– माला वर्मा
खुले आकाश के नीचे
भींग रही हूँ पानी में
साथ मेरे वृक्ष और लतरें
हो रहे तर बतर
खुश, बहुत ही खुश
मानों वर्षों बाद
मिली हो ठंडक
मैं तृप्त, धरती तृप्त
मिलकर अम्बर संग
हो रही एकाकार
रिमझिम रिमझिम
बूंदों की पदचाप
धधक रहा कुछ
मन के अंदर
कैसे दिखलाऊं, किसे बताऊं
पीड़ा एकांत की
कैसे छुटकारा पाऊं
बरसों मेधा, जमकर बरसों
सब कुछ डूबे, मन उतराए
खुले आकाश तले
भींग रही हूँ पानी में।