– उषा किरण खान
मंजिल से पहुँचने से पहले गाड़ी की रफ्तार तेज हो गयी थी, और अब एक तीखी आवाज सीटी की अर्थात् स्टेशन नजदीक है। वैसे तो केतकी ने जब से गाँव आने का कार्यक्रम बनाया, तभी से उसकी नींद उड़ गयी थी लेकिन छोटी लाइन की गाड़ी पर चढ़ते ही आँखों ने थकान का अनुभव भी भुला दिया था। प्रसन्नता के अतिरेक में केतकी बावरी हो गयी थी। रात के लगभग एक बज रहे गाड़ी स्टेशन पर पहुँच रही थी। कितने वर्षों के बाद केतकी अपने गाँव की दहलीज पर आ रही थी। यह अवसर बड़ी मुश्किल से मिला था। चार भाइयों की डेउढ़ी में अकेली लड़की केतकी अपनी भतीजियों-भतीजों की हमउम्र थी। पिता के दो विवाह हुए थे। पहली पत्नी से मात्र चार लड़के थे, दूसरी से केतकी। केतकी माता और पिता के लिए राहु बनकर अवतरित हुई थी। पिता का स्वर्गवास तभी हो गया था जब केतकी गर्भ में थी और किशोरी माता के सम्बन्ध में सुनने में आता है कि विधवा होने के बाद वे केतकी की जन्म लेने देने के लिए ही मात्र जीवित थी। बड़ी भाभी ने केतकी को अपनी बेटी की तरह पाला था।
पालन-पोषण में कोई त्रुटि नहीं आने दी थी। पन्द्रह वर्ष की केतकी ब्याहकर ससुराल चली गयी थी। उसके श्वसुर महानगर में रहते थे। गाँव घर से कोई मतलब ही नहीं था। केतकी भी वहीं चली गयी थीं। गाँव के एक-एक पंछी से बिछुड़ते केतकी का हृदय फटता था, किन्तु नये वातावरण का आकर्षण उसे जीवित रखे था। इस बीच में कितने परिवर्तन आये। केतकी के भाई लोगों का मकान शहरों में बन गया। सभी भाई नगराभिमुख हो गये। सबसे बडे भाई चीफ इंजीनियर के पद तक पहुँच गये हैं। सभी ब्याह-शादी शहरों में ही हुए। मुहल्ले की शादियों की तरह केतकी आती और व्याह का न्यौता पूरा कर चली जाती। पशु-पक्षियों और ग्रामीण जन से अधिक घुली-मिली यह दीवानी लड़की यदि गाँव के सम्बन्ध में कुछ पूछती भी तो माकूल उत्तर नहीं मिल पाता। एक बार बड़ी भाभी से कहा भी था इसने। “भाभी, गाँव में कोई समारोह करिए, काफी दिन हो गये।’’ तो भाभी ने उत्तर दिया था- “गाँव में सड़कें बन रही हैं, घर तैयार हो रहे हैं, फिर देखूँगी।’’
केतकी ने यूँ ही कई बार अपने पति से भी कहा था कि एक बार अपने गाँव जाने का मन करता है। उन्होंने यह कहकर टाल दिया था कि गाँव में कौन रहता है? केतकी क्या कहे कि गाँव में कौन रहता है उसका। भाई-भाभी और भतीजे- भतीजियाँ नहीं रहते हैं तो क्या, पूरे का पूरा गाँव उसका अपना है। वह एक क्षण के लिए भी गाँव को भूल नहीं पाती है। बच्चों की छुट्टियों में सम्पूर्ण भारत का भ्रमण भी उसको सन्तुष्ट नहीं करता, महानगर के पास के साफ-सुथरे कंक्रीट की सड़क वाले गाँव उसे नहीं भाते। लोगों द्वारा ‘केतिकी’ पुकारना याद आता और याद आता कोसी का मिट्टी-पानी, कोर-कछार।
उसके समय में जो नवगछुली बम्बई और मालदह आम की लगी थी वह कितना विस्तृत हो गयी होगी यह सोचकर केतकी प्रसन्न होती। थोड़ा-सा भी समय मिलेगा तो वह जरूर उसपर झूला लगवा लेगी। क्या हुआ माघ है तो, अब झूला लगाने के लिए कोई सावन का इन्तजार तो नहीं करने देगा केतकी को।
“देखा तुमने, बड़ी भाभी की चिट्ठी आयी है कि अब की समीर के बेटों का जनेऊ गाँव में ही करेगी।’’ केतकी ने कहा था।
“अच्छा तो है, अब उनके गाँव तक सड़के चली गयी हैं, घर भी ठाट का बन गया है।’’
“क्या ऐसी ही सड़कें?’’
“और नहीं तो क्या, पगली!’’ केतकी क्षण-भर को उदास हो गयी थी। फिर सोचा था- अच्छा ही तो है, अब गाड़ी सीधे दरवाजे पर पहुँचेगी। पहले बैलगाड़ी और नाव की सवारी करनी पड़ती थी। उसे याद आया कैसे गौने के बाद उसकी बारादरी उठाकर नाव पर रखी गयी थी और वह नदी पार कर अपनी ससुराल के घर में देवी को शीश नवाने पहुँची थी। चार दिन की विधि पूरी करने के बाद ही उसकी सास उसे लेकर महानगर चली गयी थीं। तब से केतकी ने कभी इधर का मुख नहीं किया। अपने दरबे से नीचे उतरकर सामने कोसी नहीं देखी, सुनहरी-रूपहली अबरकों वाली सिकता नहीं देखी, कास और पटेर के जंगल नहीं देखे, आम की पीपें घिसकर सीटी नहीं बजायी। केतकी ने सीकी की ड़लिया में मुढ़ी-लाई नहीं खाये और न ही सीकी के बने कंगन, बाजूबन्द खेल-खेल में सबुजनी से बनवाकर पहने।
क्या सबुजनी जिन्दा होगी। केतकी सोचती है और उसका मन दौड़कर धुनिया टोली पहुँच जाता है। गोरे-चिट्टे धुनिया मजदूर और गुलाबी रंगतों वाली उनकी औरतें। केतकी उन्हें देखती ही रह जाती। और यह सबुजनी कितनी सुन्दर थी। गाँव की बेटी थी, गाँव में ही बस गयी थी। सो वह घर-घर मुँह उघारकर घूमती रहती थी। गहरे काले बाल, नीले-हरे बैजनी मारकीन के चूने लिखे चूनर, गोरे मुखडे़ पर लाल कान और कान में ऊपरी छोर से क्रम से लटकती पाँच-पाँच बालियाँ चाँदी की। छम-छम करते गहने जौसन-बाजू तक और रुपैया का छड़ा जहाँ बैठती झन-झन बजता।
सबुजनी की बड़ी पूछ बडे़ घरों में थी। वह सीकी की रंग-बिरंगी सुन्दर-सुन्दर ड़लिया बनाती थी। उससे सीखनेवालों का ताँता लगा रहता। सबुजनी की दो बेटियाँ फूल और सत्तो ब्याहकर ससुराल जाने-आने लगी थीं और बेटा रहीम कुदाल कन्धों पर रखने लगा था। उसी से केतकी सीकी का बाला-झुमका बनवाकर पहनती थी और फिर तोड़कर फेंक देती थी। सबुजनी लाड़भरी झिड़की देकर फिर रंगी सिकी से केतकी के लिए कंगना बनाने लगती थी। केतकी को सबुजनी का जोर से ‘कतिकी. .ई.. .ई…’ पुकारना याद आता है। उसे याद आता है कैसे इस्लाम धर्म मानते हुए भी सबुजनी जीतिया और छठ करती थी। छठ की डलिया में सिर्फ फल-फूल देखकर एक बार केतकी ने टोका तो उसने कहा था, “मैं मुसलमान हूँ न, मेरे हाथ का पकाया हुआ भोजन सूर्य देवता कैसे पाएँगे, इसलिए फल-फूल लेकर अर्ध्य चढ़ाती हूँ।’’
“ऐसे देवता को क्यों अर्ध्य चढ़ाते हो जो तुम्हारे मुसलमान होने के कारण छूत मानते हैं? मत चढ़ाओ।’’ केतकी ने आवेश में कहा था।
जीभ काटकर कान पकड़ते हुए सबुजनी ने ऐसा बोलने से मना किया। और डाँट भी बतायी। कहा, “छिमा मांग लो, देवता-पितर के बारे में ऐसा नहीं कहते।’’
तब लाख यह समझाने पर कि वह कैसे जानती है भगवान किसका खाते हैं, किसका नहीं, वह कुछ सुनने तो तैयार नहीं हुई थी। जैसे ही निर्मल सौन्दर्य की स्वामिनी थी वैसा ही हृदय भी था उसका। जाने अब यदि यह जीवित होगी भी तो कैसी होगी। होगी भी या नहीं कौन जाने। उनके पास कोई अपनी जमीन तो होती नहीं थी कि एक स्थान पर टिके रहें, जहाँ रोजी मिली होगी, चली गयी होगी। नैहर की मिट्टी खाकर थोडे़ कोई जी सकता है। खाएगा तो अनाज ही। जमीन वाले ही कौन अब जमीन पकड़कर बैठे रहते हैं। उससे असीमित आवश्यकताएँ कहाँ पूरी पड़ती हैं। केतकी के ही एक भाई चीफ इंजीनियर हैं, दूसरे डॉक्टर और बाकी दो बडे़ ठेकेदार। सबकी कोठियाँ राजधानी में बनी हैं। बच्चों की शादियाँ भी वैसी ही हुई हैं। और केतकी के पति भी तो उतनी बड़ी संस्था के विज्ञापन मैनेजर हैं। मोटी तनख्वाह, गाड़ी, महानगर में अपना मकान।
मैट्रिक पास केतकी ने महानगर में ही रहकर एम.ए., पी-एच.ड़ी. कर ली। देश-विदेश घूमने से ही फुर्सत नहीं मिलती। कुई-मुई-सी केतकी फूल की तरह कोमल अब गदराकर भव्य महिला हो गयी है। गाँव जाना है, यह सुनकर ही उतावली हो आयी थी केतकी।
अपने वार्डरोव में देखा एक भी सूती प्रिण्ट या ताँत की साड़ी नहीं थी। यहाँ सिन्थेटिक के सिवा कोई सूती पहनता भी नहीं। महरी भी सूती साड़ियाँ धोना नहीं जानतीं। हाउस-कोट तक केतकी के पास इम्पोर्टेड़ थे। पति के ऑफिस जाने के बाद सीधी वह राजस्थान इम्पोरियम चली गयी और कुछ सूती रंग-बिरंगी चूनरें खरीद लायी। बडे़ स्टील के तह वाले बक्से से नीचे रखी हुई थी उसकी वह पीली विष्णुपुरी साड़ी। उसे निकालकर बहुत देर तक हाथ फेरती रही उसपर। लगा, कैशौर्य के कोमल सपनों को सहला रही है। इसे ही जनेऊ के दिन पहनेगी केतकी। आलता-बिछुआ और लौंग पहनकर कैसी लगेगी इस विष्णुपुरी साड़ी में। कल्पना में देर तक डूबी रही थी केतकी।
उसे बहुत धुँधली याद है, छोटे चाचा का गौना था, बहू आने वाली थी। घर-आँगन लग रहा था जैसे खिल-खिल हँस रहा हो। कोठरियाँ और चौबारे, दालान और खलिहान सब गोबर से लिपा-पुता था। कोहबर में बारादरी में बैठे वर-कनिया, पुरइन के धड़, बाँसवन, केले के थम्ब, नाग-नागिन के जोडे़ तथा शुक-शुकी के रूप में विध-विधाता, चावल के घर और लाल-हरे सुग्गे चटख रंगों से लिखे गये थे। नीचे फर्श पर भी अइपन में चटाई लिखी हुई थी। चारों कोनों पर केले और बाँस की सच्ची टहनियाँ गड़ी हुई थीं। मोथी की सच्ची चटाई कोहबर में बिछी हुई थी। कोहबर से लेकर चौबारे तक अष्टदल और सीताराम के पदचिह्नों का अइपन था। और कर्णपुर वाली नाउन कटोरी में रंग घोलकर सभी कनियों बहुआसिनों का पैर रंग रही थीं।
महानगर में यह सब कहाँ? केतकी की अपनी ननद का ब्याह हुआ था तो नैना-जोगिन बडे़ कागज के पन्ने पर लिख गया था, सैलो टेप से वाल पेपर के ऊपर चिपका दिया गया था, अभी भी उसे हँसी आती है कैसे मिसेज चावला और बचानी ने कहा था कि यह डिजाइन तो बेहद मॉर्डन है, दो-एक उन्हें भी लिवाएँ। केतकी को सचमुच बड़ी हँसी आती है कैसे उनके ग्रामीण संस्कार का वह अविभाज्य अंग, वह अइपन और पुरहर अब कोहबर से उठकर ड्राइंगरूम तक चला गया है। नहीं, गलत सोचती है केतकी। वह तो विश्वप्रसिद्ध हो गया है।
मिट्टी के हाथी पर रखी गौरी की पूजा करती हुई केतकी की ननद का झुँझलाया हुआ चेहरा याद आता है जब उसकी एक विदेशी मित्र ने उससे कहा था कि कितना सुन्दर टेराकोटा आर्ट है। यह सब देखकर केतकी मुस्कुराने के सिवा और कुछ नहीं कर पाती। गाड़ी स्टेशन पर आ गयी है। चाँदनी रात है, लेकिन घनी धुन्ध जमी है। स्टेशन की इमारत भव्य लगती है। पहले यूँ ही-सी थी। नयी बनी है लगता है। इस इलाके के कई प्रभावशाली नेता-मन्त्री बनते रहे है। तो यह भी न हो। गाड़ी लेकर एक चचेरा भाई आया है। कुछ वर्ष पहले यह फटी चादर और धोती के सहारे जाड़ा काटता था, किंन्तु अभी ऊनी कोट-पैण्ट पहने है। गाड़ी में सामान रखकर उसने पूछा कि क्या इतनी रात को गाँव चलना ठीक होगा? केतकी चाहे तो सर्किट हाउस भी रिजर्व कराया गया है, वहीं रह जाये। लेकिन केतकी को उतावली थी, उसने बेसाख्ता कहा- “नहीं-नहीं, अभी गाँव जाऊँगी। गाड़ी है, कितनी देर लगेगी।’’
गाँव पहुँचकर देखा एक कतार में एक ही डिजाइन के चार मकान है। चारों मकानों को चारों ओर से ऊँची दीवार ने घेर रखा है और बडा-सा लोहे का दरवाजा है जहाँ ठीक शहरी तरीके का दरबाननुमा जीव बैठा है। रात और धुन्ध के कारण और अधिक कुछ न देख सकी। चचेरे भाई ने पहले मकान का कोने वाला कमरा स्वयं खोला और केतकी का सामान रख दिया। “तुम लोग सो जाओ, सुबह सबसे मुलाकात होगी।’’ कहकर चला गया।
केतकी ठगी-सी रह गयी। गौने के बाद यह दूसरी बार गाँव आयी हूँ। गाँव में इतना परिवर्तन। बड़ा चचेरा भाई स्वयं कमरा खोलकर बहन और जीजाजी को सो जाने को कह रहा था, बेटी के आने पर प्रतीक्षारत बैठे कहाँ गये स्वजन-पुरजन, कहाँ है जुड़ाने को रखा हुआ बड़ी-भात और कहाँ गयी वह परम्परा जिसमें पहले देवी की विनती किये बिना किसी घर में पैर नहीं रखा जा सकता था। पथराई-सी खड़ी केतकी पति के टोकने पर सामान्य हुई। कई दिनों-रातों का जागरण और मकड़ी की तरह स्वयं के सत्व द्वारा बुने जाते तारों का खण्डित दंश केतकी को बेहद थका गया था। वह जो सोयी सो काफी दिन उठ आने के बाद जग सकी। जल्दी-जल्दी कमरे के अटैच्ड बाथरूम में स्नान कर बाहर निकली।
“वाह, साले लोगों ने तो मकान बड़ा कम्फर्टेबल बना लिया है। इसमें तो रवि-हनी भी आकर रह सकते हैं।’’ पति ने प्रशंसात्मक नजरों से चारों ओर देखते हुए कहा।
“हाँ, बिलकुल सही, बल्कि ज्यादा अच्छा है। इतने खूबसूरत टाइलों और ग्रिलोंवाले मकान शहरों में भी कम हैं।’’ हँसते हुए पति भी बाथरूम की ओर बढ़ गये।
भैया ने सारी सुविधाएँ दे रखी हैं इस कमरे में, सोचती है केतकी। यह तो सर्किट हाउस या डाकबंगले से कम नहीं है। उसे अब संकोच हो रहा था कैसे अन्दर की ओर जाये? किधर से जाये? उसे लिवाने कोई नहीं आ रहा है।
तभी दरवाजे की घण्टी बजी। उठकर देखा तो एक बारह-चौदह वर्ष की बच्ची थी- “आप ही कतिकी दीदी हैं?’’ सुन्दर चटख जाँघों से ऊपर फ्रॉक और उलझे बाल, यह शायद काम करने वाली है कोई। उसे देखकर केतकी मुस्कुरायी- “हाँ।’’
“तो चलिए बड़ी काकी बुला रही हैं।’’ लगा पक्षियों का कलरव सुन रही है केतकी।
“चल!’’ झट से खड़ी होकर लगभग दौड़ती हुई उस बालिका के पीछे चल पड़ी।
ग्रिल से घिरे हुए बरामदे को पार करती हुई केतकी ने देखा बडे़-से हॉलनुमा कमरे में भाभियाँ बैठी थीं। केतकी ने बारी-बारी से सबों के पैर छुए। चाय पीते हुए उसने गौर किया, जाडे़ में भी घर की नवीन सदस्या मसृण लिबास पहने हुए है, ऊपर का शरीर शाल से ढका हुआ है, यही गनीमत।
“तुम रात देर से आयी, मैंने रामविलास को कह दिया था कि तुम लोगों को गेस्टरूम में ठहरा दे। कोई परेशानी तो नहीं हुई। नींद तो आयी?’’ बड़ी भाभी ने औपचारिक आत्मीयता से पूछा।
“आपके राज में कोई कमी नहीं, भाभी!’’ कहकर केतकी नवागन्तुकाओं से परिचय पाने में व्यस्त हो गयी। गाजे-बाजे और रोशनी सब कुछ था। कहीं कोई झंझट नहीं। कोई काम किया जा रहा था, ऐसा नहीं लग रहा था, ऐसा लगता था मानो सारा काम आप-से- आप हो रहा हो। सागर की लहरें जैसे आती और चली जातो हैं, वैसे ही सारे रस्म-रिवाज, संस्कार।
“यह केतकी है?’’ एक वृद्धा ने नजदीक आकर पूछा।
“हाँ, मैंने पैर छुए थे आपके।’’ केतकी ने सफाई दी।
“कम दीखता है, बेटी!’’ एक बेदाँती वृद्धा ने कहा।
“बेटी, तुम्हे जमाय बाबू मानते हैं न।’’ उसकी आँखों में सन्देह लहरा रहा था। वह चुटकियों में इसकी साड़ी पकड़े हुए थी।
“हाँ, क्यों?’’ केतकी भी अचम्भित हो उठी।
“तूने कैसी साड़ी पहन रखी है। देख तो वे सब कैसी पहने हैं। फिर तू तो बडे़ घर-वर से ब्याही थी।’’
अब केतकी को लगा कि उसने सचमुच गलती की, भड़कदार आधुनिक साड़ियाँ नहीं लायी। भाभी लोगों के सामने तो आँखें चुरा ही रही थी, गांव की इन वृद्धा काकी के सामने भी लज्जित हो गयी। शुभ-शुभ कर यज्ञोपवीत का कार्यक्रम समाप्त हुआ। केतकी अपने गाँव को देखने की लालसा को न्योत लायी।
“भाभी, जरा गाँव देखती।’’ केतकी ने बड़ी भाभी से पूछे बिना कभी घर से पैर बाहर नहीं निकाला था।
वह मुस्कुरायीं। “ठीक है, देख आओ, तुम बदली नहीं जरा भी।’’ केतकी ने उसी छोटी लड़की को साथ लिया और चल पड़ी। बड़ी-सी चहारदीवारी के बाहर भी चौड़ी कंकरीट की सड़क। चन्द कदमों पर पन-बिजली निकालने वाला विशाल यन्त्र, विद्युत-ग्राम। अब उसे यज्ञोपवीत के दिन की वह शहरी पार्टी याद आयी। सचमुच उस दिन उतनी सारी कास्मोपॉलिटन स्त्रियों को देखकर मन दुखी हुआ था। यह सब शो गाँव में नहीं होना चाहिए था, इसने सोचा, लेकिन एक प्रश्न अवश्य मन में उठा था कि इतने सारे कास्मोपॉलिटन लोग कहाँ से आये?
“दीदी, यहाँ बिजली बनाते हैं, देखती हैं न, सब जगह गाँव में बिजली है।’’ साथ की लड़की पुलकित थी।
“तुझे बिजली अच्छी लगती है?’’
“हाँ बहुत। खूब इंजोर होता है।’’
“अच्छा?’’ और केतकी मेड़ों के सहारे खेत में उतर गयी।
मटर और तीसी का खेत। सफेद, नीले और गहरे गुलाबी खेत। आगे सरसों और तोरी का खेत, पीले-पीले फूलोंवाले खेत। केतकी कुछ सोचती हुई नीचे उतरती रही। प्रकृति के पास सबसे अनूठे रंग हैं। “केतिकी दीदी, इधर गाँव नहीं है, फुलवारी है।’’ साथ की लड़की ने कहा।
“मै फुलवारी ही जाऊँगी।’’ और थोड़ी देर में केतकी पुरानी अमराई में पहुँच चुकी थी। फुलवारी कई चहार दीवारियों में बँटी थी, कई नये वृक्ष लगे थे। लड़की ने बताया कि चारों भाइयों की फुलवारी है। चलती हुई केतकी बीच में पहुँच गयी। एक पुराना महुआ का पेड़ कटा पड़ा था, पास ही विशाल आम का पेड़ था।
“दीदी, यह आप ही का पेड़ है।’’ लड़की ने याद दिलाया।
“तुझे कैसे मालूम?’’ केतकी ने पूछा।
“सभी कहते हैं कतिकी दाई का पेड़।’’
“ओ, अच्छा।’’
इसी पेड़ के नीचे केतकी, संज्ञा, कालिन्दी, बुच्ची और रमा खेला करती थीं। लड़कों का झुण्ड बगलवाले महुए के पास जमता था। लड़कों ने एक बार महुए का ताजा फल लाकर केतकी की नाक में रगड़ दिया था। केतकी बेहोश हो गयी थी। बाद में इसी बात पर चिढ़ाया भी करता था समीर कि केतकी महुए की गन्ध से ही बेहोश हो गयी थी। पेड़ कितना ऊँचा और छायादार है, केतकी सोच रही थी। आम का यह पेड़ सबसे पहले फलता है। लाल-लाल सिन्नुरिया आम पक-पककर आप ही चूने लगते हैं। अधिक पके आम धरती पर गिरते ही फट जाते हैं, छिलका और बीज अलग-अलग। केतकी और उसकी सहेलियाँ इधर-उधर देखकर साड़ी खोल लेतीं, मात्र पेटीकोट और ब्लाउज में साड़ी के दोनों छोर पकड़कर पेड़ के नीचे खड़ी हो जातीं। हवा चलती तो एकाध। छोटे-छोटे आम उसमें गिरते। आहा, कितने सुगन्धित आम होते थे। गोपी सुपक्व, गछपक्व, रस कितना मधुर, जैसे मधु। केतकी का गाल सिनुरिया आम की तरह दहक उठा। समीर का ममेरा भाई हर छुट्टियों में आ जाता। उस दिन केतकी की साड़ी खोलने की पारी थी। वह अकेला ही समीर को खोजता हुआ पहुँच गया था। झपाके से शरमाकर केतकी बैठ गयी थी। कई दिनों तक उसके सामने नहीं गयी। एक लम्बी साँस खींचती है केतकी। गौने जाने के पहले जब वह एक बार आया था तो कैसे सहज भाव से कह गया था कि वह केतकी से ब्याह करना चाहता था। केतकी ने अपनी गहरी आँखों से उसे देखा भर था, कुछ पूछा नहीं था। “तुम पूछोगी, यह अब क्यों कह रहा हूँ? तो उसका उत्तर है कि मैं साधारण गरीब घर का लड़का, तुम्हारे यहाँ मेरी बुआ ब्याही है, तुम्हारा हाथ कौन मेरे हाथ में देगा। फिर भी मैंने अपनी माँ से कहा था विवाह के समय, मुझे मार पड़ी थी और जबरदस्ती विवाह कर दिया गया था।’’
उस समय केतकी को मात्र आश्चर्य हुआ था, सचमुच यह किस प्रकार मुझसे विवाह करता? कोई संवेदना नहीं जगी थी। लेकिन इस वृक्ष के नीचे खड़ी होकर उसे उस दिन का दृश्य याद आ गया। भावानुभूति-सी हुई, सारे शरीर में एक पुलकन व्याप गयी। अपने मन के सब मालिक होते हैं। उस पर दूसरे का क्या वश! जोर की आवाज से ध्यान भंग हुआ। चहारदीवारी से निकलकर देखने लगी केतकी, कौन दहाड़ा इतनी जोर से। देखा सरसों, तीसी, मटर के खेतों के पार वाले खेत में ट्रैक्टर चल रहा है। दूर-दूर तक कहीं बैल-हल नहीं दीखते। “बड़का काका का खेत है, मकई के लिए तैयार हो रहा है। मेरा बाबू डिरेवर है।’’ लड़की ने गर्व से बताया। अचानक दहाड़ जैसे स्वर से वातावरण की तरह केतकी का ध्यान भी भंग हुआ। कलेजा धक- धक कर रहा था।
कलेजा सँभालते हुए पूछा उस लड़की से- “तुम किसकी बेटी हो?’’ “रामप्रीत की।’’
“बैजू तुम्हारा दादा था?’’
“हाँ।’’ केतकी को स्मरण हो आया, बैजू उन लोगों का अगला हलवाहा था। सिरपंचमी के दिन पसेरी धान के बिना हल ही नहीं उठाता था जब तक हल का फाल धान में पूरी तरह नहीं डूबे। उसके लिए अइपन का थड़ बड़ा बनाना पड़ता। पीठ पर पिठार सिन्दूर का थप्पा लिये दिन-भर घूमता रहता। कहता- केतकी दाई का असिरवादी है। मन में आया पूछे कि क्या ट्रैक्टर भी सिरपंचमी में अइपन चढ़ता है? फिर स्वयं ही अपने आप पर हँसी आ गयी। वह मन ही मन नचारी गुनगुनाने लगती है- “अमिय चूबिय भूमि खसत, बाघम्बर जागत है आहे होयत बाघम्बर बाघ, बसहा धरि खायत है।’’ शिव को पार्वती नृत्य करने को कहती है, शिव अपना ड़र पार्वती से बताते हैं कि उनके नाच से अमृत – बूँदें बाघम्बर पर गिरेंगी, बाघम्बर बाघ बन जाएगा और बसहा बैल को खा जाएगा। विज्ञान के शिव का ताण्डव। अमृत-बूँद से जगा यन्त्र-व्याघ्र गरज रहा है खेतों में। लील गया बैल। लौट पड़ती है केतकी।
“कल चलते हैं न हम लोग?’’ रात को पति से कहा।
“क्यों, तुम तो कुछ और रुकने वाली थीं?’’ पति ने प्रतिप्रश्न किया। “नहीं, चलूँगी।’’
“ठीक है। मुझे क्या एतराज हो सकता है।’’ दूसरे दिन केतकी के जाने की सारी तैयारी हो गयी।
भाई-भाभियों का चरण-स्पर्श कर सूखी आँखों से केतकी गाड़ी में बैठ गयी। रामविलास आगे था, केतकी और उसके पति पीछे। गाड़ी थोड़ी देर में ही हवेली छोड़कर आगे बढ़ गयी। गाँव के पास आ पहुँची केतकी। कंक्रीट की ऊँची सड़क के किनारे मिट्टी के टीले पर बसा जाना-पहचाना गाँव। ऊखल-मूसल चलाती औरतें। अधनंगे बच्चे, नाक बहाते बच्चे, गाय-बैलें।
“रामविलास भैया, गाड़ी रोकिए न!’’ केतकी उतावली होकर कह उठी। गाड़ी रोककर रामविलास पीछे देखने लगा। “गोड़ लागू पैंया पड़ भैया रे कहरिया पल एक दियउ बिलमाय।’’
“मैं जरा गांव में जाऊँगी।’’ वह झट से उतरकर सड़क से जुड़ी पगड़ण्डी से उतर गयी। पीछे-पीछे रामविलास मुस्कुराता हुआ चला। पहला ही घर तो सबुजनी दीदी का है। सामने खजूर की चटाई पर बैठी थी सबुजनी। “के है?’’ मोतियाबिन्द उतरी आँखों पर तलहथी देकर देखने लगी।
“दीदी, मुझको नहीं पहचाना?’’
“दीदी, केतकी है।’’ पीछे से आगे आकर रामविलास ने कहा, “जरा भी नहीं बदली।’’ केतकी के मन में तूफान उठ खड़ा हुआ। इन्हीं से मिलने तो वह आयी थी, इन्हीं के लिए मन व्याकुल था।
“बाबू, कतिकी समीर बौआ के बेटा के जनउ में आयी है?’’ केतकी बोल नहीं पा रही थी। रामविलास ने ही कहा, “हाँ, अभी लौटकर जा रही है।’’
सबुजनी के गोरे झुर्रीदार चेहरे पर हर्ष की लहर दौड़ गयी। “अच्छा हुआ, गाम-समाज को देखने आ गयी। तू बिना माँ की बेटी हम सबकी बेटी। अरे, कहाँ गयी सुलेमान की कनिया, जरा सोना-सिन्दूर ले आ, केतकी की मांग भर। एक चुटकी धान-दूब ले आ, खोइँछा भर दे।’’
भीड़ जैसा समा हो गया था। एक बहू दौड़कर अन्दर से सारा सामान ले आयी। भाभी तो खोइँछा देना भी भूल गयी थीं। रेशमी आँचल की खूँट आप-से-आप खुल गयी। दूब-धान के लिए मन उदास था।
“मेहमान कहाँ हैं बेटी!’’ सबुजनी ने पूछा।
“गाड़ी में हैं।’’
अब रामविलास चिढ़ने लगा था- “ट्रेन छूट जाएगी।’’
“अच्छा-अच्छा। जैनबी, जा, तूने जो नया-सीकी का पौती बुना है, ले आ।’’ “और सुन, गिलास माँजकर पानी और गुड़-भेली भी ले आ।’’ कमर से निकालकर दो रुपये का लाल मुड़ा-तुड़ा नोट पौती में बन्द कर केतकी के हाथों में थमा दिया। “यह मेहमान का सलामी है, दे देना। गुड़ खा ले बेटा, पानी पी ले। जरा ठीक से। हाँ, जा, गाड़ी को देर हो रही है। देख लिया तुझे, सुख-चैन से मरूँगी।’’ आगे बढ़कर सबुजनी गले मिलने को हुई कि उद्भ्रान्त-सी केतकी ने सिर टेक दिया और इतने दिनों का जमा आँसुओं का बाँध टूट पड़ा। सबुजनी हौले-हौले पीठ सहलाती जा रही थी। “रो ले, बेटी, रो ले, मन में कुछ न रखना, कहा-सुना छिमा करना, गाँव-जवार को असीसती जाना।’’
“लाल रंग डोलिया सबुज रंग ओहरिया आब बेटी जाइ छुइ बिदेस।’’ केतकी बड़ी मुश्किल से अलग हुई। खूँट में बँधे चुटकी भर दूब-धान को मुट्ठियों में भींचे पगड़ण्डी पार करने लगी।