– अम्बालिका ‘फूल’
ऐ प्यार… तू कैसा होता है रे !
सदियों से एक राब्ता..
एक जिक्र जो चला आ रहा…
वो जो कभी खत्म नहीं होता
या, वो जो हमेशा अधूरा रह जाता है…
एक राब्ता … मोहब्बत का…
कैसा होता है रे..!
वो अदा जाने कैसी होती है
जो नज़रें झुकाने से आती है,
वो अंदाज़ जाने कैसी होती है
जो दिल को बहकाती है ।
वो मदमाता नशा… कैसा होता है रे !
हीर की मोहब्बत… मजनूं का इश्क़
गर था तो कैसा था..?
वो जो सबको तड़पा गयी
… मिल कर भी जुदा कर गयी
वो इश्क़… आख़िर किसकी हुई ?
मैं भी तो दीवानी हूँ तेरी
तुझे ढूंढते … मौत तक आ गई
हर पल तेरा इंतज़ार किया
तेरी राहों पर खड़ी… किसी की न हुई,
देख न…
कैसे खुद से भी जुदा हुई।
पर तुझे क्या… है न…
भला तू चाहता क्या है रे !
अच्छा, चल ये तो बता
कैसे मिलते हैं ये हमराही ?
प्यार… गर तू है कहीं…
तो सुन ये भी…
दर्द तू भले ही बेइंतहा दे
पर दीवाने कभी मरेंगे नहीं।
तेरा बेगानापन… तेरी बेरुखी…
तेरी बेखुदी… तेरी आशिक़ी,
इस कायनात से जायेगी कहाँ ?
हाँ इख़्तियार है मुझे… तू है…
बस इतना बता तेरा वज़ूद कहाँ है…
ज़िन्दगी दफ़न हो गयी…
तू एक राज़ ही रह गया।
मौत ढ़ो रही हूँ कबसे,
तू इसे कब्र क्यों नहीं देता रे…??
ये प्यार –
तू होता कैसा है रे…
आख़िर… तू मिलता कब है रे ..!!