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  • समीर उपाध्याय ‘ललित’

भगवान श्रीकृष्ण ने ‘श्रीमद् भगवद् गीता’ में

जीवन जीने की कला को

योग के माध्यम से बताया है।

वास्तव में ‘श्रीमद् भगवद् गीता’

अपने आप में योग है

जिसके दूसरे अध्याय में

योग की परिभाषा देते हुए कहा गया है-

“समत्वम् योग उच्यते।”

अर्थात् समता ही योग है।

 

जिंदगी भर हम

राग-द्वेष, प्रेम-घृणा, जय-पराजय

एवं भोग-विलास के

चक्कर में पड़कर कभी सुख व कभी दु:ख का

अनुभव करते हैं।

सांसारिक पदार्थों में प्रवृत्त होने की

हममें जितनी शक्ति होती है

उतनी ही उनसे निवृत होने की भी शक्ति होती है

उसे संतुलन एवं समत्व की अवस्था कहते हैं।

यही योग है।

 

सुख हो या दु:ख

हमेशा संतुलन बनाए रखें।

खुशी मे इतने ज्यादा खुश न हो जाएं कि

खुशी के प्रति आसक्त हो जाएं और

दु:ख आने पर इतने दु:खी न हो जाएं कि

जीवन जीना दुश्वार हो जाए।

हमें ‘अति’ से बचना है।

अपने नित्य रूप में अचल रहें।

सदा मुस्कुराते रहें।

भगवान श्रीकृष्ण हर विषम परिस्थिति में भी

सदा हंसते रहे है।

बस, यही है-“समत्वम् योग उच्यते।”

मन, विचार और कर्म पर नियंत्रण हो।

बस, यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि कोई

हमें जानबूझकर उकसाने का प्रयत्न करें तो

बेहतर यही है कि

शांत सरोवर बन जाएं

और कुछ पल के लिए मौन व्रत धारण कर ले।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि कोई

हम पर व्यंग्य के कटु बाणों से प्रहार करें तो

बेहतर यही है कि

चेहरे पर हंसी बनाएं रखें

और मधुर वचनों का प्रयोग करें।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

क्रोध का आवेग हम पर

हावी होने का प्रयास करें तो

बेहतर यही है कि

मन को शांत रख कर

आवेग अनुभवजन्य परिस्थिति में

जाना ही छोड़ दे।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

किसी व्यक्ति के प्रति हमारे मन में

द्वेष पैदा होता है तो

बेहतर यही है कि

द्वेष उस व्यक्ति के प्रति नहीं,

अपितु उसके दुर्गुणों से करें।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी हमें आशातीत सफलता की

अचानक प्राप्ति हो जाए तो

बेहतर यही है कि

अहम् को तिरोहित कर

सफ़लता को पचाने का प्रयास करें।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी हमें कल्पनातीत पराजय की

स्थिति का सामना करना पड़े तो

बेहतर यही है कि

दु:खी होने के बदले

पराजय के कारणों को ढूंढने का प्रयास करें।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी हमारे आत्जमन की

अचानक मृत्यु हो जाए तो

बेहतर यही है कि

शोक करने के बदले

इस सूत्र का स्वीकार करें-

“मृत्यु जीवन का सत्य है।”

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी हमारा प्रियजन

हमें छोड़कर चला जाए तो

बेहतर यही है कि

गुमनामी के अंधेरे में खो जाने के बदले

यही मानकर चलें-

“जो हुआ सो अच्छा हुआ।”

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी हमारा विश्वास-पात्र व्यक्ति

हमारे साथ विश्वासघात करें तो

बेहतर यही है कि

प्रतिशोध की ज्वाला में जलने के बदले

आगे सोच समझकर विश्वास करें।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी बीती हुई बातें

हमें विचलित करने का प्रयास करें तो

बेहतर यही है कि

स्थितप्रज्ञ हो जाएं

और यही मानकर चलें-

“जो बीत गई सो बात गई।”

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी हम फल-प्राप्ति की आशा के साथ

कर्मरत रहते हैं तो

बेहतर यही है कि

निष्काम भाव से कर्म करें,

क्योंकि इसमें यश-अपयश की

कोई चिंता नहीं रहती।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी निषेधक घटनाएं

हमें उद्वेलित करने का प्रयास करें तो

बेहतर यही है कि

उन निषेधक घटनाओं का

सकारात्मक दृष्टिकोण से मूल्यांकन करें।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी कोई चौका देने वाली ख़बर

या समाचार मिले तो

बेहतर यही है कि

उस घटना का सम्यक् दर्शन करें

और उसके प्रति सम्यक् व्यवहार करें।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी नीरसता महसूस होने लगे तो

बेहतर यही है कि

किसी रसपूर्ण प्रवृत्ति में व्यस्त रहें

और अपनी सृजनात्मकता को नया आयाम दे।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

जीवन में यदि

कभी अपने व्यवसाय से निवृत्त हो जाएं

और फुर्सत का पूरा समय मिले तो

बेहतर यही है कि

निश्चल मन से, नि:स्वार्थ भाव से

समाज सेवा के कार्य में लग जाए।

यही है- “समत्वम् योग उच्यते।”

 

संतुलन ही योग है।

समता ही योग है।

समता ही ब्रह्म का साक्षात् स्वरूप है।

समता में स्थित साधक

जीवित अवस्था में ही संसार को जीत लेता है।

 

  • मनहर पार्क: 96/ए, चोटिला: 363520

जिला: सुरेंद्रनगर (गुजरात) 92657 17398

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नोट : चित्र कॉपीराइट – मुस्कान गुप्ता 

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