन ना बनाऊ, दीये का क्या घासलेट का हो या तेल का, अंधेरे को चीर कर रोशनी दे यही काफी है हमारी झोपडी में”
भंडारा, महाराष्ट्र
9921096867
नूरेनिशाँ
जब बारात दियों की आती
जब मैं शाहजहाँपुर जाती,
हनुमत धाम घूमकर आती।
फूलझड़ी से वृत्त बनाती,
मैं चकई को ख़ूब नचाती;
गली-गली रोशन हो जाती।
खील, कचौड़ी, गुझिया खाती,
रसगुल्ले खाकर इतराती;
मोमो, चाट, बताशे खाती।
दीवाली तो ख़ुशियाँ लाती,
दादी-दादा से मिलवाती;
गाउन-जींस मुझे दिलवाती।
गणपति और लक्ष्मी लातीं,
उनकी चौकी ख़ूब सजातीं;
दादी भजन सुरीला गातीं।
जब बारात दियों की आती,
सारा घर, आँगन चमकाती;
दीवाली मैं वहीं मनाती।
पुत्री स्वर्गीय श्री मुख़्तार अली, ग्राम – मुंडेली, पोस्ट – चारुबेटा,
तहसील – खटीमा, जिला – ऊधमसिंहनगर, राज्य – उत्तराखंड, पिन – 262 308.
मोबाइल नंबर – 6397190637
ई-मेल पता – [email protected]
अमरजीत कुमार “फरहाद”
जलती दीपों की माला
जलती दीपों की माला, अँधियारा दूर भगाती है ।
नव उमंग मन में भरकर, जीवन में आस जगाती है ।।
घर-आँगन, आगे-पीछे, जगमग इसकी शोभा स्वर्णिम ;
निर्धन और धनी सबके, अन्तस्तल में आभा स्वर्णिम ।
ज्योति-पर्व यह जनमानस में, करता खुशियों का संचार ;
नई प्रेरणा से आलोकित, देता हमें नैसर्गिक उपहार ।
तम है मिथ्या का प्रतीक, माया की चादर फैलाये ;
आडंबर के घटाटोप से, क्षणिक भ्रमवश भरमाये ।
सच की किरण सदा सक्षम, गहन तिमिर उच्छेदन को ;
उत्साहित करता मानव को, सदा सत्य उद्भेदन को ।
देता है संदेश अमर, त्योहार हर्षमय बने दिवाली ;
जयश अनुपम को प्रेरित, बाती में फैली उजियाली ।
दुनिया का दस्तूर यही, “फरहाद” लक्ष्य हो जब निर्मल ;
दक्ष बनो और बढ़े चलो, सोनी-पथ हो जाए उज्जवल ।
सहायक लेखा अधिकारी
वेतन लेखा कार्यालय, नाशिक
मोबाइल नंबर – 9960073496
——————
अर्पणा दुबे
दीपावली हम बहुत धूम धाम से मनाते हैं
घर की साफ सफाई करते हैं
नये नये कपड़े लेते हैं
दीपावली हम बहुत धूम धाम से मनाते हैं
माँ लक्ष्मी को बुलाते हैं
दादा दादी मम्मी पापा भाई बहन सब एक साथ हो कर करते पूजा
चारों दिशाओं में दीप जलाते हैं
पूरे घर को दीपों से करतें उजाला
दीपावली हम बहुत प्यार से मनाते
जब आती दीवाली लेकर आती हैं खुशियां सारी
जलते पटाखें ,फुलझड़ियाँ, बम
घर घर रंगोली बनती
घर घर हम प्रसाद देते
लड्डु का भोग लगाते
दीपावली हम बहुत प्यार से मनाते।।।
अनूपपुर मध्यप्रदेश
तकनीकी खराबी के कारण नवांकुरों द्वारा बनाए गए चित्र डिलीट हो गए हैं . उपलब्ध होने पर लगा दी जाएगी .
आदर्श शुक्ला
– क्लास- 5
डा. रिजवी लर्नर्स एकेडमी जौनपुर उत्तर प्रदेश
==================================
चिन्मय दीपांकर उर्फ चुनमुन
बहादुर_कार
एक कार थी। कार थोड़ी पुरानी हो गई थी। किन्तु यह कार खुद से भी चल सकती थी। कई सारे कार उसके मित्र भी थे। उसके मित्र कुछ-कुछ दिनों पर उससे मिलने आते थे। उसके इतने सारे मित्र थे कि कार के रहने की जगह कम पड़ जाती थी। इस कारण से वे सभी एक साथ नहीं रह पाते थे। सभी कार उससे मिलने आते तो मालिक का घर गंदा भी हो जाता था। इसलिए उसका मालिक उससे नाराज़ रहता था। मालिक की नाराज़गी का एक कारण यह भी था कि कार पुरानी हो गई थी और ज्यादा पेट्रोल भी लेती थी। पर उसकी गति नई कार जैसी ही थी।
एक दिन जब कार अपने मालिक के साथ कहीं जा रही थी तो रास्ते में उसकी मुलाक़ात एक दूसरी काफी पुरानी कार से हो गई जो खराब होकर रास्ते में ही रुक गई थी और चल नहीं पा रही थी। उसमें एक आदमी था। जब उस आदमी को वह कार दिखी तब उसने कार के मालिक से कहा कि तुम यह कार मुझे दे दो। पर कार का मालिक उसे देने के लिए तैयार नहीं हुआ और वहाँ से चला गया। खराब पड़ी कार के मालिक को इस बात से बहुत गुस्सा आया और उसने रात को उस कार के मालिक के घर कुछ गुंडे भेजे और गुंडों को कहा कि उस कार के मालिक को कार समेत किडनैप करके लेते आओ। लेकिन कार अपनी जान बचाकर भाग गई। गुंडे मालिक को नींद में ही उठाकर ले गए। अगले दिन जब मालिक की नींद खुली तो उसने अपने आपको गुंडों के बीच पाया। गुंडों ने उसके साथ मारपीट की और उससे कार के बारे में पूछा। लेकिन मालिक ने कुछ नहीं बताया। इतने में ही वह कार अपने साथी कारों और उसके मालिकों के साथ अपने मालिक के पास आ गई। उन कारों और उसके मालिकों की संख्या इतनी थी कि उसे देखकर गुंडों की हवा निकल गई। गुंडों ने तुरंत हार मान ली और उस कार के मालिक को छोड़ दिया। जैसे ही मालिक आज़ाद हुआ उसने पुलिस को फोन कर दिया। पुलिस उस खराब कार के मालिक को लेकर वहाँ आ गई और उन गुंडों को पकड़ लिया।
कार मालिक ने पुलिस का धन्यवाद किया। उसके बाद कार के मालिक ने कार से माफ़ी मांगते हुए कहा कि अब से मैं तुम्हारे साथ गंदा व्यवहार नहीं करूंगा। कार ने अपने मालिक को माफ़ कर दिया। अब मालिक कंजूसी नहीं करता और कार के दोस्तों को भी अपने घर आने देने लगा। इसके बाद से कार और उसके मालिक खुशी-खुशी ज़िंदगी बिताने लगे।
– (7 वर्ष)
कक्षा द्वितीय (सेक्शन-एफ)
सेंट जोसफ स्कूल,भागलपुर, बिहार
आरिव अरविंद
नन्ही चिड़िया
एक घोसले में एक चिड़िया और उसके दो बच्चे रहते थे l मां हर रोज घोसले से बाहर जाती और थोड़ी देर में खाना लेकर लौट आती और अपने बच्चे को खाना खिलाती हैं l एक दिन चिड़िया की मम्मा खाना की तलाश में बहुत दूर तक निकल गई और बहुत देर तक खाना लेकर नहीं आई l बच्चे जब मम्मा के इंतजार में थक गए तब एक चिड़िया ने दूसरे बेबी चिड़िया से बोला चलो बाहर चल कर देखते हैं मम्मा कहां है ? इस पर दूसरे बेबी चिड़िया बोली कि मैं नहीं जाऊंगी lतुम जाओ क्योंकि मम्मा घौसला से बाहर निकलने के लिए मना करके गई है l तब वह चिड़िया अकेले ही घोसले से सिर निकालकर जैसे ही अपना पंख खोलकर उड़ने की कोशिश करने लगी कि वह गिर गई और नीचे गिरकर वह मर गई l क्योंकि उसे तो उड़ना आता ही नहीं था l
इस कहानी से हमें यह शिक्षा मिलती है कि हमें अपने बड़ों की बातों को मानना चाहिए और जल्दबाजी में कोई फैसला नहीं लेना चाहिए l
कक्षा 2a
विद्यालय डीएवी पब्लिक स्कूल
लाजपत नगर कटार
डेहरी ऑन सोन रोहतास( बिहार)
=========================
– अनुज पाण्डये
दीवाली के दीप जले
दीवाली के दीप जले तो
मिटी अँधेरी काली।
घर दीपों से चमक उठे हैं
जगमग-जगमग-जगमग
सुंदरता अद्भुत-सी बिखरी
दीवाली पर पग-पग
मन हर्षित, खिलखिला रहा है
आई है दीवाली।
टोनू,मोनू,गीता,सीता
सबमें आज खुशी है
हरेक ओर मुस्काते चेहरे
भावन दीवाली है
भवन सजाते सब, दीपों से
ले दीपों की थाली।
– गोरखपुर, उत्तरप्रदेश
मोबाइल नंबर- 8707065155