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🔷 परिचर्चा ♦️ प्रस्तुति : सिद्धेश्वर 🌀

हिंदी ग़ज़ल की लोकप्रियता और समकालीन कविता

🌀 उर्दू गजल यानी परंपरागत गजल के लिए समकालीन हिंदी गजल एक वरदान है l औऱ यह वरदान दिया है हिंदी गजल को लोकप्रिय बनाने वाले कवि दुष्यंत कुमार ने l
यह सर्वविदित है कि दुष्यंत कुमार के पहले हिंदी गजल कि वह तल्खीपानी और विषयगत नवीनता देखने को शायद ही मिली हो l हालांकि गोपालदास नीरज की गीतिका को गजल की लोकप्रियता का एक अलग पैमाना माना जा सकता है l किन्तु विशुद्ध हिंदी गजल की जो बानगी दुष्यंत कुमार की गजलों में देखने को मिलती है, वह प्रायः हिंदी गजलों के इतिहास में दुर्लभ है l
हिंदी गजल की लोकप्रियता का सबसे बड़ा पैमाना यह है कि हमारे देश में साहित्य का अध्ययन करने वाले अधिकांश पाठक हिंदी भाषी हैं, जिन्हें भारतीयअन्य भाषाओं के ज्ञान का प्रतिशत बहुत कम है l
हम सिर्फ गजलों की बात करें तो दुष्यंत कुमार के पहले हिंदी ग़ज़ल कहने की हिमायत बहुत कम कवियों के पास था l प्रयोग़धर्मी कवि भी यह मानकर चलते थे कि गजल उर्दू भाषी विधा है औऱ इसे विशुद्ध हिंदी में नहीं कही जा सकती l
वैसे तो हिंदी भाषा में बहुत सारे शब्द उर्दू मिश्रित हैं किंतु जिस तरह स्टेशन,प्लेटफार्म, गिलास आदि कई अंग्रेजी शब्द हिंदी में घुल मिल गए हैं, ठीक उसी तरह ख्वाब, इश्क, हकीकत आदि जैसे कई उर्दू शब्द हैँ जो हिंदी के साथ घुल मिल गए हैं l
हिंदी की बोलचाल की भाषा में घुल मिल जाने के कारण उसे समझने में अधिकांश लोगों को कठिनाई नहीं होती! लेकिन अधिकांश उर्दू के शब्द जैसे मुसम्मन, मुतकारिब, मसललूब, सदमात, सरखुशी,मुफलिसी, रिदाएं आदि ऐसे उर्दू शब्द है जिन्हें हमारे देश की 80% जनता नहीं समझ सकती l जबकि ऐसे उर्दू शब्द ही उर्दू गजल की जान होती है, उर्दू गजल की पहचान होती है l
शायद यही कारण था कि उर्दू गज़लों के अधिकांश पाठक उर्दू भाषी रहे हैं, हिंदी भाषी नहीं l हिंदी भाषियों में प्रबुद्ध वर्ग उर्दू ग़ज़लें पढ़ता भी है तो उसके लिए शब्दकोश की जरूरत पड़ती है l कभी-कभी तो ऐसी गज़लों को मंच पर प्रस्तुत करने के समय शायरों को उर्दू शब्द का अर्थ भी बतलाने क़े लिए विवश होना पड़ता है l
अस्सी प्रतिशत हिंदी भाषीयों की इसी विवशता को ध्यान में रखकर दुष्यंत कुमार ने आम जन की भाषा यानि शुद्ध हिंदी भाषा में गजल कहने की परंपरा की शुरुआत की l इसके पहले भी कुछ हिंदी गजल लिखी गई, किंतु जो लोकप्रियता हिंदी गजल को दुष्यंत कुमार के माध्यम से मिली, वह अद्भुत है l इसलिए दुष्यंत कुमार को हिंदी गजल के प्रयोगधर्मी कवि कहते हैं l
कविता के इसी दौर में कविता सबसे अधिक घायल भी हुई,उन कवियों के द्वारा, जिन्होंने निराला का उदाहरण लेकर,कविता के नाम पर सपाटबयानी लिखना शुरु कर दिया l औऱ रातो रात कवियों की बढ़ रही संख्या में शामिल होते चले गए l नतीजा यह हुआ कि ऐसी सपाटबयानी और पहेलीनुमा बौद्धिक कविता से आम पाठक कटने लगे और छंदमुक्त कविता से अपनी दूरी बढ़ाने लगे l समीक्षकों आलोचकों ने उनकी अपठनिय बौद्धिक कविताओं को भी अपने सर आंखों पर जरूर बिठाया, किंतु ऐसे कवियों को आम पाठकों से जोड़ने में सफल ना हो सकें l
नतीजा आज हम सबके सामने है ! ऐसी सपाटबयानी करने वाले कवि साहित्य की मुख्यधारा में होकर भी सिर्फ पुस्तकालयों की शोभा बनकर रह गए l और उनकी जगह को भरने की ईमानदार कोशिश करने लगे वे कविगण ,जो कविता पर आए इस संकट और खतरे को समय रहते महसूस कर अपने लेखन सृजन का तेवर ही बदल लिए l
ढेर सारे ऐसे कवि आज हमारे सामने हैं,,जिन्होंने सपाटबयानी कविता से मुख मोड़ कर, गीत, गजल और नज़्म लिखने की ओर अचानक मुड़ गए l सच पूछिए तो ऐसे कवि ही कविता की ओर फिर पाठकों की वापसी का रास्ता खोल दिए हैं l
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♦️ डॉ शरद नारायण खरे

हिंदी ग़ज़ल में कविता का फ्लेवर ही नज़र आता है-प्रो.शरद नारायण खरे
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उर्दू ग़ज़ल बेहद कठिन होने से आम आदमी की समझ के बाहर होती है। समझ में न आ पाने वाले जटिल उर्दू शब्दों से परिपूर्ण उर्दू ग़ज़ल काफी दुरूह होती है।इसी लिए हिंदी ग़ज़ल का उद्भव हुआ।हिंदी ग़ज़ल अपनी सरसता,सरलता, मधुरता व प्रवाह के कारण पाठक को न केवल समझने में आसान होती है, बल्कि पाठक को प्रभावित भी करती है।हिंदी ग़ज़ल में हिंदी कविता जैसा ही माधुर्य होता है।
इस समय नई कविता/समकालीन कविता/अतुकांत कविता के नाम पर ऊलजलूल कुछ भी लिखा जा रहा है।यह लेखन न सृजन है,न ही साहित्य।ऐसी रचनाएं निरर्थक ही प्रतीत होती हैं।

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♦️🔷 ऋचा वर्मा

🌀 कवि सुमित्रानंदन पंत ने कविता के विषय में कहा है कि
“वियोगी होगा पहला कवि, आह से उपजा होगा गान,
निकल कर आंखों से चुपचाप बही होगी कविता अनजान।’
और फिराक गोरखपुरी ने कहा कि कंठ से जो दर्द भरी आह निकली है वही ग़ज़ल है।
वहीं मुनव्वर राना ने कहा,
“लिपट जाता हूं मां से और मौसी मुस्कुराती है
मैं उर्दू में ग़ज़ल कहता हूं हिंदी मुस्कुराती है’
ऊपर के ये तीनों शेर आज के दिए गए विषय को बहुत अच्छे से परिभाषित करतें हैं।
गजल एक ऐसी विधा है जो हर खासो आम को अपनी कहन के चलते आकर्षित करती है ।
इसका मुख्य कारण यह है कि शुरुआत से ही गजल इंसानी जज्बातों और खासकर इश्क मोहब्बत के जज्बातों को लेकर कही जाती है।
यह बात जरूर है कि ग़ज़ल अरबी फारसी और उर्दू से होते हुए आज हिंदी भाषा में भी इसने अपना एक अहम स्थान बना लिया है। गजल की भाषा नहीं बल्कि इसकी मिजाज में भी उत्तरोत्तर बहुत बदलाव आया है । पहले जहां गजल के
विषय इश्क मोहब्बत ही हुआ करते थे वहां आज समसामयिक विषय जैसे कि राजनीति, भ्रष्टाचार अन्य सामाजिक मुद्दों पर भी गजलें कही जाती हैं। अब यह कहन हिंदी में हो या उर्दू में ,क्या फर्क पड़ता है। एक भाषा हमारी मां है एक हमारी मौसी ,मौसी यानी मा सी । फर्क तो पड़ता है उसके अंदर छुपे जज्बातों से उसमें कही गई बातों से। वरना दुष्यंत कुमार की गजलें आज मुहावरों का रूप नहीं लेतीं lभला हम सब में से किसने कभी नहीं कहा होगा,
“कौन कहता है आसमाँ में सुराख नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारों”
हां ,लेकिन जब हम गजल और कविता में तुलना करने लगते हैं तो एक बात हमें ध्यान रखनी चाहिए कि छंद मुक्त और मुक्त छंद की कविताएं प्रचलन में आ जाने के कारण गजल और कविता में एक स्पष्ट अंतर नजर आता है । जहां मुक्त छंद, छंद मुक्त कविताओं में कोई नियम या अनुशासन नहीं होता वही गजल में हमेशा ही एक अनुशासन होता है छंदों का काफिया का , मीटर का।
समकालीन कविताएं कभी-कभी इतनी बोझिल हो जाती हैं कि पाठकों के समझ नहीं आती ना इन में भाव होते हैं ना गेयता ,बस ये सब उस पहेली की तरह होती है जो कुछ बुद्धिजीवियों द्वारा ही सुलझाई जा सकतीं हैं। वहीं गजल अपने अंदाज -ए -बयां के चलते लोगों में खासकर युवा पीढ़ी में काफी लोकप्रिय है। ऐसे समय में गजल चाहे वह हिंदी में हो चाहे उर्दू में दोनों की प्रासंगिकता एक समान है जिन लोगों की उर्दू भाषा पर उतनी पकड़ नहीं है, वे लोग देवनागरी लिपि में हिंदी में गजलें कहते हैं तो इसमें क्या बुराई है। हिंदी कविता अगर लोकमानस पर अपेक्षित प्रभाव नहीं जमा पाती तो हिंदी के कवि भी गजलों की ओर रुख करते हैं क्योंकि अगर गजलों में रवानी है और उनके विषय हमारे दिल को छू जाते हैं, तो वे हमें अर्से तक याद रहते हैं। गजलकारों के अलावा श्रोता या पाठक हिंदी ग़ज़ल को इसलिए पसंद करते हैं कि उनमें हिंदी या उर्दू के जिन शब्दों का उपयोग किया जाता है वे शब्द लोगों के समझ में जल्द आ जातें है। गजल का एक रिश्ता संगीत और तरन्नुम से भी है और संगीत तो एक बीमार व्यक्ति को भी स्वस्थ करने की क्षमता रखता है। आज लोग भले ही गजल को किताब में पढ़ना पसंद ना करते हो पर गजल सुनने का शौक हर उस व्यक्ति का होता है जिसका हृदय संवेदनशील होता है। इसलिए हिंदी ग़ज़ल आज उतनी ही प्रासंगिक और लोकप्रिय हैं जितनी लोकप्रिय आज भी हरिवंश राय बच्चन की मधुशाला है।
सावन का महीना है और आज का विषय गजल है तो मैं अपनी बात नीरज की गजल जो कि हिंदी भाषा में है की दो पंक्तियों से समाप्त करती हूं
‘जब चले जाएंगे हम लौट के सावन की तरह
याद आएंगे प्रथम प्यार की चुंबन की तरह’

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🔷 डॉ सविता सिंह नेपाली
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संगीत की दुनिया में शास्त्रीय संगीत, लोक संगीत, सुगम संगीत इत्यादि के अलावा ग़ज़ल का भी विशेष महत्व सदा से ही रहा है । इसके श्रोता भी बहुत विशिष्ट हैं । संगीत और साहित्य में गहरा संबंध हैं । शब्दों का प्रभाव और संगीत की मिठास से तन मन में एक तरंंगे झंकृत होने लगती हैं । व्यक्ति का मस्तिष्क तरोताज़ा हो जाता है । अब तो वृक्षों को संगीत सुनाकर तथा जानवरों को संगीत सुनाकर उन्हें विकसित किया जाता है ।ताकि ये सबकी आवश्यकता अधिक से अधिक पुरी कर सकें।
समकालीन कविता की बोझिलता बहुत हद तक हिंदी गजल ने दूर कर दिया है l हिंदी ग़ज़ल आम जन की भाषा में अभिव्यक्त होती है, इसलिए वह कविता की सबसे सशक्त विधा बन गई है l वह सहज सरल तो है ही आमजन के हृदय को छू लेने की क्षमता भी रखती है l साहित्य अपने विकास की रास्ता स्वयं ढूंढ लेती है l पत्र -पत्रिका कम पड़ने लगी तब सोशल मीडिया ने इसे विस्तार दिया है, और वैश्विक फलक पर साहित्य का मूल्यांकन आज भी हो रहा है!

♦ (सिद्धेश्वर का पता):
0 सिद्धेश्वर,”सिद्धेश् सदन” अवसर प्रकाशन, (किड्स कार्मल स्कूल के बाएं) / द्वारिकापुरी रोड नंबर:०2, पोस्ट: बीएचसी, हनुमाननगर ,कंकड़बाग ,पटना 800026 (बिहार )मोबाइल :92347 60365 ईमेल:[email protected]

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